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[ जवाहर-किरणावली
जिसका अन्तःकरण दया से द्रवित रहता है वह कभी अनुचित संग्रह नहीं करेगा। वह दूसरों का भाग हड़पने की । चेष्टा से संदा घृणा करेगा। दूसरे को दुखी करके आप मोटा बनने की इच्छा नहीं करेगा। ____ जहाँ परिग्रह है वहाँ आरंभ है। बहुतेरे परिग्रहशील व्यक्ति इतना अमर्याद संग्रह करते हैं कि वह संग्रह न उनके काम आता है, न दूसरों के काम आ पाता है। हृदय में अहिंसा या करुणा न होने के कारण ही लोग चाहते हैं कि मैं ही सब का मालिक बना रहूँ। दूसरे मरते हैं तो मरें। उन्हें मरने वालों की परवाह नहीं।
मनुष्य. दूसरे मनुष्यों का ही हिस्सा छीनकर संग्रह करता है और दूसरों के प्रति दया न होने के कारण ही संग्रह करता है। इसी कारण महात्मा पुरुष पूर्ण रूप से निष्परिग्रह बन कर जंगल में जाकर तप करते हैं और वह तप भी कितना कठार ! कहा है
शीत पड़े कपि-मद भरे, दामै सब वनराय । ताल तरंगिनि के निकट ठाड़े ध्यान लगाय ।
वे गुरु मेरे मन बसो तारण तरण जहाज || जिस महानुभाव के चित्त में ईश्वर का दिव्य स्वरूप बस जाता है, जो दया से भूषित है, अहिंसा की भावना से जिस का हृदय उन्नत है, वह कभी किसी प्राणी का अनिष्ट नहीं करता । अगर कोई उसका अनिष्ट करता है तो भी वह उससे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com