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[ जवाहर - किरणावली
अर्थ - भक्तियुक्त देवों के झुके हुए मुकुटों में लगी हुई मणियों की प्रभा को चमकाने वाले, पाप रूपी अंधकार के पटल का नाश करने वाले और इस कर्मयुग की आदि में, भव- जल में डूबने वाले मनुष्यों को सहारा देने वाले, जिनेन्द्र भगवान् के चरण-युगल को प्रणाम करके—
यः संस्तुतः सकलवाङ्मय
उद्भूतबुद्धिपटुभिः
बोधात् ।
सुरलोकनाथैः ॥
स्तोत्रैः
:
जगत्त्रितयचित्तहरै रुदारैः ।
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥
अर्थ- समस्त आगम के तत्त्वज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि से कुशल इन्द्रों द्वारा, तीन लोक के चित्त को हरने वाले स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति की गई है, उन जिनेन्द्र भगवान् की मैं भी स्तुति करूँगा ।
बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ | स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्बमन्यः क इच्छति जनः सहसा गृहीतुम् ||३||
अर्थ - प्रभो ! आपका सिंहासन देवों द्वारा पूजा गया है। मैं बुद्धिहीन, निर्लज्ज होकर आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ। जल में प्रतिबिंबित होने वाले चन्द्रमा को, बालक के सिवाय और कौन पकड़ने की इच्छा करता है ?
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