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[ जवाहर - किरणावली
मृत्यु की ओर से निर्भय है ! इसके विचार कितने उच्च हैं !
देव ने फिर कहा- भाई, उद्योग करना तो अच्छा है, मगर उसके फल का भी तो विचार कर लेना चाहिए। फल की प्राप्ति की संभावना न हो तो उद्योग करना वृथा हैं ।
महाजातक - मैं फल देखकर ही उद्योग कर रहा हूँ । उद्योग का पहला फल तो यही है कि मुझे जो शक्ति मिली है, उसका उपयोग कर रहा हूँ । दूसरा फल आपका मिलना है । अगर मैं जहाज के साथ ही डूब मरता तो आपके दर्शन कैसे होते ? मैंने साहस किया, उद्योग किया तो आप मिले । ऐसी दशा में मेरा श्रम क्या वृथा है ?
महाजातक का उत्तर सुनकर देव बहुत प्रसन्न हुआ । उसने कहा- तुमने मुझसे बचा लेने की प्रार्थना क्यों नहीं की?
महाज तक मैं जानता हूँ कि देवता कभी प्रार्थना करवाने की गरज़ नहीं रखते । उद्योग में लगे रहने से मेरा मन प्रसन्न है और यही देवता की प्रार्थना है । जिसका मन प्रसन्न और निर्विकार होगा उस पर देवता स्वयं प्रसन्न होंगे । इसके अतिरिक्त मेरे प्रार्थना करने पर अगर आप मुझे बच्चाएँगे तो आपके कर्त्तव्य का गौरव कम हो जायगा । विना प्रार्थना के आप मेरा उपकार करेंगे तो उस उपकार का मूल्य बढ़ जायगा । मैं आपके कर्त्तव्य की महत्ता को कम नहीं करना चाहता और न यही चाहता हूँ कि आपके उपकार का मूल्य कम हो जाय ।
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