Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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४९०
श्रीदशकालिकसने पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करके अपने हिस्से का अशनादिको लेनेके लिये सब मुनियों में से रत्नाधिक-दीक्षा म बड़े मुनिसे पहले प्रार्थना करे, यदि वे ले तो अच्छा ही है, अगर वे न ले तो उनसे कहे-'हे भगवन् ! आपही अपने हाथ से किसी दूसरे सन्त को दीजिये ऐसा कहने पर यदि वे अपने हाथ से किसी को दें तो ठीक ही है, यदि खुद न देकर उसी से कह दे कि 'तुमही तुम्हारी इच्छा के अनुसार जो लेवे उसको दे दो' तब उसे क्या करना चाहिये, सो बताते हैं
सान्वयार्थ:-तो-इस प्रकार गुरु महारानकी आज्ञा प्राप्त होने पर वह साधु साहवो सब सन्तोंको चियत्तेणं त्याग-पुद्रिसे अर्थात् उदार चित्तसे जहकर्मरत्नाधिकके क्रमानुसार निमंतिज्ज-निमन्त्रण करे-आहार धामे, जह-यदि-अगर तत्य-उनमें से केइ-कोई साधु इच्छिज्जा-आहार लेना चाहें तो (उन्हें देकर) तेहिं सद्धिं तु उनके साथ बैठकर मुंजए-खुद भी आहार करे ॥९॥ ___टीका-तो-ततः गुरोरादेशाऽनन्तरम् असौ साधन चियत्तेणे-देशीयशब्दोऽयम्' परमप्रीत्या उदारचेतसेत्यर्थः, यथाक्रम-रत्नाधिकक्रममनुसृत्य निमन्त्रयेस्वभागग्रहणाय प्रार्थयेत् इदं गृहीत्वाऽनुगृह्यता'-मिति वदेदित्यर्थः । यदि तत्रमुनीनां मध्ये केऽपि मुनय इच्छेयुः ग्रहीतुमभिलपेयुस्तदा तेभ्योऽपि वितीय तैः सार्दै स्वयमपि भुञ्जीत 'चपड़-चपड़े' ति शब्दमकुर्वन्नभ्यवहरेत् ॥९५॥ मूलम्-अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ भुजिज्ज एगओ।
आलोए भायणे साह, जयं अपरिस्साडियं ॥ ९६ ॥ गुरुकी आज्ञा मिलनेके अनन्तर प्रसन्न चिससे उदारताके साथ दीक्षा में बड़े-छोटेके क्रमसे साधुओंको अपना भाग ग्रहण करनेकी प्रार्थना करे, अर्थात् 'यह आहार ग्रहण करनेका अनुग्रह कीजिए ऐसा कहे। उन मुनियोंमेंसे कोई ग्रहण करनेकी इच्छा करें तो उन्ह वितीर्ण करके उनके साथ आप भी चपड़-चपड़ शब्द न करता हुआ आहार करे ।।९५॥
ગુરૂની આજ્ઞા મળ્યા પછી પ્રસન્ન ચિત્તથી ઉદારતાની સાથે દીક્ષામાં મોટા નાનાના ફેમે કરીને સાધુઓને પિતાને ભાગ ગ્રહણ કરવાની પ્રાર્થના કરે અથતિ
આ આહાર ગ્રહણ કરવાને અનુગ્રહ કરે' એમ કહે. એ અનિઓમાંથી કે ગ્રહણ કરવાની ઈરછા કરે તે તેમને વહેંચી આપીને તેમની સાથે પોતે પણ २५-२५ सपा या om माहा२ ३२. (५)