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मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेदमारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलयतिमुपैति ननून्द विन्दुः ||८||
हे नाथ, ऐसा मानकर अल्पबुद्धि वाला भी मैं आपके प्रभाव से स्तुति प्रारंभ करता हूँ। यह स्तुति ( आपके प्रभाव से) सत्पुरुषों के चित्त को हरण करेगी। जल का बूँद कमलिनी के पत्ते पर मोती की कान्ति प्राप्त करता है !
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श्रीमानतुंगाचार्य कहते हैं - हे नाथ ! मैं आपके प्रताप सेश्राप के बल पर ही स्तुति बनाना प्रारंभ करता हूँ, अपने बुद्धिबल के सहारे नहीं । मैं अपने बुद्धिबल के संबन्ध में तो पहले ही कह चुका हूँ कि मुझमें अल्पबुद्धि है । ऐसी स्थिति में मैं आपके सहारे ही स्तुति करने को उद्यत हो रहा हूँ। मेरे द्वारा की गई आपकी स्तुति अवश्य ही सज्जनों के चित्त को हरण करने वाली होगी। इसका कारण यह नहीं है कि मैं अपने बुद्धिकौशल से सुन्दर रचना करूँगा, बल्कि यह स्तुति आपकी है। आपकी स्तुति, जो पारमात्मिक भाव से होती है,
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