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हो जाएगा। यह तो कहेगा यही तो हम कहते थे। तो हम तो शान को उपलब्ध ही हैं। हम तो कुछ करते नहीं, बैठे रहते हैं। घर के लोग पीछे पड़े हैं, नासमझ हैं! कोई कहता है, नौकरी करो; कोई कहता है, धंधा करो; कोई कहता है कुछ करो-मगर हम तो अपने शांत बैठे रहते हैं।
जापान में ऐसा हुआ एक सम्राट बहुत आलसी था अति आलसी था। एक दिन पड़े-पड़े बिस्तर पर उसे खयाल आया, मैं तो सम्राट हूं, तो जितना भी आलस्य करूं, करूं, कोई कुछ कह नहीं सकता, लेकिन और आलसियो का क्या हाल होता होगा! बेचारे बड़े मुश्किल में पड़े होंगे। तो उस सम्राट ने सोचा कि सभी अपनों के लिए कुछ करते हैं, मुझे भी उनके लिए कुछ करना चाहिए। तो उसने कुंडी पिटवा दी सारे राज्य में कि जितने आलसी हों सब आ जाएं राजमहल। सबके रहने-खाने का इंतजाम राज्य की तरफ से होगा।
मंत्रियों ने कहा महाराज, आप ही काफी हैं! अब यह क्या कर रहे हैं? और अगर ऐसा किया तो पूरा राज्य उमड़ पड़ेगा, रुकेगा कौन! किसको मतलब फिर! फिर तो झूठे-सच्चे का पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि आलसी कौन है।
सम्राट ने कहा : वह तुम चिंता करो पता लगाने की, लेकिन जो -जो आलसी हैं उनको राज्य से शरण मिलेगी। उनका कसूर क्या है? भगवान ने उन्हें आलसी बनाया। वे अपना आलस्य का जीवन जी रहे हैं। उनको सुख-सुविधा होनी चाहिए। और करने वाले तो कर लेते हैं, न करने वाले का कौन है? उसका भी तो कोई होना चाहिए। तो तुम: यह तुम फिक्र कर लो कौन सच्चा, कौन झूठा।
वह तो इंडी पिट गई तो हजारों लोग आने शुरू हो गए। गांव के गांव! मंत्रियों ने व्यवस्था की पता लगाने की। उन्होंने घास की झोपड़ियां बनवा दीं; जो भी आए उनको ठहरा दिया। और आधी रात में आग लगा दी। सब भाग खड़े हुए लेकिन चार आदमी अपना कंबल ओढ़ कर सो रहे। उनको दूसरों ने खींचा भी तो उन्होंने कहा : भाई अब परेशान न करो आधी रात। लोगों ने कहा: आग लगी है पागलो!
उन्होंने कहा: लगी रहने दो। मगर नींद मत तोड़ो।
उन चार को वजीरों ने कहा कि ये निश्चित पहुंचे हुए सिद्ध पुरुष हैं इन चार को राज्य-आश्रय मिले, समझ में आता है।
जब ऐसा कोई व्यक्ति किसी ज्ञानी के सामने आ जाए तो उससे वह क्या कहे? भाग्य की बात कहे? नहीं, वह दर्शन उसके जीवन के काम का नहीं होगा। वह औषधि उसका इलाज नहीं है।
ये जो वक्तव्य हैं, औषधियां हैं। बुद्ध ने तो बार-बार कहा है कि मैं चिकित्सक हूं दार्शनिक नहीं। नानक ने बहुत बार कहा है कि मैं तो वैद्य हूं कोई विचारक नहीं जोर इस बात पर है कि तुम्हारी बीमारी जो है, उसका इलाज.......।
अर्जुन भागना चाहता था, अकर्मण्य होना चाहता था। कृष्ण ने उसे खींचा। भागने न दिया कर्म से। जनक सम्राट है और सम्राट के भीतर स्वभावत: न तो करने का कोई सवाल होता है, न करने की कोई जरूरत होती है। और स्वभावत: सम्राट के भीतर एक गहन अहंकार होता है, सूक्ष्म अहंकार