________________
१८४]
[जवाहर-किरणावली
हैं, समझ लिया तो दुःख आपके पास फटक ही नहीं सकेगा। बल्कि इससे आत्मा को अपूर्व लाभ होगा।
वास्तव में दुःख और सुख का कर्ता-हर्ता आत्मा ही है। लेकिन हम सुख और दुःख दोनों के आने पर गफ़लत में पड़ जाते हैं । सुख के समय आत्मा अहंकार में डूब जाता है और जब दुःख होता है तो बिलबिलाने लगता है। प्रात्मा जब सुख को पुत्र, पत्नी, परिवार आदि का दिया हुआ मानता है ते अहंकार के साथ उसमें एक जहरीली भावना उत्पन्न होती हैं । मैं श्रेष्ठ हूँ और दूसरे मुझसे हीन हैं, यह भावना विषैली भावना है । सुख को दूसरे का दिया हुआ मानकर इस विषमय भावना को स्थान देने से आत्मा अमृत को विष और दूध को शराब बना लेता है। इसके विपरीत जब दुःख पा पड़ता है तो दुःख के निमित्त कारण पर निरन्तर मलीन विचार करता रहता है। फिर अपने ही पैदा किये हुए दुःख से दुखी होकर अपने को अनाथ मान बैठता है और अपनी रक्षा की इच्छा से दूसरों को नाथ बनाता फिरता है। वह सोचता है कि भैरों, भवानी, भोपा आदि की शरण लेने से मेरे दुःख का अन्त आ जायगा और मैं सुखी हो जाऊँगा। इस प्रकार तत्त्व का बोध न होने के कारण प्रात्मा सुख में अहंकार करता है और दुःख में दीन बन जाता है। इस प्रकार सारा संसार अपनी मिथ्या धारणा के कारण परेशान हो
रहा है। सौभाग्य से जब कभी कोई शानधन मिलता है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com