________________ स्थानांग२४3 में श्रमणोपासकों के लिये पांच अणव्रतों का उल्लेख है तो अंगुत्तरनिकाय२४४ में वौद्ध उपासकों के लिये पाँच शील का उल्लेख है। प्राणातिपातविरमण, अदत्तादानविरमण, कामभोगमिथ्याचार से विरमण, मृषावाद से विरमण, सुरा-मेरिय मद्य-प्रमाद स्थान से विरमण / स्थानांग२४५ में प्रश्न के छह प्रकार बताये हैं-संशयप्रश्न, मिथ्याभिनिवेशप्रश्न, अनुयोगी प्रश्न, अनुलोमप्रश्न, जानकर किया गया प्रश्न, न जानने से किया गया प्रश्न, अंगुत्तरनिकाय२४६ में बुद्ध ने कहा-'कितने ही प्रश्न ऐसे होते हैं, जिनके एक अंश का उत्तर देना चाहिये। कितने ही प्रश्न ऐसे होते हैं जिनका प्रश्नकर्ता से प्रतिप्रश्न कर उत्तर देना चाहिये / कितने ही प्रश्न ऐसे होते हैं, जिनका उत्तर नहीं देना चाहिये।' स्थानाङ्ग में छह लेश्याओं का वर्णन है / 247 वैसे ही अंगुत्तरनिकाय२४८ में पूरणकश्यप द्वारा छह अभिजातियों का उल्लेख है, जो रंगों के आधार पर निश्चित की गई हैं / वे इस प्रकार हैं (1) कृष्णामिजाति-बकरी, सुअर, पक्षी, और पशु-पक्षी पर अपनी आजीविका चलानेवाला मानव कृष्णाभिजाति है। (1) नोलाभिजाति-कंटकवृत्ति भिक्षुक नीलाभिजाति है-बौद्धभिक्षु और अन्य कर्म करने वाले भिक्षुओं का समूह / (3) लोहिताभिजाति-एकशाटक निम्रन्थों का समूह / (4) हरिद्राभिजाति---श्वेतवस्त्रधारी या निर्वस्त्र / (5) शुक्लाभिजाति-ग्राजीवक श्रमण-श्रमणियों का समूह / (6) परमशुक्लाभिजाति-आजीवक प्राचार्य, नन्द, वत्स, कृश, सांकृत्य, मस्करी, गोशालक, आदि का समूह / अानन्द ने गौतम बुद्ध से इन छह अभिजातियों के सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं भी छह अभिजातियों की प्रज्ञापना करता हूं। (1) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में उत्पन्न) होकर कृष्णकर्म तथा पापकर्म करता है। (2) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक होकर धर्म करता है। (3) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, अकृष्ण, अशक्ल निर्वाण को पैदा करता है। (4) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक (ऊंचे कुल में समुत्पन्न होकर) शुक्ल कर्म करता है / (5) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो कृष्ण कर्म करता है। (6) कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है / 246 243. स्थानांग, स्थान-५ 244. अंगुत्तरनिकाय 8-25 245. स्थानांग, स्थान-६, सूत्र 534 246. अंगुत्तरनिकाय-४२ 247. स्थानाङ्ग 51 248. अंगुत्तरनिकाय 6 / 6 / 3, भाग तीसरा, प. 35, 93-94 249. अंगुत्तरानिकाय 6 // 6 // 3, भाग तीसरा पृ, 93, 94 [ 48 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org