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बीकानेर के व्याख्यान ]
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इसी समय छुरी पैनी करके सुबुकुतगीन लौट आया । बच्चे की मां हिरनी यहां भी उसके पास आ पहुँची है, यह देखकर उस को आश्चर्य हुआ। हर्ष और विषाद की अनुभूति हृदय में होती है मगर चेहरे पर उस अनुभूति का असर पड़े विना नहीं रहता। उसने हिरनी के चेहरे पर गहरे विषाद की परछाई देखी और नेत्रों में आंसू देखे । यह देखकर उसका हृदय भी भर आया। वह सोचने लगा-मैं इन मृगों को नाचीज़ समझता था, बेजान मानता था और सोचता था कि यह मनुष्य के खाने के लिए ही खुदा ने बनाये हैं ! मगर
आज मालूम हुआ कि में भारी भ्रम में था। कौन कह सकता है कि इस हिरनी में जान नहीं है ? जो इसे बेजान कहते हैं, समझना चाहिए कि वह खुद ही बेजान हैं। अगर हिरनी में जान नहीं है तो इंसान में भी जान नहीं है। अगर इन्सान में जान है तो फिर हिरनी में भी जान है। अगर हिरनी को मनुष्य की भाषा प्राप्त होती और मैं इससे पूछता तो यह तीन लोक के राज्य से भी अपने बच्चे को बड़ा बतलाती। मेरे लिए यह बच्चा दाल-रोटी के बराबर है, मगर जिसके हृदय में इसके प्रति गहरा प्रम है, उसका हृदय इस समय कितना तड़फता होगा ? अपना खाना-पीना छोड़कर और प्राणों की परवाह न करके हिरनी यहाँ तक भागी आई है। इस बच्चे के प्रति इसके हृदय में कितना प्रर होगा? धिक्कार है मेरे
खाने को ! जिससे दूसरे को घोर व्यथा पहुँचनी हो, वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com