________________
बीकानेर के व्याख्यान ]
[३८५
...---
--.-...
---
-------- - -
- -
-
है तो मनुष्य के दिमाग से उपजने वाला कोई भी कृत्रिम पदार्थ उसकी बराबरी कैसे कर सकता है ?
भगवान् का स्वरूप कितना सुन्दर और मनोरम है, यह बात इस काव्य से भलीभाँति मालूम हो जाती है। उस सौन्दर्य को परखने के लिए दृष्टि निर्मल होनी चाहिए । निर्मल दृष्टि से और साथ ही स्वच्छ अन्तःकरण से अगर आप परमात्मा के स्वरूप पर विचार करेंगे तो संसार के पदार्थ श्राप को निस्सार प्रतीत हुए विना नहीं रह सकते। इसलिए मेरा कथन है कि पक्षपात की दृष्टि दूर करके ईश्वरीय प्रेम को अपनाओ । ईश्वरीय प्रेम को अपनाने के लिए चार उपाय हैं
और वे कामधेनु के समान हैं। इनमें पहली मैत्रीभावना दूसरी प्रमोद भावना, तीसरी करुणाभावना और चौथी मध्यस्थभावना है।
मैत्री भावना का अर्थ चूरमा खाने-खिलाने वाले मित्र बनाना नहीं है । संसार में ऐसे भी मित्र होते हैं जिनके विषय में यह कहा गया है कि
पात्रो मियांजी खाना खाओ, करो विसमिल्खा हाथ धुलाश्रो। पाश्री मियांजी छप्पर उठाओ,
हम बुड्ढे कोई ज्वान बुलायो॥ इस प्रकार की मित्रता वास्तविक मित्रता नहीं है। मित्रता सूर्य के प्रकाश के समान होती है। सूर्य समान रूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com