Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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__. श्रीदशकालिकमृत्रे करतंपि अन्नं न समजाणामि! तस्सभंते ! पडिकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि ॥१॥१५॥
छाया-समिक्षुर्वा मिक्षकी या संयत-विरत प्रतिहत-प्रत्यारुयातपापकर्मा दिवा या रात्री चा एकको या परिपगतो या गुप्ता या जाग्रता, स पृथिवीं वा मिति या शिलां या लेष्टुं या सरजस्कं या कायं सरजस्म या वर्ष हस्तेन वा पादेन वा फाप्ठेन या फिलिश्शेन या अद्गल्या या शलाकया या शलाकाहस्तेन वा नालिखेद न विलिखेन न घट्टयेव न मिन्धान, अन्यं नाऽऽलेखयेन्न विलेखयेन घटयेन भेदयेद्, अन्यमालिग्वन्तं वा विलिखन्तं वा घटः यन्तं वा भिन्दन्तं या न समनुजानीयात , यावज्जीवया विविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥१॥१५॥
(१) पृथ्वीकाययतना.. सान्वयार्थ:-संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी, सेवह पूर्वोक्त भिक्खू वा-साधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें एगओ वाअकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित सुत्त वा-सोया हुआ जागरमाणे चा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से वह पुढवि वा-पृथ्वीको भितिं वा-भीत-रीवार-को सिलं वा-शिलाको लल वाढेलेको ससरक्खं सचित्तरजसहित कायं वा शरीरको ससरक्ख सचित्त रजसहित वत्थं वा-वस्त्रको हत्थेण वा-हाथसे पाएण वा-पैरसे कट्टण वाकाष्ठसे किलिंचेण वायांस आदिकी खपञ्चसे अंगुलियाए वा-अंगुलीस सिलागाए वा छडसे सिलागहत्थेण वा बहुतसी छड़ोंसे न आलिहिज्जार जराभी संघर्षण न करे, न विलिहिज्जा बारम्बार संघर्पण न करे, न घहिज्जान घटन करे-न चलावे, न भिदिज्जान भेदे, अन्नं दूसरेसे न आलिहावित ज्जा-जराभी संघर्पण न करावे, न विलिहाविज्ञान वारम्बार संघर्पण करावे, न घट्टाविज्जा=न घट्टन करावे, न भिंदाविज्जा-न भेदन करावे, आलिहंतं वासंघर्पण करनेवाले विलिहंतं याचार-बार संघर्पण करनेवाले घतं वा घट्टन करनेवाले भिदंतं वा-भेदन करनेवाले अन्नं दुसरेको न समणुजाणिज्जा-3 भला न समझे । इसलिये मैं जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत