Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श्रीवकालिको
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. मूलम्-जया सवत्तगं नाणं, सणं चाभिगच्छद। " तया लोगमलोगं च, जिणो जाणड केवली ॥२२॥ छाया-यदा सत्रगं शानं, दर्शन पामिगनति ।
तदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली ॥२२॥ सान्ययार्थ:-जया-जय सत्यत्तगं-सब जगह जानेवाले-सब पदार्थाका जाननेवाले नाणं पानफो च और दंसणंदनको अभिगच्छा-माप्त करता है, तया तब जिणोधीतराग केवली केवलशानी होते हुए लोगमलोगं च लोक और अलोकको जाणइ-जानते हैं ॥२२॥
टीका-यदा केवलज्ञानं केवलदर्शनं च मानोति तदा जिना घातिकमविजता केवली-केवलज्ञानी सन् लोकं लोक्यत इति लोकस्तं जानाति-करतलामलकर ज्ज्ञानविपयीकरोति ।
आह-ननु कोऽयं लोकपदार्य:? यदि केनचिदेको ग्रामोऽवलोकितस्तहि कि तावानेव लोकः? न, अपरेण ततोऽप्यधिकग्रामदर्शनात् । तहि यावद् ग्रामादिक - जच सर्वव्यापी ज्ञान तथा दर्शनको प्राप्त करते हैं तब केवली होकर लोक और अलोकको जानते हैं।
जो देखा जाता है उसे लोक कहते हैं।
प्रश्न-यदि किसीने एक ग्राम देखा हो तो लोक क्या उतना ही होगा ?
उत्तर-उतना ही नहीं होगा, क्योंकि दूसरे उससे अधिक ग्राम देखते हैं ? . प्रश्न-तो हमलोग जितने ग्रामोंको देखते हैं उतना ही लोक है ? .
• જ્યારે સર્વવ્યાપી જ્ઞાન તથા દર્શનને પ્રાપ્ત કરે છે ત્યારે કેવળી થઈને લોક અને અલકને જાણે છે.
रेनेशाय तnal छ પ્રશ્ન- કેઈએ એક ગ્રામ જેયું હોય તે લોક શું એટલે જ હોય ?
ઉત્તર એટલે જ નહિ હોય, કારણ કે બીજાઓ એથી વધારે ગ્રામ गुमे छे.
પ્રશ્ન–તે આપણે જેટલાં ગ્રામેને જોઈએ છીએ એટલે જ લેક છે?