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[जवाहर-किरणावली
भुगतते रहने की ठानी है ? कहाँ तक संसार में और नरक में चक्कर खाया करोगे? मित्रो ! आत्मा को संसार रूपी गड़हे में मत डाले रहो।
किस प्रकार आत्मा गड़हे में से निकल सकता है, यह बात अन्यत्र कही जा चुकी है। 'अप्पा मित्तमित्तं च ।' अर्थात् आत्मा स्वयं अपना मित्र और स्वयं अपना शत्रु है। अब तक तुमने बहुतों पर दोषारोपण किया है, मगर अब इस निश्चय पर आ जाओ कि यह आत्मा ही दुःखों का सृष्टा है। जब आत्मा ही अपने दुःखों और कष्टों का कर्ता है तो वही उन्हें मिटा भी सकता है। कर्म तुम्हारे किये हुए हैं तो तुम्हीं उन्हें मिटा भी सकते हो। हथकड़ियाँ और बेड़ियां तुमने अपने हाथ से अपने हाथों-पैरों में डाल रक्खी हैं उन्हें तुम्हीं तोड़ सकते हो। मगर यह सब होगा तभी जब आत्मशान का तेज अपने में आने दोगे।
जो कर्म किये जा चुके हैं, उन्हें किस प्रकार नष्ट किया जा सकता है ? इस प्रश्न का समाधान आत्मा की शक्ति को पहचान लेने पर अनायास ही हो जाता है। ____एक वेश्या सिंगार करके पुरुषों को मोह में डालने के लिए चल रही है । उसे देखकर अगर किसी के चित्त में विचार पैदा होता है तो वह आप ही कर्म का बंधन बाँधता है या नहीं?
'बाँधता है !'
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