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[ जवाहर - किरणावली
कहते तो हैं पर करते नहीं हैं। वे अपनी वाणी की वीरता मात्र से अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं ।
तात्पर्य यह है कि जिन्होंने ज्ञान तो प्राप्त कर लिया है किन्तु जो ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करते और जो ज्ञान से ही बन्ध-मोक्ष मानकर तसल्ली कर लेते हैं वे अपनी आत्मा को धोखा देते हैं और दूसरों को भी धोखा देते हैं । इसीलिए शास्त्रकार आगे चलकर कहते हैं
न चित्ता तायए भासा, कुचो विज्जाणुलासचं ।
अर्थात् - अपनी पंडिताई का अभिमान करने वाले चारित्रहीन व्यक्ति नाना प्रकार की भाषाएँ भले ही जानते हों मगर वे भाषाएँ दुःख से उनकी रक्षा नहीं कर सकतीं। इसी प्रकार विद्य। एँ और व्याकरण आदि शास्त्र भी उनकी रक्षा कैसे कर सकते हैं ?
इस प्रकार न तो ज्ञानविकल पुरुष सिद्धि पाता है और न क्रियाविकल पुरुष सिद्धि पाता है । जब ज्ञान और क्रिया का संयोग होता है तभी मुक्ति मिलती है। जो लोग ज्ञानहीन हैं और थोथी क्रिया को ही लिए बैठे हैं उन्हें ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । ज्ञान के अभाव में वे भ्रष्ट हुए विना नहीं बच सकते । और जो लोग अकेले ज्ञान को ही लेकर बैठे हैं और क्रिया को निरर्थक मानते हैं उन्हें क्रिया का भी आश्रय लेना चाहिए । क्रिया के विना वे भी भ्रष्ट हुए विना नहीं रहेंगे ।
यहाँ तक जो कुछ कहा गया है वह आत्मिक कल्याण की दृष्टि से ही कहा गया है। मगर चात्मिक कल्याण के लिए
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