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[जवाहर-किरणावली
धीरे करो । पापों के परित्याग के पथ पर एक कदम भी जो चलेगा और उसी पथ पर आगे बढ़े चलने की भावना रक्खेगा वह एक दिन अपनी मंज़िल पूरी कर लेगा। मगर ऐसे काम तो सर्वप्रथम त्यागने योग्य हैं जिनसे मनुष्यों का घात होता हो। ऐसा मत करो कि पराया भोजन छीनकर आप मौज़ करें और वह बेचारा भूखा मरे। ज्यादा कुछ न कर सको तो कम से कम परोपकार को तो पाप मत मानो ! आवश्यकता से अधिक संग्रह तो न करो । इस बात को मत भूलो कि अन्ततः धन-दोलत काम नहीं आयगी। शास्त्र में कहा है
वित्तंण ताणं न लभे पमत्त । अर्थात्-प्रमादशील पुरुष धन-दौलत के द्वारा अपना बचाव नहीं कर सकता।
मत भूलो कि आज जो लखपती है, वही कल कंगाल हो जाता है। फिर परोपकार करने में क्यों कृपण बनते हो ? कृपणता करके बचाया हुआ धन साथ नहीं जायगा, किन्तु कृपणता के द्वारा लगने वाला पाप साथ जायगा। यह जानते हुए भी लोग जब खर्च में कमी करना चाहते हैं तो सब से पहले परोपकार के ही काम बंद करते हैं।
मित्रो ! यह परमात्माप्राप्ति का मार्ग नहीं है । उदार हृदय से, शुद्ध बुद्धि से और निर्मल मस्तिष्क से परमात्मा के आदेशों को समझो और पालन करो। ऐसा करने से आप परमात्मा के ही समान बन जाएँगे।
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