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बीकनेर के व्याख्यान ]
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गये । वे ईसाई हो गये होते तो आज कौन जाने किस रूप में होते | पर जैनधर्म के प्रताप से ऐसा नहीं हुआ ।
गांधीजी ने अपने जीवन में जितनी तपस्या की है, उतनी शायद ही किसी दूसरे देशनेता ने की होगी। इक्कीस - इक्कीस दिन तक तो उन्होंने अनशन ही किया है और दूसरी तपस्या का अंदाज लगाना कठिन है । वे तपस्या के प्रभाव को भलीभांति जानते हैं। गीता में एक श्लोक है
विषया विनित्रन्ते निराहारस्य देहिनः ।
इसका सीधा-सादा अर्थ तो यह है कि निराहार मनुष्य विषय-हीन हो जाता है। निराहार देह में विषय नहीं ठहरते । लेकिन वासना बाह्य तप में नहीं जाती । वासना का नाश करने के लिए परमात्मा के ध्यान की आवश्यकता है ।
लोकमान्य तिलक ने इस अर्थ को घुमा-फिरा कर यह आशय निकाला है कि उपवास करना ढोंग है- आत्महत्या है । तिलकजी के ऐसा अर्थ करने का कारण संभवतः यही हो सकता है कि उन्हें उपवास का अनुभव नहीं था । जिसने उपवास ही न किया हो वह उपवास के विषय में ठीक निष्कर्ष नहीं निकाल सकता | इसके विरुद्ध गांधीजी को उपवास संबंधी व्यक्तिगत अनुभव है, अतः उन्होंने उक्त श्लोक का वही अर्थ किया है, जो मैंने ऊपर बतलाया है । दोनों के अर्थ में अन्तर पढ़ने का कारण यही है कि एक ने उपवास नहीं किया और दूसरे ने उपवास करके अनुभव प्राप्त किया है । अमल
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