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इन सबके अतिरिक्त प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से इस शोध-प्रबंध के प्रणयन में जो भी सहयोगी बने हैं, किन्तु मैं उनका नामोल्लेख नहीं कर पाया हूँ, उनसे क्षमायाचना करते हुए उनके प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
मैं पूर्व उपकारी जनों सांसारिक माताजी श्रीमती विमलाजी नाहर एवं समस्त नाहर परिवार, श्री पीपाड़ा परिवार, श्री कोचर परिवार, श्री सुमतिलाल जेनावत, श्री कुशलचन्द्र शेखावत आदि के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने मुझे आत्मकल्याण के क्षेत्र में प्रवेश तथा विकास करने का उचित वातावरण एवं प्रेरणा दी, जिसके परिणामस्वरूप आज इस शोधकार्य का निष्पादन हो सका।
मैंने अपने मार्गदर्शक डॉ. जैन सा. के सान्निध्य में संबंधित विषय को पूर्णरूपेण प्रामाणिकतापूर्वक प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, फिर भी इसकी पूर्णता का दावा नहीं कर सकता, संभव है प्रमादवश कहीं कुछ कमी रह गई हो अथवा प्रूफ-संशोधन में कोई त्रुटि रह गई हो, तो उसके लिए मैं मिच्छामि दुक्कडं करता हूँ तथा योग्य निर्देश मिलने पर उसके परिमार्जन की भावना रखता हूँ।
वास्तव में, यह कार्य तो इन सभी सहयोगी जनों का ही है। मैं तो सिर्फ निमित्त मात्र हूँ , कर्ता नहीं, यही ध्यान में रखते हुए अंततः, मैं पुनः इस शोधकार्य में सहयोग प्रदान करने वाले महानुभावों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए यह शोधकार्य मूर्धन्य विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करता हूँ।
इस शोध-प्रबन्ध में मेरे द्वारा वीतराग-वाणी के विरूद्ध ज्ञाताज्ञात भाव से यदि कुछ भी लिखा गया हो, तो मैं अंतःकरण से क्षमाप्रार्थी हूँ।
भद्रावती तीर्थ (महाराष्ट्र)
13 फरवरी, 2013
गुरुचरणरज
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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