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भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का भगवद् वंदन
निकलकर, सूलप्राणी – शूलपाणि - हाथ में शूल नामक शस्त्र धारण करने वाला, वसहवाहणे - वृषभवाहन - बैल पर सवारी करने वाला, उत्तरडलोगाहिवई - लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अरयंबरवत्थधरे - आकाश के समान रजरहित-निर्मल वस्त्रों को पहनने वाला, आलइयमालमउडे - माला से सुशोभित मुकुट को मस्तक पर धारण करने वाला, नवहेभचारचित्तचंचलकुंडलविलि हिज्जमाणगंडे - कानों में पहने हुए नवीन सोने के सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से जिसका गण्डस्थल सुशोभित हो रहा है, पाउब्भूए- प्रादुर्भूत - प्रकट हुआउपस्थित हुआ, कूडागारसाला - कूटाकार शाला-शिखर के आकार वाला घर, सिया - स्याद्, दुहाओ - दोनों ओर से, लित्ता - लिप्त - लीपा हुआ, गुत्ता – गुप्त, निवायानिर्वात - हवा रहित, दिट्ठतो दृष्टान्त ।
भावार्थ - १५ प्रश्न - इसके बाद किसी एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी 'मोका' नगरी के उद्यान से बाहर निकल कर कर जनपद (देश) में विचरने - लगे। उस काल उस समय में 'राजगृह' नामक नगर था । ( वर्णन करने योग्य ) । भगवान् वहाँ पधारे यावत् परिषद् भगवान् की पर्युपासना करने लगी ।
उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज शूलपाणि- ( हाथ में शूल धारण करने वाला) वृषभ वाहन - बैल पर सवारी करने वाला, लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों का अधिपति, आकाश के समान रज रहित निर्मल वस्त्रों को धारण करने वाला, माला से सुशोभित, मुकुट को शिर पर धारण करने वाला, नवीन सोने के सुन्दर विचित्र और चञ्चल कुण्डलों से सुशोभित मुख वाला यावत् दसों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ ईशानेन्द्र, ईशानकल्प के ईशानावतंसक विमान में ( रायपसेणीय सूत्र में कहे अनुसार ) यावत् दिव्य देव ऋद्धि का अनुभव करता हुआ विचरता है । वह भगवान् के दर्शन करने के लिये आया और यावत् जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापिस चला गया ।
इसके पश्चात् हे भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधित करके गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा कि-हे भगवन् ! अहो ! ! देवेन्द्र देवराज ईशान ऐसी महाऋद्धि वाला हैं । हे भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह दिध्य देवऋद्धि कहाँ गई और कहाँ प्रविष्ट हुई ?
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