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[जवाहर-किरणाचली
आती है, लेकिन ज्ञानी जन वेश्या जैसे पतित समझे जाने वाले जीव पर भी दया का भाव रखते हैं ।
अब मध्यस्थभावना की बात आती है। संसार में काला तिलक कोई नहीं निकालना चाहता! जो दुराचारी है, वह भी दुराचारी नहीं कहलाना चाहता। ऐसा होते हुए भी वेश्या अपने को वेश्या क्यों कहती है ? इस प्रकार का विचार करके मध्यस्थभावना धारण करो। मध्यस्थभावना धारण करने से श्रात्मा की उन्नति बड़े वेग के साथ होती है। राग-द्वेष न होना मध्यस्थभाव कहलाता है। और जब राग-द्वेष नहीं होता तो आत्मा में समता की सुधा प्रवाहित होने लगती है। उस सुधा में ऐसी मधुरता होती है कि उसका आस्वादन करके मनुष्य निहाल हो जाता है। प्रात्मा को सुखी और शांत बनाने के लिए यह भावना अत्यन्त उपयोगी है।
यह चार भावनाएँ अगर आपने प्राप्त कर ली तो आपको सर्वत्र शांति मिलेगी। इनसे आपका परम कल्याण होगा और जीवन धन्य बन जायगा।
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