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[जवाहर-किरणावली
गुरु की बात सुनकर माँ ने पूछा-माता-पिता का उपकार पुत्र पर है या पुत्र का उपकार माता-पिता पर है ?
गुरु ने ठाणांगसूत्र निकाल कर बतलाया और कहा-बेटा अपने माता-पिता के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता, चाहे वह कितनी ही सेवा करे !
गुरु की बात सुनकर पुत्र अपनी माता से कहने लगादेख तो, शास्त्र में यही लिखा है न कि सेवा करके पुत्र, मातापिता के उपकार से मुक्त नहीं होता ! फिर सेवा करने से क्या लाभ है ?
पुत्र ने जो निष्कर्ष निकाला, उसे सुनकर गुरु बोले-मूर्ख, माता का उपकार अनन्त है और पुत्र की सेवा परिमित है। इस कारण वह उपकार से मुक्त नहीं हो सकता । पावनेदार जब कर्जदार के घर तकाज़ा करने जावे तब उसका सत्कार करना तो शिष्टाचार मात्र है। उस सत्कार से ऋण नहीं पट सकता । इसी प्रकार माता-पिता की सेवा करना शिष्टा-- चार है । इतना करने मात्र से पुत्र उनके उपकारों से मुक्त नहीं हो सकता । पर इससे यह मतलब नहीं निकलता कि माता-पिता की सेवा ही नहीं करनी चाहिए। अपने धर्म का विचार करके पुत्र को माता-पिता की सेवा करना ही चाहिए । माता-पिता ने अपने धर्म का विचार कर तेरा पालन-पोषण किया है। नहीं तो क्या ऐसे माता-पिता नहीं मिल सकते
जो अपनी संतान के प्राण ले लेते हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com