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बीकानेर के व्याख्यान ]
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बदला लेने का विचार नहीं करता । वह सोचता है - यह मेरा अनिष्ट नहीं कर रहा है किन्तु मेरा अदृष्ट ही मुझे सता रहा है । यह मनुष्य जिस क्रोध के वश होकर मुझे पीड़ा पहुँचा रहा है वह क्रोध मेरे अन्तःकरण में आविर्भूत न हो तो मेरे लिए बहुत है । अगर मुझमें भी काम-क्रोध आ गया तो मैं भी भ्रष्ट हो जाऊँगा । अतएव अपने अन्तःकरण में किसी प्रकार का विकार न उत्पन्न होने देना परमात्मा की सच्ची उपासना है ।
जीवनव्यवहार जब अहिंसामय बन जाता है तो काम, क्रोध आदि विकार सहज ही जीते जा सकते हैं । जो पुरुष, मनुष्य को ईश्वर का प्रतिनिधि मानेगा वह उसके प्रति असत्यमय व्यवहार कैसे करेगा ?
चन्दन पड्यो चमार घर, नित उठ चीरे चाम । कह चन्दन ! कैसी भई पड़यो नीचे से काम |
जो चन्दन देवता पर चढ़ाया जाता है, ललाट पर लगाया जाता है और पवित्र कार्यों में, व्यवहृत होता हैं, उस चन्दन का वृक्ष एक चमार के घर था । चमार उस पर चमड़ा सुखाया करता था । किसी ने चन्दन से पूछा- कहो चन्दन, कैसी बीती ! चन्दन ने कहा- जिसके घर रहते हैं, वैसा ही गुण श्रा जाता है !
चन्दन के वृक्ष पर चमार चमड़ा सुखाता है, इससे चन्दन की महिमा नहीं घटी, वरन् चमार की ही महिमा घटी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com