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[ जवाहर - किरणावली
समझता है कि तीर या गोली का दोष नहीं है वरन् मारने वाज्ञा का दोष है ।
मार डालना पशुबल है, आत्मबल नहीं । जैसे सिंह समझता है कि तीर या गोली मुझे नहीं मार रही है किन्तु उसका प्रयोग करने वाला मार रहा है, उसी प्रकार जिसमें आत्मबल है, जो विज्ञानघन है, वह समझता है कि हमारा सिर यह वैरी नहीं काट रहा है बल्कि मेरी आत्मा आप ही अपना सिर काट रही है । वैरी तो निमित्त मात्र है। यह हमारे कर्मों का वैसा ही हथियार बन गया है जैसा हथियार सिंह के लिए तीर या गोली बनी थी। इस मारने वाले का कोई दोष नहीं है | मारने वाला तो हमारे ही भीतर बैठा है ।
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जिसे यह ज्ञान हो जाएगा यह किसी दूसरे से लड़ाई नहीं करेगा, वह तो अपनी ही आत्मा के साथ जूझेगा । वह कहेगा-हे आत्मन् । तू अब विज्ञानघन है। जा । तू अपने विज्ञानघन स्वभाव को न समझने के कारण दुखी हो रहा है ।
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अपना सिर काटने वाले को तो छोड़िए, कई पीढ़ी के पूर्वज का सिर काटने वाले से भी लोग बोलना पसंद नहीं करते । आप लोग जब एक पूर्वज का सिर काटने वाले से भी मेल नहीं रखना चाहते और दुश्मनी रखते हैं तो ज्ञानी जन कहते "हैं कि अपने दुरात्मा से वैर क्यों नहीं रखते ? इस दुरात्मा ने विषय, कषाय, दुराचरण और भोग के वश होकर एकएक योनि में अनन्त अनन्त बार चक्कर लगाये हैं। इसने
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