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[जवाहर-किरणावली
बालक जल में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिविम्ब को पकड़ने की चेष्टा करता है-तफलता और असफलता का विचार नहीं करता, उसी प्रकार मैं भी स्तुति-चन्द्र को पकड़ना चाहता हूँ। वह स्तुति-चन्द्र भले ही पकड़ में न आवे, परन्तु इस चेष्टा से मेरा मन अवश्य ही प्रसन्न होगा।
स्तुति के इस कथन का अभिप्राय हमें समझना चाहिए । • इसमें गहरा मतलब भरा है। वे कहते हैं-मुझे पंडित बनना नहीं आता तो क्या हुआ, बालक बनना तो आता ही है। भगवान् की स्तुति करने के लिए स्तोता को बालक बन जाना चाहिए।
लोग बालक को बुद्धिहीन और मूर्ख समझ कर उसकी उपेक्षा करते हैं । परन्तु बालक जैसे निरहंकार होते हैं, वैसे अगर आप बन जाएँ तो आपका बेड़ा पार हो जाए । बुद्धिमत्ता का ढांग छोड़कर अगर आप अपने अन्तःकरण में बालसुलभ सरलता उत्पन्न कर लें तो कल्याण आपके सामने उपस्थित हो जाय । बालक का हृदय कितना सरल होता है, यह बात एकं दृष्टान्त से समझिए ।
एक मुहल्ले में आमने-सामने दो घर थे । उन दोनों घरों में देवकी और यशोदा नाम की दो लड़कियाँ थीं । देवकी और यशोदा नहीं जानती थी कि हम देवकी और यशोदा हैं, पर उनके माता-पिता ने उन्हें यही नाम दे दिये थे। फागुन का महीमा था। दोनों बालिकाओं के माँ-बापों में उन्हें अच्छे
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