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जैनसाहित्य और इतिहास
४२२ वें नम्बरके श्लोकके बाद उद्धृत की गई हैं। इसी प्रकारकी और भी चार पाँच गाथाएँ हैं । त्रैलोक्य-संग्रह नामके एक और ग्रन्थकी भी कुछ गाथाएँ लोक-विभागमें उद्धृत की गई हैं, परन्तु वह प्राप्त नहीं हो सका । अतएव उसके विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता। आगे चलकर पाँचवें अध्यायके ४२ वें श्लोकके बाद 'उक्तं चार्षे' लिखकर तीन श्लोक उद्धृत किये गये हैं, जो आदिपुराणके तीसरे पर्वमें मौजूद हैं
ततस्तृतीयकालेऽस्मिन्व्यातक्रामत्यनुक्रमात् । पल्योपमाष्टभागस्तु यदास्मिन्परिशिष्यते ॥ कल्पानोकहवीर्याणां क्रमादेव परिच्युतौ। ज्योतिरंगास्तदा वृक्षा गता मन्दप्रकाशतां ॥ पुष्पवन्तावथाषाढ्यां पौर्णमास्यां स्फुरत्प्रभौ
सायाले प्रादुरास्तां तौ गगनोभयभागयोः ॥ आदिपुराणमें इनका नम्बर ५५-५६-५७ है और अनेक ग्रन्थकार आदिपुराणका 'आर्ष ' कहकर उल्लेख करते हैं। आदिपुराण विक्रमकी नौवीं शताब्दिके अन्तमें बना है। अतएव यह कहना होगा कि लोक-विभाग उससे पीछेका है, शक संवत् ३८० ( वि० सं० ५१५) का नहीं। तब ग्रन्थके अन्तमें जो समय लिखा है, उसका क्या अभिप्राय है ? _प्रशस्तिके श्लोकोंपर बहुत बारीकीके साथ विचार करनेपर इस प्रश्नका उत्तर मिल जाता है। पहले श्लोकके 'भाषायाः परिवर्तनेन सिंहसूरर्षिणा विरचितं' पदसे और दूसरे श्लोकके 'शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनिसर्वनन्दिः' पदसे मालूम हुआ कि इस ग्रन्थको पहले (प्राकृत) भाषामें सर्वनन्दि नामक मुनिने बनाया था, पीछे उसे भाषाका परिवर्तन करके सिंहसूरिने संस्कृतमें बनाया। अतः शक सवत् ३८० (वि० सं० ५१५) मूल प्राकृत ग्रन्थके बननेका समय है, इस संस्कृत ग्रन्थके बननेका नहीं। इसके बननेका समय या तो लिखा ही नहीं गया, या लेखकोंकी गलतीसे छूट गया है।
गरज यह कि उपलब्ध 'लोक-विभाग' जो कि संस्कृतमें हैं बहुत प्राचीन ग्रन्थ नहीं है । प्राचीनतासे उसका इतना ही सम्बन्ध है कि वह एक बहुत पुराने शक संवत् ३८० के बने हुए ग्रन्थसे अनुवाद किया गया है। इस बातका निश्चय नहीं हो सका कि यह त्रैलोक्यसारसे कितने समय पीछे बना है। यदि