Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श्रीदशवेकालिकमूत्रे शास्त्रमर्यादयैव गीतार्थेनानादि ग्राममिति रचितम् । 'फामु' अनेन सचित्तमचित्तं वेति परीक्ष्य ग्रहीतव्यमिति दशितम् । 'मुद्दालन्द्रं' इतिपदेन दातुरुपकारं विधाय भिक्षाग्रहणे आधाकर्मादयो वायो दोपाः समापवन्तीति तथा नोपादेयमिति प्रकटितम् । 'दोसवज्जियं' इतिपदेन निर्दोपमिकामासायपि मण्डलदोपवत्वेन सदोपत्वं दुर्निवारमिति मण्डलदोपरहित भोक्तव्यमिति मादुष्कृतम् ॥९८॥९॥ मूलम्-दुल्लहाओ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छंति सुग्गई ॥१०॥
॥तिवेमि॥ छाया-दुर्लभा मुधादातारः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः। मुधादावारः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ।।१००॥
इति ब्रवीमि ॥ सान्वयार्थ:-मुहादाई-निष्काम-प्रत्युपकारकी आशा न रखकर-देनेवाल दुल्लहाओ-दुर्लभ हैं और मुहाजीवीवि=निष्काम-दाताके कार्यकी अपेक्षा न
'उप्पन्न' पदसे यह सूचित किया है कि गीतार्थ साधुको शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार ही आहार ग्रहण करना चाहिए । 'फासुर्य' पदुस सचित्त-अचित्तकी परीक्षा करके ग्रहण करना द्योतित किया है। 'मुहालद्ध' पदसे यह दर्शाया है कि दाताका उपकार करके भिक्षा ग्रहण करनेसे आधाकर्म आदि बहतसे दोष आते हैं, अतः ऐसी भिक्षा नहीं लेनी चाहिए।'दोसवज्जिय पदसे यह प्रगट किया है कि निदोष भिक्षा उपलब्ध होजाने पर भी मण्डल दोप लगनेसे वह भिक्षा अवश्य दृषित होजाती है, इसलिए उनका परिहार करके ही आहार करना चाहिए ।। ९८॥९९॥ ।
ઉપૂરો શબ્દથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે ગીતાર્થ સાધુએ शानी भर्याने मनुसा२४ माडार अडएर ४२२. नये. फासुर्य शण्या सन्धित मथितनी परीक्षा शने यह ४२पानु उपाभा सायु छ. मुहालद्ध શબ્દથી એમ દર્શાવવામાં આવ્યું છે કે દાતાને ઉપકાર કરીને ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાથી આધાકર્મ આદિ ઘણું દે લાગે છે, તેથી એવી ભિક્ષા ન લેવી જોઈએ. રીકવ િશબ્દથી એમ બતાવવામાં આવ્યું છે કે નિદેવ ભિક્ષા ઉપલબ્ધ છતાં પણ મંડલ દોષ લાગવાથી એ ભિક્ષા અવસ્ય દૂષિત થઈ જાય છે. તેથી એના પરિહાર કરીને જ આહાર કરવો જોઇએ. (૯૮-૯૯)