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[ जवाहर - किरणावली
इस प्रकार विचार कर वह पर्वमित्र के घर पहुँचा । सारी घटना सुनने के बाद मित्र ने हाथ जोड़कर कहा- मेरी इतनी शक्ति नहीं कि राजा के विरोधी को शरण दे सकूँ ! आप भूखे हो तो भोजन कर लीजिए । वस्त्र या धन की आवश्यकता हो तो मैं दे सकता हूँ। मगर आपको स्थान देने में असमर्थ हूँ ।
प्रधान - मैं नङ्गा या भिखारी नहीं हूँ । मेरे घर धन की कमी नहीं है । मैं तो इस संकट के समय शरण चाहता हूँ । जो संकट के समय सहायता न करे वह मित्र कैसा ?
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जे न मित्र - दुख होहिं दुखारी ।
तिनहिं त्रिलोकत पातक भारी ||
जो अपने मित्र के दुःख से दुखित नहीं होते, उन्हें देखने में भी पाप लगता है ।
मित्र - मैं यह नीति जानता हूँ, मगर राजविरोधी को अपने यहाँ श्राश्रय देने की शक्ति मुझमें नहीं है ।
प्रधान ने सोचा - हठ करना वृथा है । नित्य मित्र जहाँ गिरफ्तार कराने को तैयार था वहाँ यह नम्रतापूर्वक तो उत्तर दे रहा है ! यह विपत्ति मित्रों की कसौटी है ।
निराश होकर प्रधान सेनजुहारी मित्र की ओर रवाना हुआ । उसने सोचा- इस मित्र पर अपना कोई अधिकार तो है नहीं, मगर कसौटी करने में क्या हर्ज है ? यह सोचकर वह अपने तीसरे मित्र के घर पहुँचा । राजा के कोप की कहानी सुनाकर आश्रय देने की प्रार्थना की। मित्र ने
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