Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 666
________________ श्रीपशवेकालिकमूत्रे ___ सान्वयार्थ:-संजए-साधु भत्तहा अनके लिए और पाणट्ठा एव-पानीके लिए ही उवसंकमंत-गृहस्थके घर परमाते हुए समण-निर्गन्य मुनिको वाविअथवा माहणं माणको क्रिविणं-कृपण वा अथवा धणीमगंदरिद्रीभिखारीको (देखकर) तं-उन श्रमणादिको अहमितु-लांधकर न पविसे-- गृहस्थके घरमें न जावे, नवि-औरन चक्खुगोयरे-उनके दृष्टिगोचर-दृष्टिमार्गमें चिट्ठठहरे, (किन्तु) एगंतं एकान्त स्थानमें-जहां उनकी दृष्टि न पडती हो ऐसी जगह अवामित्ता-जाकर संजए-इन्द्रियोंका संयम करता हुआ चुपचाप तत्य-वहां चिठे-खड़ा रहे ॥१०॥११॥ टीका-'समणं' इत्यादि, 'तमइ०' इत्यादि च। संयतः, गृहस्थद्वारे भक्तार्थमेव पानार्थमेव, एक्शन्दस्योभयत्र सम्बन्धः । उपसंक्रामन्तं समीपमायान्तं यान्तं वा श्रमणादिकं दृष्ट्रेति शेषः । तत्र वनीपकाम्याचकविशेषः, अन्यत् सुगमम् । तं श्रमणादिकम् अतिक्रम्य-उल्लङ्घन्य तस्याग्रतो भूत्वेत्यर्थः गृहस्थगृहे न प्रविशेष, एतावदपि न, तेपां चक्षुर्गोचरेऽपि दृष्टिपथेऽपि न तिष्ठेद किन्तु स संयत एकान्तं यत्र तेषां दृष्टिर्न पतेत् तं प्रदेशम् अवक्रम्य गत्वा तत्रतिष्ठेत् ॥१०॥११॥ पूर्वोकविधेरपालने दोपमाह-वणीमगस्स' इत्यादि। . ' मूलम् वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा। ८ . .. १२ ११ १. अप्पत्तियं सिया हना, लहत्तं पवयणस्स वा ॥१२॥ 'समणं' इत्यादि, 'तमइ०' इत्यादि । श्रमण, ब्राह्मण, कृपण और वनीपकको गृहस्थके दर्याजे पर भोजन या पानीके लिए आया देखकर साधु उसे उल्लङ्घन करके गृहस्थके घरमें प्रवेश न करें, इतना ही नहीं, जहाँ उनकी दृष्टि पड़ती हो ऐसे स्थान पर भी खड़े न हों, किन्तु एकान्त प्रदेशमें जाकर स्थित होवें, जहां उनकी दृष्ठिन पहुँचे॥१०॥११॥ ऐसा न करनेमें दोप कहते हैं-'वणीमगस्स' इत्यादि । समणं. त्याहि तथा तमइ० या श्रमा, AAY, १५९५ मने वनीપકને ગૃહસ્થના દરવાજા પર ભેજન યા પાણીને માટે આવેલા જોઈને સાધુ એમને ઓળંગીને ગૃહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ ન કરે, એટલું જ નહિ જ્યા એમની દણિ પડતી હોય એવા સ્થાન પર પણું ઊભું ન રહે, કિંતુ એકાંત પ્રદેશમાં જઈને ઊભે રહે કે જ્યાં એમની દૃષ્ટિ પહોંચે નહિ (૧૦-૧૧) सम न ४२वामा ३५ हे 8-'वणीमगस्स०'त्याह.

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