Book Title: Jawahar Kirnawali 19 Bikaner ke Vyakhyan
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Jawahar Vidyapith

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Page 396
________________ बीकानेर के व्याख्यान ] [३८७ ले तो मैत्रीभावना की आराधना उसके लिए कठिन नहीं है। गृहस्थ को गृहस्थ की भांति, साधु को साधु के समान और वीतराग को वीतराग की तरह मैत्रीभावना रखनी होती है। राजा राज्य करते हुए भी मैत्रीभावना का पालन कर सकता है। कहा जा सकता है कि राजा किसी को फाँसी देता है और किसी को जागीर देता है। तब उसमें मैत्रीभावना कहाँ रही? लेकिन राजा फाँसी देते और जागीर देते समय यह समझता है कि मैं प्रजा का मित्र हूँ, प्रजा की सेवा करना, रक्षा करना और इस प्रकार अपने राजधर्म का पालन करना ही मेरा कर्तव्य है। मैं किसी को दण्ड देता हूँ और किसी का सत्कार करता हूँ, मगर यह सब मित्र बनकर ही करता हूँ, शत्रु बनकर नहीं। किसी के प्रति मेरे अन्तःकरण में पक्षपात नहीं है, शत्रुता नहीं है, द्वेषभाव नहीं है। फिर ऐसा कौन-सा पुण्यमय दिवस होगा जब मैं इस कर्तव्य का भी त्याग करके इससे भी बहुत ऊँची श्रेणी के कर्तव्य का पालन करने में समर्थ हो सकूँगा । हे प्रभो ! मेरे हृदय में ऐसा भाव भर दो कि मैं किसी के प्रति अन्याय न करूँ। राजसत्ता का मद मेरे मन को मलिन न होने दे। मैं प्रजा की सुख-शांति के लिए अपने स्वार्थों को त्यागने के लिए सदैव उद्यत रहूँ। इस प्रकार की निष्पक्ष और उदार भावना से जो राजा राज्य करेगा वह अवश्य ही मैत्रीभावना का अधिकारी हो सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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