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[ जवाहर-किरणावली
कती रही, मगर दूसरा मार्ग न मिलने से उसने वेश्यावृत्ति अंगीकार कर ली। कहा है
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः । जो एक बार विवेक से भ्रष्ट हो जाता है उसका पतन होता ही चला जाता है। कोई भी स्त्री जब पतित होती है
और उसकी पवित्रता मलीनता के रूप में परिणत हो जाती है तो फिर उसके पतन का ठिकाना नहीं रहता । वेश्या के संबंध में भी यही बात है। वेश्या किन-किन नीच कार्यों में प्रवृत्ति नहीं करती, यह कहना कठिन है। इस वेश्या ने भी किसी धनिक को अपने चंगुल में फांस लिया और धन के लोभ में पड़कर उसे मार डाला। पुलिस ने पता लगा लिया और वेश्या अदालत में पेश की गई। संयोगवश उस अदालत का न्यायाधीश वही टाल्सटाय था, जिसने उसे भ्रष्ट किया था
और जिसकी बदौलत उसे वेश्यावृत्ति स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा था। वेश्या ने तो उसे नहीं पहचान पाया, मगर वह वेश्या को पहचान गया । टाल्सटाय ने उस वेश्या को धैर्य बन्धाकर हत्या के विषय में पूछा। वेश्या ने हत्या करने का अपराध स्वीकार करते हुए कहा-'मुझे एक पापी ने धन का लोभ देकर भ्रष्ट किया। उस समय मैं अबोध थी और उस पाप के परिणाम को नहीं समझ सकी थी। इसी कारण मैं उसके चंगुल में आ गई। मैं गर्भवती हुई। घर से निकाली गई। निरुपाय होकर मैंने वेश्यावृत्ति स्वीकार कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com