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सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश ! कतु स्तवं विगतशक्रिपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगी (गो) मृगेन्द्रम,
नाभ्येति किं निजशिशोः, परिपालनार्थम् ॥ ५॥ अर्थ हे मुनियों में श्रेष्ट ! मैं आपकी भक्ति के वश होकर अशक्त होने पर भी आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुआ हूँ। क्या मृगी (मृग) अपनी शक्ति का विचार न करके, अपने बच्चे की रक्षा करने के निमित्त सिंह का सामना नहीं करती ?
जिस प्रकार समुद्र को तैर कर पार करना और जल में पड़ते हुए चन्द्रमा के प्रतिविम्ब को पकड़ना अशक्य है, इसी प्रकार प्रभो ! तेरे गुणों का वर्णन करना मेरे लिए अशक्य कार्य है। मैं अपनी इस कमज़ोरी को जानता हूँ। फिर भी तेरा गुणगान करने के लिए मैं तैयार हुआ हूँ। इसका कारण यह है कि तेरी भक्ति मुझे विवश कर रही है। भक्तिभाव की तीव्रता के कारण मुझमें यह विचार ही नहीं रह गया है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com