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वक्तु ं गुणान् गुणसमुद्र ! शशाङ्ककान्तान्, कस्ते समः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धया ॥ कल्पान्तकाल पवनोद्धृतनक्र चक्रम्, को वा तरोतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ||
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अर्थ- हे गुणों के सागर । तेरे चन्द्रमा के समान निर्मल गुणों का बखान करने में, बुद्धि से वृहस्पति के समान होकर भी कौन समर्थ हो सकता है ? प्रलय काल के पवन से मगर मच्छ जिसमें उछल रहे हों, उस समुद्र को अपनी भुजाओं से कौन पार कर सकता है ?
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स्तुति करने वाले के अन्तःकरण में यह विचार होना आवश्यक है कि वह किसकी स्तुति करता है और स्तुति करने का उसका ध्येय क्या है ? इन बातों पर समुचित विचार करने के बाद की गई, स्तुति कल्याणकारक होती है । देखादेखी की जाने वाली स्तुति से भी कल्याण तो होता है, मगर मोक्ष नहीं प्राप्त होता ।
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आचार्य मानतुंग कहते हैं- प्रभो ! बुद्धि में साक्षात् देवगुरु वृहस्पति के समान होने पर भी तुम्हारे गुणों का कथन करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। आपके गुण चन्द्रमा की कांति
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