Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 682
________________ - - - -- श्रीदभवकालिकम अन्यदा याचितेऽपि भकपानाधभावादददाने तं च गृहस्यं परुपं-निष्ठुरवाक्यं न वदेव मुनिरिति शेषः । यथा व्यर्थव स्वहन्दनचेष्टा, नालं साधुतोषाय, केत्रलं. किंशुककुसुमवदायरमणीयतामात्रमाकलयसी'-त्यादि ॥२९॥ मूलम्-जे न वंदे न से कुप्पे, बंदिओन समुकसे। एवमन्नेसमाणस्स, सामन्नमणुचिट्टई ॥३०॥ छाया-यो न वन्दते न तस्य कुष्येत्, वन्दितो न समुत्कर्पयेत् । एवमन्वेपमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥ ३० ॥ सान्वयार्थ:-जे-जो गृहस्थ न चंदे साधुको वन्दना न करे तो से उस पर न कुप्पे-क्रोध न करे (और) चंदिओ-वन्दना किया हुआ न समुकसे गवित न होवे-घमंड न करे। एवं इस प्रकार अन्नेसमाणस्स-जिनशासनकी आराधना करनेवाले के सामन्नं साधुपना-चारित्र अणुचिट्ठह-आराधित स्थिर होता है, अर्थात् मान अपमानमें समान रहनेवाले मुनिको ही सम्यक् प्रकारसे चारित्रकी आराधना होती है ॥३०॥ टीका-'जे' इत्यादि । यो गृहस्थः साधु न वन्दते सेन्तस्य अवन्दमानस्य न कुप्येत् कीदृगयं विवेकषिकला, यन्मामुपस्थितं साधुमत्रमन्यते' इति कृत्वा धरता, रंककी तरह केवल भिक्षाकी चिन्ता कर रहा है। अन्य समय याचना करने पर भी यदि गृहस्थ भिक्षा न दे तो कठोर वचन न बोले कि-'बस रहने दे, तेरी चन्दना वृथा है, इससे साधुओंको सन्तोष नहीं हो सकता, तू टेसू (पलाश-केसूडा) के फूलकी नाई दिखावटी रमणीयता (नम्रता) धारण करता है' इत्यादि ॥२९॥ 'जे' इत्यादि। कोई साधुको चन्दनान करेतोउसे उसपर कुपित न होना चाहिए कि-'यह कैसा अविवेकी है कि सामने उपस्थित साधुका કેવળ ભિક્ષાની ચિંતા કરી રહ્યો છે. બીજા સમયે યાચના કરતાં પણ જે ગૃહસ્થ ભિક્ષા ન આપે તે સાધુ કઠેર વચન ન બેલે કે “બસ, રહેવા દે, તારી વંદના વૃથા છે, તેથી સાધુઓને સંતોષ નથી થઈ શકત; તું કેસૂડાંના કુલની પેઠે દેખાડવાની રમણીયતા (નમ્રતા) ધારણ કરનારે છે,” ઈત્યાદિ. (૨૯) जे. त्या साधुने बहन न ४३ तो साधुसे तना ५२ एपित न શકે કે “આ કે અવિવેકી છે કે સામે ઊભેલા સાધુને અનાદર કરે છે?

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