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[ जवाहर किरणावली
जिसके अन्तःकरण में इस भावना का विकास होता है, उसे अपूर्व शांति प्राप्त होती है । मैत्रीभावना से जो अपने हृदय कोई बना लेता है उसके लिए सारा संसार नन्दन वन बन जाता है । उस नन्दन वन में फिर ऐसे-ऐसे मधुर फल लगते हैं कि उनका आस्वादन करने वाला ही उनके माधुर्य को समझ सकता है ।
मैत्रीभावना के संबन्ध में आपने बहुत कुछ सुना होगा लेकिन उस पावन भावना को जागृत करने का तरीका कम लोगों को ही मालूम है । अतएव यह जान लेना आवश्यक है कि मैत्रीभावना का आरंभ कहाँ से करना चाहिए ? चाहे मैत्रीभावना हो या कोई दूसरी शिक्षा हो, उसका आरंभ घर से ही करना उचित है । फिर क्रमशः उसे व्यापक बनाने की चेष्टा करना चाहिए ।
घर में माता का स्थान अनोखा होता है । माता ने पुत्र को जन्म दिया है। माता से ही पुत्र को शरीर मिला है । संतान पर माता और पिता का असीम ॠण है । उनके ऋण को चुकाना कठिन है। ठाणांगसूत्र में वर्णन आता है कि गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा - भगवन्, अगर पुत्र माता-पिता को नहलावे, वस्त्राभूषण पहनावे. भोजन आदि का सब प्रकार का सुख देवे और उन्हें कन्धे पर उठाकर फिरे, तो क्या वह अपने माता-पिता के ऋण से उऋण हो सकता है ? भगवान् ने उत्तर दिया
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