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[जवाहर-किरणावली
प्रथर
तू मान कहयो रे,
मत कर मगरूरी भूरी जिंदगी ॥ श्राचारज की महर से रे,
हुधा तुम्हारा नाथ । प्रथम न्दं हम जाय के रे,
तुम चलो हमारे साथ । तू मान कहयो रे,
मत कर मगरूरी झूठी जिंदगी॥ तात्पर्य यह है कि देव जब देवलोक में उत्पन्न होता है, उसी समय देवांगनाएँ हाथ जोड़कर उससे प्रश्न करती हैं'महानुभाव ! आपने कौन-सा पुरुषार्थ किया था, जिससे
आप हमारे नाथ हुए हैं ?' इस प्रश्न से यही नतीजा निकलता है कि देवत्व की प्राप्ति पुरुषार्थ का ही फल है।
सच्चा पुरुषार्थी कभी हार नहीं मानता । वह अगर अस-- फल भी होता है तो उसकी असफलता ही उसे सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा करती है । इसी प्रकार पुरुषार्थी मनुष्य न तो अपनी असमर्थता का रोना रोता है और न कार्य की असंभावनीयता का ही विचार करता है । वह अपनी थोड़ी सी शक्ति को भी समग्रता के साथ प्रयुक्त करता है और कार्य की सिद्धि कर लेता है। यह ठीक है कि भगवान के गुण अनन्त है और उनकी पूरी तरह स्तुति नहीं की जा सकती । परन्तु इसी कारण
अपनी शक्ति के अनुसार स्तुति न करना उचित नहीं कहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com