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बीकानेर के व्याख्यान ]
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सुधर्मा स्वामी हैं। उन्होंने आत्मा और कर्म की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके उसी प्रकार समझाया है, जैसे सेठ ने राजा को समझाया था। इस तीसरे मित्र की बदौलत ही आत्मा दुःख से मुक्त होता है और अपने परम पद पर प्रतिष्ठित होता है।
अप्पा कत्ता विकत्ता य दुक्खाण य सुहाण य । हे आत्मा ! अगर तू चाहे तो दुःख क्षण भर भी नहीं ठहर सकता। मगर तू धन की कुंजी भी अपने हाथ में रखना चाहता है और स्वर्ग की कुंजी भी अपने हाथ में रखना चाहता है। यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
वस्तुतः सचा मित्र वही है तो उपकार करता है, संकट से बचाता है और जो सन्मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न करता है। मित्र का यह स्वरूप आध्यात्मिक दृष्टि से ही समझने योग्य नहीं है किन्तु व्यावहारिक और नैतिक दृष्टि से भी समझने योग्य है। प्राचारांगसूत्र में कहा है
पुरिसा ! तुममेव तुम मित्त किं बहिया मित्त मिच्छसि ।
अर्थात्-हे पुरुष ! तू अपना मित्र आप ही है। दूसरे मित्र की अभिलाषा क्यों करता है ?
इसलिए मैं कहता हूँ-मित्रो! शास्त्र के इस बचन को याद रक्खो। संसार-सागर में अगर नौका का आश्रय लेना हो तो शास्त्र की इन सूक्तियों को मत भूलो। अगर आपने इस तथ्य को कि हम स्वयं ही अपने सुख-दुःख के विधाता
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