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[ जवाहर - किरणावली
तब उन्हें भंग कर देता है । साधुपन ऊपर से पालने की वस्तु नहीं है । वह अन्तरात्मा से पाला जाता है । श्रतएव जब तक आत्मा शान्त नहीं हुआ है और उसे शान्त करने का प्रयत्न भी नहीं किया जाता है तब तक साधुपन का दिखाना व्यर्थ है । ऐसा मनुष्य दोनों लोकों से भ्रष्ट हुआ है। ऐसे साधुवेषी की संयम की रुचि विपरीत हो गई है । इसलिए वह इस लोक के भी सुखों से वंचित है और परलोक के सुखों से भी वंचित है ।
यह कथन सभी के लिए लागू होता है । चाहे कोई साधु हो या श्रावक हो, ऊपर से साधु या धावक होने का दिखावा करना और भीतर पोल चलाना उचित नहीं है । आत्मा के वैरी मत बनो । श्रात्मा को मत ठगेो । तुम्हारा आत्मा ही मित्र है और ग्रात्मा ही शत्रु है । अपनी श्रात्मा से पूछो कि तू जो कर रहा है से किस विचार से कर रहा है ? जो आदमी जिस काम को अन्तरात्मा से करेगा उसे उस काम में कष्ट का अनुभव नहीं होगा। यही नहीं, उसके मनोयोग की शक्ति, जो कार्य को सम्पन्न करने में महत्वपूर्ण भाग लेती है और कार्य को साध्य बनाती है, उसके साथ होगी । उसे कार्य करते समय और कार्य करने के पश्चात् भी आह्लाद का अनुभव होगा । इसके विपरीत जो मनुष्य क्रिसी काम को बोझ समझेगा और ऊपरी मन से करेगा, वह उसे कष्ट रूप मोगा । उसे अपने कार्य से संतोष और सुख नहीं मिलेगा
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