Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श्रीदशवेकालिकसूत्रे
'अणुन्नए' 'नावणए' इत्येताभ्यामीर्यायतनाऽहङ्कारवर्जनदेन्यराहिल्यानि सूचितानि । 'अप्प हिडे' इत्यनेन माध्यस्थ्यं चौधितम् । 'अणाउले' इतिपदेन साधो रसलोलुपत्वं निराकृतम् । 'जहामार्ग' इत्यनेन च यत्र यस्येन्द्रियस्य विषयमाप्तिस्तत्र तस्यैव दमनं वास्तविकमिन्द्रियदमनं, न तु दर्शनविषये कर्ण पिधानमित्यादि घोध्यम् ॥१३॥
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मूलम्-दवदवस्स न गच्छेजा, भासमाणो य गोयरे ।
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हसतो नाभिगच्छेजा, कुलं उच्चावयं सया ||१४||
छाया - द्रुतद्रुतस्य न गच्छेद, भाषमाणथ गोचरे । हसन नाभिगच्छेत् कुलमुच्चावचं सदा ||१४||
सान्वयार्थः- गोयरे - भिक्षाचरीमें (साधु) दवदवस्स=अति शीघ्रता से दड़बड़ दौड़ता हुआ तथा भासमानो बोलता हुआ न गच्छेज्जा नहीं चले (और) हसंतो - हँसता हुआ भी नाभिगच्छेला नहीं जावे, (तथा) उच्चावयं = उच्च- द्रव्यसे सप्तभूमिक महलोंवाले, भावसे- धन-धान्यादिसे समृद्ध, नीच- द्रव्यसे घासफूस की झोपडीवाले, भावसे धन-धान्यादिरहित कुलं- कुलमें सया-हमेशा जावे। (२श्रु.१अ.२उ.) आचाराङ्गसूत्रमें बताये हुए सब कुलों में भिक्षा के लिए जावे
अणुन्नए' और 'नावणए' इन दो पदोंसे ईर्ष्याकी यतना, अहङ्कारका परिहार और दीनताका त्याग सूचित किया है। 'अप्पहिट्टे ' पदसे मध्यस्थता प्रगट की है । 'अणाउले' पदसे साधुकी रसलोलुपताका निराकरण किया है । 'जहाभागं' पदसे यह प्रदर्शित किया है कि जहाँ जिस इन्द्रियका विषय उपस्थित हो वहाँ उसका दमन करना ही वास्तवमें इन्द्रियदमन कहलाता है, किन्तु चक्षुइन्द्रियका विषय उपस्थित होनेपर यदि कान मूँद लिए जायें तो इन्द्रिय-दमन नहीं कहला सकता, इत्यादि ॥ १३॥
अणुन्न भने नावणए मे मे शहाथी धर्यानी यतना अरनो परि हार भने हीनताना त्याग सूचित ये छे. अप्प हिडे शहथी मध्यस्थता अट भरी छे. अगाउले शण्डधी साधुनी रसवायतानु निशशु यु छे. जहाभागं શબ્દથી એમ પ્રદર્શિત કર્યું છે કે જ્યાં જે ઇંદ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત હાય ત્યાં તેનું દમન કરવું એજ વસ્તુત: ઇંદ્રિયદમન કહેવાય છે, કિંતુ થા ઇન્દ્રિયને વિષય ઉર્જાસ્થત થતાં જે કાન સચવામાં આવે તે તે ઇંદ્રિયદમન કહેવાતું नथी, इत्याहि. (१३)