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लोकविभाग और तिलोयपण्णत्तिं
इसके कर्ता सिंहसूरिके बनाये हुए किसी अन्य ग्रन्थका पता लगता, तो उससे शायद इसका निश्चय हो जाता।
तिलोय-पण्णत्ति अब त्रिलोक-प्रज्ञप्तिको लीजिए । इसका प्राकृत नाम 'तिलोय-पण्णत्ति' है। इसकी श्लोकसंख्या आठ हजार है। ग्रन्थका अधिकांश प्राकृत गाथा-बद्ध है। कुछ अंश गद्यमें भी है।
इसका विषय इसके नामसे ही प्रकट है। त्रैलोक्यसारकी गाथा-संख्या एक हजार है, अतएव यह उससे अठगुना बड़ा है । ऐसा मालूम होता है कि त्रैलोक्यसार इसी ग्रन्थका सार है । इसमें सामान्य जगत्स्वरूप, नारक-लोकस्वरूप, भवनवासी, मनुष्यलोक, तिर्यक्-लोक, व्यन्तर-लोक, ज्योतिर्लोक, सुरलोक और सिद्धलोक नामके नौ महा अधिकार या अध्याय हैं । प्रत्येक अध्यायके भीतर छोटे छोटे और भी अनेक अध्याय हैं । इस ग्रन्थकी आरंभिक गाथा यह है
अट्टविहकर्मवियला णिट्ठियकजा पण?संसारा।
दिट्ठसयलट्ठसारा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ इसके बाद चार गाथाओंमें अरहंत, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार किया है । फिर एक बड़ी लम्बी पीठिका दी है, जिसमें मंगल, कारण, हेतु आदि बातोंपर खूब विस्तारसे विचार किया है । उसके अन्तमें लिखा है
सासणपदमावण्णं पधाहरूवत्तणेण दोसेहिं । णिस्सेसेहिं विमुकं आइरियअणुक्कमायादं ॥ ८६॥ भव्वजणाणंदयरं वोच्छामि अहं तिलोयपण्णत्तिं । णिन्भरभत्तिपसादिवरगुरुचरणाणुभावेण ॥ ८७ ।। इसमें तिलोय-पण्णत्तिको, भव्यजनानन्दकारिणी, प्रवाहरूपसे शाश्वती, निःशेषदोषरहित और आचार्योंकी परम्पराद्वारा चली आई, ये विशेषण दिये हैं और कहा है कि इसे मैं श्रेष्ठ गुरुओंके चरणोंके प्रभावसे कहता हूँ। आगे नीची लिखी गाथाएँ देकर ग्रन्थ समाप्त किया है --
१ सिंहसूरि नाम पूरा नहीं जान पड़ता। छन्दकी कठिनाईके कारण संक्षिप्त-सा किया गया है। पूरा नाम शायद सिंहनन्दि हो ।