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[ जवाहर - किरणावली
किसी वृक्ष के नीचे एक अन्धा और एक पंगु मनुष्य बैठा है । वृक्ष में फल लगे हैं। दोनों फलों के इच्छुक हैं ! लेकिन अन्धे को फल दिखाई नहीं देते और पंगु फलों को देखता हुआ भी वृक्ष पर चढ़ने की शक्ति से रहित है । यह दोनों जब तक अलग-अलग विचार कर रहे हैं तब तक फलों की अभिलाषा रखते हुए भी फलों से वंचित ही रहते हैं । लेकिन पंगु ने अन्धे से कहा- भाई, तेरे पैरों में शक्ति है । अगर तु मुझे अपने कंधे पर बिठला ले तो मैं ऊँचा हो जाऊँगा और फल तोड़ लूँगा । ऐसा करने से मेरी और तेरी दोनों की तृप्ति हो जायगी ।
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इन दोनों का संयोग ही इनके लिए कल्याणकारी हो सकता है। अगर अंधा, पंगु को ऊँचा उठाने से इन्कार कर दे और पंगु, अंधे को फल देना अस्वीकार कर दे तो दोनों को भूखे मरना पड़ेगा ।
शास्त्र में चारित्र की बड़ी महिमा प्रकट की गई है । लेकिन कोई अगर कोरी क्रिया को ही पकड़ कर बैठ जाय और वह क्रिया ज्ञानयुक्त न हो तो जैसे अंधे और पंगु के सहयोग के बिना फल की प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान के संयोग के बिना की जाने वाली क्रिया से भी फल की प्राप्ति नहीं होती।
निरे चारित्र का मार्ग अंधा है । ज्ञान के अभाव में उसे मुक्ति रूपी फल नहीं सूझता । दशबैकालिक सूत्र में कहा हैःप्राणी किं काही किं वा माईहि ऐथपावकं ।
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