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[जवाहर-किरणावली
भूखों नहीं मरते।
बहुत लोग धर्म के सम्बन्ध में एक भ्रम में पड़े हैं । उनका यह अभिप्राय है कि धर्म व्यवहार की वस्तु नहीं है ? अगर धर्म व्यवहार में लाने की वस्तु न होती तो उसका इतना माहात्म्य ही न होता । प्राचीन काल के अनेक चरित हमारे सामने हैं, जिनसे भलीभाँति समझा जा सकता है कि लोकव्यवहार में धर्म का आचरण करने वालों का व्यवहार कभी नहीं रुका है । धर्म न दिखावे की वस्तु है और न कीर्ति उपार्जन का साधन है। यह बात दूसरी है कि धर्मात्मा की कीर्ति स्वतः संसार में फैल जाती है, पर धर्म का उद्देश्य कीर्ति उपार्जन करना नहीं है। धर्म तो आचरण की वस्तु है। धर्मस्थान का जीवन और दुकान का जीवन अलग-अलग नहीं है। वह एक है, अविभक्त है । अतएव धर्मस्थान और दुकान के जीवन-व्यवहार में भी एकरूपता होनी चाहिए ।
जीवन में एकरूपता लाने के लिए सदा सर्वदा परमात्मा की भक्ति में लीन रहना चाहिए व्यावहारिक कार्य करते समय भी परमात्मा अन्तःकरण में मौजूद रहना चाहिए । परमात्मा को भुलानेवाला अर्थात् परमात्मा के आदेशों के विरुद्ध व्यवहारकरने वाला भक्ति के मर्म को नहीं समझा है। जो भक्ति के मर्म को और प्रभाव को समझ जायगा वह क्षण भर के लिए भी परमात्मा को विस्मरण नहीं करेगा । वही कल्याण का पात्र बनेगा। ।
बीकानेर, १२-८-३०.
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