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[जवाहर-किरणावली
मगर प्रकट रूप में वह ऐसा नहीं कह सका । उसने कहाजिसे अर्जुन ने मांग लिया है उसे मांगने से क्या लाभ ? मांगी हुई चीज़ को फिर मांगना क्षत्रियों का काम नहीं है। अतएव आप अपनी सेना मुझे दे दीजिए ।
कृष्ण बड़े चतुर थे। दुर्योधन की समझ पर मन ही मन वह हँसे और सोचने लगे-दुर्योधन को मुझ पर विश्वास नहीं है, मेरी सेना पर विश्वास है ! आखिर उन्होंने कहाअर्जुन मैं तुम्हारा हूँ और दुर्योधन ! सेना तुम्हारी है।
अर्जुन को कृष्ण पर और दुर्योधन को सेना पर विश्वास था। फल क्या हुआ ? गीता के अन्त में कहा है
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं-आप युद्ध के विषय में क्या पूछते हैं ? यह निश्चित समझिए कि जिस ओर योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर अर्जुन हैं, विजय उसी पक्ष की होगी। विरोधी पक्ष को विजय मिलना असंभव है।
गीता की आलंकारिक भाषा में उलझा रहने वाला यही समझेगा कि गीता लड़ाई के लिए उत्साहित करने वाली पुस्तक है। लेकिन अलंकारों के आवरण को दूर करके उसके तथ्यों को समझने वाला ही उसके मर्म को समझ सकता है । गीता अगर सिर्फ महाभारत युद्ध के लिए ही थी तो अब किस काम की ? और लड़ाई कराने वाली पुस्तक को हाथ
में लेने की आवश्यकता ही क्या है ? मगर बात ऐसी नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com