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[जवाहर-किरणापली
कायरों की तरह क्यों मरूँ ? मरना ही होगा तो मर्दानगी के साथ मरूँगा। यद्यपि इस विशाल समुद्र से तैर कर पार होना अशक्य है, लेकिन प्राण छूटने तक हाथ-पैर हिलाते हुए मरूँगा। कायर की मौत मरना उचित नहीं। सफलता मिले या न मिले, मैं अपना उद्योग नहीं छादूंगा।
कार्य में जो सफलता की ही प्राशा रखता है, बल्कि सफ. लता की खातिरी करके ही जो कार्य करना चाहता है, वह कार्य नहीं कर सकता। भूल चूक से कार्य को आरंभ कर देता है और जब सफलता नहीं पाता तो उसके पश्चात्ताप का पार नहीं रहता। वह निराशा के गहरे कूप में गिर पड़ता है। इसीलिए कहा है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । । अर्थात्-तुझे कार्य करने का अधिकार है, फल की लालसा करने का अधिकार नहीं है । तू निष्कामभाव से अपना कर्तव्य पाल । फल तुझे खोजता फिरेगा । तू फल की आशा की भारी गठरी सिर पर लाद कर चलेगा तो चार कदम भी नहीं चल सकेगा।
साहूकार का लड़का पटिया के सहारे हाथ-पैर मारता हुआ समुद्र में बह रहा था। उस समय समुद्र का देव उसके उद्योग को देखकर सोचने लगा-इससे पूछना तो चाहिए कि जब मौत सामने मुँह फाड़े खड़ी है, तब यह समुद्र को पार
करने की निष्फल चेष्टा क्यों कर रहा है ? देव ने पाकर पूछाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com