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बीकानेर के व्याख्यान ]
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चुका है। भगवान् को 'भूतनाथ' भी कहा है। अर्थात् परमात्मा प्राणीमात्र का मालिक है।
अभ्यास करने के लिए एक ही वस्तु काफी होती है। एक ही वस्तु पर विचार करके अभ्यास किया जाय तो यह शंका नहीं रह सकती कि भगवान् दिखाई नहीं देते, उनके गुण हमारी बुद्धि में नहीं आते, ऐसी दशा में हम भगवान् की सेवा कैसे करें और उनके गुणों का अभ्यास कैसे करें ?
भगवान् अरूपी सत्ता हैं, उसे देखे विना उसकी उपासना किस प्रकार हो सकती है, इस तर्क को मिटाने के लिए ईश्वर की मूर्ति बनाकर उसके द्वारा ईश्वर की उपासना करने की पद्धति स्वीकार की है। अव्यक्त का ध्यान करना कठिन है, इस विचार से लोग मूर्ति स्थापित करते हैं। लेकिन मेरा कथन यह है कि जब परमात्मा की मूर्ति बिना बनाये ही मौजूद है तो फिर दूसरी मूर्ति के बदले क्यों नहीं उसी पर अपना लक्ष्य स्थापित करते ? परमात्मा की मूर्ति किस प्रकार विद्यमान है, यह समझ लेना चाहिए ।
ईश्वर मनुष्यदेह में ही हुआ है और मनुष्य आज भी मौजूद हैं। मनुष्यशरीर स्वाभाविक रीति से बनी हुई ईश्वर की प्राकृति है। लाख प्रयत्न करने पर भी कोई कारीगर ऐसी प्राकृति नहीं बना सकता । जव मनुष्य परमात्मा की मूर्ति हैं तो इन्हें देखकर परमात्मा का ध्यान आना चाहिए । सोचना
चाहिए कि यह शरीर वह है जिसमें परमात्मा हुआ था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com