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बीकानेर के व्याख्यान ]
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हैं, तो आचार्य ने यह कह कर कि मैं अल्पक्ष हूँ- मैं कुछ नहीं जानता, यह स्पष्ट कर दिया है कि भक्ति के लिए पंडिताई की अनिवार्य आवश्यकता नहीं है । विद्वान् और अझ सभी समान रूप से भक्ति रस के अमृत का पान कर सकते हैं । जब अविद्वान् भी भक्ति कर सकता है तो विद्वान् का तो कहना ही क्या है ? विना दांत वाला भी जिस वस्तु को खा सकता है, उसे खाने में दांत वाले को क्या कठिनाई हो सकती है ? अतएव सर्वसाधारण को यह भ्रम दूर कर देना चाहिए कि विद्वान् न होने के कारण भक्ति नहीं हो सकती ।
दूसरा भ्रम भक्ति के उद्देश्य के सम्बन्ध में दूर होने की आवश्यकता है । यद्यपि इस बात पर पहले प्रकाश डाल दिया गया है, फिर भी स्पष्ट कर देना अनुचित नहीं है कि तुम जो भक्ति करो, अपनी अन्तःप्रेरणा से करो । दूसरे के दबाव से या दूसरे को खुश करने के उद्देश्य से भक्ति मत करो। ऐसा करने में परमात्मा की भक्ति से वंचित रह जाना पड़ता है ।
बहुत-से लोग चक्रवर्ती की महिमा, प्रतिष्ठा और विभूति देखकर, उसे प्राप्त करने की आशा से अभव्य होते हुए भी साधु बन जाते हैं । वे मास- खमण आदि तपस्या भी खूब करते हैं । वे ऐसी अच्छी क्रिया करते हैं कि वही क्रिया अगर शुद्ध मन से की जाय तो मोक्ष पहुँचा दे ! मगर उनकी क्रिया उन्हें मोक्ष नहीं पहुँचाती । इसका कारण यही है उस क्रिया को वे स्वतंत्रभाव से, निरीह वृत्ति से नहीं करते हैं; महिमा
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