Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[४६] ऐसे होते हैं, जिनका उत्तर नहीं देना चाहिए।'
स्थानांग में छह लेश्याओं का वर्णन हैं। वैसे ही अंगुत्तरनिकाय५० में पूरणकश्यप द्वारा छह अभिजातियों का उल्लेख है, जो रंगों के आधार पर निश्चित की गई हैं। वे इस प्रकार हैं
(१) कृष्णाभिजाति-बकरी, सुअर, पक्षी और पशु-पक्षी पर अपनी आजीविका चलानेवाला मानव कृष्णाभिजाति
(२) नीलाभिजाति-कंटकवृत्ति भिक्षुक नीलाभिजाति है। बौद्धभिक्षु और अन्य कर्म करने वाले भिक्षुओं का समूह। (३) लोहिताभिजाति-एकशाटक निर्ग्रन्थों का समूह। (४) हरिद्राभिजाति- श्वेतवस्त्रधारी या निर्वस्त्र। (५) शुक्लाभिजाति-आजीवक श्रमण-श्रमणियों का समूह । (६) परमशुक्लाभिजाति- आजीवक आचार्य, नन्द, वत्स, कृश, सांकृत्य, मस्करी, गोशालक आदि का समूह।
आनन्द ने गौतम बुद्ध से इन छह अभिजातियों के सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं भी छह अभिजातियों की प्रज्ञापना करता हूँ।
(१) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में उत्पन्न) होकर कृष्णकर्म तथा पापकर्म करता है। (२) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक होकर धर्म करता है। (३) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, अकृष्ण, अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है। (४) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक (ऊँचे कुल में समुत्पन्न होकर) शुक्ल कर्म करता है। (५) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो कृष्ण धर्म करता है। (६) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है।५१
महाभारत५२ में प्राणियों के छह प्रकार के वर्ण बताये हैं। सनत्कुमार ने दानवेन्द्र वृत्रासुर से कहा-प्राणियों के वर्ण छह होते हैं—कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शुक्ल । इनमें से कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक सह्य होता है, हारिद्र वर्ण सुखकर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है।
गीता५३ में गति के कृष्ण और शुक्ल ये दो विभाग किये हैं। कृष्ण गतिवाला पुनः पुनः जन्म लेता है और शुक्ल गतिवाला जन्म-मरण से मुक्त होता है।
धम्मपद५४ में धर्म के दो विभाग किये हैं। वहाँ वर्णन है कि पण्डित मानव को कृष्ण धर्म को छोड़कर शुक्ल धर्म का आचरण करना चाहिए।
पतंजलि२५५ ने पातंजलयोगसूत्र में कर्म की चार जातियाँ प्रतिपादित की हैं— कृष्ण, शुक्ल-कृष्ण, शुक्ल, अशुक्लअकृष्ण, ये क्रमशः अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं। इस तरह स्थानांग सूत्र में आये हुये लेश्यापद से आंशिक दृष्टि से तुलना हो सकती है।
२४९. स्थानाङ्ग ५१ २५०. अंगुत्तरनिकाय ६/६/३, भाग तीसरा, पृ. ३५, ९३-९४ २५१. अंगुत्तरनिकाय ६/६/३, भाग तीसरा, पृ. ९३, ९४ २५२. महाभारत, शान्तिपर्व २८०/३३ २५३. गीता ८/२६ २५४. धम्मपद पण्डितवग्ग, श्लोक १९ २५५. पातंजलयोगसूत्र ४/७