Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 612
________________ ४५८ श्रीदकालिको इटालमटकाशमलं, संगमार्य गमनागमनार्य स्थापितम् भारोपितं भवेत्, तब फाप्ठादिकं यदि चलायलम् अस्थिरं कम्पमानं भवेत् तदा तेन काष्ठादिना सान्दिः यसमाहितः वशीकृतसफलेन्द्रियो मि: साधुः न गच्छेत् । 'वे' भन्दः समुपये अपिचेत्ययः, गम्भीर-निम्नत्वेन प्रकाशशून्प, पिरं-बाहरवस्मारकानं प्रदेशमिति शेपः, न गच्छेदिति पूण सम्बन्यः । अगमने हेतुमार-तत्रेति, तरन्तस्मिन् असंयमः स्वपरविराधनादिरूपो अवलोकितः केवलिमिरिति शेषः । चलाचलविशेषणककाष्ठादिपदेन प्रस्खलन-पतनादिनाऽऽरमविराधना, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिपाणिगणोपमर्दनेन पर-विराधनासम्भावना च भूचिता । गम्भीर रादिपदेशगमनेनापि प्रोक्तदोपसमधिकहिंसादिजन्तुजनितोपघातादिमचुरदोषसम्भवः भूचितः । 'सबिदियसमाहिए' इतिपदेन सापोरिन्द्रियविषयाऽऽसक्तिनिराकरणपत्थर या ईट आदि रोप दिया हो और यदि वह हिलता हो तो समाधिमान संयमी, उस मार्गसे गमन न करे। और जो प्रदेश, नीचा होनेस अन्धकारमय हो या खड़ेवाला हो उससे भी साधुको गमन नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसे मार्गमें गमन करनेसे स्व-पर-विराधना-रूप असंयम केवली भगवान्ने देखा है। हिलते हुए काठ आदिपर चलनेसेरपटने या गिर पड़नेसे आत्मविराध नाकी और एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि प्राणियोंके उपमर्दनसे पर-विराधनाकी सम्भावना सूचित की है। गहरे (नीचे) प्रदेशमें गमन करनेसे उक्त दोषोंके सिवाय हिंसक जन्तुओंसे उत्पन्न होनेवाला उपघात आदि बहुतसे दोषोंका होना सूचित किया है। 'सन्विदियसमाहिए' पदसे यह વગેરે રોપેલાં હોય અને જે તે હલતાં હોય તે સમાધિવાન સંયમી એ માર્ગે ગમન ન કરે અને જે પ્રદેશ ના હોવાથી અંધકારમય હાય યા ખાડાવાળા હાય તે માગે પણ સાધુએ ગમન કરવું ન જોઈએ, કારણ કે એવા માગે ગમન કરવાથી સ્વ-પર-વિરાધનારૂપ અસંયમ કેવળી ભગવાને જોયે છે. હલતાં લાકડાં આદિ પર ચાલવાથી લપસી જવાથી યા પડી જવાથી આત્મવિરાધનાની અને એકેન્દ્રિય કીન્દ્રિય પ્રાણીઓના ઉપમનથી પરવિરાધનાની સંભાવના સૂચિત કરી છે. નીચાણવાળા પ્રદેશમાં ગમન કરવાથી ઉક્ત ઉપરાંત હિંસક જંતુઓથી ઉત્પન્ન થનાર ઉપઘાત આદિ ઘણા દો હોવાનું अथित यु छ. सञ्चिदियसमाहिए ५४थी मेम अपामा मान्छे । साधुमारे

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