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[ जवाहर - किरणावली
को अचरज भी हुआ और दुःख भी हुआ। वह सोचने लगी -- यह कैसी विचित्र बहू आई है ! इसे इतना अहंकार क्यों है ? है तो यह बड़े घर की बेटी, पर इतने घमण्ड का क्या कारण हो सकता है ? घमण्ड किसी को हो सकता है लेकिन इस प्रकार ब्याह कर आते ही तो कोई बहू ऐसा नहीं कहला सकती । देखने में सुन्दर है, बड़े घर की है, फिर भी इसकी बोली और प्रकृति ऐसी क्यों है ? जान पड़ता है इसके शरीर में कुछ न कुछ अवश्य है । फिर भी इसे अभी तो प्रसन्न ही रखना चाहिए । कुछ दिनों में ठिकाने श्रा जाएगी । ऐसा सोचकर सासू ने कहला भेजा - 'अच्छा जैसा बहू कहेगी वैसा ही होगा ।'
फुलांबाई के अहंकार को और ईंधन मिल गया। वह सोचने लगी- धन्य हैं ठाकुरजी, उन्होंने यहाँ भी मेरा बेड़ा पार लगा दिया। बड़ी प्रसन्नता और उत्साह के साथ उसने ठाकुरजी की मूर्ति पधराई और कहने लगी- 'ठाकुरजी का प्रभाव मैंने प्रत्यक्ष देखा !"
थोड़े ही दिनों में फूलांबाई के व्यवहार से घर के सब लोग काँप उठे । उसने सब जगह अपना एकछत्र राज्य जमाना शुरु किया । वह न किसी से प्रेम करती, न किसी का लिहाज़ रखती । सासू वगैरह समझ गई कि बहू का स्वभाव दुष्ट है । मगर घर की बात बाहर जाने से इज्ज़त चली जाएगी। इस विचार से घर के लोग कड़वे घूँट के समान
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