________________
बीकानेर के व्याख्यान ]
[ ३०५
कोई भी लोकोत्तर शक्तिसम्पन्न महापुरुष, यकायक महापुरुष नहीं बन जाता । आत्मा नित्य है और वह एक भव के पश्चात् दूसरे भव को ग्रहण करता है । दूसरे भव में पहले भव का शरीर नहीं रहता मगर संस्कार अवश्य रहते हैं । इस प्रकार एक आत्मा अपने पूर्वभव के संस्कारों के साथ अगला भव ग्रहण करता है । और उस भव में अपने पूर्वकालीन संस्कारों में वृद्धि करता है, उन्हें अधिक उच्च और पवित्र बनाता है। इस प्रकार क्रमशः उच्च और पवित्र बनते हुए संस्कार जिस जन्म में बहुत विकसित हो जाते हैं, उसी भव में आत्मा महापुरुष की पदवी प्राप्त करता है । किसी भी महापुरुष की महत्ता उसके वर्त्तमान् जीवन की साधना का ही परिणाम नहीं है, किन्तु भवभवान्तर की चिर साधना का फल है ।
·
चाहे भगवान् ऋषभदेव की कथा लो, चाहे किसी दूसरे महापुरुष की, उसे पूर्वजन्म की सहायता प्राप्त होती है । पूर्वजन्म में उन्होंने महान् तप और धर्म का आचरण करके संसार के कल्याण में भाग लिया है । उस समय उनकी क्रिया जब उत्कृष्ट दशा को पहुँच गई, तब उन्होंने नवीन जन्म धारण किया । इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव को पहचानने के लिए उनके तेरह भवों की कथा देखने की आवश्यकता है । उन्होंने ऋषभदेव के भव में जो महिमा और सिद्धि प्राप्त की है, उसके लिए पहले के बारह भवों में साधना की थी । तब कहीं तेरहवें
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com