________________
बीकानेर के व्याख्यान]
[५१
कवि परमात्मा के सामने अपनी आलोचना करता हुआ कहता है-प्रभो ! मैं आपकी शरण श्रआया हूँ। मेरी रक्षा करो। मैं ने अपने सगे-संबंधियों को पाहुने बनाकर जिमाने की बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की । तरह-तरह के व्यंजन और मिष्टान्न तैयार करवाए । वे जीमने बैठे । जीमते-जीमते तृप्त हो गए और कहने लगे-बस, अब मत परोसिये । अब एक कौर भी नहीं निगल सकता । लेकिन बड़प्पन के मद में छक . कर मैं नहीं माना । थोड़ा और खाने का आग्रह किया । न माने तो जबर्दस्ती करके थाल में भोजन डाल दिया । फिर मुँह में पकड़ कर खिलाया । उसी समय नुधा से पीड़ित व्यक्ति मेरे द्वार पर आया । भूख से उसकी आँखें निकल रही थीं, बिना मांस के हाड़ों का पीजरा सरीखा उसका शरीर दिखाई देता था । जिस समय सगे-संबंधी भोजन परोसने के लिए मना कर रहे थे और मैं जबर्दस्ती उन्हें परोसने में लगा था, ठीक उसी समय वह भूखा द्वार पर आया। उसने कहा-मेरे प्राण अन्न के अभाव में भूख के मारे जा रहे हैं अगर थोड़ा भोजन हो तो दे दो।' परन्तु हाय मेरी कठोरता! मैं ने टुकड़ा भी देने की भावना नहीं की और सगे-संबंधी के गले लूंसने में ही व्यस्त रहा ।
मित्रो ! कवि ने अपने पाप काप्रदर्शन किया है और ऐसा करके उसने अपने पाप को हल्का कर लिया है, ऐसा समझ
लेना उपयुक्त नहीं होगा । कवि जनता की भावनाओं का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com