Book Title: Siri Bhuvalay Part 01
Author(s): Swarna Jyoti
Publisher: Pustak Shakti Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि कुमुदेन्दु गुरु विरचित सर्व भाषामयी कन्नड काव्य ॐ सिरिभूवलय 卐 1-8 अध्याय .002 2009 50 wtsp . bar ---2060 ---. 25 % - - 906 -2009 JaN.95 आ K -20da ॐ नम CAN h Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि कुमुदेंदु गुरु विरचित सर्वभाषामयी कन्नड काव्य सिरि भूवलय भाग-१ (अध्याय १-८) परिष्करण और संपादन अवैतनिक संपादक मंडली सिरि भूवलय पुस्तक प्रकाशन समिति हिन्दी अनुवाद स्वर्ण ज्योति पुस्तक शक्ति प्रकाशन नं. १०३, ३रा मेन रोड, टाटा सिल्क फार्म ___ बसवनगुडी बेंगलूरू - ५६० ००४. e-mail : info@pustakshakti.com, pustakshakti@yahoo.com website : www.pustakshakti.com Phone: (off): +9180-26915917 Mobile : +919448733323 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sri Kumudendu Guru Virachita Sarvabhashamayee Hindi Kavya SIRI BHOOVALAYA, Vol. (1 to 8 Adhyayas). Edited & Revised by: Advisory Board, Siribhoovalaya Book Committee, Hindi Translation by Smt. Swarna Jyothi, Published by Pustakashati, 103, 3rd Main, Tata Silk Farm, Basavanagudi, Bangalore-560 004. pp.: 502 Size : 1/4 Crown Paper Used : 70 GSM Maplitho First Edition : 2007 Copies : 1000 : Publishers Price : Rs. 650-00 Coverpage Design : Sri Y.K. Mohan Sri A.S. Ananthswamy Sri T.K. Rao Type Setting by Smt. Swarna Jyothi, Saraswathi Hoti & Sri Anand Printed at : Poornima Printers # 1/2, 7th Cross, Azadnagar, Chamarajpet, Bangalore-18 Phone : 080-32924462, Cell : 9341931668 श्री कुमुदेन्दु गुरु विरचित सर्वभाषामयी हिन्दी काव्य सिरी भूवलय, भाग-१(१ से ८ अध्याय) हिन्दी अनुवाद श्रीमती स्वर्ण ज्योति, संपादित और संशोधित: गौरव संपादक मंडली सिरि भूवलय पुस्तक समिति, प्रकाशक: पुस्तक शक्ति, नं. १०३, ३ रा, मुख्य रास्ता, टाटा सिल्क फार्म । बसवनगुडि, बेंगलूर-५६०००४, दूरवाणि : ०८०-२६९१४९१७ प्रथम मुद्रण : २००७ कुल प्रतियाँ : १००० सर्वाधिकार : प्रकाशक मूल्य : रू. ६५०-०० मुख्य आवरण : श्री वाय.के. मोहन श्री ए.एस. अनंतस्वामी श्री टी.के. राव अक्षर विन्यास(डी.टी.पी) : श्रीमती सरस्वती स होटी श्रीमती स्वर्ण ज्योति श्री आनंद : पूर्णिमा प्रिन्टर्स, नं १/२, आजादनगर, चामराजपेट, बेंगलूर-१८ दूरभाष: ०८०-३२९२४४६२, मोबाइल- ९३४१९३१६६८ आवरण पृष्ठ नंदी पर्वत के समीप स्थित यलवळ्ळि के समीप के परिसर में कुमुदेन्दु मुनि बैठ कर सिरि भूवलय के चक्रों की रचना में तल्लीन रहने की भाति कलाकार की तूलिका ने दिखाया है जिसके चारों ओर अंकों के चक्र सिरि भूवलय के १ से लेकर ६४ कन्नड और अंग्रेजी के अंक तथा कन्नड, अंग्रेजी और हिन्दी भाषा के तत्संबंधी अक्षर समाहित हैं। मुद्रण Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय अनुवाद स्वर्ण ज्योति श्रीमती सरस्वती सु. होटी प्रप्रथम कन्नड ग्रंथ के प्रकटण के बृहद योजना में अनेक मूल से निरंतर रूप से हमें प्रोत्साहन प्राप्त हुआ 'पुस्तक शक्ति' इसके द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समस्त सहयोगियों को कृतज्ञता अर्पित करता है बी.एम.श्री प्रतिष्ठान और उसके समस्त अधिकारी वर्ग को प्रकटण के विविध स्तर को आस्था पूर्वक सुनकर सूक्त सलाह देने वाले पं। सुधाकर चतुर्वेदी डॉ. निटूर श्रीनिवास राव श्री व्यासराय बल्लाळ प्रो.।। एस.के. रामचंद्र राव गोकर्ण के श्री जी.एम. वेदेश्वर श्री एम.जी.उपाध्याय, गोकर्ण कुन्तल. आर. अमीन मिनि नट्स, बेंगलूर शम्बु पी. चौधरी एच. टी. मिडिया लिमिटेड वारणासी कुछ मौलिक दस्तावेजों को उपलब्ध कराने वाले श्री तिरुमले श्रीरंगाचार Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In Memory of Founders Rajendra B. Amin 1932-2002 Smt. Sushila R. Amin 1933-2003 MININUTS and K.K. FASTENERS 40 Years of Service to the Nation "RASUKUMAKI", Bannerghatta Road, Bangalore - 560 076 Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. डी. वीरेंद्र हेग्गडेजी श्री धर्मस्थल - 574216 कर्नाटक ४ : कार्यालय : 08256 : 277121 E-Mail: dvheggade@hotmail.com शुभ संदेश हमें यह ज्ञात होने पर नितांत प्रसन्नता हुई कि भारतीय संस्कृति की महिमा एवं गरिमा को प्रदर्शित करनेवाला महाग्रंथ - श्री कुमुदेंदु गुरु द्वारा विरचित सर्वभाषामयी कन्नड महाकाव्य 'सिरि भूवलय' का हिन्दी में प्रकाशन हो रहा है। जैन मुनि श्री वीरसेनाचार्यजी से विरचित संस्कृत प्राकृत भाषा मिश्रण का सिद्धांत ग्रंथ 'षट्खंडागम' धवला टीका ग्रंथ के आधार पर रचित एक मात्र ग्रंथ होने के निमित्त सर्वत्र इस की भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही है । पंडित यल्लप्पा शास्त्री द्वारा इस का अनुसंधान हुआ और श्री कर्ल मंगल श्रीकंटैया द्वारा इस का संपादन हुआ तथा श्री के. अनंतदवाराव जैसे ग्रंथ-प्रचारक ने इसका निरंतर प्रसार किया एवं श्री एम. वाय. धर्मपाल जैसे ग्रंथ-प्रति-संरक्षक मिले। इन सभी के सम्मिलित प्रयत्नों के कारण इस महान अमूल्य सांस्कृतिक संपदा की रक्षा हो सकी एवं राष्ट्र के विद्वत्ता-प्रेमियों तथा जिज्ञासुओं के कर-कमलों तक यह रचना पहुँच सकी । कर्नाटक के कन्नड भाषा-भाषियों के साथ-साथ सारे भारत वर्ष के लोगों को इस महान् ग्रंथ का परिचय कराने के उद्देश्य से अव राष्ट्रभाषा हिन्दी में इस ग्रंथ के 1 से 8 अध्यायों का प्रकाशन हो रहा है। यह तो अतीव आनंद का विचार है कि वेंगलोर के पुस्तक शक्ति प्रकाशन के श्री वाय. के. मोहन जी के अथक परिश्रम एवं उत्साह के कारण यह महान ग्रंथ सारे भारत के शास्त्र एवं संस्कृति पर आस्था रखनेवालों को भी उपलब्ध हो रहा है । हम आशा करते हैं कि सारे भारत वर्ष के संस्कृति-प्रेमी लोग इसका सादर स्वागत करेंगे तथा इस के अध्ययन के द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास कर लेंगे। हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि इस ग्रंथ के प्रकाशक को निरंतर प्रगति के पथ पर चलने की शक्ति प्रदान करें । "इति वर्धतां जिनशासनम् ।" 5 Langgade (डॉ. डी. वीरेंद्र हेग्गडे) धर्मस्थल | Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवान बाहुबली 208-232 श्री १०८ विद्यालंकार आचार्य देशभूषण महाराजजी Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ܀ सिरि भूवलय अनुक्रम प्रकाशक के विचार अभिव्यक्ति साहसपूर्ण अद्भुत और विस्मय पूर्ण सिरिभूवलय प्रथम संस्करण (कन्नड) शुकामनाएँ अभिप्राय द्वितीय (कन्नड) संस्करण की प्रस्तावना ग्रंथप्रति संरक्षक के विचार प्रथम परिष्करण नूतन परिष्करण नूतन परिष्करण की प्रस्तावना कन्नड का कामधेनु - सिरि भूवलय वस्तु परिचय सिरि भूवलय संग्रह सारांश अध्याय- १ अध्याय- २ अध्याय - ३ अध्याय- ४ अध्याय- ५ अध्याय - ६ अध्याय- ७ अध्याय - ८ अनुबंध पत्रिकाओं में उल्लेख विद्वानों के अभिप्राय छाया चित्र अंक चक्र अक्षर चक्र चक्रों को पढ़ने का क्रम 11-19 20-25 26-27 28-35 36-40 41-46 47-55 56-100 101-105 106-132 133-139 140-146 147-159 160-182 183-207 208-232 233-257 258-284 285-314 315-341 342-371 372-422 425-478 479-482 483 484 485-501 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. मुद्देनहल्ली सर्.एं. विश्वेश्वरय्य जन्म स्थल २. मुद्देनहल्ली सर्.एं. विश्वेश्वरय्य जन्म स्थल २. नंदी देवालय ३. गोवर्धनगिरि, यलवल्लिय आस-पास में गुफाएँ और जैन शिला लेख ४. गोपिनाथ टीला ५. नंदि पर्वत ६. नंदि घाटी - सुल्तान चिक्कबळ्ळापुर ११ कि.मी. ३ कि.मी. २. नंदी देवालय - नंदी टॅउन ५ कि.मी. कोलार ५०कि.मी. होसहळ्ळी गेट ३. गोवर्धनगिरि २ कि.मी. १६ कि.मी. बेंगलूर ५० कि.मी. ६.नंदि घाटी सुल्तान ४. गोपिनाथ टीला परिकल्पना : पुस्तक शक्ति यलवळ्ळी ५. नंदि पर्वत 10 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय प्रकाशक के विचार पुस्तक शक्ति हमेशा नए अन्वेषण में अपने आप को समर्पित करता रहा है । इन अन्वेषणों के परिणाम स्वरूप ही अनेक उदग्रंथ प्रकाश में आए हैं इस बार भी एक ऐसा ही ग्रंथ प्रस्तुत कर रहे हैं । जिसका नाम है कुमुदेन्दु गुरु विरचित सिरिभूवलय सिरि भूवलय के विषय में विद्वानों के कई लेखनों में विविध ग्रंथों में यत्रतत्र विचार अवश्य प्रकट होतें रहे हैं परन्तु उसका संपूर्ण ग्रंथ रूप आज तक कहीं भी प्रकाशित नहीं हुआ था । मल्लिकब्बे ने लगभग ८०० वर्षों के पहले शास्त्रदान के पृष्ठ भूमि में इस ग्रंथ की ६ प्रतियाँ बनवाकर दान रूप में दिए थे । यही ग्रंथ सौभग्य वश विद्वान यल्लप्पा शास्त्री जी के हाथ आया फिर आगे चलकर इस पर विद्वानों के द्वारा शोध अध्ययनों से विविध स्तरों पर इस ग्रंथ ने अलग-अलग रूपों को पाया । कुमुदेन्दु मुनि द्वारा विरचित यह ग्रंथ अंकों पर आधारित होने के कारण इसे अंकाक्षर विज्ञान नाम से जाना गया । अंकाक्षरो से यह ग्रंथ निरूपित होने के कारण इसका विशेष महत्त्व है साथ ही इसी कारण इसका नकारात्मक स्वरूपं भी बनता है क्योंकि यह ग्रंथ लगभग ७१८ भाषाओं में रचित है ऐसा ज्ञात होने पर भी इसे सुलझा कर भाषाओं का पता लगाने में असमर्थ हैं । इस कारण इसमें प्रस्तावित अनेक अमूल्य विवरण आज तक प्राप्त नहीं हो सके हैं अतः इसके अनेक तथ्य व सत्य आज तक गोपनीय ही हैं । प्रस्तावित, सिरि भूवलय ग्रंथ में अन्तर्गत मौलिक विचार बाहुल्य शक्ति अनुसार बाहर लाने का प्रयत्न अब पुस्तक शक्ति कर रही है । वैसे हम कह सकते हैं कि आकस्मिक रूप से बेंगलोर में स्थित विमान कारखाने ने हमे एक मंच उपलब्ध काराया । हमारे साथ विमान कारखाने में कार्यरत हमारे सहयोगी श्री एम. वाय. धर्मपाल, और श्री प्रभाकर चेंडूर की साहित्य में आसक्ति ने सिरिभूवलय के कार्य के लिए स्फूर्ति प्रदान की । पंडित श्री यल्लप्पा शास्त्री जी के सुपुत्र श्री एम. वाय. धर्मपाल जी ने सिरिभूवलय के विषय में हमारे 11 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवला) सामने अनौपचारिक प्रस्ताव रखा । यह एक अस्पष्ट रूप ही था । तत्पश्चात दिनांक २३-०६-२००० को इसे एक अधिकृत रूप मिला। ___ हमारी योजना को स्पष्ट साहित्यिक आकार प्रदान करने के लिए देश के विख्यात विद्वान मणि प्रो. जी वेंकट सब्बैय्या, प्रो. एल. एस. शेषगिरी राव, डॉ. साशी मरूळय्या, लोकसभा के पूर्व उप सभाध्यक्ष प्रख्यात श्री एस. मल्लिकार्जुन के साथ एक सलाह मंडली स्थापित हुई । सलाह मंडली की पुष्टि हेतु श्री प्रभाकर चेंडूर श्रीमती वंदना राम मोहन , श्री उमेश और श्री एच. एस. अच्युत आदि पुस्तक शक्ति की ओर से इस योजना में शामिल हुए । __ विषय वस्तु के संकलन के लिए, विवरणों की पुष्टि के लिए और सिरिभूवलय से संबंधित अन्य सामाग्रियों के विषय में सिरिभूवलय फाउंडेशन के अन्य पदाधिकारियों को सहयोग देने के लिए श्री एम. वाय. धर्मपाल ने कमर कस लिया । सलाह मंडली ने सर्वानुमति से वरिष्ठ विद्वान व संशोधक श्री टी. वी. वेंकटाचल शास्त्री जी के समक्ष इस उद्ग्रंथ के प्रधान संपादन का भार वहन करने का अनुरोध किया और उनकी सम्मति इस ग्रंथ का सौभाग्य बनी, ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। पाठ्य सामाग्री के साथ संपूर्ण ग्रंथ की रूप रेखा को निर्धारित कर एक मूल्यवान प्रस्तावना लिखी गई । अनेक बार छपाई की प्रफ़ को पढ कर संशोधित करने का श्रम उठाया। इसके पूरक में कन्नड प्राध्यापक और उत्साही आलोचक डॉ. के. आर. गणेश (कर्ल मंगलम श्रीकंठैय्या के वंशज) ने इस ग्रंथ संग्रह का सारांश तैयार करने में गणनीय भूमिका निभाई। दो वर्षों तक सतत पुस्तक शक्ति के साथ उपरोक्त महानुभावों से समयसमय पर सूक्त सलाह सहयोग के द्वारा सिरीभूवलय का एक स्पश्ट रूप गोचर होने लगा। साथ ही ग्रंथ में निहित जानकारियाँ और भी समग्र रूप से प्राप्त हो इस कारण पुस्तक शक्ति सिरि भूवलय के विषय में पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन भी देने लगी परन्तु निरीक्षित रूप से प्रतिकिया प्राप्त न होना एक दु:खद स्थिति बन गई । फिर भी पुस्तक शक्ति ने न ही धैर्य छोडा और न ही प्रयत्न । 12 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ___पुस्तक शक्ति ने एक कदम और आगे बढाया। उसने क्षेत्र पर्यटन आरंभ किया । कुमुदेन्दु गुरु के तथाकथित गाँव चिक्क बल्लापुर के नंदी ग्राम के येल्लवल्ली प्रदेश का दौरा कर सूक्त जानकारियाँ संग्रह की और वहाँ के प्रचलित शिलालेखो का विवरण प्रस्तुत किया । गोवर्धन गिरि श्री लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी जी के देवालय के समीति अध्यक्ष सर्व श्री एन. एम. नरसिम्हैय्या, निर्देशक चौडप्पा प्रधान अर्चक बी. शांत कुमार लेख बी.एम. कृष्णा और समस्त ग्राम वासियों ने पुस्तक शक्ति के समूह को यथा संभव सहयोग प्रदान किया । इन सबका पुस्तक शक्ति आभार प्रकट करती है । चार खंडो में सिरिभूवलय ग्रंथ को प्रकाशित करने की योजना में प्रथम खंड संशोधकों में साहित्य ह्रदयों में नई रोशनी बिखेरने में समर्थ हो तो पुस्तक शक्ति का श्रम सार्थक होगा । सिरिभूवलय के विषय में श्री यल्लप्पा शास्त्री जी श्री कर्ल मंगलम श्रीकंठैय्या जी और श्री अनंत सुब्बाराय जी के साथ पुस्तक शक्ति के द्वारा इस साहस कार्य को जारी रखने की एक प्रक्रिया कही जा सकती है । किसी भी प्रयत्न के पृष्ठ भूमि में नैतिक सहयोग न हो तो वह उत्साह कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकता । इस कार्य के लिए राज्य के प्रख्यात उद्यमी साहित्य पोषक श्री कुतंल आर. अमीन फ़ास्टनर्स एंड इंडस्ट्रीयल काम्पोनेन्ट्स के श्री दीपक शाह और श्री पी. डी. रवीन्द्र जी के सकालिक सहयोग व प्रोत्साह अविस्मरणीय है। साथ ही आवरण पृष्ठ अलंकार के लिए श्री टी. के राव और श्री अनंतस्वामी जी का पुस्तक शक्ति आभार प्रकट करती है। सिरिभूवलय की हस्तप्रति - दिल्ली के राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग में जिस दिन से मैने सिरिभूवलय पुस्तक प्रकटण की योजना को हाथ में लिया उसी दिन से राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग से मुलाकात करने की सोची। यह आशा दिन पर दिन बढती गई और कई बार प्रयत्न भी किया था । पिछले सात सालों से इस प्रयत्न का फल नहीं मिला। कारण मुझे किसी भी संस्था, या 13 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय विश्ववद्यालय और संशोधन केंद्रो का सहयोग प्राप्त नहीं था। राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग में मुलाकात, इन तीनो मे से कोई भी मार्ग को अपना कर ही संभव हो सकता था । नहीं तो राष्ट्रीय पत्रागार से सिरि भूवलय की जानाकारी का मिलना असंभव था । सिरि भूवलय ग्रंथ के विषय में भारत के प्रथम राष्ट्रपति बाबु राजेंद्र प्रसाद जी ने स्वयं अपनी आसक्ति के कारण कर्नाटक के यल्लप्पा शास्त्री और कर्लमंगलं श्रीकंठैय्या जी के द्वारा अनेक अभिलेखों को मंगवाकर राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग में संग्रहित किया था ऐसा प्राचीन विद्वानों और पत्रिकाओं से ज्ञात हुआ था। यह जान कर अति आनंद हुआ कि इन अनेक जानकारियों का संग्रह - ब्यौरा पुरातत्व विभाग में सुरक्षित है । परंतु ऐसे अमूल्य जानकारियां पुरातत्व विभाग में मौजूद है यह विषय किसी को भी नहीं ज्ञात थी । जानकार कुछ लोगों को भी उसे प्राप्त करने की विधि ज्ञात नहीं थी । दिल्ली के पुरातत्व विभाग से मुलाकात को तय करने के लिए मैने वहां के निर्देशक के साथ पत्र व्यवहार आरंभ किया फलस्वरूप प्रवेश निषिद्ध सिरि भूवलय संग्रहित, अपरूप हस्त प्रति संग्रह विभाग में मुझे मुलाकात करने का अवसर मिला । २७-२-२००६ और २८ - २ - २००६ को मैने राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग के खासगी संग्रह विभाग में, कन्नड के स्वार्थ रहित निष्ठावंत संशोधक, सिरिभूवलय के प्रचार-प्रसार के लिये ही अपना जीवन समर्पित करने वाले उन महानुभवों के द्वारा संग्रहित अपार अभिलेखों को देखकर विस्मित हो गया। किसी विश्ववद्यालय की योजना से न कम, डॉक्टरेट पद से भी अधिक उनका अद्भुत कार्य किसी के ध्यान में न आना यह एक विषादनीय स्थिति लगी। उस अमूल्य हस्तप्रति भंडार को देखते ही मेरे मन ने उन महान संशोधक, पंडित, पंडित यल्लप्पा शास्त्रीजी, कर्लमंगलं श्रीकंठैय्याजी और इतिहासकार एस श्रीकंठशास्त्रीजी और बेरळच्चु टंकणयंत्र (टाईपराइटर) पितामह श्री अनंत सुब्बरावजी को नमन किया । मैंनें उसी दिन उन सबका परिशीलन कर, आवश्यक जानकारियों का संग्रह कर सूक्त टिप्पणियों को बना लिया वे हमारी योजना में सहायक हुई। 14 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय ) __ अत्यंत सुंदर लिखावट ,उत्तम प्रकार के कागज़ों पर लिखे अमूल्य हस्तप्रतियों को उत्तम स्तर के संचिकाओं (फाइलों) में संग्रहित, उन अमूल्य अभिलेखों में सिरि भूवलय के चक्रों की संख्या को अंग्रेजी संख्याओं में और अक्षरों को कन्नड में लिखा गया है अभिलेखों का विवरण इस प्रकार है विभाग-अ प्रथम संचिका (फाइल) (१ से ३३ अध्याय) २८३ पृष्ठ द्वितीय संचिका (फाइल) (३४ से ४० अध्याय) ५५६ पृष्ठ तृतीय संचिका (फाइल) (४१ से ५६ अध्याय) ६६६ पृष्ठ कुल मिलाकर लिखावटी पृष्ठ १५०५ विभाग-ब सुंदर रूप से बिना कोई त्रुटि के टाईप किए, पंडित यल्लप्पा शास्त्रीजी द्वारा लिखित गणित सिद्धांत' ७ पृष्ठों में है । इसको टाईप करने वाले बी. एस. विर्जाकर, जे. एम. जे. बुरेरु, कोल्लाहपुर है । विभाग-क ___पंडित यल्लप्पा शास्त्रीजी द्वारा संग्रहित सिरिभूवलय के चक्रों का मूल हस्तप्रतियां इस संचिका(फाइल) में है । इसमे सभी लाईमिनेट किए गए उत्तम स्थिति में २१ चक्र है और तृटित, शिथिल स्थिति में ११ चक्र है । कुल ३२ चक्र है । विभाग-ड यह पंडित यल्लप्पा शास्त्रीजी द्वारा हाथों लिखित पुस्तक है । इसमें सिरि भूवलय के जैनसिद्धांत' ग्रंथ के ५३ पृष्ठ हैं । साथ ही 'ब' विभाग में गणित सिद्धांत के प्रति भी है। इसको अंकभंग भूवलय' कहा गया है। 15 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय - विभाग-इ सिरि भूवलय के ३४ से ५९ अध्याय तक का लिखावटी हस्तप्रति है। अंत में पुरातत्व विभाग के निर्देशक को और अधिकारि श्री पी. के. राय, श्री जी. ए. बिरादार और अभिलेखापाल श्रीमती शगुफजी का, उनकी सहायता और सहयोग के लिये मैं बहुत आभारी हूं । मुझे पुरातत्व विभाग से मुलाकात करने के लिये मेरी मदद करने वाले मेरे आत्मीय मित्र लोक सभा सदस्य श्री एस मल्लिकार्जुनैय्या को और श्री बी. एम. मल्लप्पाजी को और श्री वाय. अविहींद्रनाथ राव जी को मेरी कृतज्ञता अर्पित करता हूं। इन जानकारियों को प्राप्त करने के इच्छुक इस पते पर संपर्क करें: डाइरेक्टर जनरल ऑफ़ आर्के व्स राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग जनपथ, नई दिल्ली-११०००१ ऑफ़िस इन-चार्ज : श्री पी. के. रॉय . सिरिभूवलय विभाग : श्री जी. ए. बिरादार दूरवाणी : ०११-२३०७३४६२ फाइल- इन-चार्ज : श्रीमती शगुफ, वैयक्तिक संग्रह विभाग दूरवाणी: ०११-२३३८७५०९ विश्व में एकैक रहस्य प्रति अंको द्वारा रचित विद्वानों को आश्चर्य करने वाला यह अमूल्य सिरि भूवलय ग्रंथ की हस्तप्रति का महत्व का ज्ञान पुरातत्व विभाग के किसी भी अधिकारी और नौकर-चाकरों को नहीं था इस बात से मुझे बहुत दुखः हुआ । फिर भी दीर्घकाल से अत्यंत सुरक्षित और सुव्यवस्थित ढंग से संरक्षित करते आना, श्लाघनीय है ।। मैंने उनको इस ग्रंथ के महत्व को बताया तो वे सब आश्चर्यचकित होकर यह जगत के अद्भुतों में से एक है! ऐसा अपना अभिप्राय प्रकट किया । उन्होंने बहुत आनंद से मुझे सभी तरह का सहयोग दिया । हस्तप्रति के जेराक्स प्रतियों को प्रदान ही नहीं किया बल्कि इस अमूल्य हस्तप्रति के संरक्षण में विशेष सावधानी देने का वादा भी किया । 16 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय लगभग ५० साल पहले पडित यल्लप्पा शास्त्री और कर्लमंगलं श्रीकंठैय्याजी के द्वारा किए गए अपार परिश्रम, देश की जनता के समझ में नहीं आया यही बहुत खेद की बात है । इसी खेद के साथ उन साधकों को एक बार और पुनः प्रणाम करते हुए पत्रागार इलाके के अधिकारियों और नौकर-चाकरों को भी प्रणाम करते हुए दुखीः मन से बाहर आया । इस हस्तप्रति का संपूर्ण लाभ हमारे देश की जनता को मिले और इस अपरूप ग्रंथ के महत्व को विश्वभर में परिचय कराते हुए इसके द्वारा कन्नड भाषा साहित्य-संस्कृति की श्रेष्ठता और महत्व गौरवांवित हो यही समझकर मैने इस जानकारी को वाचकों के ध्यान में लाने का प्रयत्न किया है। सिरि भूवलय के भाषांतरण के संदर्भ में दो बाते कहना चहता लेखिका परिचय कुमुदेन्दु मुनि विरचित सिरि भूवलय विश्व का एकमात्र अंक काव्य है। पुस्तक शक्ति के द्वारा यह ग्रंथ प्रकाश में आया है। यह ग्रंथ शुद्ध मध्य युगीन कन्नड भाषा में रचित है। इस कारण इस ग्रंथ का प्रचार-प्रसार दक्षिण भारत में भी बहुत प्रयासों के बावजूद इच्छित प्रमाण में नहीं हो सका है। ऐसी स्थिति में उत्तर भारत में इस ग्रंथ का प्रचार मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लग रहा था, इसी समय पुस्तक शक्ति का सौभाग्य रहा कि पदचेरी निवासिनी श्रीमती स्वर्ण ज्योति से हमारा परिचय हुआ जिन्होंने इस ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद करने की सहर्ष स्वाकृति दी। श्री कुमुदेन्द गुरु विरचित सर्व भाषा तथा गणित सिद्धांत के द्वारा रचित पूर्ण प्रमाण का अद्भुत सिरि भूवलय कन्नड ग्रंथ को राष्ट्रीय भाषा हिन्दी में लाने के लिये अनेक प्रयत्न किये गए संघ-संस्थाओं से पिछले ३०-४० वर्षों से यह प्रयत्न किए जाने के पश्चात भी संपूर्ण ग्रंथ अपने ही कारणों से प्रकाश में न आ सका। __ इस कार्य के लिए पुस्तक शक्ति के लिये शुभारंभ और सवाल दोनों ही तब सामने आए जब मैं अपने निजी कार्य के सिलसिले में अक्टूबर २००४ में दिल्ली के प्रवास पर था । तभी एक दिन ज्ञानपीठ प्रशस्ति प्रदान करने वाली संस्था के निर्देशक श्री प्रभाकर श्रोती जी ने मुझे अपने कार्यालय में न्यौता दिया और सिरि भूवलय के विषय में और हमारी संस्था के द्वारा तभी हाल में ही प्रकाशित सिरि भूवलय के प्रथम संस्करण के विषय में संपूर्ण जानकारी प्राप्त 17 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय कर हमारे कार्य की भरपूर प्रशंसा की शाबासी दी और इस संस्करण को किसी भी प्रकार से हिन्दी में लाने की अपनी इच्छा को प्रकट किया और इस कार्य के लिए हमें शुभकामनाओं के साथ हमें विदा किया । इस विचार को जानकर वाराणसी के हनुमान घाट के निवासी बुजुर्ग और हमारे अपने श्री विश्वनाथ शर्मा जी ने मुझे आमंत्रित कर वाराणसी के प्रखंड विद्वान श्री पंडित वागीश शास्त्री जी से मेरा परिचय कराया। पंडित वागीश शास्त्री जी को कुमुदेन्दु मुनि विरचित सिरिभूवलय के विषय में पहले से ही जानकारी थी । इस विषय पर हिन्दी में अनेक लेखों को पहले ही प्रकाशित किया था । हमारी उनसे हुई मुलाकात में उन्होंनें इस कन्नड काव्य को किसी भी तरह से हिन्दी में पूर्ण प्रमाण से प्रकटित करें ऐसा अभिप्राय व्यक्त किया । परन्तु उस समय की हमारी समस्या यह थी कि हमें कन्नड से हिन्दी भाषा में अनुवाद करने वाले की और सिरि भूवलय के विषय में विशेष आसक्ति रखने वाले अनुवादक की आवश्यकता थी । इस विषय को जानकर हमारा संपर्क पॉवर ग्रिड कार्पोरेशन ऑफ़ लिमिटेड के अधिकारी श्री एच. एन. सदानंद और श्रीमती नीलम शर्मा जी से हुआ। उनके द्वारा अनुवादकी कन्नडति पाँडीचेरी निवासिनी श्रीमती स्वर्ण ज्योति जी को इस कार्य के लिए प्रोत्साहित कर परिचय कराया । श्रीमती स्वर्ण ज्योति जी की सहायता, सहकार, साहस हाथ में लिये कार्य को पूर्ण करने के निश्चय के फलस्वरूप इस पूर्ण प्रमाण का प्रथम हिन्दी संस्करण आपके समक्ष है। श्रीमती स्वर्ण ज्योति का जन्म स्थान मैसूर है और उनकी मातृभाषा कन्नड होते हुए भी हिन्दी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार है। उन्होंने अर्थशास्त्र और हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की है साथ ही उन्होंने हिन्दी में सृजनात्मक लेखन में डिप्लोमा की उपाधि भी प्राप्त की है। हिन्दी में लेखन उनकी विशेष रुचि रही है। पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं और इनका एक काव्य संग्रह “अच्छा लगता है” प्रकाशित हो चुका है। पुदुचेरी की स्थानीय भाषा तमिल का भी ज्ञान रखती हैं और एक तमिल काव्य संग्रह का हिन्दी में अनुवाद कर चुकी हैं (प्रेस में) सीधे, सरल और आकर्षक व्यक्तित्व की धनी श्रीमती स्वर्ण ज्योति जी अपनी पारावारिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए साहित्य की जो सेवा कर रही है 18 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय वह प्रशंसनीय है। इन्होंने जीवन को बहुत करीब से देखा है, समझा है यही कारण है कि इनको कविताओं में भावों की गहरी अनुभूति दिखाई पड़ती है। कवि सम्मेलनों में इनकी भावना प्रधान आवाज़ को सराहा गया है। इनके पति डॉ. बी. आर. रमेश स्वयं एक वैज्ञानिक हैं और फ्रेंच इन्स्टीट्यूट में आदरणीय पद के अधिकारी हैं। इनकी तीन पुत्रियाँ हैं जो पुदुचेरी में ही अध्ययनरत हैं। सिरि भूवलय की ख्याति और ज्योति आप से और भी फ़ैलेगी ऐसी आशा पुस्तक शक्ति को है और आप स्वयं भी सिरि भूवलय की सिरि से साहित्य जगत में यशस्व प्राप्त करें ऐसी कामना पुस्तक शक्ति करता है। साथ ही पुस्तक शक्ति श्रीमती सरस्वती सु.होटी की भी आभारी है जिन्होंने हिन्दी अनुवाद में श्रीमती स्वर्ण ज्योति जी को निरंतर सार्थक सहयोग दिया । पुस्तक शक्ति इन सभी महानुभावों का आभार मानती है सर्व प्रथम इस कार्य के लिए हमें हाथ पकड कर चलना सिखाने वाले ९६ वर्षीय देश के बुजुर्ग विद्वान प्रो. जी. वेंकट सुब्बैय्या जी को आभार प्रकट करते हैं। हमारे सभी कार्यों में सहकारी प्रो. नागराजैय्या को तथा इस उद्देश्य के लिए मनः पूर्वक आशीर्वाद देने वाले डॉ.टी.वी.वेंकटाचल शास्त्री जी का अभिनंदन करती है । हम इस कार्य में सहायक डी.टी.पी. आनंद प्रिन्टर्स ,सोमेश, उमेश, प्रभाकर चेंडूर वंदना राम मोहन के भी कृतज्ञ हैं । श्री वाय. के. मोहन पुस्तकशक्ति श्रद्धांजली सिरि भूवलय प्रोडक्शन विषाद पूर्वक सूचित करता है कि श्री एम.वाय. धर्मपाल जी दिनांक २३-८-२००६ को देवाधीन हुए। आप, सिरि भूवलय को अपने पिता दि. पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी से संपत्ति के रूप में प्राप्त कर आज तक संरक्षित रख कर उसके प्रचार के लिए विशेष रूप से श्रम साध्य रहे। इस ग्रंथ के प्रकटण में उनका संपूर्ण सहयोग रहा । परमात्मा उन्की आत्मा को चिर शांति प्रदान करें ऐसी आशा और प्रार्थना करते हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अभिव्यक्ति बात उन दिनों की है बीता था मेरी पुस्तक “अच्छा लगता है” काव्य संग्रह का लोकार्पण हुए केवल एक सप्ताह गुजरा था । मैं अपने निवास स्थान पाँडीचेरी वापस आ चुकी थी कि एक सुबह मेरी नींद दूरभाष की घंटी से खुली। मेरी मार्गदर्शिका श्रीमती मधु धवन की आवाज़ सुनाई दी उन्होंन २० मुझे ग्यारह बजे तक मिलने के लिए बुलाया । जब मैं ग्यारह बजे उनसे मिलने निश्चित स्थान पर पहुँची तो देखा कि वहाँ राजभाषा सम्मेलन का आयोजन था । एक सुखद आश्चर्य । उस सम्मेलन में अनेक स्थान से वक्ता पधारें थे और मेरा परिचय वहाँ एक कन्नड भाषी हिन्दी कवयित्री के रूप में मधु जी ने सभी से कराया और यहीं पर मेरे लिए एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। M उसी सम्मेलन में मेरी मुलाकात महोदया नीलम शर्मा जी से हुई। जब उन्हें इस बात की जानकारी हुई कि मेरी मातृ भाषा कन्नड है तो उन्होंनें अनायास ही एक ऐसा आग्रह किया जिसे मैंनें सहर्ष स्वीकार लिया। यहीं पर सिरि भूवलय के हिन्दी रूपांतरण की नींव पडी । फिर तो आनन- फानन में उन्होंनें मुझे वह पुस्तक दिखाई और अनुवाद की बातें तय हो गई और यह तय हो गया कि वे दिल्ली पहुँचते ही मुझे उस पुस्तक की एक प्रति भिजवा देंगी । कुछ १५-२० दिनों के बाद मुझे उस पुस्तक की एक प्रति डाक द्वारा मिली उस पुस्तक को (एक ही नज़र में) देख कर मुझे एहसास हुआ कि यह पुस्तक साधारण पुस्तक नहीं है यह एक धार्मिक ग्रंथ है और मुझ जैसे साधारण के लिए यह कार्य एक साधना के बराबर होगा और अति कष्टकर भी । इस पुस्तक को देख कर थोडी सी निराशा ही हो रही थी कि पता नहीं कैसे यह कार्य होगा और इस निराशा के कारण मैंने उस पुस्तक को उठा कर रख दिया । पर एक अनजान सा आकर्षण मुझे खींचे जा रहा था पुनः मैंने उस पुस्तक को हाथ में लिया और उलट-फेर कर देखने लगी । पुस्तक के दूसरे पृष्ठ पर अवैतानिक संपादक मंडली के सदस्यों का नाम छपा देखा। एक-एक नाम पढते हुए एक ही खयाल मन में आ रहा था कि इन दिग्गजों से कैसे संपर्क साधा जाए? किस तरह इन से इस पुस्तक के विषय में व्यवहार किया जाए । तभी एक नाम श्री वाय. के. मोहन जी पर दृष्टि पडी । 20 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय यूँ तो जितने भी नाम हैं सभी बंगलोर के ही निवासी हैं फिर भी न जाने मेरी दृष्टि में मोहन जी का ही नाम क्यों आया और मैंने उनसे संपर्क साधने का निश्चय किया । मैंने नीलम शर्मा जी से दूरभाष पर संपर्क कर उनसे मोहन जी का पता तथा दूरभाष का नंबर लिया फिर मोहन जी से संपर्क किया पर मेरा दुर्भाग्य कि मेरी बात मोहन जी से न हो सकी। उनकी बहू श्रीमती वंदना राम मोहन जो इस पुस्तक के विषय में विशेष जानकारी रखती हैं उनसे मेरी बातचीत हुई उन्होंने मुझसे वादा किया कि वे मोहन जी को मेरे विषय में इत्तला देंगी । दो दिनों के पश्चात मोहन जी का फोन आया और उन्होने यह जानकर प्रसन्नता जाहिर की मैं इस कार्य को करना चाहती हूँ। मोहन जी ने बंगलोर आने पर मिलने को कहा और उन्हीं दिनों दूसरे हिन्दी सम्मेलन में मुझे भाग लेने का अवसर मिला और सम्मेलन के तीसरे दिन मैं मोहन जी से मिलने उनके निवास स्थान पर गई और उन्होंने मुझे सिरि भूवलय की संक्षेप में संपूर्ण जानकारी दी और विश्वास दिलाया कि यह कार्य जरूर पूर्ण होगा । ___ पाँडीचेरी लौटने के बाद मैंने इस कार्य को आरंभ करने का निश्चय किया। परन्तु कुछ कारणों से मैं यह कार्य आरंभ न कर सकी और दिन पर दिन बीतते उन्हीं दिनों श्रवण बेळगोल में गोम्मटेश्वर की मूर्ति का महामस्तकाभिषेक आयोजित किया गया था । बहुत चर्चा थी इस महा मस्तकाभिषेक की। तभी एक अविश्वसनीय घटना मेरे साथ घटी । महामस्तकाभिषेक के पहले दिन भोजन के पश्चात जब मैं विश्राम कर रही थी, तब एक आवाज़ मेरे कानों में गूंजती सी महसूस हुई जैसे मुझसे कहा जा रहा है “उठो विश्राम करने का वक्त नहीं है अभी तुम्हें एक बहुत बड़ा कार्य पूरा करना है वह कार्य तुम्हे संसार को दिखाना है उठो और कार्य आरंभ करो” । उस आवाज़ से मैं चौंक उठी। देखा साँझ घिर आई है। तभी मैंने निश्चय किया कि चाहे जो भी हो जाए इस कार्य को तो मुझे करना ही है । दूसरे दिन स्नानादि के पश्चात मैंने सिरि भूवलय पुस्तक को भगवान के पास रख, दियाबाती कर कार्य आरंभ किया और कार्य के आरंभ के पश्चात ज्ञात हुआ कि इस 21 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय पुस्तक को महामस्तकाभिषेक के दिन दान में दिया गया था और वह दिन महामस्तकाभिषेक का ही दिन था। इस प्रकार मैंने सिरि भूवलय के कार्य को आरंभ किया और अनेकों की सहायता से इस कार्य को पूर्ण किया इस कार्य को करने के पीछे मेरी सिर्फ यह भावना रही कि यह एक पुण्य ग्रंथ है और यह कार्य ईश्वर का कार्य है। इस भावना ने मुझे कार्य करने की शक्ति दी उत्साहित किया और प्रेरित भी आप सब के सहयोग से मैंने यह कार्य संपूर्ण किया है मैं अपने इस कार्य ईश्वर को अर्पित करती हूँ। इस ग्रंथ के अनुवाद में एक बात मैं विशेष रुप से कहना चाहती हूँ कि इस ग्रंथ के अनुवाद में किसी भी तथ्य या सत्य को जोडा नहीं गया है। कन्नड के प्रथम संस्करण का यथारूप अनुवाद किया गया है। अनुवाद का कार्य भावार्थ के आधार पर किया है शब्दार्थ या वाक्यार्थ के आधार पर नही । साथ ही कुछ शब्दो के यथा रूप का भी प्रयोग किया है। वे शब्द कन्नड के तो है पर उन शब्दों के प्रयोग से पाठको को कुछ नयेपन का एहसास होगा। १) राष्ट्रपति के लिये - राष्ट्राध्यक्ष २) टाइप राइटर के लिये - बेरलच्चु ३) कन्नड भाषियो के लिये - कन्नडिगा (हम महाराष्ट्रीय तमिलियन, मलयाली, असमिया आदि शब्दो का प्रयोग प्रांत और भाषा के आधार पर करते हैं तो कन्नड भाषियो के लिये कन्नडिगा। ४) पत्रकारिता के क्षेत्र के लिए - पत्रिकाद्योगी ५) पहाडा के लिये - सरमग्गी कोष्टक ६) शायद के लिए - बहुशः ७) गवाला के लिए - गोटिंगा इस ग्रंथ कार्य की पूर्णता सरस्वती जी के सहयोग के बिना मुमकिन नही था उनका परिचय देना मेरे लिए संतोष का विषय है। 22 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय सार्थक सहयोग सरस्वती सु.होटो सरस्वती सु. होटी, पिता श्री टिप्पण्णाप्पा जी और माता ताराबाई की पुत्री, का जन्म कर्नाटक राज्य के बागलकोट जिला के गुलेदगुड्डा शहर के निवासी के यहाँ ४ सितंबर को हुआ। किशोरावस्था में ही पाँडीचेरी में कार्यरत श्री सुभाष होटी जी के साथ विवाह बंधन में बंधकर अपना वैवाहिक जीवन पाँडीचेरी में प्रारंभ किया । दो पुत्रियों की माता, संकोची स्वभाव की श्रीमती सरस्वती स्वयं में केन्द्रित गृहिणी है। पाँडीचेरी के कन्नड संघ में पति-पत्नी दोनों सक्रिय सदस्य हैं। इस संघ के कार्यक्रमों के कागजातों का श्रीमती सरस्वती यदा-कदा अक्षर विन्यास करती रहीं। इन्ही दिनों श्री कुलकर्णी जी की पत्नी श्रीमती विनुता कुलकर्णी जी के द्वारा रचित कन्नड पुस्तक “नन्न दांपत्यवलय”(मेरा दांपत्य जीवन) का अक्षर विन्यास बखूबी किया और प्रशंसा की पात्र बनी। ___ इसी दौरान मेरी अपनी पुस्तक “अच्छा लगता है" का भी कार्य जारी था तभी इन्होंने मेरे कार्य में भी मेरी भरपूर सहायता की, न केवल अक्षर विन्यास में वरन कविताओं के चयन में, शीर्षक सुझाव में तथा कविताओं को क्रम में से लगाने में से लेकर पुस्तक के प्रकाशन तक मेरे साथ श्रीमती सरस्वती और श्री सुभाष होटी लगे रहे। . ___ यूँ तो मेरा इनसे परिचय बहुत पुराना था परन्तु इस पुस्तक के कार्य के दौरान मेरा परिचय मित्रता और स्नेह में परिवर्तित हुआ । मेरे काव्य संग्रह के कार्य के दौरान ही हमने अर्थात श्रीमती सरस्वती तथा मैंने एक और कार्य चेन्नई से प्रकाशित स्वास्थ्य। में, जिसमें हिन्दी लेख का कन्नड में अनुवाद करने का कार्य हाथ में लिया और इसी कार्य के दौरान हमारी मित्रता और भी धनिष्ठ हो गई । इसी बीच हमने मिलकर और भी कई कार्य साथ में किया जिनमें श्रीमती सरस्वती का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा । 23 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय सिरि भूवलय का कार्य सरस्वती जी के बिना इतनी जल्दी पूरा होना शायद नामुमकिन ही था क्योंकि सिरि भूवलय के ६ अध्यायों के अक्षरों का तथा श्लोकों का उन्होंने अक्षर विन्यास किया है जो एक कठिन कार्य है। __कहते हैं कि ठंडी राख के नीचे गरमाहट होती है जो फिर से आग सुलगाने का सामर्थ्य रखती है, सरस्वती जी के विषय में यह कथन सही जचता है ऊपर से शांत और संकोची दिखने वाली सरस्वती अपने अंदर काम करने की एक अटूट गरमाहट रखती हैं उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए मैं उनका आभार मानती और उन्हें धन्यवाद अर्पित करती हूं । सिरि भूवलय ग्रंथ कार्य की संपूर्णता के लिये मैं अनेक लोगों की आभारी हूं । आभार सिरिभूवलय का कार्य एक धार्मिक कार्य है इसे केवल ईश्वरीय अनुकम्पा से ही पूर्ण किया जा सकता है । अतः जगज्जननी महामाता को नमन करते हुए उनको श्रद्धा भक्ति तथा धन्यवाद के सुमन अर्पित करती हूँ। ___“घर ही प्रथम पाठशाला और माता ही प्रथम गुरु" यह बात मेरे जीवन के इस कार्य सिद्धि में अक्षरशः सत्य सिद्ध होती है। सिरि भूवलय ग्रंथ कन्नड भाषा में है वैसे तो मेरी मातृभाषा कन्नड ही है परन्तु मुझे कन्नड का परिवेश नहीं मिला है क्योंकि मेरे पिताश्री मध्य प्रदेश में कार्यरत थे और मेरा विद्यार्थी जीवन हिन्दी के वातवरण में साँसे लेकर गुजरा परन्तु जैसा कि मैंने कहा कि मेरी माता ही मेरी प्रथम कन्नड गुरु हैं। विधिवत कन्नड भाषा की स्कूली पढाई न उपलब्ध न होने के कारण माता जी ने मातृभाषा की पढाई घर में अनिवार्य कर दी थी और हर रविवार का दिन घर कन्नड स्कूल में तबदील हो जाता उस समय यह पढाई बोझ सी लगती थी और आज उसी बोझ ने मुझे इस महाग्रंथ के कार्य करने का गौरव प्रदान किया । अतः मैं अपनी श्रीमती ए. सरोजा को सादर प्रणाम करते हुए उनको धन्यवाद अर्पण करती हूँ। साथ ही मुझे अपने पिता श्री ए. नागराजराव का लगातार प्रोत्साहन प्राप्त हुआ उनकी भी मैं कृतज्ञ हूँ। मेरे पतिदेव श्री बी.आर. रमेश की मैं आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे यथा संभव सहयोग और प्रोत्साहन प्रदान किया यदि वे मेरी अनुपस्थिति में घर और Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय) - बच्चों की जिम्मेदारी नहीं स्वीकारते तो मुझे इस कार्य को समाप्त करने में और भी विलंब होता । ___ इस कार्य को करने में मेरी तीनों बेटिया, मानसा, अपूर्वा और अक्षता ने मेरा भरपूर सहयोग किया है। गृहकार्य में तो किया ही है साथ ही पुस्तक के कुछ पृष्ठों के अक्षर विन्यास में भी सहयोग किया है मैं उन्हें प्यार के साथ धन्यवाद कहती हूँ। मेरी बेटियों के साथ मैं श्रीमती सरस्वती की बेटी अदिति की भी शुक्र गुजार हूँ उन्होंने ने भी इस कार्य में सहयोग प्रदान किया है। साथ ही श्रीमान सुभाष होटी जी को भी धन्यवाद अर्पित करती हूँ जिन्होंने पुस्तक के कई अंशों को समझने में हमारी मदद की है। ग्रिड इंडिया में कार्यरत श्रीमती नीलम शर्मा तथा श्री सदानंद जी की मैं आभारी हूँ कि उन्होंने इस कार्य का कार्यभार मुझे सौंपा । ___पुस्तक शक्ति के कर्ता-धर्ता श्री वाय.के.मोहन जी का मैं तहे दिल से शुक्र गुजार हूँ जिन्होंने मुझमें विश्वास दिखाया और इस महान कार्य को करने का भार मुझे सौंपा और लगातार प्रोत्साहित किया साथ ही उनके घर के सभी सदस्यों की भी मैं आभारी हूँ । पुस्तक शक्ति के ही से उमेश और श्री आनंद जी को मैं धन्यवाद कहती हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के कार्य में लगातार मुझसे संपर्क बनाए रखा और मुझे हर संभव सहयोग प्रदान किया। इनके साथ मैं कुमार जी को भी धन्यवाद कहती हूँ जिन्होंने आवागमन की सुविधा उपलब्ध कराई। साथ ही सभी परिवारजन और मित्रों का तथा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सभी सहयोगियो का आभार मानती हूं। धन्यवाद सहित स्वर्ण ज्योति 25 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय साहस पूर्ण कार्य सिरि भूवलय की कहानी बहुत ही पुरानी है। १९४५ में जब मैं बंगलोर में एक निजी कॉलेज को प्रारंभ करने के कार्य में व्यस्त था तब सिरि भूवलय का परिचय मिला। उस समय बंगलोर के साहित्य संस्था में वरिष्ठ साहित्यिक, वीरकेसरी, ताताचार्य शर्मा, देवडु आदि और आज के साहित्यिक अनक्रू राम मूर्ति, अर्चिक वेंकटेश आदि के सुरुचि पूर्ण साहित्यिक गोष्ठियो में इस ग्रंथ का विषय उठता था । इस ग्रंथ में कोई रहस्य छिपा है और उस गुप्त लिपि को अंक लिपि कहा जाता है ऐसा सुना था । ऐसे में मैंने श्री यल्लप्पा शास्त्री जी को देखा । उनके सुपुत्र श्री एम. वाय. धर्मपाल मेरे शिष्य थे । इस कारण जान-पहचान बढने लगी । उस समय मैंने इस आँखों देखी ग्रंथ की रीति को समझा । इस ग्रंथ के विषय में अधिकाधिक श्रम उठाकर इसके अंतरंग के शोध में तल्लीन श्री कर्लमंगलम श्रीकंठैय्या और अनंतसुब्बाराय जी से परिचय हुआ। १९५३ में ग्रंथ की छपाई हो कर उसकी प्रति सभी को प्राप्त हुई। अनेकानेक लोगों ने ग्रंथ के प्रति अभिप्राय और लेखों को प्रस्तुत किया फिर भी उसका अंतरंग आज की भाँति ही गोपनीय बना रहा। अंक लिपि को पढ़ने की रीति की खोज श्री यल्लप्पा शास्त्री जी ने की। यह एक महत्वपूर्ण खोज थी। श्री यल्लप्पा शास्त्री जी के निधन के बाद पुनः यह ग्रंथ अँधेरों में गुम हो गया। बहुकाल के बाद पुस्तक शक्ति प्रकाशन के श्री वाय. के मोहन जी ने इसका परिष्करण कर छपाई का कार्य करने का बीडा उठाया। तब इस ग्रंथ का चमत्कारिक स्वरूप मुझे ज्ञात हुआ। तब मैंने उन्हें डॉ. टी. वी. वेंकटाचल शास्त्री जी से सहयोग लेने का सुझाव दिया डॉ. शास्त्री जी ने चित्र बंध के विषय में महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की है और संशोधन भी किया है । ____डॉ. शास्त्री जी, डॉ. मरूळय्या जी और डॉ. गणेश ने मिलकर ज्ञात विषयों के अनुसार लेखों को प्रकट किया है। इस ग्रंथ के लेखक श्री कुमुदेन्द्र मुनि के विषय में तथा आगे अनेक कुमुदेन्दुओं के विषय में विवरणों को इस प्रथम Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय भाग में शामिल किया गया है। अभी इस कवि के विषय में कोई निर्धारण होने पर भी और भी कई अन्य विवरण प्राप्त हुए हैं। सभी अनिर्णय की स्थिति में ही है। इस ग्रंथ को बहुत अधिक पीछे धकेलने की आवश्यकता नहीं है यह मध्य कन्नड के काल में रचित है ऐसा माना गया है क्योंकि ग्रंथ की भाषा में तथा छंदों में इसका प्रमाण मिलता है। अब इस सुन्दर मुद्रण को विद्वानों संशोधको और गणितज्ञों के ध्यान में लाकर एक समूह को इसका संशोधन करना चाहिए। पुस्तक शक्ति का यह कार्य साहस पूर्ण है। पुस्तक प्रकाशन करने वाले धन लाभ का सोचते हैं परन्तु श्री वाय. के. मोहन जी इस उपेक्षित ग्रंथ में जीव संचार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसके प्रकाशन में अनेकानेक रीति से उत्साही श्री वाय. के. मोहन, मुद्रण विन्यास में माहिर उनकी बहू श्रीमती वंदना राम मोहन और आज तक सिरि भूवलय की हस्त प्रति को संरक्षित रखने वाले एम. वाय. धर्मपाल जी का अभिनंदन करना चाहिए। आज कंप्यूटर का युग है इसके प्रभाव से इस ग्रंथ का अंतरंग बाहर आए, समाचार पत्र प्रचार करें गणितज्ञ हाथ मिलाएं। सब मिलकर इस अति उत्तम गवेषण के प्रकाशन का प्रयत्न सफल हो ऐसी कामना करता हूँ । बंगलोर ३०- ०१ - २००३ 27 प्रो. जी. वेंकट सुब्बय्या Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अद्भुत और विस्मयपूर्ण सिरिभूवलय सिरिभूवलय विस्मयों और प्रयत्नों की एक खान है। इस कृति के लिए आवश्यक ध्यान और श्रम, संशोधन और अध्ययन उपलब्ध होने पर सिरिभूवलय संसार के आश्चर्यों मे एक गिना जा सकता है। एक ग्रंथ मे ७१८ भाषाओं में कृतियों की रचना की गई है यही एक अद्भुत आश्चर्यजनक तथ्य है। इन सभी को चक्रबंध संख्या लिपि मे रचा गया है। केवल ६४ संख्याओं में इसे रचने की साधना अपने आप में एक महत्वपूर्ण कार्य है, यह ज्ञात होने पर और इसके अध्ययन में आने वाली समस्याओं का परिहार करने पर, विविध ज्ञान क्षेत्रों से संबंधित कृतियों के प्रकट होने का विचार करने पर मेरे मन में तीन विचार कौंधते हैं । १- मनुष्य के मस्तिष्क की अद्भुत रचनाओं में यह एक है । २- इस रचना मे समाहित प्रतिभा आधुनिक कंप्यूटरों से भी प्रभावी और बेहतर है। इसकी समस्त सामाग्री पुस्तक का रूप धारण करने से पहले, कुमुदेन्दु यति ने अपने मस्तिष्क में व्यवस्थित रूप से अंकित किया होगा न । ३- १२वीं शताब्दी से पहले की यह कृति जब सम्पूर्ण रूप धारण करेगी पर उस समय के बारे में अनेकानेक ज्ञानवर्धक जानकारी हमें उपलब्ध हो सकती है। इस ग्रन्थ की रचना जितनी विस्मयपूर्वक है उतना ही विस्मयकारी इसका गुप्त चरित्र (इतिहास) है । हमारे देश का यह सौभाग्य है कि यह ग्रंथ आज तक सुरक्षित है। प्राचीनतम काल से, पंडित यल्लप्पा शास्त्री कर्लमंगलम श्रीकंठैय्या, श्री के. अनंत सुब्बाराव जी से लेकर श्री एम. वाय. धर्मपाल जी तक इसे संरक्षित करने वाले समस्त व्यक्तियों को हम कृतज्ञता अर्पित करते हैं । १९५३ में प्रथम सिरि भूवलय ग्रंथ प्रकट होने पर भी यह और भी अधिक विस्तृत रूप में डॉ टी. वी. वेंकटाचल शास्त्री जी के विद्वतपूर्ण प्रस्तावना के साथ कन्नड भाषा के हाथ लगने के लिए अर्धशतमान की प्रतीक्षा करना एक विषादमय स्थिति है। पुस्तक शक्ति के श्री वाय. के. मोहन जी और उनकी बहू चि. सौ. वंदना राम मोहन, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय दो साल से इस ग्रंथ को तैयार करने के प्रयास में समर्पित भाव को मैंने स्वयं अपने आँखों देखा है। इन्होंने इस पुस्तक की निधि को भाषाओं को अपने वश में करने के राज मार्ग को दिखाया इन्हें हम अपनी कृतज्ञता अर्पित करते हैं। इस पुस्तक का इतिहास कन्नडीगाओं के स्वभाव के लिए एक आईना है। यूरोप के किसी भी भाषा समुदाय को अथवा अमेरिका वासियों को ऐसा एक ग्रंथ उपलब्ध होता तो, जाने कितने ही संशोधन अलग-अलग दृष्टियों से किए जाते। तब निश्चित रूप से दुनिया भर में इस ग्रंथ का जय घोष गूँजता । ज्ञानान्वषियों को, भारत सरकार को, राज्य सरकार को यहाँ एक आह्वान है और एक अवसर है, एक भंडार बाँहे फ़ैलाए पुकार रहा है । देश कैसे स्पंदित होता है यही प्रतीक्षा है । इस अमूल्य निधि को हमारे हाथ सौंपने के लिए पुस्तक शक्ति के मित्रों को अभिनंदन । मैं आगे प्रथम संस्करण (कन्नड) के विमोचन के अवसर पर माननीय राज्यपाल श्री टी. एन. चतुर्वेदी जी के भाषण का सारांश प्रस्तुत कर रहा हूँ । 29 एल. एस. शेषगिरी राव Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय Extract of the Speech of H.E. The Governor of Karnataka, Sri T.N. Chaturvedi (Release of the First Volume of 'Siribhoovalaya' on 9-3-2003) It is with great pleasure that I release the First Volume of this unique work, 'Siribhoovalaya". It is not just a work but a large treasurehouse of knowledge. It is a triumph of genius. Not the letters. of an alphabet but numerals have here preserved knowledge for future generations. The numbers from one to sixty-four are employed most ingeniously to give representation to as many as 718 languages; these comprise eighteen major languages and seven hundred minor languages. The author, Kumudendu, has chosen his own language Kannada to sustain the entire work. The basic script is also in the Kannada script- This astonishing work comprises 59 chapters and scholars are agreed that in these chapters is embedded ancient knoweldge relating to a wide range of branches. Several patterns have been designed to achieve the astonishing feat of packing so much knoweldge into this single work. It is said that the decoding of 1270 'Chakras will give us a literary work entitled 'Mangala Prabritha'. In addition to Kannada, among the languages represented here are, Prakritha, Sanskrit, Telugu, Tamil, Apabramsha and Pali. Among the branches of knowledge which this amazing work reaches out to are Ayurveda, Astrology, Astronomy, Mathematics and equestrian lore. There is no doubt that here is a veritable mine of varied riches awaiting devoted miners. It would be difficult to exaggerate the importance of this work. As scholars have pointed out, the study of archeolgy, history, mathematics, languages, physics, chemistry, biology, zoology, Ayurveda, astronomy, fine arts and great ancient works like the Mahabharatha, the Bhagavadgita and the Vedas is likely to be stimulated by the information that this matchless work will yield. Besides, several Jaina texts are likely to be recovered from this wonderful creation of Kumudendu Muni. It is important to realise that this work, 'Siribhoovalaya', is not just a product of human ingenuity, not just a clever achievement to marvel at. It is a remarkable endeavour to preserve precious knowledge for generations to come, and is inspired by a genuine devotion to knoweldge and a sense of responsibility towards the future. Scholars tell us, for example, that this work gives us a list of 27 alphabets, including Brahmi, Kharoshti, Yavanani, Saindhava, Gandhara and Bolidi and languages like the Tibetan and the Pérsian languages. One can imagine the effort that this task of creating a single treasurehouse of all these alphabets, languages and knowledge should have demanded. This work is, indeed, an encyclopedia in its own way. He who plans such an encyclopedia has first himself to be a treasurehouse of information and knowledge. He needs to be endowed with a computer-like brain. He must have the gift of a superb orderly mind. He has to be creative, 30 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय and needs the boon of a powerful imagination. And, even if the enterprising genius is adequately endowed in all these ways, what immense patience and effort does such a work demand! In terms of time, effort and energy, this must have been a most taxing endeavour. We feel both admiration and gratitude when we realize the magnitude and the complexity of the task that Kumudendu Muni undertook. Admiration and gratitude are due also to those who preserved this unique composition. The original of this work is not available. But fortunately, a copy which was gifted to Maghanandacharya by Mallikabbe was spared by Time. This copy was treasured by a great scholar. Sri Dharanendra Pandit. It is interesting to recall that, about eighty years ago. Sri Yellappa Sastry was prompted, by his interest in this work to marry the niece of Sri Dharanendra Pandit. Sri Yellappa Sastry subsequently exchanged a manuscript of this work for a pair of gold bangles of his wife. The script contained. 1270 chakras'. This was in 1920. Sri Yellappa Sastry devoted himself to the challenge of this enigmatic treasure. His devoted labour came to the attention of Rashtrapthi Rajendra Prasad who evinced interest in this unique work. Sri Karlamangalam Srikantaiah and Sri K. Ananthasubba Rao joined Sri Yellappa Sastry in this labour of love, and a part of the work was printed in 1953; for the first time this marvellous work came to the notice of scholars and students of culture. It did not contain the table which is, in a sense, the work. On this occasion, we recall with gratitude the dedication displayed by these scholars, Sri Yellappa Sastry, Sri Karlamangalam Srikantaiah and Sri Ananthasubba Rao. Fortunately we have with us another devoted worker in this cause, Sri M.Y.Dharmapal, the son of Sri Yellappa Sastry. We thank him. I should like to take this opportunity to congratulate the Publishers, Pustak Shakti Prakashana, and the proprietor of this publishing house, Sri Y.K.Mohan. Sri Mohan has evinced a keen interest not only in bringing out this priceless work but also in decoding the patterns embedded in the work. His team has continued the work which started about three years ago. The fruit of their labour are made available in the present publication. The path of the publisher is beset with numerous hurdles today, and the market for a work of this kind is uncertain. Sri Mohan has taken this up as a labour of love, and I congratulate him. The work has been ably edited, with a scholarly introduction, by one of the foremost scholars of Karnataka, Dr. T.V.Venkatachala Sastry. I congratulate him on his contribution. What of the future? Lovers of knoweldge from Sri Yellappa Sastry to Dr. Venkatachala Sastry and Sri Y.K.Mohan have made their valuable contribution. It is now for the lovers of the land and of knowledge to ensure that the study of this great work continues. This is a part of our heritage. There is still much to be done in retrieving from this challenging work all that it can give. As yet, we know so little even about the genius, Kumudendu Muni, who composed this work. We are not even certain of his date. The difficult task of decoding the patterns has to be undertaken by scholars. It also needs financial support. Kumudendu Muni belonged to Karnataka and the state is 31 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 0614 rightly proud of him. But the nature of the treasures packed into this work makes it a national asset. Friends of culture both in Karnataka and outside have to contribute to the endevour to retrieve the treasures locked up in this work. In this land which was under the iron heel of slavery for a century similar cultural assets may be still hidden in institutions and residences. Every effort has to be made to locate them and to realize the treasures they can yield. The recovery of our national heritage is a sacred mission. "Siribhoovalaya' is a part of that heritage and the work of the scholars and the publisher who have placed this invaluable work in the hands of readers deserves all praise. I am happy to be associated with this dedication of the work to the country. Once again I congratulate all those friends who have participated in this most commendable endevour. Today I have also had the previlege of felicitating three eminent personalities at this splendid newly built RASUKUMAKI hall. In the centenarian, Pandit Sudhakara Chaturvedi, we have a giant of scholar in the sphere of Vedic studies. He had the rare good fortune of studying the four Vedas and the Darshana Sastras at the feet of a Guru in a Gurukula. He has initiated hundreds of disciples into the study of the Vedas and has written with authority on the Vedas, on Veda Matha Gayathri and on yoga, in three languages, Sanskrit, Kannada and English. He is one of the authorities today on Vedic lore and ancient Indian philosophy and thinking. But he is not a student of ancient lore who keeps poring over ancient texts in seclusion. A disciple of the dynamic Shraddhananda and an associate of Gandhiji, our Panditji has participated in the struggle for freedom and has suffered imprisonment; he has toiled for radical reforms in the Hindu society. He is a rare blending of a profound scholarship and dynamic action. Justice Dr. Nittur Srinivasa Rao won laurels as a member of the Bar and as a member of the Bench; he presided over the Karnataka High Court with distinction. He is also a symbol of concord and cordiality. His association with the Gokhale Institute of Public Affairs founded by revered thinker, Dr D.V.Gundappa, for several decades bears testimony to his temperament of silent service. He has been associated with numerous institutions of public service. Now in his hundredth year, he still evinces a keen interest in their activities. Professor G. Venkatasubbaiah has won the gratitude of thousands of students by his lively and illuminating guidance. He is one of the authorities on lexicography today, and the common man in Karnataka turns to him for guidance in the correct use of Kannada. He is the author of several scholarly works and has also served Karnataka as the President of the Kannada Sahitya Parishat. Pustaka Shakti is honouring itself today by felicitating these three eminent personalities who serve as models to the younger generation. I pray that they will be with us, in excellent health, for many years to come. 32 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय A Unique Poem that belongs to All Mankind In his introduction to "Siribhuvalaya", which the Governor of Karnataka released on 9th March 2003, Dr. S.S.Marulayya says, "We need not hesitate to place the 'Siribhuvalaya' among the Wonders of the World. This is a religious poem based on numerals, a poem at once rare, matchless and exceptional. It is a Jaina Poem. It employs Kannada numerals, but encompassing 718 languages of the world, it is a miraculous and a special work of art and a challenge to the study of languages itself. Hence it is that Kumudendu Kavi has called it 'a Karnataka poem that comprises. all languages, and a poem for all mankind"." This work does not employ any alphabet. It is set in a frame of squares and is in a numerical script. The metre is mainly the 'Saangathya' of Kannada poetry. Numbers from 1 to 64 represent the letters of the alphabet in each composition. These numerals are placed in 729 squares formed by a super square of 27 squares horizontally and 27 squares vertically. These numerals have been arranged in a variety of patterns. The poet himself has named some of these Chakrabandha, Hamsabandha, Varapadmabandha, Sagarabandha, Sarasabandha, Kruanchabandha, Mayurabandha, Ramapadabandha, Nakhabandha etc. Essentially, his is a religious outlook. Dr. T.V.Venkatachala Sastry, who has edited the present version, sums up the contents of the work in these words: "Editors and scholars have said that in this exceptional work, matters relating to the basic sciences, matters relating to philosophy and lore relating to medicine, atomic science, astronomy, mathematics, history and culture, as well as extracts from the Vedas and the Bhagavadgita, have been embedded." The numerals in the 729 squares have been arranged in different patterns. As the patterns are identified and decoded, the work surrenders its treasures. Lie hidden in the work are 718 languages and 18 scripts. Apart from Kannada, several languages like Prakrita, Sanskrit, Telugu, Tamil and Marathi have been woven into this text. It has been claimed that several ancient works like the Ramayana, the Mahabharatha and the Rigveda are also embedded. One of those intimately connected with this work, Karlamangalam Srikantaiah, has claimed that the then available knowledge in several disciplines like alchemy, the science of matrimony, atomic science and space science is stored here and that medical science in particular has abundant material. He claims that the work contains instructions for travel in water and space travel. It is also said that the work contains information about the production of modern weapons. Dr. S.Srikanta Sastry is a revered name in the study of Indian history and culture. He has elaborated the importance of this work in these words: "This work is of great importance in the study of Kannada language and Literature and the literatures of Sanskrit, Prakritha, Tamil and Telugu. It throws light on the history of India and the history of Karnataka. This is an important source for the study of Indian Mathematics. It is helpful in the study of the development of Physics, Chemistry and the Life Sciences in India. It helps in the study of sculpture and iconography. If the 33 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूवलय versions of the Ramayana, the Mahabharatha, the Bhagavadgita, the Rig Veda and other ancient texts can be decoded, a comparison of those versions with the present day versions would be rewarding. Some Jain works which have been lost may be recovered from this work." But before all this materializes, two tasks have to be completed. First of all, more information and more authentic information has to be unearthed about this Kumudendu Muni (or Yathi). Who was he? To what age and what place did he belong? These questions must find acceptable answers. His date is particularly important. In his lengthy preface to the first edition, Karlamangalam Srikantaiah says the work might have been composed in around 800 A.D. Dr. Venkatachala Sastry, in his lengthy introduction to the latest edition, is of the view that the author belonged to a village called Yalavalli near Nandidurga in Chikkaballapura Taluk in Kolar District. He places the work in the 1550-1600 period and suggests it might be even more recent. (Prof. S.K.Ramachandra Rao says that the component 'Bhu' means all existing creatures' and 'valaya' means 'circle', and that the title suggests that the work concerns all living creatures of the earth.) The second task is that of exploring the treasures of this mine. What has been done so far is very limited. What is yet to be done is considerable. This work has never received the attention it merited. The history of the work is as thought-provoking as it is interesting. Sri Srikantaiah says that the original manuscript of the work is not available. A lady Mallikabbe by name had a few copies made and gave them away as a religious act. One copy survived. The copy was in possession of a renowned Jain scholar, Dharanendra Pandit, of the village Doddabele. On his death his sons inherited it. They were in a state of crippling poverty and began to sell away the precious manuscripts they had. A gentleman Yellappa Sastry by name was deeply interested in this work. He married the daughter of Dharanendra Pandit's brother, in order to secure the manuscript. The owners of the script were not in a position to give away the work free. Yellappa Sastry gave a pair of his wife's gold bangles in exchange for the manuscript. This is how this one copy survived. Srikantaiah became acquainted with Yellappa Sastry in 1935, and his interest was aroused. His devoted efforts made possible the publication of the first part of the work in 1953, and the publication of the second part in 1955. With him toiled Sri Ananthasubba Rao. (The first president of India, Dr. Rajendra Prasad, became interested in this work.) The work was in the possession of Sri M.Y.Dharmapal, the son of Sri Yellappa Sastry. Sri Y.K. Mohan was his colleague in the Hindustan Aeronautics of Bangalore; he is also the proprietor of the publishing house, “Pustak Shakti'. The work fascinated him. Sri Mohan, his daughter-in-law Vandana Ram Mohan and their associates toiled for two years and have now brought out this edition. An editorial board was constituted and Dr. Venkatachala Sastry was entrusted with the work of editing. His scholarship, dedication and toil leap to the eye here. All these who have taken such care of this precious work deserve our gratitude 34 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय The picture on the cover of the new edition offers an artist's conception of Kumudendu Muni at work. It shows him sitting under a tree, lost in his composition. The circle in which he is enclosed contains Kannada and Arabic numerals from 1 to 64, with corresponding letters from Kannada, Hindi and English. This edition includes the preface to the first edition by Karlamangalam Srikantaiah, the introduction to the present edition by Dr. Venkatachala Sastry, chapters 1 to 8 of the work, tributes to the work, the views of scholars, photographs, and a guide to the study of the work. Had this work been found in America or any Western country, a Foundation would have been formed exclusively for the study of this work. Seminars would have been held and research publications would have been brought out. What is now called for is a devoted but objective study of this work by scholars belonging to different disciplines. Sri Y.K.Mohan has done the spade work with exemplary devotion. Universities, academics and affluent persons interested in the heritage of the land have now to build on this foundation. Prof. L.S. Seshagiri Rao 267, Jyothi, 9-A Main Road, 3rd Block, Jayanagar, Bangalore 560 011 35 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय) शुभकामनाएं-अभिप्राय विद्यालंकार, शास्त्रचूडामणी, संगीतकलारत्न, वेदशास्त्रनिधि, विद्यावाचस्पति प्रो. एस. के. रामचंद्रराव जी का अध्यक्ष भाषण (दिनांक ९-३-२००३ का सिरिभूवलय के प्रथम संस्करण के विमोचन समारोह में) सिरि भूवलय से मेरा रिश्ता चालीस साल का है। मैं मिथिक सोसैटी जर्नल में संपादक था, श्री विद्यार्णव तंत्र के ऐकोनाग्रफी विभाग में काम कर रहा था उसी संदर्भ में यह सिरि भूवलय ग्रंथ मेरे पास आया था । मेरे गुरूजी डा. एस. श्रीकंठशास्त्रीजी के साथ इसके विषय में अनेक बार चर्चा की थी। इस ग्रंथ के लिए मेरे मित्र डा. टी. वी. वेंकटाचलशास्त्रीजी ने उत्तम प्रस्तावना लिखी है। अत्यंत प्रौढ, विद्वतपूर्ण इस प्रस्तावना से भी अधिक किसी को कुछ कहना असाध्य हैं ऐसा हमें लगता है। परंतु यह ५९ अध्यायों से रचित अंक शैली ग्रंथ हैं । इसको सांगत्य शैली में परिवर्तन किया गया हैं । इस ग्रंथ का "अवलोकन करते समय इसके बारे में पुनः पुनः चर्चा करते समय मेरी समझ में आए कुछ समस्याओं और अभिप्रायों को आपके सामने रखू तो मेरा कार्य संपूर्ण हो गया ऐसा मुझे लगता ___ इन अंकों से ग्रंथ को, ग्रंथ के भाग को लिखने की पद्धति हमारे वेदों में अर्थातः ऋग्वेद में दिखाई देती है । वहां 'अस्यवानीय सूक्त' का क्रम है। इस अस्यवानीय सूक्त में अंकों को प्रयोग कर, अंकों के द्वारा अंकों से ही उच्चारित करते हुए देवताओं और देवता कर्मों को व्यक्त किया जा सकता है। अत्यधि द्धशांगुलम' त्रिपादृर्ध्व उदैत्पुरुषः' त्रिरग्निः' पंचदावरुणः' इस प्रकार देवताओं का उच्चरण करते समय अंकों से कहने का नियम, संप्रदाय वेद काल से ही चला आया है। किंतु इस सिरि भूवलय में कहेनुसार संपूर्ण ग्रंथ को, ग्रंथ भाग को ही अंकों से कहकर उसे ध्वनित करने की पद्धति, कब शुरु हुई ? कैसे शुरु हुई ? ऐसे एक ग्रंथ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय को संस्कृत भाषा में या प्राकृत भाषा में या किसी भी देश भाषा में मैंने नही देखा । यह एक अपूर्व और अद्भुत ग्रंथ है। यह अंक कितने हैं? लिपियाँ कितनी हैं ? अनेक भिन्न भिन्न लिपियां थी। हेमचंद्र का कहना हैं कि ३२ तरह का लिपियां हैं । उनमें से गळीत' एक हैं । प्राकृत में गळीत का अर्थ है आज का गणित । ' नवांग' कहने वाला इस अंक गणित में एक पद्धति है । यह नौ संख्या को रखकर प्रयोग पद्धति है। नवो नवो भवती' यह श्लोक बार - बार प्रयोग होता है। इस नव' का अर्थ नया' और नौ' है । नवोभवती' में यह नौ संख्या नए रूप से मिला हुआ हैं । इसे, इस पद्धति को परिष्कृत रूप से, श्रेष्ठ रीति से, संपूर्ण ग्रंथ को इस शैली में, अंक पद्धति में रचना, यह एक अपूर्व साहस का कार्य है। यह बात सभी को अपनानी चाहिये । अब इस ग्रंथ के कर्त्ता कुमुदेंदु के विषय में इस समय प्राप्त जानकारियां कितनी सही हैं : मुझे थोडा अनुमान है। यह सांगत्य शैली भी किस काल की हैं यह हमें ज्ञात नहीं हैं । इसमें १४वीं सदी के बाद में प्रयोगित तथ्य आतें हैं । यह कैसे संभव होगा ? विमर्शकों और अभ्यासियों को विचार करना पडेगा । यह ग्रंथ शैली अंक पद्धति है तो, यह कौन सी अंक पद्धति है ? इसमें चक्रों को दिया गया हैं । चक्रबंधों में काव्य को लिखने का नियम प्राचीन काल से प्रचलित है । इसमे पद्म, हंस, इत्यादि चक्र ही होतें हैं । संस्कृत साहित्य में इस विन्यास में लिपियों को चक्राकार रीति में आयोजित किया जाता है । परंतु इसमें अंक है । कवि ने अंकों का ही प्रयोग कर चक्रों को बनाया है । अंकों को देकर पदबंध की रचना करना एक अद्भुत कार्य है । इसलिए यह ग्रंथ हमें आश्र्य चकित करने के साथ-साथ कुतूहल भी उत्पन्न करता है । इस स्वारस्य (गूढार्थ) क्या है ? कवि कहते हैं कि यह सर्वशास्त्रमयी, सर्वभाषामयी, सर्वधर्ममयी' है । इसमें ७१८ भाषायें समाहित हैं । उसमें से १८ भाषाओं को महाभाषा कहते और इनकी सूची भी दी गई है । इन १८ भाषाओं की सूची में से हमें निश्चित जानकारी केवल १० भाषाओं की है । शेष ८ भाषायें कौन सी है ? यह हमारे कल्पना से बाहर हैं । ७०० भाषाओं को क्षुल्लक भाषा' कहते है। इसका अर्थ मैनर (लघु) भाषायें हैं। इन सात सौ भाषाओं में पारसिक', जावनिक’, यवनिय' ( अन्य देश का ) ऐसे सुलझाया गया है । इसका विभाग कैसे 37 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय किया जाए ? इन अंको से प्राप्त सांगत्य को साहित्य को इस पहेली को कैसे सुलझाया जाए? इस विषय पर विशेषतः ध्यान देना आवश्यक है। यहां सभी भाषायें है, सभी शास्त्र भी यहाँ हैं । ऐसा कवि कहते है । रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, वैद्यशास्त्र, आदि उदाहरण देतें हैं । एक स्थान पर कहते हैं यह जिन के द्वारा किया जाना वाले व्रत है । जब तीर्थंकर जिन बनते हैं तब 'समवसरण' जैसा एक व्रत करतें हैं । उस समवसरण की एक दिव्य ध्वनि है ऐसा कवि कहते है । यह एक आश्चर्यजनक विषय है । पशु, पक्षी, मनुष्य, मृग, गंधर्व, यक्ष इन सभी के समझ में आने की भाषा में तीर्थंकर, जिन उपदेश करते हैं । यह समवसरण सभा में सभी जीवियों को मिलाकर उपदेशित, उपदेश है । यहाँ कवि कहते है की मै जो कह रहा हूं वह दिव्यध्वनि' है । फिर कवि एक कदम आगे जाकर कहते है कि मै एक तीर्थंकर । कवि स्वयं तीर्थंकर होकर समवसरण में जिन जैसे उपदेश करते हैं वैसे मैने इस सिरिभूवलय को लिखा है, ऐसा कहते हैं । इस भूवलय' की बात कुछ स्वारस्यमय है । वेंकटाचलशास्त्रीजी के अभिप्राय में यलवभूरिसि' को विलोम क्रिया में पढे तो सिरिभूवलय' बन गया यह बात तो ठीक है लेकिन यह एक और अर्थ में है ऐसा लगता है । भूवलय' जैन सिद्धांत में एक पारिभाषिक शब्द है । भूसत्तायं धातु को रखकर यह शब्द रहा होगा । भू' का अर्थ, जो है वही अस्तित्व में रहे सभी प्राणियों को स्थान देना है। स्थल निर्देशवाची भूवलय' ऐसा हेमचंद कहते हैं । इसलिये यहां भू' का अर्थ भूमि नहीं है । वलम' का अर्थ, वृत्त या चक्र है । अनाव्यनंतोव विस्तीर्णहो वलयः ' अस्तित्व प्रक्रिया भूमि पर आदि - अंत्य का मेल है। पशु - प्राणियों का सहज क्रिया क्या है वही इस भूवलय में आता है। I एक और स्वारस्य यह है कि रसवाद के विषय में कवि कहतें हैं। यह रसवाद का अर्थ आल्केमि' है, लोहे को सोना बनाना ही रसवाद, आल्केमि है शरीर रस कायरस भी एक है। काया को वज्रकाया बनाना। चाहे कोई बिमारी हो या बुढापा हो इसे रोकना हैं । सामान्य शरीर को वज्रकाया बनाना ही रसवाद है । परंतु कुमुदेंद हमें ज्ञात रसवाद को नहीं बताते हैं । जैन परिभाषा में इसे एक और अर्थ में कहते हैं । सभी तीर्थंकरों ने भी इसी रससिद्धि के लिये ही तप किया है ऐसा कवि कुमुदेंदु कहते हैं । यह एक आश्यर्यजनक बात है। 38 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय) यह कैसे इस रसवाद में दिखाई देता है कि इसमें शास्त्र विचार, भूगोल विचार, रसायनशास्त्र विचार, जहाज विचार, विज्ञान विचार, जलशास्त्र विचार, और दांपत्य विचार भी आते हैं। परंतु कुमुदेंदु कवि कहते है कि समवसरण काल में दिव्यध्वनि का अनुसरण करते हुए मैंने इस धवल ग्रंथ को लिखा है। जैनशास्त्र के षड्खंडागम में आने वाला प्रक्रियायें क्या है? कोई भी भौतिक वस्तु हो उसका एक आध्यात्मिक स्थान हैं। अध्यात्मिक स्थान को छोडकर कोई तात्पर्य नहीं है । सिरिभूवलय में तीन रत्नत्रय विषय जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र यह तीनों रत्न मानव का मुक्ति मार्ग है । यह जैन होने के कारण तीर्थंकर का मार्ग अपनाने के कारण ग्रंथ के आरंभ में ही आठवें तीर्थंकर के विषय में विवरण प्राप्त होता है। यहां इस रत्नत्रय जैसे रस-गंध-लौह मिलने पर रसवादवतिशय वैद्यभूवलय को' रत्नत्रय का भूयॊषध है' ऐसा कहते है । जलपद्म सात, स्थान पद्म सोलह, पर्वत पद्म सात' हैं ऐसा रसवैद्य कहते है । वह आल्केमि' के विषय में कह रहें हैं ऐसा लगता है । परंतु उनका लिखावट देखकर : भव्यजीवरन् जिनरागि माडिप रसवैद्यविदु' ऐसा कहते है । आध्यात्मिक और भौतिक रूप से दर्शन देने के तत्व को यहां स्पष्ट किया है । यहां इस प्रकार से विवरण देते है कि जलपद्मनाभी, करपद्म-हृदय, स्थलपद्म-शीश है। यह सामान्य लोहे को सोने में परिवर्तित करने की रसविद्या नहीं है । काया को वज्रकाया के रूप में परिवर्तित करने की रसविद्या है । इसका अर्थ सामान्य मानव को जिन बनाना है । इन तीन रसों को पीस कर अर्थात शरीर के तीन स्थानों की नाडियों को योग से साधित कर प्राप्त होने वाला पादरस (पारा नहीं) को अरहंत के पदरस को-वेद में प्राप्त तद्विष्णोः परमपदं' जैसे पवित्र पाद को- आठ परत चढाकर कर ध्यानाग्नि से उज्वल बनाने का आध्यात्मिक साधन का रसवाद हैं । इसे ही कवि 'भव्यजीवरनु जिनरागि माडिप रसवैद्यविदु', ऐसा कहते है । __ अंकों से सांगत्य को समझना जितना कठिन है उतना ही कठिन सांगत्य से तात्पर्य को समझना भी । इस प्रकार अर्थगर्भित भावगर्भित, ध्वनि से समाहित इस महाकृति के प्रथम संस्करण को हमारे मित्र ने सत्यकल्प भाव से प्रकटित किया है । यह हमारे वाय. के. मोहनजी और उनके मित्रों का अद्भुत कार्य है। 39 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरिं भूवलय कुमुदेंद ने इस महाग्रंथ को लिखने में जितना प्रयास किया है उतना ही प्रयास करके श्री मोहनजी ने इस ग्रंथ का प्रकाशन किया है । आगे और अनेक संस्करणों को प्रकाशित करने की अभिलाषा श्री मोहनजी को है । साथ में एक प्रतिष्ठान भी बनाया है। आगे क्या करना हैं? इस ग्रंथ के ५९ अध्यायों को ५९ विद्वानों में वितरण कर उसका मूल तात्पर्य क्या है? सूक्षम अर्थ क्या है? ध्वनि क्या है ? शास्त्र सिद्धांत क्या है ? समन्वय क्या है? इन सब को स्पष्ट करना तनशुद्धि के लिये प्राणवायु अर्थात चौदह पूर्व' ऐसी कल्पना जैनों में है। इसमें दृष्टिवायु का अर्थ प्राकृत का केवल दिट्टवायु' ही बचा हुआ है । यही दिगंबर जैन पद्धति का मूल है । इस पर आधारित षड्खंडागम ही भूतबलि को कहने वाला ग्रंथ है । इसको धवळ' नाम की वीरसेन का टीकाग्रंथ है । इस पर आधारित यह सिरिभूवलय ग्रंथ है । यह द्वैत, अद्वैत-अनेकांत को एकत्र कर, समीकृत प्राणवायु को ढूंढने का योगसिद्धि है । इसमें जिस किसीको आसक्ति सिद्धि, प्रवेश, प्रौढता(गहनता) है उसका शुभ हो ऐसा कहते हुए वाय.के. मोहनजी को अभिनव कुमुदेंदु' नाम से हम इस दिन सम्मानित करते है । 40 - - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय सिरि भूवलय अभिव्यक्ति प्रस्तावना प्रसिद्ध ग्रंथ सिरिभूवलय का द्वितीय संस्करण मुद्रित होकर अब आपके अवलोकन के लिये तैयार है । इस ग्रंथ के प्रथम भाग के प्रकाशन से अनेक आसक्तों का ध्यान आकर्षित हुआ है । कन्नड राज्य के कोने कोने से कन्नड में आसक्त अन्य प्रांतों से सिरिभूवलय के विषय में अपने अभिप्राय को प्रकट कर उस ग्रंथ के संपूर्ण स्वरूप जानने के लिये विद्वानों की व्याकुलता को विचार से प्रकाशकों को समाधान मिला हैं । परंतु इसका मूल्य अधिक होने के कारण एक साथ प्रकाशित करना कष्टकर है । संपूर्ण ग्रंथ को इस समय प्रकाशित दो संस्करणों मे ही मात्र प्रकाशित करें तो भी कुल मिलाकर आठ संस्करण हो सकते हैं । इसलिये प्रकटित संस्करणों का विक्रय जितनी जल्दी होगा उतनी जल्दी प्रकाशित करना मुमकिन होगा । कुल ग्रंथ विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत होने के कारण तीव्र गति से उसका पूर्णसत्व प्रकट होगा। ग्रंथ के आगे बढ़ने के साथ-साथ कुतूहलजनक होने के कारण इस ग्रंथ को जल्द से जल्द मुद्रित करने का सारे प्रबंध जारी हैं । सिरिभूवलय एक श्रेष्ठ चित्रकाव्य है । चित्रकाव्य के अनेक प्रकार प्राचीन काल से रचित होते रहे परंतु उनका चमत्कारजन्य सुंदर अनुभव केवल विद्वान ही करते रहें । यह जनसामान्य संपत्ति नहीं रही। केवल विद्वानों के द्वारा ही उनकी सुंदरता प्रकट होती थी। एक समय था जब संस्कृत भाषा में चित्रकाव्य की रचना अधिक होती थी। इन चित्रकाव्यों की संवृद्धि के लिये राजाओं का प्रोत्साहन और विद्वानों का स्पर्धा मनोभाव ही मुख्य कारण रहा है । इस प्रोत्साहन के कारण अनेक कवियों ने संस्कृत में चित्रकाव्यों की रचना की। उन कवियों के एक लंबी नाम सूची ही होगी। इस प्रकार के काव्यों की संख्या अत्यधिक होने के कारण उन कृतियों का मूल्य निश्चित करने के लिए एक प्रामाणिक सूत्र का होना अवश्य था । आलंकारों ने भी इन चित्रकाव्यों को सामान्यतया क्षुद्र ही समझा था थे। परन्तु अत्यधिक संख्या Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिं भूवलय में रचित इन चित्रकाव्यों की उपक्षा नहीं कर सकते थे। धीरे-धीरे आलंकारिकों ने भी चित्रकाव्यों को अपनाकर, शब्दालंकार के चित्रों को, चातुर्य भरे वाग्बंध साहित्य को महत्व देना प्रारंभ किया । आगे चमत्कारों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान किया। एक समयकाल में शब्द वैचित्र्य और स्वरूप वैचित्र्य से भरे चित्रकाव्यों की ही प्रधानता होने के कारण रसवत्काव्यों का महत्व कम भी हुआ था। तेलुगु साहित्य में संस्कृत के चित्रकाव्य पद्धति के अनुसरण की एक परंपरा चली आई है । अवधान पद्धति के प्रखर होने से चित्रकाव्य रचना को और अधिक प्रोत्साहन के साथ गौरव भी प्राप्त हुआ। तेलगु साहित्य में राघवपांडवीयमु आदि ग्रंथ के साथ-साथ अनेक अन्य ग्रंथों की प्रगति भी हुई । शायद यह कहना ठीक होगा कि कन्नड में चित्रकाव्यों के प्रारंभ के लिए संस्कृत से अधिक तेलगु का ही प्रभाव था । विजयनगर साम्राज्य के समय में यह प्रभाव कन्नड पर अधिक हुआ होगा । कन्नड में यमक इत्यादि शब्दालंकार साहित्य के उदय से पूर्व ही रहा होगा | विजयनगर साम्राज्य के समय में पडे प्रभाव के परिणाम स्वरूप कन्नड में भी अनेक चित्रकाव्य रचे गए हैं । परंतु तेलुगु भाषा के बराबर नहीं । वेश्यावाटिकाओं के वर्णन में प्रमुख रूप से पदिरुनुडि चदुरूनुडि (पदिनुडि/चदुर्नुडि) के अलावा अन्य चित्रकाव्य भी हैं । इस विषय में गहरे अध्ययन के उदाहरण उपलब्ध नहीं है । डा. टी.वी. वेंकटाचलशस्त्रीजी के द्वारा रचित कन्नड चित्रकाव्य एक अद्भुत जानकारियों से समाहित ग्रंथ है । उसमें कन्नड चित्रकाव्यों का और चक्रबंधों का दीर्घ परिशीलन किया गया है । वैसे देखा जाये तो कन्नड में यही एक स्पष्ट ग्रंथ है । डा. वेंकटाचलशास्त्रीजी के ग्रंथ के प्रकाशित होने के पश्चात भी उसको पढ कर परिशीलन करनेवालों में से केवल कुछ ही कन्नड विद्वान हैं । बोलचाल के समय में भी उस ग्रंथ के विषय में संवाद जारी रखनेवाले अपेक्षित विद्वानों को मैंने नहीं देखा है । अर्थातः इस तरह के चित्रकाव्यों के परिशीलन के लिये आवाश्यक सावधानी, आतुरता, कुतूहल और प्रयत्न करने का उद्देश्य नहीं दिखता था । 42 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय विशेष रूप से एक मुख्य विषय कहना चाहता हूं । चित्रकाव्य एक समस्या को उत्पन्न करता है। इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिये थोडा समय चाहिये। जिसके लिये एकाग्रचित्त होना आवश्यक हैं । वरना उसके सम्मुख एक क्षण भी नहीं बैठ सकते है । बैठकर ध्यान से समझने का प्रयास करते तो कुछ समस्याओं का समाधान जरूर प्राप्त होता । इस तरह समाधान मिलने पर मन को संतोष और संतृप्ति प्राप्त होगी। अर्थातः धीरे-धीरे समस्या का समाधान ढूंढना चाहिये । ऐसे अवसर को तलाश करनेवालों को हम कहां ढूंढें ? इस स्थिति में हम सिरि भूवलय' के द्वितीय संस्करण को देख रहें हैं । आज समस्याओं का सामना करने वाले साहसी युवकों की संख्या प्राचीन काल से भी अधिक है। गणक यंत्रों (कंप्यूटर) की शक्ति दिन पर दिन बढती जा रही हैं । सालों तक चलनेवाले समस्याओं को केवल कुछ ही घंटों में हल करने के नए बौद्धिक क्रम को इस युग में देख रहें हैं । विद्युन्मानशास्त्र और गणकशास्त्र दोनों के मिल ने से क्या चमत्कार होने वाले हैं इसका अंदाजा, साहित्य आसक्तों को अभी भी ज्ञात नहीं है। इस कारण सिरि भूवलय जैसे चित्रकाव्य को संपूर्ण रूप से परिशीलन कर उससे प्राप्त सभी विषयों को संग्रहित कर, विस्तृत करना विद्वानों का कर्तव्य है। इस के लिये महाविद्यालय शोध कर्त्ताओं को नियुक्त कर सकता है। शोधकर्त्ताओं को आवश्यक वैज्ञानिक परिकरों (सामाग्री) को भी उपलब्ध करा सकता है। अर्थातः सिरिभूवलय' को शोध का विषय स्वरूप बनाना होगा। कन्नड भाषाविदों को, सृष्टिशील रचना में आसक्त लेखकों को, सवाल बना यह अत्यपूर्व ग्रंथ सिरि भूवलय' का विश्लेषण कितना आवश्यक है, यह स्ष्ट होता है। द्वितीय संस्करण में संपादकों ने अनेक और अधिक सुविधाओं को प्रदान किया है। नये जोडे गए चक्रबंधों के विविध स्वरूप के बंधों की संख्या अधिक हुई है । चक्रों और अन्य स्वरूप चित्रों के साथ उन स्वरूप में रचित चित्रकाव्य भी हैं । इनका अध्ययन ही एक बौद्धिक व्यायाम और नए संशोधन के लिये मार्गदर्शक भी होगा । युवा विद्वानों को प्रयत्न करना चाहियें । 43 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय सार्वजनिकों से विद्या संस्थानों से मेरा एक निवेदन है कि इस ग्रंथ को खरीदकर सहयोग करे तो हम आगे के संस्करणों का मुद्रण तीव्रगति से कर सकतें हैं । यह सार्वजनिकों का बहुत बडा सहयोग होगा । मुझे इस तरह के सहयोग मिलने का विश्वास है । इस संदर्भ में पुस्तकशक्ति के मालिक, शास्त्रग्रंथों के प्रकाशन में आसक्त श्री वाय. के. मोहनजी के साहस के विषय में थोडा विवरण देना आवश्यक है I श्री धर्मपालजी के पास, वंशजों द्वारा सुरक्षित सिरिभूवलय का क्षति ग्रस्त एक प्रति थी। उस प्रति को प्रकाशित करने के लिये कोई भी तैयार नहीं था । कर्नाटक का कोई भी विश्वविद्यालय या कन्नड साहित्य परिषद भी इस प्रति को प्रकाशित करने में किसी भी प्रकार की सहायता देने के लिये तैयार नहीं थे। इसके अलावा धर्मपालजी के पास रक्षित सिरिभूवलय की प्रति में भी संपूर्ण जानकारी नहीं थी। इस ग्रंथ के विषय में विद्वानों को अधिक संशोधन के लिये उचित विवरण भी उपलब्ध नहीं था । हस्तप्रति भी क्षति ग्रस्त थी। श्री वाय. के मोहनजी, इस ग्रंथ के प्रकाशन को एक चुनौती समझ, स्वीकार कर, आवश्यक सामग्री और प्रोत्साहन देने के लिये आगे आए। ६०७० सालों से गुमनामी में डूबे इस विशिष्ट ग्रंथ के मुद्रण के लिये दल-बल समेत खडें हो गये । कर्लमंगलं श्रीकंठय्या जी के संपादकत्व में प्रकाशित सिरि भूवलय ग्रंथ विद्वानों द्वारा परिशोधन के लिये आवाश्यक जानकारी से समाहित नहीं था । मूल सिरि भूवलय में कुमुदेंदु मुनि के अंकलिपि में निर्मित चक्रबंधों को नहीं दिया गया था । यह साहित्य नया ही बन गया । श्लोकों को पढने का क्रम क्या हैं ? यह समस्या, समस्या ही रह गई । यल्लप्पा शास्त्रीजी द्वारा निर्मित साहित्य शोधन का कारण क्या है नियम क्या है? यह किसी को भी ज्ञात नहीं था । प्रथम संस्करण का नूतन मुद्रण इन सभी कष्टों से सिरिभूवलय को उबार कर उसके अध्ययन के लिये आवश्यक सभी अंशों को इकट्ठा कर, ग्रंथ को अत्यंत मनोहर बनाने के लिये पुस्तक शक्ति आगे आया । प्रप्रथम इस ग्रंथ के, प्रथम संस्करण का मुद्रण, सिरिभूवलय कन्नड में रचित प्रप्रथम अंकलिपि ग्रंथ है । अंकलिपि में समाहित चक्रों को अंक चक्रों के नाम से संबोधित करेंगे। 44 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय इस नूतन प्रथम मुद्रण में अंक- चक्रों को बिना किसी लोप दोष के समाहित किया गया है। प्रथम मुद्रण में पाए गए अनेक मुद्रण दोषों को सुधारने के लिये इन अंक - चक्रों की सहायता ली गई है। ग्रंथ के प्रथम आठ अध्यायों के ८५ अंकचक्रों को संकलित करके उनको नवमांक बंध में पढने के एक क्रम जानने और मुद्रण दोषों को सुधारने के लिये तीन साल का समय लगा । इस समय में मोहनजी के पुत्रवधु श्रीमती वंदना जी का कंप्यूटर परिज्ञान से बहुत मदद मिली । इस प्रकार प्रथम मुद्रण को सुधार कर प्रचलित कन्नड लिपि में पढने के लिये उपयुक्त हो इस प्रकार से मुद्रित किया गया है। उलझनों का यहीं अंत नहीं था। मुद्रण के स्तर में पहले आने वाले छायाक्षरों को मिलाने में अनेक कष्टों का सामना करना पडा । इस ग्रंथ का प्रत्येक चक्र में १ से लेकर ६४ तक अंकों का उपयोग किया गया है । इन अंकों के लिए समान अक्षरों को यल्लप्पा शास्त्रीजी ने ढूंढा था। हमने चक्रों को डी.टी.पी में मुद्रित करने के लिये प्रयत्न किया तब नए अक्षर मिलें । उदा : आ, ईी, एगा, और, ऐ, ऐौ - इत्यादि । इन कुछ उलझनों को सुधार कर - सिरिभूवलय के प्रथम संस्करण को अत्यंत सुंदर रूप में ईस्वी २००३ के मार्च महीने में प्रकाशित किया गया है । वह संस्करण सभी के प्रशंसा का पात्र बना। प्रशंसा के बारिश में भीगने के बावजूद प्रतियों की बिक्रि में कोई भी प्रगति नहीं दिखाई दी। फिर भी वाय. के. मोहन जी का उत्साह कम नहीं हुआ । तत्कालीन राष्ट्रपति डा. बाबु राजेंद्र प्रसाद जी ने इस पुस्तक की प्रति सावधानी होने के कारण उसकी माइक्रो फिल्म बनवाकर एक पति को दिल्ली के प्राच्यकोषागार में रखवाया। मोहन जी ने अपने दिल्ली प्रवास में महिनों तक रहकर गुमनाम ही रही इस प्रति के विषय में वहां के कार्यालय के कार्यकर्त्ताओं में अनुराग जगाकर अनेक जानकारियों को प्राप्त कर वापस आये। इन जानकारियों को मोहनजी अपने लेखन में स्पष्ट किया है ।. यह ग्रंथ अत्यंत प्रमुख, समस्या पूर्ण, अनेक नए संभावनाओं को उपलब्ध कराने वाला ग्रंथ है इसमें संदेह नहीं है । इस कारण इसके संपूर्ण अध्ययन के लिये विद्वानों को आकर्षित करना है । 45 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय वाय. के मोहन जी के पुस्तक शक्ति द्वारा प्रकटित हो रहें द्वितीय संस्करण के प्रौढता का कन्नड जनता के ऊपर गहरा प्रभाव पडे ! ऐसी मेरी अभिलाषा हैं । सार्वजनिकों विद्यासंथानों और सरकार को भी इस कार्य के लिये सहायता देना अपना कर्तव्य समझना चाहिये। प्रो. जी. वेंकटसुब्बैय्या नं.५८, ३१ क्रास, ७ ब्लाक, जयनगर, बेंगळुरु-५६००७० 46 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय ग्रंथ प्रति संरक्षक के विचार कुमुदेन्द मुनि द्वारा रचित सिरि भूवलय ग्रंथ की मूल प्रति उपलब्ध न होने पर उसकी प्रति कृति (नकल) सेना नामक दंड नायक की पत्नी मल्लिकब्बे द्वारा माघनंदाचार्य को शास्त्र दान करने का उल्लेख मिलता है। आगे चलकर मलिक्कब्बे द्वारा दान दिए गए पुर्नप्रति में कोरी कागज़(हाथ से बना हुआ मोटा और खुरदुरा कागज़) पर लिखी गई प्रति दोड्डबेले के आस्थान विद्वान व शतावधानी श्री धरणेन्द्र पंडित के पास उपलब्ध थी। यह एक अपूर्व ग्रंथ है, यह जान कर पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी ने दोड्ड्बेले से संपर्क रखने के उद्देश्य से श्री धरणेन्द्र पंडित के छोटे भाई की सुपुत्री ज्वालामालिनी से विवाह किया। कुछ दिनों के पश्चात श्री धरणेन्द्र पंडित का निधन हो गया। १२७० चक्र वाले ग्रंथ के पुराने बंडल को पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी ने अपनी पत्नी के एक जोडी सोने के कंगन के बदले में धरणेन्द्र पंडित के पुत्रों से प्राप्त किया। यह प्रसंग १९२० का है । इसके पश्चात १९५० तक इस ग्रंथ को खोला ही नहीं गया और यूँही यल्लप्पा शास्त्री जी के पुस्तक भंडार में पड़ा रहा था। आखिर में प्रत्येक चक्र में उपलब्ध १ से ६४ कन्नड के अंको को ध्वनि अथवा अक्षर लिपि का ही है, सोचकर, इसी परिपाटी को अपनाया गया। इसी तरह सभी चक्रों के परिवर्तन को पूर्ण किया गया। उपलब्ध कोरी कागज़ों के बहुतेरे पत्र शिथिल होने के कारण नष्ट हो गए थे। यल्लप्पा जी के उस समय तक के कार्य उनके गुरु( जो दिल्ली में थे) १०८आचार्य श्री देश भूषण मुनि जी के ध्यान में आया और उनके आह्वान पर तथा उनके आशीर्वाद से भारत के प्रप्रथम राष्ट्रपति श्री डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को भी इस ग्रंथ के महत्त्व का आभास हुआ। इस संदर्भ में चार-पाँच दफ़े डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने पंडित जी को बुला भी भेजा था। यह ग्रंथ संसार के अदभुतों में १०वाँ स्थान रखता है मान कर और यह ग्रंथ राष्ट्र की संपत्ति है तथा इसका संरक्षण आवश्यक है ,ऐसा समझ कर उसी समय इस ग्रंथ की माइक्रो फिल्म बनाने की व्यवस्था की गई । १९५२ के पश्चात पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी के संशोधन की राह पर श्री कर्लमंगलं श्री कंठय्या और कन्नड के बेरलच्चु (टायपिंग) के पितामह श्री के. 47 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अनंत सुब्बाराय जी ने भी हाथ मिलाया। ०५-०३-१९५३ में सर्वार्थ सिध्दि संघ के पुरस्कार रूप में प्रप्रथम कन्नड के सिरी भूवलय ग्रंथ को कन्नड के सारस्वत जग को अर्पित किया गया। इनकी यह साधना प्रशंसनीय है। पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी के द्वारा छोडे गए कार्य को पुनः आरंभ करने की दिशा में पहले कदम के रूप में १९९६ में सिरि भूवलय के संदर्भ में एक संक्षिप्त परिचय पुस्तक प्रकाशित की गई। आगे १९९८ में सिरि भूवलय में सिरि भूवलय फ़ॉउन्डेशन (रि) की स्थापना कर पंजीकृत किया गया। सिरि भूवलय के कार्य कलाप अबाधित रूप से निरंतर होने लगे और फिर २००० में श्री मोरोपंत पिंगले जी ने सिरि भूवलय की हिन्दी आवृति की और १४ अध्याय को मुद्रित करने का उद्देश्य व्यक्त किया तब पूना के बाबा साहेब आप्टे स्मारक संघ के साथ सिरि भूवलय फ़ॉउन्डेशन के द्वारा किए गए समझौतानुसार १००० चक्र बंधनों को उन्हें भेजा गया। ___ २००१ में पुस्तक शक्ति की ओर से परिष्कृत कर सिरि भूवलय को एक लघु उपन्यास के रूप में पुनः प्रकाशित किया गया। दिवंगत यल्लप्पा शास्त्री जी ने सिरि भूवलय के विषय में अनेक गणमान्यों के विचारों का ध्वनि मुद्रण और दृश्य मुद्रण तैयार किया था। उन्हें आज तक सुरक्षित रखा गया है। अब सिरि भूवलय फ़ॉउन्डेशन (रि) संस्था, पुस्तक शक्ति के सहयोग के साथ प्रथम मुद्रित ३३ अध्यायों और मुद्रित न किए हुए २३ अध्यायों, के साथ सभी ५६ अध्यायों का समग्र परिचय जनता के सामने रखने का उद्देश्य रखता है। इस बृहद साहस के लिए पुस्तक शक्ति का सतत प्रोत्साह और समयोचित सलाह श्लाघनीय है। इस पृष्ठभूमि में पुस्तक शक्ति की प्रेरक शक्ति श्री वाय. के . मोहन जी को और उनके सहयोगी श्री प्रभाकर चेंडूर, श्रीमती वंदना राम मोहन, श्री उमेश, और सुन्दर मुद्रण के लिए ओंकार हाई प्रिन्टस के श्री अच्युत जी का सिरि भूवलय फ़ॉउन्डेशन आभारी है। साथ ही डॉ. बी.एस. वासुदेव मूर्ति और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जी. आर. गायत्री तथा सिरि भूवलय के प्राकृत स्तम्भ काव्य के अर्थ को डॉ. एम. डी.वसंत राजैय्या का सिरि भूवलय अनंतानंत आभार प्रकट करता है। इस ग्रंथ के उपयोग को जन सामान्य किंचित भी उपयोग करे तो पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी का महा उद्देश्य पूर्ण होगा साथ ही उनकी आत्मा को शांति मिलेगी ऐसा सिरि भूवलय फ़ॉउन्डेशन का विचार है। 148 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय आज से अर्धशतमान पूर्व इस अपूर्व ग्रंथ का संग्रहण, संशोधन व संपादन के लिए अपार रूप से श्रम साध्य तीन महानुभावों के विषय में कुछ परिचयात्मक और कृतज्ञता के विचार विचारों को प्रकट करना मेरे लिए संतोष का विषय बनता है। पंडित यल्लप्पा शास्त्री स्याद्वाद भीषग्मणी वैद्य राज और “वैद्य विशारद" आदि उपाधियों से विभूषित पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी सिरि भूवलय ग्रंथ के संशोधक थे। यल्लप्पा शास्त्री जी के बाल्य काल में ही उनकी माता का निधन हो गया था। सौतेली माँ से तंग आकर श्रवणबेळगोळ के मठ में अपना बचपन बिताया। अपनी गुरु भक्ति से श्री गुरु को संतृप्त कर जैन दर्शन के विषय और संस्कृत प्राकृत आदि को सीखा। अनेक जैनायुर्वेद ग्रंथ का अभ्यास कर आयुर्वेद के पंडित कहलाए। जनगड ( मैसूर के पास एक छोटा शहर) के श्री बी. वी. पंडित के स्ववैद्य शाला के उत्पादों के प्रचारक बन कर्नाटक मुबंई और चेन्नई तक का भ्रमण किया । बंगलोर जिले के दोड्डबेले ग्राम वासी व शतावधानी श्री धरणेन्द्र पंडित जी के पास अपूर्व व असामान्य केवल अंकों द्वारा रचित एक ग्रंथ जिसमें अनेकानेक विषय जैसे वैद्यकीय, ज्योतिष्य, गणित अणुशास्त्र, भाषा शास्त्र, लौह शास्त्रादि विषय हैं, ऐसा यल्लप्पा शास्त्री जी जानते थे। इसी कारण श्री धरणेन्द्र पंडित जी से संपर्क बढाने की चाह में यल्लप्पा शास्त्री जी ने उनके छोटे भाई की सुपुत्री ज्वालम्मा से विवाह किया। श्री धरणेन्द्र पंडित जी के निधन के बाद अपनी पत्नी के एक जोडी कंगन उनके पुत्रों को देकर अंकों में रचित उस ग्रंथ को प्राप्त किया। १९२७ के लगभग श्री यल्लप्पा शास्त्रीजी को अनेक आयुर्वेद सम्मेलनों में जैनायुर्वेद, जैन वैद्य, अहिंसायुर्वेद, तथा पुष्पायुर्वेद आदि अनेक प्रशंसा पत्र और उपाधियाँ प्राप्त हुई। १९३५ में आप ने १५० जैन अनुयायियों को, एक विषेश रेल गाडी को चालित कर भारत के सभी जैन क्षत्रों का दर्शन कराया। इसी साल आपने अपने ही घर में स्याद्वाद मुद्रणालय में “ सर्वार्थ सिध्दि” नाम से जैन मासिक 49 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय पत्रिका का तथा “जैनायुर्वेद" और "जैन वैद्य” नाम से साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन करते थे। १९३८ में “ दी ऑल इंडिया हेरेडीटरी आयुर्वेदिक डॉक्टर्स लीग” की स्थपना कर उसके सचिव के रूप में कार्य किया । १९४० में संस्कृत जैनायुर्वेद ग्रंथ सुमंत भट्टाचार्य का सिध्दांत रसायन कल्प, पूज्य पाद जी का वैद्य सार संग्रह और कल्याण कारक और अनुवांशिक सिध्दौषध रत्नमाला ( रस, गंधक, नवरत्न, स्वर्ण शिला, लौह इत्यादि) इन ग्रंथों को कन्नड मे अनुवादित कर, जैनायुर्वेद सम्मेलनोंके विवरण, स्याद्वाद वैद्य शाला के नित्योपयोगी प्रायोगिक औषधियो का परिचय इत्यादि भारत अनुवंशीय अहिंसायुर्वेद, महा संघ के प्रथम कुसुमों के साथ ५५० पृष्ठों के ग्रंथ को अपने ही प्रेस में संपादित कर, मुद्रण कर उसे उस समय के श्रीमान महाराजा नाळवडी कृष्ण राजेन्द्र वडेयार महास्वामी जी को १९४० में श्रवण बेळगोळ में आयोजित महा मस्तकाभिषेक सभा में अर्पित किया। यह ग्रंथ आज भी आयुर्वेद के वैद्यों के लिए अपूर्व व आधार युक्त बना हुआ है। आपने १९५० तक जैन ग्रंथ षट्टखंडागम (पाँच धवल) वड्डाराधने, नियमसार, राजवार्तिकालंकार, तिलोयपण्णति, कसायपाहुड, आदि संस्कृत प्राकृत ग्रंथों का कन्नड में अनुवाद किया। " उसी समय आपको, जब आप दिवंगत श्री धरणेन्द्र पंडित जी के वंशजों से प्राप्त अंक चतुर्थ चौक रूप के ग्रंथ को सुलझाने के विचार में थे तभी एक सुबह सबेरे तीन बजे उन्हें ज्ञानोदय होकर चक्र सुलझाने की कुंजी (key) मिली । अंक रूप यंत्र स्वरूप के इस ग्रंथ को पढने का क्रम भी मिला, इस वज़ह से उन्हें श्रम समय और द्रव्य का बहतायत व्यय सहना पडा, ऐसा वे कहते हैं। यल्लप्पा जी से संशोधित होकर श्री कर्लमंगलं श्रीकंठैय्या जी से संपादित होकर श्री एन. डी. शंकर जी के मुद्रणालय में मुद्रित होकर “प्रस्तावना”, "मंगलाचरण रूप” “मंगल प्राभृत" के साथ सिरी भूवलय के भाग एक और भाग दो तैयार हुए। दिनांक २२-३ - १९५३ को कन्नड साहित्य परिषद मे उस समय के शिक्षा मंत्री सर्व श्री ए. जी. राम चन्द्र राय के अमृत हस्त से विमोचित हुआ । श्री यल्लप्पा अपने गुरु आचार्य श्री १०८ देशभूषण मुनि जी को, ग्रंथ के दिखाने पर उत्तर भारत की जनता भी इस ग्रंथ से परिचित हो इस कारण सिरि 50 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय भूवलय ग्रंथ के १४ अध्यायों को हिन्दी में अनुवादित कर अनेक गणमान्य व्यक्तियों के सम्मुख विमोचित किया गया। इसी समय कर्नाटक के मुख्य मंत्री श्री निज लिंगप्पा, राष्ट्राध्यक्ष डॉ. बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी, श्री जुगल किशोर बिडला जी, को और दिल्ली के अन्य गणमान्य व्यक्तियों को इस ग्रंथ के दिखाने पर उन सभी के आश्वर्य और प्रशंसा का पात्र यह ग्रंथ बना। राष्ट्राध्यक्ष के आदेशानुसार राष्ट्रीय प्राच्य वस्तु संग्रहालय ने १२७० चक्रों का माइक्रो फिल्म बनवाया। एक नेगेटिव फिल्म को संरक्षित कर पॉज़िटिव फिल्म को गणमान्य व्यक्तियों को दिया गया। राष्ट्रपति के आदेशानुसार श्री पंडित यल्लप्पा जी ने सभी १२७० चक्रों को भारत सरकार को सौंपने का बीडा उठाया। बंगलोर में चक्रों का कार्य और दिल्ली में सिरि भूवलय के हिन्दी रूप के मुद्रण के कार्य के कारण बंगलोर दिल्ली के बीच आवागमन के फलस्वरूप आपका स्वास्थ्य गिरने लगा। १९५७ सितंबर माह के पहले सप्ताह के अंत में गिरते हुए स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए आपने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया और दिल्ली में ही आपका देहांत हो गया। आपने सिरि भूवलय के कार्य के लिए ही अनवरत श्रम किया। इस कार्य के बीच ही आपने अंतिम सांस ली। कर्लमंगलं श्री कंठैय्या सिरि भूवलय श्री कंठैय्या नाम से ही परिचित कर्लमंगलं श्री कंठैय्या जी अपने विद्वत से संशोधन के क्षेत्र में विख्यात हुए। आप बहु भाषा पंडित पत्रिका के संपादक देश के अनेक विद्वानों को अपने आकर्षण से सहज खींचने वाले धीमंत व्यक्तित्व के स्वामी थे। बडगनाडु के ब्राह्मण कुटुंब मे जन्में पिता सुब्बैय्या और माता भ्रमराम्बा के चतुर्थ पुत्र थे। किसान परिवार, पिता स्वयं एक विद्वान हरिकथा पटु सज्जन और सदाचार संपंन थे। सभी पैतृक गुण श्रीकंठैय्या जी में रक्तगत रूप से शामिल थे। आप बाल्यकाल में ही कठिनतम शास्त्र विषय को भी प्रथम पठ्य मे ही पचा लेने का सामर्थ्य रहते थे।अल्पावधि में ही आप ने अपने पिता के ग्रंथ भंडार के ज्ञान को पचा कर मागडी विद्वानों से ग्रंथों को प्राप्त कर निरंतर 51 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय अध्ययन किया। ज्ञानार्जन के लिए देश भ्रमण कर ग्रंथ भंडारों का परिचय प्राप्त किया। इस बीच साहित्य ग्रंथ, शास्त्र ग्रंथ, वेद, उपनिशद तत्व शास्त्र के शिलालेखों का तुलनात्मक अध्ययन किया। संस्कृत, प्राकृत, तेलगु, तमिल, मराठी, हिन्दी, बंगाली, उर्दू आदि भाषाओं में व्यवहार का सामर्थ्य रखते थे। आपको वैदिक, जैन, बौध्द दर्शन मात्र ही नहीं और भी अनेक दर्शन के विषय में गहरा ज्ञान था। प्राचीन और नवीन संस्करणों के बाइबिल कुरान ग्रीक इतिहास के विषय में भी परिचय था। फलस्वरूप अपार ज्ञान और विस्तार पूर्वक जीवन दर्शन आपका था। अपने ज्ञान को आपने अभिप्राय मंडल के संदर्भ में तार्किक स्पष्टता के लिए किया था। आपने गहस्थ आश्रम स्वीकार नहीं किया। शायद इसका कारण स्वतंत्रता संग्राम की ओर झुकाव था। कांग्रेस कार्य कर्ता के रूप में आप परम देश भक्त थे। गांधी जी में आदर भाव रखते थे। आप स्वयं लेखक भी थे। १९३२-३२ में अहिंसा नाम की पत्रिका के संपादक थे। अनंतर में १९३५ मार्च से १९३६ जून तक ब्राह्मण नाम की पत्रिका के भी संपादक थे। "सिरि भूवलय” श्रीकंठैय्या जी के पांडित्य परिश्रम का संग्रह है। सर्वार्थ सिध्दि संघ के पंडित यल्लप्पा शाह जी के सहयोग से १९३० से ही इस ग्रंथ का निरंतर अध्ययन करते रहे। इस अंक के अंकाक्षर को सर्व भाषामयी स्वरूप को पहचान कर परिचय का कार्य भविष्य मे आगे बढाया। __ अनवरत श्रम के परिणाम स्वरूप सिरी भूवलय का प्रथम संस्करण २२मार्च १९५३ को कन्नड साहित्य परिषद में विमोचित हुआ। द्वितीय संस्करण १९५५ में प्रकाशित हुआ। जन सामन्य को कृति का परिचय हो इस उद्देश्य से भाषण और लेखों का कार्य भी जारी रहा। कृति के विषय में प्राप्त टीका-टिप्पणी का आपने प्रभावी उत्तर दिया। आप निराडंबर दार्शनिक विचारवादी थे। __ मानव कल्याण की कल्पना करने वाले आपको पुष्पायुर्वेद तथा रस वाद ने आकर्षित किया। कन्नड सारस्वत जग ने आपकी प्रतिभा को नहीं पहचाना यही क आश्चर्य जनक सत्य है। आपका साहित्य संशोधन साहित्य के इतिह स में एक मोल का पत्थर न बन कर केवल . ण्य रूप में ही रहना एक विषादमय स्थिति 52 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ही है। आपकी लेखनी बहुतेरे लोगों की समझ से बाहर है। समझ में आ भी जाए तो बहुतेरों की रूचि का नहीं है। इसके कारण ही शायद आपके अभिप्राय विवाद के कारण बनें। कन्नड के हित चिंतक के रूप में आपने जीवन बिताया। आपने १९६५ मार्च ११ को नश्वर शरीर छोड दिया। के. अनंत सुब्बाराव कन्नड बेरलच्चु (टाइप राइटर) के निर्मापक श्री के. अनंत सुब्बाराय जी हासन ताल्लुक के अनुगनहाल ग्राम के निवासी थे। आप उपाध्याय, शिक्षण तज्ञ, संशोधक, यंत्रज्ञ, स्वराज सेनानी, पत्रिकाद्योगी, छाया चित्रकार के साथ जीवन के अनेक क्षत्रों में अपार कष्टों को सह कर असेतु हिमालय पर्यंत प्रवासी यात्री थे। कन्नड्भाषा के संरक्षण और प्रचार प्रसार की दिशा में अत्यगत होने वाली शीघ्र लिपि और बेरलच्चु यंत्र (टाइपराइटर) के संशोधक कन्नड भाषा के जीवित रहने तक आप भुलाए नहीं जा सकते। आप हासन ताल्लुक के अनुगनहाल ग्राम के श्री केशवैय्या दंपत्ति के पुत्र थे।चार वर्ष की अल्पायु में ही आपने पितृ वियोग को सहा । ससुराल का आश्रय न पाकर माता सावित्रिम्मा जी अपने स्वयं और बच्चों के लालन-पालन के हेतु जोडी कृष्णापुर ग्राम में स्थित उनकी बडी बहन श्रीमती लक्ष्मी देवम्मा के आश्रित हुई। तत्पश्चात हन्दन हाल ग्राम में अनंत सुब्बाराय जी की प्राथमिक शिक्षा यशस्वी रूप से समाप्त हुई। उस समय तक माता सावित्रिम्मा के मन में स्वतंत्र जीवन यापन की चाह उत्पन्न होने के कारण आप सब पुनः हासन लौट आए। वारान्ना (कर्नाटक के ग्रामों में यह पध्दति प्रचलित थी कि ग्राम में प्रत्येक घर से विद्यार्थियों को हर हफ़्ते का एक दिन का भोजन बारी-बारी से उपलब्ध कराया जाता था) के कारण पेट की समस्या का परिहार मिलने पर आप ने हासन में ही माध्यमिक शिक्षा को आगे बढाया। आप के जीवन में अल्प तृप्ति और श्रम सहिष्णुता आप का स्वभाव रहा साथ ही विद्या अभ्यास के विचार में भी प्रतिभा और उत्साह भरा था। प्राथमिक विद्या अभ्यास के काल से ही आप को कन्नड भाषा के प्रति अपारासक्ति थी। आप अपने बाल्य काल से ही वैज्ञानिक प्रयोग 53 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय और किसी भी यंत्र रचना के विषय में आसक्ति रखते थे। कन्नड लोयर सेकेंडरी की परीक्षा में सर्वाधिक अंको को प्राप्त कर इंग्लिश लोयर सेकेंडरी परीक्षा मेंभी उत्तीर्ण हुए। विद्यार्थी दशा में ही आप को शाला के पाठ्य प्रवचन के साथ खेल-कूद नाटक-साहित्य आदि क्षत्रों में भी आसक्ति थी। उसी समय शिवमोगा में अप्पर सेकेंडरी में अध्ययन के समय शाला वार्षिकोत्सव में नाटक अभिनय भी आप के कार्य कलापों में शामिल हआ। शाला के उपाध्याय वर्ग और अधिकारी वर्ग तथा विद्यार्थी वर्ग से नाटक अभिनय के लिए प्राप्त प्रशंसा श्री अनंत सुब्बाराय जी को चिरस्मरणीय रहा। १९२५ में कन्नड अप्पर सेकेंडरी में उत्तीर्ण हए। इसी काल में महात्मा गाँधी जी के प्रतिदिन के भाषणों में निहित जीवन क्रमो के मार्गदर्शन से अत्यधिक प्रभावित हुए। आपने उपाध्याय वति से अपना जीवन प्रारंभ किया। आप कन्नड शीघ्र लिपि तथा कन्नड बेरलच्चु यंत्र ( कन्नड में शार्ट हैंड और टायपिंग ) के अविष्कार में आसक्त होकर श्रम साध्य हुए। महात्मा गाँधी जी के उपदेशों से प्रभावित होकर देश सेवा की चाह ने आपने उपाध्याय वृति से त्याग पत्र देकर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। पत्रिकाद्योम में आपकी सफलता में स्वतः संशोधित कन्नड शीघ्र लिपि और कन्नड बेरलच्चु यंत्र का प्रमुख स्थान है। ___ कन्नड बेरलच्चु यंत्र की रचना का प्रयत्न अनंत सुब्बाराव जी के द्वारा फल प्रद होने पर भी असुए (जलन) से ग्रस्त विद्वानों और जातिवादियों के कारण, स्वार्थ परक अधिकारियों के कारण अनाव्यश्यक रूप से विवाद का कारण बन तथा कुतंत्र के परिणाम स्वरूप ३० वर्षों तक वह अज्ञात ही रहा। अंततः सर्वस्व त्याग कर बलिदान करने से भी पीछे न हटने की स्थिति तक आपके पहुंचने पर अनिवार्य रूप से आपके प्रयत्न को सरकार ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर उसे मान्यता प्रदान की। इसी अवधि में अनंत सुब्बाराव जी के सक्रिय रूप से भाग लेकर सेवा प्रदान करने का क्षेत्र सिरि भूवलय का है। अनेक वर्षों के पूर्व पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी इन चक्र बंध के परिशोध में तल्लीन रहने के समय, इस विचार के लिए, कन्नड लिपि के लिए, लिपि के Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय बदलाव रहित बेरलच्चु यंत्र की रचना करने वाले श्री अनंत सुब्बाराव जी से कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है, ऐसा सोच कर मैसूर आकर उनसे मुलाकात की। काल क्रम में श्री यल्लप्पा शास्त्री जी को चक्रबंध के विषय में ज्ञानोदय हुआ । अनंत सुब्बाराव जी को पत्रिकाद्योम में कार्य करने के बजाय लोकोपयोगी सिरि भूवलय की सेवा करना ही उचित लगा । इसी समय पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी भूवलय की हिन्दी व्याख्यान लिखवाने दिल्ली प्रवास पर थे परन्तु दुर्भाग्य पूर्वक बीमारी की वज़ह से अनिरिक्षित रूप से स्वर्गवासी हुए । तब भूवलय के सभी कार्य अस्त व्यस्त हो उठे। आपने बच्चों में धैर्य भर कर भूवलय को टाइप करवाकर भारत सरकार को सौंपने का बीडा उठाया। काल क्रम में भूवलय के संशोधकों में जीवित एक विद्वान श्री कलमंगलं श्रीकंठैय्या जी के स्वर्गवास होने के कारण भूवलय के आगे के संशोधक कार्य स्थगित हुए। फिर भी उपलब्ध मुद्रित ग्रंथ को ही सही, कन्नड की जनता सही उपयोग कर सके, यह मान कर श्री अनंत सुब्बाराव जी ने अपने भ्रमण के प्रत्येक क्षेत्र में उसका प्रचार-प्रसार किया। “ऐसे महा ग्रंथ को कन्नड भाषा-भाषी अभी तक ठीक से समझ क्यों नहीं पाए हैं, इस एक ग्रंथ से कन्नडीगा कभी भी दरिद्रता का सामना ही नहीं करते” ऐसी व्याकुलता श्री अनंत सुब्बाराय जी को थी । सर्व भाषा मयी सिरि भूवलय में धर्म के विषय में निहित उल्लेखों को समझ उन्हें कार्य रूप में परिणित करने का प्रयत्न करें तो सारा जग जिस धार्मिक उथल-पुथल से त्रस्त है उससे मुक्ि अवश्य प्राप्त हो सकती है, ऐसा आपका विचार था । 55 एम.वाय धर्मपाल मैनेजिंग ट्रस्टी सिरि भूवलय फ़ाउन्डेशन (रि) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय प्रथम परिष्करण की प्रस्तावना कवि और समय काल सिरी भूवलय ग्रंथ के रचनाकार कवि का नाम कुमुदेन्दु है। आप अपने नाम के अंत में गुरु, मुनि के उपनाम को जोड़ते हैं। इस नाम के एक कवि ने रामायण की रचना. भी की है। रामायण के कुमुदेन्दु सन् १२७५ में माघनंदी सिध्दांत चक्रेश्वर के शिष्य थे। यह एक महत्वपूर्ण विषय है कि इनके और सिरी भूवलय के कुमुदेन्द्र के बीच कोई संबंध नहीं है। सर्व भाषामयी काव्य सिरि भूवलय के रचनाकार कुमुदेन्दु मुनि को किसी भी प्राचीन अर्वाचीन कवियों ने उल्लेख किया हो ऐसा जान नहीं पड़ता है। शायद् आज तक प्रकाश में न आने वाला श्री पिरीराज पट्टन के देवप्पा द्वारा रचित संस्कृत कन्नड पद्यों वाला कुमुदेन्दु शतक ही हमें कवि के अस्तित्व की जानकारी प्राप्त कराने में सहायक है। देवप्पा और कुमुदेन्दु शतक कविमाला और काव्य माला में आज तक अज्ञात ही रहा है यही इसकी ख़ास विशेषता है। इस कुमुदेन्दु ने अपने सिरि भूवलय में चरित्रात्मक संगतियों (एतिहासिक) के विवरणों को और पिरिया पटन के देवप्पा द्वारा रचित कुमुदेन्दु शतक में दिए गए कुछ विवरणों को मिलाकर विस्तार पूर्वक न होने पर भी चरित्र(इतिहास) के लिए आवश्यक तथ्यों को नीचे लिखा गया है.. कुमुदेन्दु ने गुरु अथवा मुनि होने के पश्चात इस विश्व काव्य की रचना के कारण शायद सांप्रदायिकता के कारण अपने माता-पिता के नामों का उल्लेख नहीं किया है। फिर भी अपनी मुनि पदवी में रहते हुए प्राप्त अपने पूर्व तथ्यों को कुछ इस प्रकार कहते हैं ओदिसिदेनु कर्माटद जनरिगे। श्री दिव्य वाणिय क्रम दे।। श्री दया धर्म समन्वय गणितद। मोदद कथेय नाली पुदु।। कर्नाटक की जनता को गणित में दया धर्म समन्वय का श्री दिव्य वाणि की कथा को पढाता हूँ सभी सुनें। अर्थात कन्नड की जनता को यह कहें कि .. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय वरदा मंगलद प्राभृतद महाकाव्य । सरणीयोल गुरु वीर सेना ।। गुरुगळ मतिज्ञान दरिविगे सिलुकिह । अरहंत केवल ज्ञान ॥ मंगलकर प्राकृत का महाकव्य वीरसेन गुरु के ज्ञान की जानकारी रखने वाले अरहंत केवली ज्ञान वाले हैं । जनिसलु सिरी वीर सेनर शिष्यन। घनवाद काव्यद कथेय ।। जिनसेन गुरुगळ (तनुविन जनमद । घन पुण्य वर्धन वस्तु) । श्री वीरसेन शिष्य का यह घन काव्य कथा जिनसेन गुरुओं के जन्म का पुण्य वर्धन वस्तु है। नाना जनपद वेल्लदरोळ धर्म । तानु क्षिणिसी बर्पाग ॥ तानल्ली मान्य खेटद दोरे जिनभक्ति । तानु अमोघवर्षांक ।। समाज में धर्म के क्षीण होने के समय में मान्यखेट के राजा जिनभक्त अमोधवर्षांक । इसके आगे ये कहते है अवर पालिसुवा सद्गुरुवू । सुविशाल कीर्तिय् देह || नवनवोदित शुध्द जयद । अवतार दाशावसनीय ॥ भूवि कीर्तिय सेन गणदी । अवतरिसिद ज्ञात वंशी ।। अवन गोत्रवदु सदधर्म । अवन सूत्रवू श्री वृषभ ॥ अवन शाखेवू द्रव्यांग । अवन वंशवदु इक्षवाकु ॥ अवनेल्ला त्यजिसिद सेना । नवगण गच्छव सारी ।। उनका धर्म सद्गुरु धर्म है सुविशाल कीर्ति है उन्होंनें ज्ञात वंश में जन्म लिया उनका गोत्रसद्धर्म उनका सूत्र श्री वृषभ उनकी शाखाद्रव्यांग इक्ष्वाकु वंश है उसने सभी का त्याग कर सेनगणागच्छ को अपना लिया । नव भारतदोळु हसिसी । सविय करमाटक दौरेगे ।। विवरण दोळु कर्मव पेळ्द । अवनंक काव्य भूवलय भुवन विख्यात भूवलय ॥ 57 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय नव भारत में प्रख्यात कर्नाटक में विस्तृत रूप से कर्म को कहे गए उनका अंक काव्य भूवलय है । भुवन विख्यात भूवलय है । इस प्रकार कुमुदेन्दु मुनि द्वारा दिए गए विवरणों का परिशीलन करें तो 'सेन गण-ज्ञात वंश, सदधर्म गोत्र, श्री वृषभ सूत्र, द्रव्यांग शाखा, इक्ष्वाकु वंश', इन वंशो में जन्म लेकर सेन गणों में अवतार लेकर नवगण गच्छों को व्यवस्थित करने वाले, ये, मान्य खेट के(आज का मालखेड ) राजा राष्ट्र कूट के अमोघ वर्ष ने कर्नाटक चक्रवर्ती को विस्तृत रूप से कर्म सूक्ष्म को केवल इस विश्व काव्य भूवलय के द्वारा बोध कराया ऐसा कह सकते हैं। कुमुदेन्दु गुरु परम गुरु के रूप में जो सर्वज्ञ कहे जाते हैं अपने समय के पूर्वे ग्रंथ काव्य मंगल प्राभृत भूवलयों को गणित पध्दति के अनुसार समझने वाले श्री वीर सेना चार्य का नाम लेते हैं। कुमुदेन्दु मुनि स्वयं को जिनसेना चार्य का तनुविन जन्मद घन पुण्य वर्धन वस्तु ( तन-मन से जन्मों से प्राप्त पुण्य का फ़ल) कहते हैं और प्रथम वीरसेनाचार्य को आदर सम्मान देकर तत्पश्चात जिनसेनाचार्य को अपना आदर सम्मान सौंपते हैं। कुमुदेन्दु मुनि, अपने परम गुरु वीर सेनाचार्य की सम्मति से इस सर्व भाषामयी कर्नाटक काव्य में वीर सेना से पूर्व के गुरु परंपरा को इस प्रकार लिखते हैं: प्रथम गणधर, वृषभ सेन, केसरी सेन, वज्रचामर, चारू सेन, वज्र सेन, आदत्तसेन, जलज सेन, दत्त सेन, विदर्भ सेन, नाग सेन, कुन्धु सेन, धर्म सेन, मंदर सेन, जय सेन सद्धर्म सेन, चक्र बंध, स्वयं भू सेन, कुंभ सेन विशाल सेन, मल्ली सेन, सोम सेन, वरदत्त मुनि, स्वयं भारती, इन्द्र भूति विप्र, आदि, गुरु परंपरा के २४ गुरुओं में से वायु भूति, अग्नि भूति, सुधर्म सेन, आर्य सेन मुंडी पुत्र, मैत्रेय सेन, अकंपन सेन, अंधर गुरु आदि महनीय बनें और आगे इनके साथ अंतिम महात्मा, प्रभाव सेन नाम के हर शिव शंकर गणितज्ञ वाराणसी में वाद-विवाद में जय प्राप्त कर गणितांक रूप का पाहुड नाम के ग्रंथ की रचना कर दूसरे गणधर नाम के प्रशस्ति के पात्र बनें, ऐसा कहते हैं ( अ - १३-५०-८७-९८-११९) गुरु परंपरा के इस भूवल्य में आगे चलकर “पसरिप कन्नाडी नेडेयर पिसुनाते येळिद कन्नडिगर कसवर नाडिनोळ चलिपर नाम के इस कन्नड सेन गणों के द्वारा 58 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय संरक्षित और संवर्धित हो कर " हरिहर सिध्द सिध्दांत अरहन्त राशा भूवलय (६-१८६१९०) धर सेन गुरु के निलय में (७-१९) इस धरसेनाचार्य से गुरु गळवर पद भक्तिं बरुवक्षरांक काव्य की रचनाकर प्राकृत संस्कृत कन्नड क्रमानुसार पध्दति ग्रंथ के इस (१३ - २१२) अन्तश्रेणी ४० के संस्कृत प्राकृत कन्नड तीन ही भाषाओं में शास्त्र का निर्माण हुआ । इस सरमग्गी कोष्टक काव्य (गुणन सूची या पहाडा ) ( ५१७७)को धरसेन के बाद भूत बलि ने इस कोष्टक बंधांक ( ८-५१) रूप में भूवलय बनाकर नूतन प्राकतन दोनों के संधि रूप में रचकर गुरु परंपरा में शामिल होते हैं । इतना ही नहीं भूवलय के कन्नड भाग में ही शिव कोटी (४-१०२) शिवाचार्य (४ - १०५) शिवायन (१०७) समंत भद्र ( ४ - १०१) पूज्यपाद (१९ - ) आदि के नामों को और इस भूवलय के प्राकृत संस्कृत भाग श्रेणीयों में इन्द्र भूति, गौतम गणधर, नाग हस्ती, आर्यमञक्षु कुन्दकुन्दादियों का स्मरण किया। अब अंक राशी चक्र में समाहित साहित्य के नए संगतियों के प्रकाश में आने के बाद इस संदर्भ में नए विचार प्रकाश में आ सकते हैं। हमने यहाँ मात्र प्रकटित ग्रंथ के विवरण देने का प्रयास किया है। सिरि भूवलय को देखकर प्रभावित होने वाले पिरीय पट्टण के जैन ब्राह्मण आत्रेय गोत्र के देवप्पा अपने कुमदेन्दु शतक में महावीर स्वामी से लेकर अनेक महात्माओं को नमन कर कुमुदेन्दु के विषय को श्री वासु पूज्यत्रै विद्याधर देव के पुत्र उदय चंद्र के पुत्र शिष्य विश्व ज्ञान कोविद कीर्ति किरण प्रकाश कुमुद चंद्र गुरुगळं पोगल्वल्ली कहकर आदि गद्य मे प्रस्तावित किया है। श्री देशी गण पालितो बुध नुतह श्री नंदी संघेश्वर : श्री तर्कागमवारिधिमर्म गुरुः श्री कुन्दकुन्दान्वयः श्री भूमंडल राज पूजितल सच्छि पाद पद्मद्वयो यीयात सो कुमुदेन्दु पंडित मुनिः श्री वक्रगच्छादिपः (४ - सम-९६) श्री देशी गण में विद्वानों के द्वारा स्तुतिय किए गए नंदीसंघेश्वर तर्क आगमादि पंडित श्री कुंदकुदांवय, भूमंडल के सभी राजाओं के द्वारा पूजित किए गए हैं। इनके पदपद्मों में कुमदेन्दु मुनि नमस्कार करता है । 59 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय अर्थात देवप्पा इसी भूवलय के कुमुदेन्दु को “देशी गण, नंदि संघ, कुन्दकुन्दान्वय" कहकर संबोधित करते हैं। नव गण गच्छ को प्रसारित करने वाले यही होने के कारण सेन गण में एक देशी गण देवप्पा के समय प्रस्फुटित हुआ होगा। नहीं तो दोनों नाम एक ही के हो सकते हैं। आज भी सेन गण के कन्नड जैन कुन्दकुन्द के ही अनुयायी हैं, यह शोधनीय है। भूवलय के कमुदेन्द्र गंगारस के उपाधि वाले ग्राम के होने के कारण "कोलवल तले काचड नंद गिरी” को विश्व के जैन मत के पवित्र पर्वतों से पहले वर्णित करते हैं। इस तरह के वर्णन में उनके सभी भाव नंदी में ओत-प्रोत हैं उनके शब्दों में कहना होगा तो: इह के नंदियु लोक पूज्य ॥८-५५॥ महति महावीर नंदि ॥८-५८॥ इह लोकदादिय गिरिय ॥८-५९॥सुहुमांक गणितद बेट्टा ॥८६०॥ नंदी भूमि पर लोक पूज्य है। इह लोक में आदि गिरि एक अंकगणित का पर्वत है। महसीदु महावत भरत ॥६१॥ वहिसी दनुव्रत नंदी ॥७२॥ सहनेय गुरुगळ बेट्टा ॥७३॥ सहचर मूरारुमूरु ॥७४॥ महत्त्वपूर्ण महाव्रत को लेने वाले नंदी का अणुव्रत सहन शीलता का पर्वत बना है जिनके अनेक सहचर हैं। आप गंगराज के स्थापक सिंह नंदी के द्वारा शक सं-१ में (सन् ७८) में स्थापित प्रथम राजधानी में नंदी गिरि हो सकते हैं । इसी सिंह नंदी के वंशज भी हो सकते हैं । इस परंपरा का एक जैन मठ सिंहन गद्दे में है। जहाँ भी सेन गण के अनुयायी हैं उन सभी के लिए यही धर्म क्षेत्र है। इस दिशा में परिशोधन हो तो यह विषय स्पष्ट होगा ऐसी आशा करते हैं। इन संगतियों (विवरण) पर विचार किया जाए तो पिरीय पट्टण के देवप्पा द्वारा दिए गए विवरणों को गलत नहीं कहा जा सकता। भूवलय को विशेष रीति से समझे हुए देवप्पा का जनता के प्रति उपकार यह है कि विश्व का दसवाँ आश्चर्य बना यह सर्व भाषामयी कन्नड काव्य के कर्ता 60 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय कुमुदेन्दु मुनि के माता-पिता और दादा का परिचय देना है। इस प्रकार कुमुदेन्दु के दादा वासु पूज्य और पिता उदय चंद्र हैं ऐसा कह सकते हैं। उससे अधिक हमें कवि के विषय में और जानकारी नहीं है। कुमुदेन्दु के समय का परिचय प्राप्त करने के लिए अभी प्राप्त साधनों को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है १. कुमुदेन्दु के द्वारा कहे गए पूर्व पुरुषों और कवियों का समय २. कुमुदेन्दु के समकालीन महिमास्पद व्यक्ति ३. समकालीन राजा महाराजा कुमुदेन्दु से पूर्व पहले धरसेन, भूत बलि, पुष्प दंत नाग हस्ती, आर्य मयंञक्ष, कुन्दकुन्दादि, और इस ग्रंथ में अन्य रीति से आए हुए शिव कोटि, शिवायन, शिवाचार्य, पूज्य पाद, नागार्जुन, आदि आठवीं सदी के पहले के हैं । ग्रंथों के उपलब्ध न होने पर भी संस्कृत - प्राकृत - कन्नड में लिखने वाले धरसेनचार्य, इसी को भूवलय के रूप में लिखने वाले भूत बलि आदि सर्व भाषा मयी कन्नड के कवि हैं। विश्व सेनाचार्य नाम के द्वितीय गणधर के पाहुड काव्य भी इसी तरह अक्षरांक में लिखा गया होगा ऐसा मानना ठीक होगा तो कुमदेन्दु की भांति उन्हें भी एक आदि कन्नड कवि कहने में कोई बाधा नहीं है। कुमुदेन्दु के शिष्य अमोघ वर्ष अपने कविराज मार्ग में प्रसिध्द कन्नड गद्य कवियों में विमलोदय नागार्जुन समेत, जय बंधु दुर्वीनीतादि क्रमदोळने गच्छे गद्य, । श्रम पद गुरता प्रतीतियं कै कोण्डर गळ अथात विमलोदय नागार्जुन जयबंध दुविर्नीतादि ने इस क्रम में गद्य क्रम में गुरु के मार्ग का अनुसरण किया है। इन कवियों में विमल, उदय, नागार्जुन, जयबंधु, दुर्वीनीत आदि में नागार्जुन के “कक्ष पुट तंत्र" को पहचान कर नागार्जुन, नागार्जुन का कक्ष पुट तंत्र प्रथम कन्नड गद्य था, इसे पूर्व से संस्कृत में परिवर्तित किया गया होगा ऐसा कहने का कारण बनता है। दुर्वीनीत का शासन इतिहास उपलब्ध है। विमल जय बंधु 61 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय के काव्य और उनके विषय में विवरण प्राप्त नहीं है परन्तु नृपतुंग अमोघ वर्ष के ग्रंथ में आने वाले कन्नड गद्य कवि पिरीय पट्टण के देवप्पा द्वारा कहे कुमुदेन्दु के पिता उदय चंद्र ही उदय हैं ऐसा कहें तो गलत नहीं होगा और भूवलय में आने वाले पूज्य पाद, कल्याण कारक के रचनाकार हैं ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिलता है। ये सभी कुमुदेन्दु से पूर्व कवि हैं। इनका समय सन १ से ६०० तक हैं उसके बाद नहीं हैं। हमारी जानकारी के अनुसार, कुमुदेन्दु मंगल प्राभृत पूर्वे काव्य करण सूत्र आदि ग्रंथों का जिक्र भी करते हैं जिनके विषय में जानकारी स्पष्ट नहीं है। और न ही हमने इन ग्रंथो को देखा है। हमारी जानकारी के अनुसार कुमुदेन्दु के द्वारा कहे गए कवियों में से प्रसिध्द कवि वाल्मिकि ही एक ज्ञात कवि हैं। इस संदर्भ में (कवि वाल्मिकी को भोजन खिलाते हुए)शुध्द रामायण दंक के वाल्मिकी का नाम उठाया है। इन कवियों के विषय में, इनके समय के विषय में किसी भी परिणाम पर पहुंचने पर भी, ये सभी छठवीं सदी के बाद के नहीं है ऐसा यकीनन कह सकते हैं। अमोघ वर्ष के सभा में वाद-विवाद कर शिव पार्वतीश गणित को कहकर चरक वैद्य को खंडित किया है, कुमुदेन्द द्वारा कहे अस्पष्ट रीति में स्थितसमंत भद्र के विषय में कुछ भी निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता। इस चर्चा का सारांश यह है कि कुमुदेन्दु के द्वारा कहे व्यक्ति छठवीं सदी के बाद के नहीं हैं ऐसा सिध्द होता है। कुमुदेन्दु के समकालीन व्यक्तियों में से एक वीर सेनाचार्य और दूसरे जिनसेनाचार्य हैं । वीर सेनाचार्य के द्वारा धवल, जय धवल, महाधवल आदि धवलों की व्याख्या के गई है। उसमें वर्ष का उल्लेख न होने पर भी आप महापुरुष अथवा पूर्वे पुराण के कर्ता जिनसेन के गुरु होने के कारण, जिनसेनाचार्य ने सन् ७८३ में ग्रंथ के रचयेता होने के कारण वीर सेन जी उस समय के कहे जा सकते हैं। जिन सेन और वीर सेन सन् ७८३ में रहे होंगें ऐसा यकीनन कहा जा सकता है। इनके शिष्य कुमुदेन्दु भी सन् ७८३ के लगभग के ही होंगें ऐसा कह सकते हैं। 62 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय कुमुदेन्दु ने राष्ट्र कूट के राजा अमोघ वर्ष को इस भूवलय के विषय में कहा था, ऐसा कुमुदेन्दु स्वयं कहते हैं। मान्य खेट के अमोघ वर्ष का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। कुमुदेन्दु अमोघ वर्ष के नाम का अनेक बार उल्लेख करते हैं भारत देशद अमोघ वर्षन राजा। सारस्वत वेम्बंग ॥ ८-२२६॥ भरतदेश का अमोघवर्ष राजा सारस्वत का अंग है। तानल्ली मान्य खेटद दोरे जिनभक्त। तानु अमोघ वर्षांक ॥ ९-१४६।। मान्यखेट का राजा अमोघ वर्ष जिनभक्त था। सिहिय खंडद कर्माटक चक्रीय। महिए मंडल वेस संतु॥ ९-१७२। सुन्दर देश कर्नाटक के राजाओं की महिमा भूमंडल में प्रसिद्ध है। गुरुविन चरण धूलिय होत मोघांक। दोरेय राज्य(ळ) भूवलय जाणर मोघवर्षांकन सभेयोलु क्षोणीश सर्वज्ञ मतदिं इहवे स्वर्गवो येम्बा तेरेदिं।। ९-१७९।। अमोघ वर्ष गुरु की चरण धूलि को प्राप्त कर भूमंडल का राजा बना। सभी ज्ञाता वर्षांक की सभा में क्षोणीसर्वजन के अनुसार यही स्वर्ग है। वहिसी अमोघवर्ष नृप। ९-१८॥ अमोघवर्ष नृप ऋषि गळ येल्लरु यरगुव तेरदिन्दली। ऋषि रूप धर कुमुदेन्दु॥ हसनद मनदिन्दा अमोघवर्षांकगे। हेसरि? पेळ्द श्री गीते ॥४५॥ सभी ऋषि नमस्कार करने की रीति में ऋषिरूपित कुमुदेन्दु हँसमुख मन से अमोघ वर्ष को श्री गीता सुनाते हैं । ऊनवील्लद काव्य दक्ष शंकद काव्य। काणिप वैकुंठ काव्य।। श्री नेमि जिन वंश दोळु बंद - भारत। दानंद दायक काव्य। अक्षरांक काव्य दोषरहित काव्य है । वैकुंठ काव्य है । श्री नेमिजन वंश के भारत का आनंद दायक काव्य है। =63 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ऊन विल्लद श्री कुरु वंश हरी वंश। आन्नद मय वंश गळलि।। ताने तानागि भारत वाळ्द राज्यद। श्री श्रीनिवास दिव्य काव्य।।४७॥ श्री कुरु वंश हरि वंश आनंद मय वंश में स्वयं ही भारत के द्वारा शासित श्रीनिवास दिव्य काव्य है। सिरी भूवलयं नाम सिध्दांतवु। दोरे अमोघवर्षांक नृपं॥ १७-९४ ११२। सिरि भूवलय नाम सिद्धांत, राजा अमोघवर्ष । ईयुते कर्माट जनपद रेल्ल । श्रेयो मंगल धर्म ॥१६-२१४-५।। कर्नाटक की जनता को श्रीयोमंगल धर्म को देता हूँ। इस प्रकार कुमुदेन्दु अमोघ वर्ष के नाम का उल्लेख करने के कारण , इस राजा ने सन् ८१४-८७७ तक शासन कार्य किया था इस विषय में संदेह नहीं है। इनके गुरु का समय सन् ७८३ का होगा और शिष्य का समय सन् ८१४ का रहा होगा और इस भूवलय ग्रंथ को लगभग सन् ८०० में रचा गया होगा और कवि का समय भी इसी समय के लगभग होगा ऐसा कह सकते हैं । कुमुदेन्दु हमेशा गंगरस और उनके वंशजों को स्मरण करने के साथ साथ गोट्टिगा(ग्वाला) सैगोट्ट शिव मार के नाम का भी उल्लेख करते हैं महादादी गांगेय पूज्य ॥ ५६॥महिय गंगरसर गणित ॥ ६६॥ महिय कळ्ळप्पु कोवलला।। ७१।। महवीर तलेकाच गंग ॥७२॥ आदि गंगेय के द्वारा पूजित महिमामय गंगरस गणित। महिमा मय कळ्वप्पु कोवळाळ तलेकाड। अरसराळिद गंग वंश ॥ १२॥ त्रसोत्तिगेयवर मंत्र ॥१३॥ येरडूवेरेय द्वीपदंद ॥१४॥ गर्व गोट्टिग रेल्लरंद ॥१५।। राजाओं द्वारा शासित गंगवंश। ढाई द्वीप से गुरु गोट्टिग। अरसुगळालद कळ्ळप्पु॥२०॥ दंगदनिभव काव्य।।२३।।अ.१२-१२-२३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय राजाओं द्वारा शासित कळ्वप्पु। अच्छे अनुभव वाला काव्य। आदियोळ उत्तम वर्णद सेनर। नादिय गंगर राज्य सादि अनादि गळु भयव सादिप। गोदमनिं बंद वेदा।। अ.१७१४४॥ आदि में उत्तम वर्ण की सेना । अनादि गंग का राज्य। सादि अनादि भय को साबित करने वाला वेद। कुमुदेन्द्र द्वारा उल्लेखित गंगरसों में आपके द्वारा पहचाने गये गर्व गोटिटग के राजा सैगोट्ट शिवमार हैं, इसमें संदेह नही है। इस शिवमार को सैगोट्ट का नाम प्राप्त हुआ था ऐसा नगर के ३५वे शासन में कहा गया है शिवमार देवं सैगोट्ट नेम्बेरडनेय पेसरं ताळ्दु शिवमार मतमेन्दु गजशास्त्रवं माडीमतं ऐवेल्वुदोशिवमारं। हीवल याद्यिपन सुभग कवितागुणं मं भूवलय दोल गजा क मोवनिगेयू मोनके वाडू मादुदे पेन्गुं इस सैगोट्ट गोट्टिगा ने सुभग कविता गुण वाले भूवलय में गजाष्टक वनके वाडू (ओखली में कूटते समय गाने वाले गीत) बनें हैं ऐसा कहने के कारण अमोघ वर्ष अपने कवि राज मार्ग में कहे गए कन्नड के चत्ताण, बेदंडे (एक तरह का काव्य) नाम के पुरातन पद्य पध्दति में से यह भी एक होगा ऐसा सोचने का एक कारण है । ज्यादातर अमोघ. वर्ष के कहे गए पुरातन कवियों का काव्य यह चत्ताण बेदंड ही हो सकते हैं। कुमुदेन्दु दोनों पध्दतियों को अपने काव्य में खुल कर प्रयोग करते हैं । आज लोक गीतों में उपलब्ध ओखली में कूटते समय गाने वाले गीत इस चत्ताण बेदंड के रूप में ही हैं और कुछ कन्नड के पुराने व्याकरण तिवदी अथवा त्रपदी में है। कुमुदेन्दु के द्वारा अपने भूवलय में प्रयोग किए गए चत्ताण बेदंड, कन्नडीगा के तिवदी, अक्षर गण मात्रा गण में न होकर शगण अथवा शब्द गणों मे है। सैगोटट शिवमार के ओखली गीत के रीत को दिखाने वाले एक तिवदी को लोक साहित्य से उदघृत करते हैं: 65 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय कुट्टी बीसुव हाड यावाके कलिसालू। कृष्णन तंगी सुभद्रे ॥ कृष्णन तंगी सुभद्रे कलिसालू। कृष्णन मेले पदगाळ।। अर्थात कूटने वाले गीत किसने सिखाए कृष्ण की बहन सुभद्रा ने सिखाये ___ गोट्टगा के ओखली गीतों का साहित्य इस प्रकार का हो सकता है इसका कारण यह है कि शब्द गण के भूवलय में आने वाले चत्ताण बेदंडो के साथ वाचक यदि अनुशीलन करें तो इस श गण का दूसरा रूप भी उपलब्ध हो सकता है। ____यह शिवमार गोट्टिगा का सन् ८००- ८२० तक दक्षिण कन्नड भाग पर शासन था। ऐसा निर्धारित हुआ है । इसके पहले गंगरस नंद गिरि अड्डगेरे कोवलाल पुराधीश्वर कह कर स्वयं को अपने शासन में पुकारते हैं। इतना ही नहीं इस भूवलय में कळ्ळवप्पू शब्द ( बेळ गोळ का पुराना नाम ) सातवीं सदी के पहले शासन में भी वड्डाराधना नाम के प्राचीन ग्रंथ में भी उपलब्ध है। यह स्थल गंग रस की एक प्रांतीय राजधानी है ऐसी जानकारी के साथ यह एक पुण्य क्षेत्र के रूप में भी गिना जाता है, यह विचार महत्त्व पूर्ण है। इन विषयों का अनुशीलन करें तो कुमुदेन्दु अपने गुरु और समकालीन राजाओं के मध्य रहे होंगें (सन् ७८३-८१४) याने सन् ८०० में रहें होंगें ऐसा स्थूल रूप से कह सकते ____ वादी कुमुद चंद्र ( ई . सू. ११००) :- आपने जिन संहिते नाम के प्रतिष्ठा कल्प के लिए कन्नड में टीका लिखा है। आप “इति माघ नंदी सिध्दांत चक्रवर्ती सुत चतुर्विद पांडित्य चक्रवर्ती श्री वादी कुमुद चंद्र देव विरचिते" स्वयं को कहते हैं। पार्श्व पंडित ( ई. सू. १२०५) :- आप अपने गुरु परंपरा वीर सेन, जिन सेन, गुण भद्र, सोम देव, वादी राज, मुनि चंद्र, श्रुत कीर्ति, नेमी चंद्र भट्टारक, वासू पूज्य शिष्य श्रुत कीर्ति, मुनि चंदे पुत्र वीर नंदी, नेमी चंद्र सैध्दांतिक बलात्कार गण (जैन धर्म का एक समूह) के उदय चंद्र मुनि, नेमी चंद्र भट्टारक, शिष्य वासू पूज्य मुनि, राम चंद्र मुनि, नंदी योगी, शुभ चंद्र, कुमुद चंद्र, कमल सेन, माघवेन्दु, शुभ चंद्र शिष्य, ललित कीर्ति, विद्या नंदी, भाव सेन, कुमुद चंद्र के पुत्र वीर नंदी =66 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय की स्तुति करते हैं। इनमें से कोई भी कुमदेन्दु कवि का संबंधी नहीं है यह स्पष्ट होता है । ( क. च. पु. १ - ३२५) कुमुदेन्दु (ई. सू. १२७५ ) :- आप अपने प्रशंसनीय गुरु परंपरा में “वीर सेन, जिनसेन, (७ व्यक्तियों के बाद) वासू पूज्य शिष्य अभेन्दु पुत्र “कुमुद्रेन्दु” माधव चंद्र, अभयेन्दु, कुमदेन्दु वति प्रति सुत, माघ नंदी मुनि, बालेन्दु जिन चंद्रा आदि । यह कुमुदेन्दु भूवलय के कुमुदेन्दु नहीं है। महाबल कवि (ई.सू. १२५४ ) :- आप के गुरु परंपरा में जिनसेन, वीर सेन, समंत भद्र, कवि परमेष्ठि, पूज्य पाद, गृद्रपिंच, जटा सिंह, नंदी, अकलंक, शुभ चंद्र हैं। “कुमुदेन्दु मुनि” विनय चंद्र, माधव चंद्र, राज गुरु, मुनिचंद्र, बाल चंद्र, भाव सेन, अभयेन्दु, माघ नंदी यति, पुष्प सेन आदि हैं । यह सभी भूवलय से संबंध नहीं रखते है। समुदाय माघनंदी ( ई.सू. १२६०) : - आप के गुरु परंपरा में मूल संघ बलात्कार गण के वर्धमान ( अनेक पीढी शिष्यों के बाद) श्रीधर, शिष्य वासू पूज्य, शिष्य उदय चंद्र, शिष्य कुमुद चंद्र, शिष्य माघ नंदी कवि हैं। यह कुमुद चंद्र भी भूवलय के कुमुदेन्दु नहीं हैं। (क.च. पु. १ - ३८८ ) कमलभव (ई.सू.१२७५ ) : - आप के गुरु परंपरा में कोन्डकुन्ड, भूत बलि, पुष्प दंत, जिनसेन - वीरसेन, ( आगे २३ व्यक्तियों के बाद ) पद्म सेन व्रति, जय कीर्ति व्रति, कुमुदेन्दु योगी, शिष्य माघ नंदी मुनि ( आगे ६ व्यक्तियों के बाद) स्वगुरु माघ नंदी पंडित यति । इस तरह आप के गुरु परंपरा में तीन माघ नंदी का उल्लेख मिलता है। यह कुमुदेन्दु भी भूवलय के कुमुदेन्दु नहीं है। पार्श्व पंडित (ई. सू. १२०५ ):- आप अपने गुरु की स्तुति करते समय वीर सेन को “गणितान्वीत बुध्दि” माने जाने वाले वीराचार्य वीर सेन कहकर स्तुति करते हैं। (क. च. १-३२५) भाषा और लिपि कुमुदेन्दु, आदि तीर्थंकर के वृषभ देव के गणधर वृषभ सेन से लेकर सभी गणधर कन्नडीगा ही होने के कारण सभी तीर्थंकर के उपदेशों के समय प्राप्त 67 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय सर्व भाषात्मक दिव्य वाणी को समझ समस्त जनता को प्रसारित कर सर्व भाषात्मक के एक दिव्य वाणी को स्पष्ट रूप से और क्रमबध्द रूप से प्रकट करने की शक्ति कन्नड भाषा को है ऐसा कहते हैं। आदि तीर्थंकर के वृषभ अपनो दोनो बेटीयों को दिए गए अंकाक्षर कन्नड के ही हैं, कहते हैं। आदि तीर्थंकर अपने मोक्ष प्राप्त करने से पहले अपनी पहली पत्नी यशस्वति के पुत्र भरत को समस्त साम्राज्य और दूसरी पत्नी के पुत्र गोमट्ट को पौदनपुर बाँटते हैं। बड़ी बेटी ब्राह्मी और छोटी बेटी सौन्दरी मिलकर पिता से कुछ शाश्वत उपहार देने की प्रार्थना करते हैं। तब लौकिक रूप से सभी कुछ बाँट देने के बाद आदि तीर्थंकर अपनी बेटीयों को सकल ज्ञान साधन के आधार वस्तु देने का विचार कर ब्राह्मी को अपनी बाँयी गोदी में बिठाकर उसके बाएँ हाथ में अपने दाँ ए, ऐ, हाथ के अँगूठे से समस्त भाषा के पर्याप्त 'अ' से लेकर अ, इ, ऋ, ओ, औ, इन नौ ह्रस्व दीर्घ और प्लुत (दीर्घ से भी बडा) २७ स्वरों के बाद क, च, ट, त प इन वर्गों के २५ वर्गीय वर्गों को य, र, ल, व, श, ष, स, ह, इन आठ व्यंजनों को आगे अं, अः, अक, और फ़क :: इन चार आयोग वाहों को मिलाकर ६४ अक्षरों के वर्ण माला को रच कर ये तुम्हारे नाम में अक्षर बन कर समस्त भाषाओं के लिए यही पर्याप्त हो ऐसा आशीर्वाद दिया । 2 गोदी में बिठाकर उसकी दाँयी हथेली ० को लिखकर उसी को ठीक तरह से दूसरी बेटी सौन्दरी को अपनी दाँयी में अपने बाएँ अँगूठे से एक बिन्दु काट कर ५. o बिन्दु बना कर इन्हीं को एक साथ मिला कर एक ही रूप में पहचान कर इन अंकों को ही वर्ग पध्दति के अनुसार मिलाते जाए तो विश्व के सकल अणुपरमाणुओं की गणना के लिए पर्याप्त होगा, ऐसा कहा और ये अंक ही अक्षर हैं ऐसा सौन्दरी से कहा । इसी से १, २, ३, ६, ७, ८, ९, को घुमा कर पुनः प्रत्येक वस्तु को दोनों में बाँटने के बाद एक को दिया हुआ दूसरे को दिए हुए से अलग है ऐसा जानकर ब्राह्मी के अक्षर ही सौन्दरी के अंक और सौन्दरी के अंक ही ब्राह्मी के अक्षर है ऐसा कह कर दोनों को दिया हुआ एक ही है ऐसा स्पष्ट किया। 68 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय इसी पध्दति में समस्त शब्द समूहों को प्रत्येक ध्वनियों में प्रतिध्वनियों को अक्षर संकेत के रूप में परिवर्तित कर इन अंकाक्षरों को चक्र बंध के रूप में पहले ही गोमट्ट के द्वारा समस्त शब्दागम शास्त्र के रूप में रचा गया और तब से आज तक पारंपरिक तौर से कुमुदेन्दु तक आया है, ऐसा कहते हैं । उस समय आदि तीर्थंकर के दिए गए लिपि और अक्षर वृषभ देव के सर्वज्ञ रूप में दिए गए दिव्य उपदेश भी कन्नड में ही थे और यह अंकाक्षर गणित था, ऐसा कुमुदेन्दु कहते हैं। इस गणित की भाषा को विश्व के ७१८ भाषाओं को ग्राह्य करने की शक्ति है, ऐसा भी कहते हैं। इसी को कवि इस तरह से कहते हैं यडगै नाडंकवेंदेने ब्राह्मीय । एडगैय सरद कन्नडद । मडुविनंकदे बेरेसलु ऐदैदानंक । एडबल सौन्दरियंक ॥ ५-७८ परमं पेळिद हदिनेंटु मातिन। सरसद लिपि ई नवम। वरमंगल प्राभृतदोळु अंकव । सरि गूडि बरुव भाषेगळं ॥ ५८९ परम के कहेनसार १८ भाषाओं की सरस लिपि है। इस नवम मंगल प्राभूत में अंकों को मिला कर आने वाली भाषा है। रसवु मूलिकेगळ सारव पीवंते। होस कर्माटक भाषे । रसश्री नवमांकवेल्लरोळ बेरेयुत। होसदु बंदिह ओम ओंदंक। रस में जडों का सार होने की भाँति नवीन कर्नाटक भाषा। रस श्री नवमांक में लिखते हुए ॐ करुणेयं बहिरंग साम्राज्यलक्षमीय । अरुहनु काटकद ॥ सिरिमाते यनदे वंदरिं पेळिद । अरवतनालांक भूवलय ॥१ -३० एक से लेकर ६४ तक इस भवलय को साम्राज्य लक्ष्मी की करुणा से अरहन ने बहिरंग रूप से कर्नाटक सिरि माता की कृपा से कहा रागव वैराग्यवनोंदे बारिगे। तागिसे कर्णाटकद । बागिल सालिनिं परितंद कारण । श्री गुरुवधर्मानांक ॥५-८३ 69 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय राग वैराग्य को एक साथ एक ही समय में कर्नाटक के दरवाजे के द्वारा बहाया श्री गुरु वर्धमांक । सर्वज्ञ देवनु सर्वांगदिं पेळद । सर्वस्व भाषेय सरणि ॥६- २ सकलवु कर्माटदणुरूप होंदुत । प्रकटदे ओंदरोळ अडगि ॥६- ३ सर्वज्ञ देव ने सर्वांग से सर्वस्य भाषा की सरणी को कहा। कन्नड में समस्त अणुरूप से समाहित है। हदिनेंटु भाषेयु महाभाषेयागलु । बदिय भाषे गळेळु नूरं । हृदयदोळडगिसि कर्माटलिपियागी । हुदुगिसिदंक भूवलय ।। ६-४ १८ महाभाषा और ७०० लघु भाषाओं को कर्नाटक लिपि ने अपने हृदय में समाहित करने वाला यह अंक काव्य भूवलय है यशस्वतिदेवीय मगळदेळनूरू। पशुदेवनारक भाषे ।। ६-३२ नवदंकद ई भाषेगळेल्लवु । अवतरिसिद कर्माट ॥ ६-३३ यशस्वती देवी की पुत्रियों के द्वारा समझा गया यह ७०० पशुदेवनारक की भाषा । नवमांक की ये भाषाएँ कन्नड में अवतरित हुई है। घनकर्माटदादियोळ बहभाषे । विनयत्व वळवडिसिहुदु॥६-३४ वरदवागिसि अतिसरलवनागिसि । गुरु गौतमरिंदा हरिसि । । ७ - १२३ घन कर्नाटक में प्रारंभ से बहु भाषाएँ विनय पूर्वक से है। विशेष रूप से सरल रूप से गुरु गौतम द्वारा आगे बढा है। लिपियु कर्माटक वागले बेकेंब | सुपवित्र दारिय तोरी । । ७ - १२४ रक्षिसिकूडलुसमनागिरुवुदु । रक्षेय हदिनेंदु भाषे । । ९ - २८ लिपि कर्नाटक की होनी चाहिए सुपवित्र मार्ग को दिखाया है। १८ रक्षित भाषाएँ समान हैं। यशद लिपियंक क्षुद्र ऐकनूरंक वश्संज्ञरिं आवाव ॥ यशदंकाक्षर अक्षभाषाय । वशभव्य गुर्पदेशविव ॥ ९ - २९ 70 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय यशस्व की अंक लिपि की ७०० भाषा अंक संकेत निपुण के द्वारा उस उस भाषा के अक्षर बन भाषामय बन कर उपदेश बनेंगें। इस तरह कन्नड के आदि परंपरा को गणित पध्दति के अनुसार इस अंकाक्षर भाषा को अपने परंपरा गणिताक्षर के शक्ति से समस्त भाषाओं को समाहित करने की शक्ति है ऐसा सूचित करते हैं। इसे ही कुमुदेन्दु इस तरह कहते हैं सुर नागेन्द्र तिरियंच नारक। ररीयुवेल्नरंबक्षर । बर भाषए हदिनेंटु बेरेसीनांबरेदिह। गुरुवीरसेन सम्मतदि।।१०-२७ गुरु वीर सेन की सम्मति से, सुर, नर, नागेन्द्र सभी के समझ में आनेवाला ७०० भाषाओं के साथ १८ भाषा को मैंनें मिलाकर लिखा है । मोक्षमार्गोपदेशक वादेलोंदेन्टु। साक्षर अक्षरद तुहिन।। रक्षेय जगद समस्त भाषेगलिह। शिक्षेये भव्यद वस्तु॥ १०-४६ मोक्षमार्ग का उपदेश करने वाले सात और एक आठ भाषाओं के अक्षरों के हिम रक्षा में जग के समस्त भाषाओं को समाहित करने वाली भव्य वस्तु। अंकाक्षर पध्दति की भाषा कन्नड होकर जगत की भाषा के लिए जननी बनकर अपने आँचल में स्थान देती है। अपने इस भूवलय काव्य में संस्कृत प्राकृत कन्नड की जंजीर में अन्य भाषाओं को बाँधा जा सकता है। बहु सुगंध पुष्प हार जैसे परिमल रसायन के समान सभी भाषा के पुष्प द्रव्यों को कन्नड के धागे में पिरोकर बाँधा जा सकता है इसे कुमुदेन्दु ऐसा कहते हैं । इस काव्य में ७१८ भाषायें समाहित है धर्मभाषेगळेंटोंदेलु ॥१-८८।। धर्मभाषा सात और एक आठ। अरीवु ऐळ्नूर हदिनेण्टु ॥३-१४९॥ परमभाषे गळेल्लविरुव ।३-१५० समझ में आए तो ७१८ भाषाएँ हैं Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय - इरुव भूवलय दोळे ळनूर हदिनेंटु सरसभाषेगळवतार ॥४-१७७॥ भूवलय में७१८ सरस भाषाओं का अवतार है। वरदवादेन्नूर हदिनेंटु भाषेय । सरमालेयागलुं विद्या ॥१०-२१०।। विशेष ७१८ भाषाओं की विद्या। साविरदेन्ट भाषेगळिरलिवनेल्ल । पावन महवीरवाणी।। काव धर्माकवु ओंबत्तागिपार्ग। तावु अळनूर हदिनेंटु ॥५-१००॥ पावन रूपी महावीर वाणि धर्म का अंक नौ और भाषाएँ ७१८। इसमें समाहित १८ भाषाओं के पदों को गुणन कर लिखा गया है। इद रोळु हुदुगिद हदिनेंटु भाषेय । पदगळ गुणिसित बरुवर ॥५१२४॥ वासवरेल्लराडुव दिव्यभाषेय। राशिय गणितद कट्टि॥ मानव द्वारा बोली जाने वाली सभी भाषाओं को गणित में बाँधा गया है। आशाधर्मा मत कुम्भ्दोळगिह । श्रीशनेल्नरंक भाषे ।।५-१२३॥ मिक्किह ऐळ्नूर नक्षर भाषेयं । दक्किप दृव्यागमर।। अमृत कुंभ में श्रीअंक भाषा समाहित है। शेष बचे अक्षर भाषा को पहचाने ? तक्क ज्ञानव मुन्दकरियुव आशेय। चोक्क कन्नाड भूवलय ॥५-१७५।। इच्छित ज्ञान को जानने के लिए सुन्दर कन्नड का भूवलय। प्रकटित सर्वभाषांक ॥६-१४।। प्रकटित सर्व भाषा अंक । घनवादेळ्नूर हदिनेंटु । जिनवधर्मानभाषेगळु ।।६-४५.४६।। जिन धर्म के द्वारा प्रसारित दृढ ७१८ भाषाएँ साकूभाषे ऐळ्नूर हदिनेंटु ॥९-१७४।। व्यवहारिक भाषाएँ ७१८ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय - नापाए ऐळ्नूरर भाषे । बळसिरि महा हदिनेंटु ॥९-१९।। १८ महा भाषाएँ वशवाद काटकदेण्टु भागद । रस भंगदक्षरद सर्व ॥ रसभावगळनेल्लव कूडलु बंदु। वशवेळनूर हदिनेंटु भाषे ॥११-१७२।। कर्नाटक नाम के भाग में रसभंग अक्षर के सर्व रस भागों को मिलाकर मिलने वाले ७१८ भाषाएँ। इस प्रकार से ७१८ भाषाओं से युक्त सरल और प्रौढ दोंनों रीतियों में कुमुदेन्दु ने इस विश्व काव्य को रचा है। आपने कन्नड के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहा है। णुणुपाद दुण्डाद लिपिय कर्माटक । दनुपम रळकुळवेरसी।। मनुजर देवर जीवराशिय शब्द। दनुपम प्राकृत दृविड। चिकनी और गोल सुन्दर लिपि कन्नड की है । अर्थात कन्नड की लिपि चिकनी और गोल अनुपम लिपि है। ० इस प्रकार के चिकने और गोल बिन्दु को तोड कर सुन्दर अंकों को रचकर उसकी सुन्दरता में बिना कोई बाधा डालें उन अंकों में ही अक्षरों को छिपा कर अपनी ही एक विशेष रीति को प्रदर्शित किया जिसे विश्व में न इससे पहले और न इसके बाद कोई प्रदर्शित कर सकता है। आपकी इस सर्वभाषा मयी भाषा को आपकी ही एक भाषा कह कर परिभाषित करना होगा। कुमुदेन्दु कहते हैं विषहर “सर्वभाषामयी कर्माट"। दसमान सूत्रार्थ ॥१०-७०॥ विषहर सर्वभाषामयी कर्नाटक समान सूत्रार्थ खोडीकर्मव गेल्व हाडनु हाडिद । रूढियु हळेय कम्मडवा।। १०-७५॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय तुच्छ कर्मों पर जय प्राप्त करने के लिए प्राचीन कन्नाद में गीतों को गाया। परमं पेळिद हदिनेंटु मातिन । सरसद ई लिपि नवम ॥५-७९॥ यह नवम परम के द्वारा कहेनुसार १८ बातों (भाषा)की यह सरस लिपि है। वर “सर्वभाषा मयी भाषा” एन्नुव । अरहंत भाषित वाक्यं ॥१५१२२॥ अरहंत भाषित “सर्वभाषामयी" काव्य । इस प्रकार अपने काव्य भाषा को सर्वभाषा मयी कर्माट कहते हैं । इसमें समाहित नए-पुराने कम्मडों को मिलाकर बाँधा है, कहते हैं । कुमुदेन्दु इस संयुक्त भाषा को इस प्रकार विभाजित करते हैं “अथवा संस्कृत, मागध, पिशाच, भाषाश्च, शूरसेनी च, भेदो देश विशेषादपभ्रंशः” (५-९५-९६)। इस भाषाओं को तीन से गुणा करें तो १८ बनेगा “कर्नाट, मागध, मालवा, लाट, गौड, गुर्जर, प्रत्येकर्त यमित्या दशमहाभाषा" कहकर निरूपित करते हैं और सर्वभाषामयी भाषा, विश्व विद्याव भासिने, त्रिषष्टि : चतुः षष्टिा, वर्णाः शुभमते, माताः प्राकृते, संस्कृतेचापि, स्वयं, प्रोक्ताः,स्वयंभुवा-अकारादि, हकारांतां, शुध्दां, मुक्ताआआआआआआआआअवलिमिव, स्वर, व्यंजनभेदेन, द्विधा, भेदमुपैयुषि,अयोगवाह पर्यंतां, सर्वविद्या सुसंगतां, अयोगाक्षर संभूति, नैकबीजाक्षर चिश्तां, समवादि दधत, ब्राह्मीमेधाविन्यतिसुन्दरी- सुन्दरीगणितं, स्थानं, क्रमैहि, सम्य गधास्यत, ततो भगवतो, वक्तानिः सहताक्षरावलिं नम इति –व्यक्त सुमंगलां सिध्दमातृकां, स भूवलय ५-१२२-१४५। इस संस्कृत गद्य में कुमुदेन्दु अपने सर्वभाषामयी भाषाओं की रूप रेखाओं को विस्तृत रूप से निरूपित करते हैं और इस अंक लिपि में १८ प्रकार के नाम कहते हैं १. ब्राह्मी २.यवन, ३.उपरिका ४. वराटिका ५. वजीकसाविका ६. प्रभारात्रिका ७. इच्छतारिका ८. पुस्तिका ९. भोगयवत्ता १०. वेदनतिका ११. निहतिका १२. अंक १३. गणित, १४. गंधर्व १५. आदर्श १६. महेश्वरी १७. दामा 74 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय १८. बोलिदि (५-१६०) इन विचित्र नामदेय अंक लिपियों का अनुशीलन होना अभी शेष है। कुमुदेन्दु द्वारा बाँधे गए कन्नड भूवलय में उपयोग किए गए ७१८ भाषाओं के कर्माटक में प्राकृत, संस्कृत, द्रविड, आन्ध्रा, महाराष्ट्र, मलेयाल, गुर्जर, अंग, कलिंग, काश्मीर, काम्भोज, हम्मीर, शौरसेनी, वा, तेबती, वेंगी, वंग, ब्राह्मी, विजयार्ध, पद्म, वैदर्य, वैशाली, सौराष्ट्र, खरोष्ट्री, निरूष्ट्र, अपभ्रंशिक, पैशाचिक, रक्ताक्षर, अरि, अर्धमागधी, (५-२८-५८) इत्यादि हैं ऐसा कहते हैं और फिर आगे कहते हैं __ अरस, पारस, सारस्वत, बारस, वश, मालव, लाटा, दौडा, मागध, विहार, उत्कल, कन्या कुब्ज, वराह, वैश्रमण, वेदांत, चित्रकर और यक्षी राक्षसी, हंस भूत, ऊहिया, यवनानी, तुर्की, द्रविल, सैन्धव, मालवणीय, किरिय, देवनागरी लाडा, पारशी, अभित्रक, चाणक्य, मूलदेवी इत्यादि(५-२८-१२०) इस प्रकार विविध भाषा लिपियों को नवमांक सरमग्गी कोष्ठक (पहाडा, गुणन सूची) के एक ही अंक लिपि में पकड कर, बाँध कर, इन सभी भाषाओं को इस कोष्ठ बंधाक्षर काव्य शरीर में समाहित कर, सभी को कर्माटक कन्नड के अणुराशी में मिला दिया है। कुमुदेन्दु की भाँति कोई नहीं है। इस महापुरूष के काव्य की भाषा क्या है, यह सोच कर निर्णय लेने की योग्यता भी हम में नहीं है, ऐसा हम निःसंकोच स्वीकार करते हैं । भूवलय के ग्रंथ का पारंपरिक इतिहास भूवलय नाम के विश्व काव्य और उसकी परंपरा को कुमुदेन्दु इस प्रकार कहते हैं अनादि काल मे आदि तीर्थंकर के वृषभ देव ने अपने राज्य को अपने बच्चों भरत और बाहुबली(गोमट्ट) को देने के पश्चात अपनी पुत्रियों, ब्राह्मी और सौन्दरी को सकल ज्ञान मूल के अक्षरांकों को दिया, ऐसा पहले ही कहा जा चुका है। बहनों को पिता के द्वारा सिखाए गए अक्षरांक गणित के ज्ञान विद्या को भरत ने महत्व नहीं दिया परन्तु विचाराधीन गोम्मट ने - तरूणनु दौर्बली यवरक्का ब्राह्मीयु। किरिय सौन्दरी अरितिहद।। अरवतनाल्काक्षर नवमांक सोनेय। परिइह काव्य भूवलय।।(५-१७६) ब्राह्मी को अक्षर और सौन्दरी को शून्य से नवमांक । इसी से भूवलय काव्य बना। 75 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सिरि भूवलय इस गणित के क्रम को बोध करने में मनविटु कलितवनाद कारणदिन्दा। मनुमथनेनिसिदे देवा।। (२-५) मनः पूर्वक सीखने के कारण । अर्थात मन लगाकर सीखने के कारण आप देव समान हैं ऐसा कहते हुए कृतकृत्य हुए। छोटे भाई का केवल एक ग्राम पर अधिकार होना अपने चक्रेश्वर पदवी के लिए कलंक के समान है ऐसा विचार कर भरत ने गोम्मट को शुल्क देने का और अपने अधीन राजा बने रहने को कहलवा भेजा । यह नीति गोम्मट को ठीक नहीं लगी । तब युध्द के द्वारा तय होना निश्चित हुआ। ___पध्दति के अनुसार आठ युध्द हुए। जिनमें से सात युध्द में भरत को हार मिली। आठवें युध्द में जब आखिर में भरत को हार का अनुभव होने लगा तब बडे भाई की हार को देखकर विचाराधीन हो, यदि मैं जीत जाता हूँ तो बडे भाई के राज्य का शासन करना अधर्म है और हार भी अपमान जनक है ऐसा सोचकर गोम्मट वैराग्य धारण कर राज्य को तज कर भरत के सुपुर्द कर निग्रंथ हो गया । तब भरत ने अपने अचातुर्य के लिए विषाद कर मोक्षगामी गोम्मट से स्वयं को ज्ञान दान करने का आग्रह किया। मोक्षगामी बाहुबली त्यागी होने के कारण आहार, अभय, बैषज्य, और शास्त्र नाम के चार दान में से बचे हुए शास्त्र दान करने की इच्छा से अपने पिता द्वारा बहनों को ज्ञात अक्षरांक समन्वय पध्दति से आदीश द्वारा उपदेश प्राप्त सकल ज्ञान को सर्वभाषामयी भाषा में प्रस्तुत किया। इस संदर्भ को कुमुदेन्दु भूवलय के आरंभ में इस प्रकार कहते हैं लावण्यदंग मेयीयाद गोम्मट देवा। आनागा तन्न अण्णनिगे । ईवागा चक्र बंधद कट्टी नोळु कट्टी। दा विश्व काव्य भूवलय।।(१-१९) गोम्मट देव ने अपने बड़े भाई को चक्र बंध में बाँध कर इस विश्व काव्य को दिया। कुमुदेन्दु के मतानुसार इस भूवलय के आदिकर्ता गोम्मटेश्वर ही हैं । युध्द रंग में इसने एक अन्तर्मुहूर्त( लगभग ४६ मिनटों में) सकल ज्ञान भंडार के इस काव्य को गणित पध्दतिनुसार रचित रीति को उस चक्र में समाहित अंकाक्षर संख्या को कुमुदेन्दु इस प्रकार कहते हैं - 767 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय यशस्वति देविय मगळाद ब्राह्मीगे । असमान कर्नाटकद ॥ रिसियु नित्यवु अरवतनाल्कक्षर । होसेद अंगैय भूवलय ॥ १-२३॥ यशस्वतीदेवी की पुत्री ब्राह्मी की हथेली में ६४ अक्षरों को लिखा । करुणेयं बहिरंग साम्राज्यलक्ष्मिय । अरुहनु कर्माटकद ॥ सिरिमात यत्नदे ओंदरिं पेळिद । अरवतनाल्अंक भूवलय ।। १-३०।। एक से लेकर ६४ तक इस भूवलय को साम्राज्य लक्ष्मी की करुणा से अरहन ने बहिरंग रूप से कर्नाटक सिरि माता की कृपा से कहा । धर्मध्वजदरोळु केत्तिद चक्र। निर्मलदष्टु हूगळं ।। स्वरमनदलगळ ऐवतोन्दु सोन्नेयु । धर्मद कालुलक्षागळे ॥ १६-५॥ धर्म ध्वजा में अंकित चक्र पुष्पों की भाँति निर्मल हैं जिसमें ५१ शून्य और सवा लाख है आ पाटियंकदोळ ऐदु साविर कूडे । श्री पादपद्मदंगदल ।। १-६६॥ इन अंकों में ५००० और मिलाने हैं। इस चक्र में ५१०२५०००+ ५०००=५१०३०००० दल बन कर, फिर वही अंक बन कर, अक्षर बन कर गणित पध्दति के अनुसार रचा गया इसे ही कुमदेन्दु विश्व काव्य कहते हैं । इस अनादि चक्र बंध काव्य उस समय से सभी तीर्थंकर के समय में उनके गणधरों के द्वारा प्रचारित होकर आखिरी तीर्थंकर महावीर स्वामी तक सुरक्षित रहा। महावीर स्वामी ने ज्ञानोत्पत्ति पश्चात पिछले तीर्थंकरों की भाँति ही अपनी पिछली भाषा को छोड़ इस सर्व भाषा मयी भाषा में अपने दिव्योपदेश को प्रदान करने लगे। उस सर्व भाषा मयी भाषा कन्नड का परिचय न होने के कारण उनके शिष्य दिग्भ्रमित होने लगे । इस समय में महावीर के शिष्यों में सेन गण के गौतम वंशी इन्द्रभूति नाम के ब्राह्मण कन्नडिगा होने के साथ-साथ सकल शास्त्र पारंगत थे। इन्होंनें उस समय के महावीरोपदेश को समझ कर भक्तों को समझाया। यदि आप महावीरों के उपदेशों के समय न होते तो उनके (महावीर) के उपदेश सार्थक नहीं होते । इन्द्रभूति 77 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय के न रहने के तीन दिन महावीर जी ने उपदेश नहीं दिए ऐसा जैन पुराण में वर्णित है। महावीर जी के मोक्ष प्राप्त करने तक के कहे गए दिव्योपदेश संपूर्ण रूप से गौतम गणधर द्वारा संग्रहित होकर आगे गौतम गणधर से मगध देश के राजा सेनिक को और उनकी पत्नी चेलिनी को उपदेशित हुए हैं, ऐसा समस्त जैन पुराणों में विस्तृत रूप से निरूपित है। ऐसे ही संग्रहित ग्रंथ ही पूर्वेग्रंथ हैं, ऐसा कुमुदेन्दु कहते हैं। नवमांक पध्दति द्वारा रचित इस ग्रंथ को “करण सूत्र” नाम से पुकारा गया है इस संदर्भ में कुमुदेन्दु कहते हैं नव कारा मंत्र दोळादिय सिध्दांत । अवयव “पूर्वेय ग्रंथ” ।। दवतारदादिमद अक्षरमंगल । नव अ अ अ अ अ अ अ अ अ ॥१- १०२ ॥ नवकार मंत्र के प्रारंभ का सिद्धांत । अवयव पूर्वे ग्रंथ का "अ" अक्षर नौ अ अ अ अ अ अ अ अ अ । वशगोन्डु “अ” “आदिमंगलप्राभृत" रसद अक्षरवदु तानु ॥ १२-१३ “अ” को वश में कर आदि मंगल प्राभृत स्वयं रस का अक्षर । अ कर्मंगळं निर्मूलवं माळव । शिरूरेद “पूर्वेकाव्य ।। ३ - १५४ ॥ शिष्यों के द्वारा लिखा गया अष्ट कर्मों को निर्मूल करने वाला पूर्वकाव्य है। तारुण्यव होंदि “मंगल प्राभृत” दारदम्ददे नवनमन ॥४ - १३२ ॥ तारूण्य से भरित मंगल प्राभृत । नव नवम काव्य है। “परममंगल प्राभृतदोळु” अंकव। सरिगूडि बरुव भाषेगळं ।५० - ७९ ।। परम मंगल प्राभृत के अंक मिलकर आने वाली भाषाएँ वेदद हदिनाकु पूर्व । “ श्री दिव्यकरणसूत्रांक" ।। १० - १०.११ ।। वेदों के चौदह पूर्व । श्री दिव्य करण सूत्र । श्री गुरु “मंगलपाहुडदिं” पेळद । रागविराग सद्ग्रंथं ॥१०-१७५॥ राद-विराग सद्ग्रंथ को श्री गुरु ने मंगल गीत के रूप में कहा रसवस्तु “पाहुडमंगलरूपद" । असदृश्य वैभव भाषे ।। १० - १९५।। 78 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय रसवस्तु पाहुड मंगल रूप का असदृश वैभव भाषा । इसी संदर्भ में आगे पावन पाहुड ग्रंथ ( १०- २१२) जिनेन्द्र वाणी प्राभृत (१०-२३७) रसद मंगल पाहुड ( १०- २३४) मंगल पर्यायवनोदे (११-४३) मंगल पाहुड (११ - ९२ ) इत्यादि तुसुवाणिय सेविसी गौतम ऋषियु । यशद भूवलयादि सिध्दांत ॥ सुसत गळयरके कावेम्बा हन्नेर्ड । ससमांगवनु तिरहयस्द ।। १४-५ गौतम ऋषि यशस्वी भूवलय के सिद्धांत को १२ समान भागों में मित्रों को बाँटा । इस प्रकार गौतम गणधर ने ही प्रथम भूवलय के पाँच भागों को १२ भागों में विभक्त कर 'द्वादशांग वेद' रूप के मंगल प्राभृत अथवा मंगल पाहुड में रचा था। यह ग्रंथ महावीर तीर्थंकर के समय के अति समीप समय में ही रचा गया होगा । महावीर के समय को साधारण रूप से जैन मतों वाले ईसा पूर्व और ईसा पूर्व २४७९ में कहते हैं। इस निर्णय को बुध्द देव के काल में, उनके मतों के, व्यक्तित्व के शत्रु बन कर, उनके मौसी के पुत्र देवदत्त पूरणकश्यप, पकुधकात्यन, संजय बेलट्टी पुत्त “निग्गंठ नात पुत्त" आदि सभी एक-एक मतों को प्रचारित करने में आतुर थे, ऐसा बौध्द ग्रंथों में विस्तार से विवरित है। इनके बोधित “मततत्वासार” क्या है ? इसका बौध्द ग्रंथ “त्रिपीटक” में वर्णन है । “ श्रामण्य धर्म फल सूत्र” पुस्तक में इनके उपदेश संग्रहित होकर निरूपित हुए हैं । इन तीर्थंकरों में अथवा मत प्रवर्तकों में निग्गंठनाथ पुत्त महादंडनायक, सेनापति सिंह के भी गुरु थे। यही नाथ पुत्र महावीर रहें होंगें ऐसा बौध्द ग्रंथों से जान कर महावीर के समय को पहले पाश्चात्यों और पिछले पौरात्यों ने निर्णय किया। लगभग सभी जैन मत के पंडित इसे ही मानते हैं। यह निग्गंठनाथ पुत्त नाथ वंशी होने के कारण तीर्थंकर महावीर भी नाथ वंशी ही होने के कारण एक के साथ दूसरे को नाम सादृश्य और वंश सादृश्य से जाने गये। इस बौध्द साहित्य में लिखे गए निग्गंठनाथ पुत्त के चरित्र को देखा जाए तो केवल बौध्दों ने ईर्ष्या 79 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय के कारण निंदा की। ग्रंथ में अतिश्योक्ति है ऐसा माने तो भी घटनाओं के क्रम को जड सहित उखाडा नहीं जा सकता। निग्गंठनाथ पुत्त, शिशु वैद्य “जीवक" के साथ "श्रावण्य फल सूत्र'' तथा “तत्व शास्त्र'' के विषय में बुद्ध को कुछ निरुपित करते हैं, यह निग्गंठनाथ पुत्त के अंतिम दिनो के तुच्छ जीवन का उदाहरण है, ऐसा महवीर काल निर्णय के संदर्भ में बौद्ध साहित्य में शरण लेने वालों व्यक्तव्य है। यह व्यक्तव्य जैन मत के किसी विभाग में स्पष्ट होता होगा यह हम जैनेतरो को ज्ञात नहीं है। इस चर्चा को आगे बढाने में हमें कोई रूचि नहीं है । इस संदर्भ में कुमुदेन्दु के इस कथन को कहते हैं साविरदोन्दुवरे वर्षगळिन्दा । श्री वीर देवनिवंदा।। पावन सिध्दांत चक्रेश्वरागी। केवलीगळपरंपरेइं ॥ (३) डेढ हजार वर्षों से । श्री वीर देव से आए। पावन सिद्धांत चक्रेश्वर बन। केवलीयों के परंपरा द्वारा । हूविनायुर्वेददोळु महावत मार्ग। काव्यवु सुखदायक वेन।। दा व्यक्तदभ्युदयवन श्रेयवाश्री व्यक्तदिन्दा सेविसिदा।। (४) प्राणावायु पूर्वे ( अ. थ.) अध्याय ५१-३.४) पुष्पायुर्वेद में महाव्रत मार्ग का काव्य सुखदायक है । इस विश्व काव्य को , आप महावीर देव से एक हजार डेढ साल (१५००) वर्षों से उपलब्ध हैं ऐसा कहते हैं। कुमुदेन्दु के समय को हमने सन् ८०० है ऐसा माना है । इसमें अनुमान नहीं है । आगे यदि अंतर आए भी तो केवल ५-१० वर्षों का आ सकता है उससे अधिक नहीं । कुमुदेन्दु के कहेनुसार उनके समय के ८०० से पहले महावीर १००१/१/२९(साढे एक हजार एक साल) रहें होंगे तो महावीर का समय ईसापूर्व २०० और डेढवर्ष होंगें । इस संदर्भ में कुमुदेन्दु कहते हैं गवियोग “कुन्नाळ अरस" रस ॥ ळवरोळु “ सिरिनारायण"नु।। चवनसौभम अजितनजयन।। लवरोळु “उग्रसेन” वया।।। मवनिय अजितसेन रस। कविवंद्य श्रेणिकनरपं॥ १४-७८-८३॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय गवि योग के कुन्नाल राजा से सिरिनारायण चवन सौभम अजितंजय अजित सेन तक आदि नामों का उल्लेख करते हैं । एल्लरिगरिवंत के किंदु शेणिक । गुल्लासदिन्दा गौतमनु। सल्लिलेयिंदलि व्यासरु पेळीद । देल्ल अतीतद कथेय ॥१७- ४४- ५०॥ सभी को समझ में आने के अनुसार श्रेणिक ने उल्लास से गौतम ने व्यास के कहे हुए संपूर्ण अतीत की कथा कही । इस प्रकार कुमुदेन्दु गौतम से उपदेश प्राप्त श्रेणिक को पहले कुन्नाल से १. सितिय नारायण २. अजितंज्या ३. उग्रसेन ४. अजितसेन को कहते हैं कुन्नाल प्रसिध्द अशोक के पोते कुणाल हैं माने तो कुमुदेन्दु के कहेनुसार १००० और डेढ साल ठीक बैठते हैं। इस दिशा में सह्रदय विद्वान विचार करें ऐसा आग्रह करते हैं । दिगंबर जैन कवि अमितगति अपने संस्कृत धर्म परीक्ष में २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के शिष्य बुध्द ने ही बौध्द मत का प्रचार किया ऐसा कहना श्वेतांबर संप्रदाय के उत्तराध्यन सूत्र में पार्श्व नाथ के शिष्य केशि और गौतम ने वादविवाद किया, यह सोचने का विचार है। सभी संप्रदाय के जैन ग्रंथ पार्श्व नाथ से २५० वर्षों के बाद महावीर का समय है मानते हैं, इसकी तुलना करें ऐसा हम पाठकों से आग्रह करते हैं । इस आदि मंगल पाहुड प्राभृत लगभग ईसा पूर्व २५० में रचा गया होगा ऐसा स्थूल रूप से कह सकते हैं। यह सर्वज्ञ कहे जाने वाले सर्वभाषा मयी भाषा में रहा होगा कहने के कारण यह भूवलय की भाँति ही कन्नड की प्रधान्यता में रहा होगा, ऐसा यकीनन कहा जा सकता है। इस ग्रंथ की रचना होने के बाद लगभग १० आचार्यों के बाद प्रभाव सेन नाम के सेन वंशी गुरु हरुष प्रभाव सेन गुरु । विरचिसिदरु पाहुडवं ॥ तिरेय केवलव रक्षिसलं ।। शरदोळक्षरव कट्टुवरु ।। यरडनेय गणधरदवरु ।। हरशिव शंकरगणित ।। १३-१०६-११८ ॥ 81 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय हर्ष के साथ प्रभाव सेन गुरु के द्वारा विरचित पाहुड । भूमि की शुद्धता रक्षा के लिए । तीव्र गति से अक्षरों को द्वितीय गणधर ने हरशिवशंकर गणित में बाँधा । इस प्रकार उस मंगल प्राभृत को पहले ही कहेनुसार संस्कृत प्राकृत कन्नड में लिखा गया है (तीनों को मिलाकर) यह ग्रंथ लगभग सन् ५० में रचा गया होगा। इन दो ग्रंथों को इसी परंपरा के शिष्य भूत बलि ने भूवलय के नाम से भूत बल्याचार्यनवन भूवलयद । ख्यातिय वैभव भद्र ।। नूतन प्राक्तनवेरडर संधिय । ख्यातिय सारुव सूत्र ।। ९ - २२८ ॥ विख्यात वैभव भद्र का नूतन प्राचीन को मिलाकर ख्याति प्रचारित करने वाला सूत्र, भूत बल्याचार्य का भूवलय । इस भूतबल्याचार्य के भूवलय को, उसके नूतन प्राप्तों को आदर्श रूप में कह कर कुमुदेन्दु अपने गुरु वीर सेनाचार्य के छाएयोळा चार्यनू सुरिद वाणिय। दायवनरीयुत नानु।। आय मंगल पाहुडद क्रमांकद । दायदि कुमदेन्दु मुनि ।। ९-१९७।। कुमुदेन्दु मुनि ने आचार्यों की वाणि के लाभ को समझ कर उसका अनुसरण किया । अंकाक्षर विज्ञान से भरित विश्व सेना भूतबलि द्वारा रचित तीन भाषाओं के भूवलय को परिष्कृत कर पुरुषोत्तम महावीर की भाँति ही सर्वभाषा मयी भाषा कन्नड के प्रधानता से रचा । कुमुदेन्दु के समय सन् ८०० से पहले विश्व सेन के समय सन् ४०० के लगभग भूत बलि ने अपने भूवलय को रचा होगा ऐसी कल्पना करनी होगी। भूवलय का भाषा और छंद भूवलय के कवि कुमुदेन्दु के समय में कन्नड, दक्षिण, उत्तर शैली दोनों रूपों में थी, ऐसा कुमदेन्दु के शिष्य अमोघ वर्ष अपने कवि राज मार्ग में कहते हैं । इस के लिए कोई उदाहरण तो वह नहीं देते, और कहते हैं कि मेरे समय 82 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय से पहले ही पुरानी कन्नड थी और वह कोई संग्रहनीय नहीं है। कुमुदेन्दु पुराने कम्मड का नाम लेकर अपने काव्य को दोनों को मिलाकर प्रौढ - मूल दोनों के ताल-मेल के लिए लिखते हैं ऐसा कहते हैं। अनेक स्तरों पर उत्तर में प्राचीन कन्नड कठिन और दक्षिण में आज की भाँति ही सरल रही होगी कह सकते हैं। समस्त कर्नाटक के प्रतिनिधि रहे यह कवि दोनों पध्दतियों में समान साँचे में ढाल कर साधरण जनता को अन्याय न होने के भाँति लिखा है । इस सर्व भाषामयी काव्य में केवल कन्नड ही नही हमारे देखे गए सभी भाषाओं में जनता को कठिनाई न हो इस का ध्यान रखा गया है ऐसा कह सकते हैं । भूवलय के छंद के विषय में दो बातें लिपिय कर्माटकवागले बेकेम्ब । सुपवित्र दारिय तोरी ।। मपताळलयगूडी “दारुसाविरसूत्र ” । दुपसंहारसूत्रदलि ।। लिपि का कर्नाटक का होना आवश्यक है सुपवित्र मार्ग को दिखा, ताल लय के साथ ६००० सूत्रों के उपसंहार सूत्र में वरदवागिसि अतिसरल्वनागिसि । गुरु गौतमरिन्दा हरिस । सर्वांकदरवतनाल्कक्तारदिन्दा । सरिश्लोक “आरुलक्ष” गळळ ॥ ७–१२३.१२४॥ अति सरल रूप से गुरु गौतम के द्वारा प्रवाहित सर्वांक ६४ अक्षरों से छह लाख श्लोकों की रचना की । कुमुदेन्दु अपने काव्य को ताल-लय के संयोग से ६००० सूत्रों से ६ लाख श्लोकों को रचा है ऐसा कहते हैं । कुमुदेन्दु के शिष्य नृपतुंग “कवि राज मार्ग " मे पूर्व के कवियों “ चत्ताण बेदण्ड” नाम की पद्धतियो को मान कर साहित्य की रचना की है ऐसा कहते हैं । नृपतुंग ने “ चत्ताण बेदण्ड” का नाम लेकर पूर्व कवि मान्यता देकर, स्वयं उसने अपने काव्य में, वह भी कन्नड लक्षण ग्रंथ में, उसको लिखा ही नहीं । कुमुदेन्दु ने पूर्व कवि मान्यों के शुध्द कन्नड के शब्द गणों, चत्ताण बेदण्डों का उपयोग कर अपने काव्य को रचा है। कुमदेन्दु “चत्ताण” चार भागों (चतुस्थान ) 83 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय के सांगत्य रूपों में “बेदण्डों” को भूवलय ग्रंथ के १२वें अध्याय के बाद के अध्यायों में अंतर काव्य श्रेणियों के दंड रूप के गद्य साहित्य में भी रच कर नृप तुंग से भी पहले के कन्नड के छंदों का दर्शन कराया है कुमुदेन्दु अपने काव्य को मिगिलादतिशयदे ळ्नूर हदिनेंटु। अगणितदक्षर भाणे।। शगणा दिपध्दति सोगसिनिं रचसिहे। मिगुव भाषेयु होरगिल्ल ॥९-१९८॥ चरितेय सांगत्यवेने मुनिनाथर । गुरुपरंपरेय विरचित।। ९-१९६॥ चरितेय सांगत्य रागदोळडगिसि। परितंद विषयगळेल्ल ॥७-१९२।। वशवागदेल्ली कालदोळेम्बा । असदृश्यज्ञानद सांगत्य।। उसहसेनरनु तोरुवुदु ॥ असमानसांगत्यवहुदु ॥ ९-१२१.१२२॥ श्रेष्ठ अतिशय रूप से ७१८ भाषाओं में अगणित अक्षरों में शगणादि पद्धति में सुन्दर रूप से रचा। इसकी तुलना में कोई और भाषा नहीं है। यह काव्य ही चत्ताण होने के कारण इसके लिए निरूपण देने की आवश्यकता नहीं है । इस काव्य में से पक्ति बेदण्डों में से एक को उदघत करते हैं स्वत्सि श्री मद्राय राज गुरु- भूमंडलाचार्यरु- ऐकत्व भावना भावितरूंउभयनयसमग्ररुं-त्रिगुप्तगुप्तरूं-चतुष्क्रियारहितळं पंचवत-समेतलं, सप्ततत्व सरोनीराजहंसरूं-अ मद भंजनरूं नवविध बालब्रह्मचर्यालंकृतरूंदशधर्मसमेतरुं द्वादशांग श्रुतपारावाररुं चतुदर्श पूर्वादिगळु॥१॥ अ १२-३१ से ५० श्रेणी कन्नड लोकभाषा के जीव की सांस "त्रीपदि रगळे” कुमुदेन्दु के ग्रंथ में कैसे मिले इसे जानने वालों से परिशीलन करवाना है । सन् ९४१ में आदि पंप ने इस शब्द गणों के “त्रीपदि रगळों” को अपरूप से उपयोग किया है। ___* इसके आगे शुद्ध कन्नड वृतों के और उन के लक्ष्यों को यहां नहीं दिया जा रहा है । (प्र. सं) 184 84 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय भूवलय के काव्य बंध कुमुदेन्दु ने अपने काव्य को अक्षरों में नहीं लिखा । पहले से चर्चित गौतम गण धर के पूर्वे काव्य करण सूत्र, मंगल पाहुड अथवा मंगल प्राभृत के भाँति ही इसी रीति में पाहुडों को सेनगणाचार्य विश्व सेन ने लिखा होगा इन सब को आधार रख कर कन्नड, प्राकृत, संस्कृत में भूत बलि द्वारा रचित भूवलय के भाँति ही नागार्जुन के कक्षपुट गणित के भाँति ही स्वयं अंकों में गणित पध्दति द्वारा गुणाकार करते हुए अंकों में लिखा। आपके पहले के आचार्यों की भाँति आप ओदीनोलंतर मूहूर्तदी सिध्दांत । दादी अंत्यननेल्ला चित्ता।। साधिपराज अमोघवर्षन गुरु । साधिप श्रम सिध्द काव्य।। (९-१९५) अंतर मूहूर्त अर्थात केवल ४६ मिनट में इस काव्य को रचा है कहते हैं। सर्वभाषा मयी महा काव्य को प्रौढ- मूढ दोनों को अनुकूल हो, प्रौढ-मूढ दोनों को एक ही हो (१-८) सरल कर्माटक के (१०-३३) सरल होने पर भी प्रौढ विषय के (१०-३८) अपने देशीय भाषांक काव्य (११-२८) को रचा।। ___७१८ भाषाओं को कन्नड काव्य में संयोजित करने के लिए कुछ बंधों का प्रयोग किया गया है । श्रेणी बंध में आए हुए कन्नड काव्य के पहले अक्षरों को ऊपर से नीचे पढते जाए तो वह प्राकृत काव्य होगा। बीच के २७वें अक्षर से नीचे पढे तो वह संस्कृत काव्य बनेगा । इस रीति से बंधों को अलग-अलग रीतियों से देखा जाए तो विविध बंधों में बहु विधि की भाषाएं आयेंगी, ऐसा कवि कहते हैं । ___कवि बंधों के नाम इस प्रकार कहते हैं चक्र बंध, हँस बंध, पद्म, शुध्द, नवमांक बंध, वरपद्म, महापद्म, द्वीप, सागर, पल्या, अनुबंध, सरस, शलाका, श्रेणी, अंक, लोक, रोम कूप, क्रौंच, मयूर, सीमातीत बंध, कामन, पदपद्म, नख, सीमातीत लेख्य बंध इत्यादि बंधों में कव्यों की रचना की है। काव्य के आगे के भागों का विवरण, अंक बंधों में से बाहर आने के बाद, प्राप्त होगा, ऐसी आशा करते Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ) काव्य कुमुदेन्दु अपने काव्य के विषय में कहते हैं सर्वार्थ सिध्दि सम्पदद निर्मल काव्य। धर्मव लौकिक गणित।। १-८३ लेसिनि भजिसुत बरुव निर्मल काव्य । श्रीशन गुणितद काव्य ॥३-१३३ दृष्टांतदोळगेल्ला वस्तुव साधिप। अ मंगल विह काव्य ॥ ३-१३४ गुणाकार वेनुव गणकरि बंदिह । अनुभव वैभव काव्य ॥ ३-१३५ बळे सुत चारित्रव शुध्दगोळिसुता। बळिय साधिप सिध्दि काव्य।। ३-१३६ गिळिय किगिले दनि काव्य। एळे वेण्ण दनियंककाव्य ॥ इळेगादिमनसिज काव्य। सुलिपल्ल सुलियद काव्य। ३-१६२,१६३ कर्माटक मातिनिन्दलि बळेसिह । धर्म मूरनूरअरवत्तु मूरं ॥ निर्मलवेनुत बळिय सेरिप काव्य । निर्मल स्याद्वाद काव्य। ३-१७१ तनगे बारद मातुगळनेल्ला कलिसुतं । विनयदध्यात्म अचल ॥ ३-१७२ तनुवनाकाशके हारिसि निलिसुव । घन वैमानिक दिव्य काव्य ॥४-१५५ रणक हळेय कूगनिल्लवागिप काव्य । दनुभव खेचरकाव्य ॥ ४-१५६ धार्मिक दृष्टि - मनुजराडुव ऋक्कु दिविजराडुव ऋक्कु । दनुजराडुव ऋक्कुदनद ॥ विनयवु गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु । जिनधर्मसमसिध्दरस्तु ॥ ६-८३॥ रतुनत्रयदे आदि अद्वैत । द्वितियवु द्वैतवेम्बंक ॥ तृतीय दोळनेकांतवेने द्वैताद्वैतव । हितद साधिसिद जैनांक ॥ = 86 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय हिरियत्वविवु मूरु सरमणि मालेय। अरहंत हारद रत्नं । सरपणियंते मूरर मूरु ओम्बत्तु । परिपूर्ण मूरारु मूरु ।। यशदंकवदरोळगोन्दु कूडलु । वशदा सोन्नेगे ब्राह्मी । वेसरिन लिपियंक देवनागरी येम्बा ।। यशवदेय ऋगवेददंक ॥ धर्मवदिन्तु समन्वयवागलु । निर्मलद्वैत शास्त्र ॥ शर्मरिगामूरु अनुपूर्विगे बंदु। धर्मदैक्यवनु साधिपु ।। मनदर्थियिन्दा अनेकांतजैनरु । जिननिरूपितवह शास्त्र ॥ दनुभयद्वैत कथम्चिदद्वैतद । घनसिध्दयात्म भूवलय ।। ६-८० १० कुमुदेन्दु के धार्मिक दृष्टि के लिए इससे भी अधिक निर्दर्शन की आवश्यकता नहीं है। कवि एक बेदंड में तर्क व्याकरणर छंदस्सु निघन्टु अलंकार काव्यधरर, नाटका गर गणितज्योतिष्कर, सकल शास्त्रिगळ, विद्यादिसंपन्नर, नदियंते महा अनुभावर, अदरलि लोकत्रयाग्रर, गारवद विरोधर, सकल महिमामंडलाचार्यर, तार्किक चक्रवर्ति सद्विद्या चतुर्मुखर षटतर्क विनोदर, नैयायिकव वादिपर, अदरलि वैशेषिकवं, भाष्यप्रभाकररु, मीमांस विद्याधररु, सामुद्रिक भूवलयरु । ऐसा कहते हुए अपना और अपने विद्वत के विषय में कहते हैं। सकल ज्ञान कोविद (पारंगत) आपको समता धर्म वादी कह सकते हैं। कुमुदेन्दु अपने जैन मत सूत्र के अभिमान में अन्य मतों को और अभिप्रायों को नकारते नहीं हैं । अन्य मतों को बहुकाल के ज्ञानियों की संपत्ति है, मान कर उनमें एक समानता दिखाकर इनमें से जगत के लिए अगाध प्रमाण में उपकारों का प्रयोग कर अपने तत्व सिध्दांत का निरूपण करते हैं। आगे या पीछे जब भी हो हमेशा के लिए शाश्वत तथ्यों को आणी मुत्तु (मोतियों) के भाँति अपने काव्य में पिरोया है। अब यह विश्व काव्य उपलव्ध कन्नड ग्रंथों में अत्यंत प्राचीन है और अभी तक उपलब्ध भारतीय साहित्यों में सबसे बडा है कह सकते हैं। 87 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ग्रंथ का मूल कुमुदेन्दु मुनि द्वारा रचित मूल प्रति कहाँ है? समय के बदलाव के साथ उसकी क्या स्थिति है? यह हमें ज्ञात नहीं है । इस ग्रंथ को किसने पढ़ा ? किसने देखा? कुछ पता नहीं है किसी भी संस्कृत, प्राकृत, कन्नड कवि ने इनका नाम नहीं लिया है। यह विषय, सिरि भूवलय ग्रंथ का नाम ही नए रूप में जनता के सामने आने के कारण विद्वानों को उस काल के ग्रंथ का, शासन पध्दतियों का परिशीलन कर, एक अनुशीलन की आवश्यकता हुई। हमारी जानकारी के अनुसार सर्वभाषा मयी काव्य का दर्शन करने वाले पढने वाले और पढाने वाले यदि कोई है तो तो वह है एक महामाता मल्लिकब्बे और दूसरे पिरिय पट्टण के देवप्पा नाम के जैन ब्राह्मण कवि । कन्नडड के कवि रन्न के पोषक दान चिंतामणि अत्तीमब्बे की भाँति इस मल्लिकब्बे ने भी भूवलय के साथ, धवल, जयधवल, महा धवल, विजय धवल, अतिशय धवल, नाम के ग्रंथों की प्रतिलिपि बनवाई, और इस सिध्दांत शास्त्र ग्रंथों को अपने परम गुरु गुण भद्र सूरी के शिष्य माघनंदी नामक महात्मा को शास्त्र दान किया, ऐसा ग्रंथ के आखिरी प्रशस्ति में लिखा गया है। यहाँ अनूनधर्मज नाम से प्रसिध्द महनीय गुणनिधानम । सहजोन्नतबुध्दि विनयनिधियेने नेग्दळं ॥ महिविनुत कीर्तिकांतेय । महिमानं मानिताभीमानं सेनं ॥ इस सेन की पत्नी अनुपम गुणगण दासवर । मन शीलनिदानेयेनिसि जिनपदसत्को कनद शिलीमुखळेने मा । ननिधि श्री मल्लिकब्बे ललनारत्नं ।। आवनिता रत्नद पें । पावंगं पोगळलरिदु जिनपूजियना ॥ ना विधध दानदमळिन । भावदोळा मल्लिकब्बेयं पोल्ववरार ।। विनयदे शीळदोळ गुणदोळादियं पेंपिनिं पुट्टिदमनो । जन रति रूपिनोळ खणि येनिसिर्द मनोहरप्पुदोंद रू ।। 88 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) पिन मने दानसागर मेनिप्प वधूत्तमेयप्प संद से । नन सति मल्लिकब्बे धरित्रयोळार दोरे सद्गुणंगळोळ। श्रीपंचमीयं नोन्तु । धापनेयं माडी बरेसि सिध्दांतमना रूपवति सेनवधु जित । कोप श्री माघनंदी यति पतिगित्तळ।। इन पद्यों में मल्लिकब्बे का वर्णन किया गया है । मल्लिकब्बे और दानचिंतामणि द्वारा निर्मित प्रतिलिपि अभी हमारे पास उपलब्ध है । इस महा सिध्दांत को पढ कर पढाने वाली मल्लिकब्बे इस सिध्दांत की ज्ञाता थी, ऐसा कह सकते हैं । इस ग्रंथ को पढ कर इससे प्रभावित पिरिया पट्टण के देवप्पा ने अपने द्वारा लिखे गए कुमुदेन्दु शतक में विदित विमल नाना सत कलान सिद्ध मूर्तिह। यलबभू कुमदेन्दो राजवदराजतेजम।।४४।। इमाम यलवले कवमुदीन दुपरशसताम।। कथाम विश रुण वनतिते मानवशाच ॥ सुनय शरेयस मसव खयमश ननतिभदरम। शुभम मन्गलम तवस तुचास याह कथायाह।।१०२।। पिरिय पट्टण के देवप्पा के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। देवप्पा ऊपर लिखित पद्यों में कुमुदेन्दु मुनि को यलवभू/यलवले कुमुदेन्दु कहकर संबोधित करते हैं। इस तरह देखा जाए तो भूवलय में आपने स्वयं को यलवभू भूवलय संस्कृत प्राकृतादि श्रेणियों में कहे गए पद प्रयोगो में अच्छी तरह ध्यान में रखा होगा, ऐसा जान पडता है अथवा देवप्पा, कुमुदेन्दु के समीप के काल के रहे होंगें, कुमुदेन्दु के दादा-पिता के नामों के साथ उनके जन्म स्थल के विषय में भी जानकार थे,जान पड़ता है। देवप्पा के इस सहायता से और कुमुदेन्दु के कथनों के द्वारा भी, कुमुदेन्दु स्मरण करने वाले यलव नाम का गाँव नंदगिरि के शिखर पर रहा होगा यकीनन कह सकते हैं। इस महात्मा के द्वारा कहा जाने वाला यह 89 - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय गाँव बंगलोर-चिक्क बल्लापुर के मार्ग में नंदी रेल्वे स्टेशन के समीप है। इसी गाँव को कुमुदेन्दु का जन्म क्षेत्र कह सकते हैं । फिर भी इस विषय में अभी और परिशोध का कार्य होना शेष है। अभी हमारे पास उपलब्ध प्रति कुमुदेन्दु के ग्राम यळवळी के लगभग २० मील दूरी में बंगलोर- तुमकूर के बीच दोड्डबेळ नाम के ग्राम वासी सुप्रसिध्द जैन विद्वान मान्य धरणेन्द्र पंडित जी के पास था । उनके वंशज और साथियों से जाँच पडताल के दौरान, आप इस भूवलय को अंकों से पढते थे और उनके प्रिय साथी मान्य चंदा पंडित जी भी इस भूवलय को अंकों से ही पढकर इसमें कहे गए वैद्य, ज्योतिष्य, गणित, लौह शास्त्र, अणुशास्त्र, तत्व शास्त्र, भाषा शास्त्र, के साथ अन्य शास्त्रों का भी, जनता के लिए उपयोगी विषयों की जानकारी देते थे । इस संदर्भ में एक प्रयोग शाला भी बंगलोर में स्थापित कर अपने समय के पंडित मान्यों में से सर्वोत्कृष्ट स्थान में थे। ऐसा कह सकते हैं अभी भी मान्य धरणेन्द्र पंडित जी के वंशी दोड्डबेळे के वासी हैं । इस भूवलय ग्रंथ के कारण अपने समय में, सभी से, सभी मतों के विद्वानों से, कीर्ति शिखर पर पहुँचे, श्री पंडित जी से ईर्ष्यावश अनेकों ने कहा कि इस भूवलय को कहीं से लाकर वापस ही नहीं किया है ऐसा अपप्रचार किया । यह विषय मुम्बई मैसूर सरकारों द्वारा परीशीलित होकर यह आरोप निराधार है ऐसा धरणेन्द्र पंडित जी के बंधु मित्रों से और उनके परिचित वृध्दों से हमने जाना है । इस विषय की अधिक जानकारी प्राप्त न होने के कारण बहु जनों से बहु मुखों से कन्नड, हिन्दी, मराठी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भारतीय और विदेशी पत्रपत्रिकाओं में वृहद प्रमाण में प्रचारित हो गया । अभी भूवलय के संशोधक मान्य यल्लप्पा शास्त्री जी ने भी मान्य धरणेन्द्र पण्डित जी के विषय में प्रचारित आरोपों को ठीक तरह से परिशोधित न कर उनके मरणोपरांत भी उनके आरोपियों के इन आरोपों को जानबूझ कर अन्जान बन मौनस्य अंगीकार किया है, जो ठीक नहीं है, कहना ही होगा। धरणेन्द्र पंडित जी का निधन १९९८ में हुआ। इस ग्रंथ को उनके साथ ही अध्ययन करने वाले मित्र श्री चंदा पंडित भी अधिक दिनों तक जीवित नहीं 90 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय रहे। तत्पश्चात यह ग्रंथ उनके बच्चों के पास रह गया । वे इस के अध्ययन और परिशीलन के योग्य न थे । धरणेन्द्र पंडित जी के बच्चों को जीवन यापन करना कठिन हो गया। तब वे पंडित जी के सरस्वती भंडार को बेच कर जीवन यापन करने लगे अंत में इस ग्रंथ को भी बेचने वाले थे। इस अंक काव्य भूवलय की प्रख्याति ने अनेकों लोगों के मन को आकर्षित किया था। इस ग्रंथं के प्रशंसकों में श्री यल्लप्पा शास्त्री भी एक थे। वे केवल प्रशंसक ही नहीं पंडित जी के पूर्व बंधुत्व भी थे। विद्या व्यसनी आपने पंडित जी के रिश्तेदारी की चाह कर धरणेन्द्र पंडित जी की छोटे भाई सर्व श्री आदि राज पंडित की बेटी ज्वाला मालिनी से विवाह किया । उस समय श्री शास्त्री जी का समय दुर्भाग्य पूर्ण था । धरणेन्द्र पंडित जी का सरस्वती भंडार औने-पौने दामों में बिक रहा था । श्री शास्त्री जी अपने वंशजों से प्राप्त ग्रंथों के साथ अपने सभी प्रयत्नों से अधिकतर कोरी कागज़( हाथ से बना मोटा और खुरदुरा कागज़) और अन्य रीति के बहु ग्रंथों को संग्रहित कर स्वयं का ललित नेमि सरस्वती भवन की स्थापना की थी। यह भवन कर्नाटक कवि चरित्रे(इतीहास) के रचयिता पूज्य सर्व श्री आर. नरसिम्हाचार्य के धन्यवाद का भी पात्र बना । इस प्रकार इसकी व्याप्ति कैसी होगी कहना आवश्यक नहीं है। इस समय तक शास्त्र ग्रंथ भूवलय भी बिकने को तैयार था । मल्लिकब्बे की भाँति ही, शास्त्र प्रेम मायके की मान बिन्दु की रक्षा हेतु इस भूवलय को (इनको ग्रंथ का नाम भी ज्ञात नहीं था) इसी वंश के होने के कारण, उन्हें ही यह ग्रंथ प्राप्त हो ऐसा श्रीमती ज्वाला मालिनी ने पति यल्लप्पा शास्त्री जी से आग्रह किया। निर्धनता की आग में जलते हुए धरणेन्द्र पंडित जी के बच्चों को इस ग्रंथ को बिना मूल्य के ही अपनी बहन को देने में भी मुश्किल हुई परन्तु ज्वाला मालिनी के पास संपत्ति के रूप में केवल एक जोडी सोने के कंगन ही थे उसके सिवा और कुछ नहीं था। जैन बहनें समय-समय से रक्षित करती आई हुई इस ग्रंथ को श्रीमती ज्वाला मालिनी ने अपनी सर्वस्य संपत्ति के रूप में एक जोडी कंगन को देकर इस अंक राशी को खरीद लिया । यह स्त्री धन के रूप में अब शास्त्री जी के पास है । यह ग्रंथ की नई और पुरानी कहानी है । दान चिंता मणी अत्ती मब्बे के भाँति, सेन की पत्नी मल्लिकब्बे की भाँति सामर्थ्य न होने पर भी 91 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय स्वयं की जितनी भी संपत्ति थी सभी को देकर इस ग्रंथ को श्रीमती ज्वाला मालिनी ने नहीं खरीदा होता तो कन्नड माता की मंगल सूत्र, चूडी कंगन हल्दी कुंकुम के समान, सभी कन्नडीगा के मान बिन्दु के समान, बहु भाषा-भाषियों के समान, भारतीय ज्ञान के भंडार के समान, विश्व के समस्त भाषाओं के सभी लोगो के कर्म कहानी के समान, इस विश्व की न कभी पहले थी और न कभी आगे होगी ऐसी प्रसिध्द वस्तु काल गर्भ में लुप्त हो जाती । इस कारण कन्नड जनता, आगे आने वाली पीढीयाँ इस महनीय महिला को भूल नहीं सकती भूलना भी नहीं चाहिए। इतना होने के बाद लगभग १९३५ में मेरा श्री शास्त्री जी से परिचय हुआ । मैंने शास्त्री जी के ललित नेमि सरस्वती भवन का परिशीलन किया। अंक काव्य का यह विषय ही हम दोनों के बीच बहुत समय तक चर्चा का विषय बना रहा । बहुत समय बीतने के बाद भी इसे पढकर जानने समझने की प्रगति चिंतन के स्तर से आगे नहीं पहुँची। इस पुस्तक से कोई उपयोग नहीं है यह एक बाल ग्रह यंत्र की पट्टी होगी ऐसा शास्त्री जी ने निर्णय लिया और अपना हाथ खींचने को तैयार हो गए । उपलब्ध ग्रंथ राशी को यथावत, यथा स्थिति में रखने के लिए मुझे एक अवसर मिला जिसके लिए मैं अपने आप को धन्य समझता हूँ । संयुक्त प्रयत्न बंद होने के बाद मैं किन्हीं कारणों से अपने गाँव वापस आ गया। श्री शास्त्री जी ने इस ग्रंथ का अनुशीलन का कार्य आगे चलाया। इन अंकों को अक्षर समझ कर अनेकानेक बडी गलतियों से छोटी गलतियों तक प्रयत्न कर अंकों को अक्षरों में परिवर्तित करने के प्रयास को आगे बढा कर उस क्षेत्रों में अंकों के बजाए अक्षरों को मिलाकर, इस साँचे को मिलाकर अनेक दिशाओं से परिशीलन कर, पढने का प्रयास कर उनमें कुछ शब्दों की खोज कर, उन सब को शब्द गणों की तरह पढने का प्रयास कर जितने शब्द जुडते हैं उन्हें जोडकर, खोज कर, छान कर, अभी मुद्रत अंकों में से कुछ पद्यों को बनाया। अभी तक किए गए सभी प्रयासों में सबसे अधिक समय और श्रम का व्यय हुआ। हमारी जानकारी के अनुसार विश्व में ऐसा अंक ग्रंथ यही एक है। इसे पढकर ठीक तरह से जनता को देने वाले केवल श्री यल्लप्पा शास्त्री जी ही Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय हैं, ऐसा कहने में बाधा नहीं है। इस तरह का एक विश्व व्यापी कन्नड ग्रंथ कन्नड के सिवाय विश्व की किसी और भाषा में नहीं है, ऐसे ग्रंथ को पढने वाले भी नहीं है। इस पृष्ठ भूमि में धन की आशा न कर, प्रशंसा से पुलकित न हो, आलोचना से विचलित हुए बिना कन्नडिगा होने का अभिमान रख, कन्नड की कृति को भारत में ही नहीं विश्व में भी सहृदय विद्वानों के द्वारा विश्व भर में समर्थन करवाने वाले श्री यल्लप्पा शास्त्री जी कन्नड के, कन्नडिगाओं के लिए संपत्ति हैं ऐसा समझे तो गलत नहीं होगा । एक और बात इस काव्य के सम्पादन के कार्य के लिए मैं सर्वथा योग्य नहीं हूँ । इसको अनुशीलन कर मेरे कन्नड के भाई- बहनों, माता-पिता, और बुजुर्गों से मेरी कुछ गलतियों के लिए क्षमा माँगने की योग्यता भी मुझमें नहीं है मुझे कोई उपाधि प्राप्त नहीं है मैं एक ग्राम वासी कन्नडिगा हूँ। श्री शास्त्री जी ने ग्रंथ का अनुशीलन कर भरत खंड में जाति मत - भेद न रख संचार कर राष्ट्राध्यक्ष श्री बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी से लेकर अनेक विद्वानों अधिकारियों से मिलकर बात कर विश्व में अति प्रमुख अंतराष्ट्रीय विद्या संस्थाओं से लेकर अनेक प्रमुख संस्थानों और अनेक प्रमुख स्वदेशी-विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के आदर का पात्र बन, अनेक अनेक भारतीय विद्वानों का समर्थन प्राप्त सोकर भी, इस कार्य को मुझे ही क्यों सौंपा यह मुझे समझ में नहीं आया । परन्तु यह कार्य कन्नड का है और मैं कन्नडिगा हूँ इसी कारण मैंने यथा संभव यह कार्य करने का प्रयत्न किया है राष्ट्रकूट के चक्रवर्ती अमोघ वर्ष ने इन पाँच उपाधियों को प्राप्त किया ऐसा कुमुदेन्दु कहते हैं पदविगळैदु संजनिसिद राजिगे । स धवल दादिम वृध्या ।। स्पदनागे एरडने जयधवलांकद । बदिगे मूरने महाधवल || दीनत्ववळिसुत जनतेय पालिप। भूनुतवर्धमानांक ।। आ नम्म जनतेय जयशीलधवल द। शाने पदवियदु नाल्कु ॥ वशवादतिशयधवल भूवलयद । यशवागे ऐदने अंक || रसविस्मयवाद विजयधवल विन्तु । यशद भूवलयद भरत ।। 93 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय महिय गेल्दंकव वशगेदु राजनु। वहिसिद दक्षिणद भरत।। सिहियखंडद कर्माटक चक्रिय । महियेमंडलवेसरांतु॥ ९-१६९ १७२ अर्थात इस सत्कार्य को करने के कारण अमोघ वर्ष को धवल, जय धवल, महा धवल, जयशील धवल, अतिशय धवल, नाम के भूवलय के उपाधियाँ प्राप्त हुई, ऐसा कवि कहते हैं । कुमुदेन्दु के कहेनुसार कारण सूत्र, पूर्वे काव्य, विश्व सेन पाहुड, जोणी पाहुड, भूतबलि भूवलय, आदि महावीरोपदेश शिष्य वर्ग के अनादर से नाश हो गए। आने वाले पीढी की अप्रगल्भते( उपेक्षा, नज़र अंदाज़) से यह अद्भुत निर्माण नाश हो गया ऐसा कहने की स्थिति में आ गया है। इस इतिहास की दुर्भाग्य पूर्ण घटना से कुमुदेन्दु भी नहीं बच सके। पिछले ११५० सालों तक अनेक मेधावी, जैन समाज में हो गए । कुमुदेन्द का ग्रंथ कहीं न कहीं सुरक्षित था ही, किसी ने भी इस अंक चक्रों से भूवलय को पढा, पूछा जाए तो उत्तर नकारात्मक ही होगा । यदि पूछा जाए तो इस ग्रंथ को पढने वाले केवल दो ही व्यक्ति होंगें, यह भी कितना सच है निर्धारित रूप से नहीं कह सकते । प्राचीन तीर्थंकर और उनके गणधरों के द्वारा किए गए मानव हितकर साहित्य संपूर्ण रूप से लुप्त हो गया । उप गणधर, गुरु आचार्य, के ग्रंथों की भी यही दशा हुई । सर्वभाषा मयी भाषा में पुरोषोत्तम जैसे महावीर ने वार्तालाप किया था ऐसा जैन पुराणों में मिलता है। पर यह असंभव है ऐसी निंदा की गई उनके द्वारा की गई बातचीत का कुछ भी भाग उदाहरण की रूप में न मिलने के कारण, बातचीत की थी या न की थी कुछ भी कहना संभव नहीं है। देश की इस स्थिति में पुनः प्राचीन सत्य स्थापना के लिए अभिनव तीर्थंकर जैसे महात्मा का उदय हुआ। वह भी कन्नड प्रदेश में, गणधरों के कुल में उन्हीं के वंश में । यह महात्मा तीर्थंकर निरूपित, गणधर निरूपित, सभी ज्ञानमयी साहित्य को आपने सर्वभाषामयी कन्नड में निर्मित कर, निरूपित कर, परिशुध्द कर, जनता के सामने रखा। इस कुमुदेन्दु तीर्थंकर को दुर्भाग्य से कोई भी गणधर प्राप्त नहीं हुए । इस कार्य को भी आपने ही किया। आपका समय ११५० वर्षों से, इस महात्मा को एक गणधर की आवश्यकता थी, इसे पूर्ण करने के लिए श्री शास्त्री 94 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय जी ही कुमुदेन्दु के गणधर हुए। अंकाक्षर काव्य को पढे हुए हैं पढ कर लिखा भी है । आपने पढ कर लिखे हुए को सर्वभाषामयी काव्य में प्राकृत, संस्कृत, कन्नड, अर्ध मागधी, पाली, शूर सेनी, लाड, तेलगु, तमिल, इत्यादि कैसे समाहित होकर इसी काव्य को सभी भाषा की जनता के सामने कैसे प्रस्तुत किया जाए, यह समझाया है। ग्रंथ अनुलोम, प्रतिलोम, अप्रतिलोमों में कैसे अपने आप में लाखों करोडों अन्य साहित्य को भी समाहित किए हुए हैं इसे दिखाया है। सत्य ही में श्री यल्लप्पा शास्त्री जी कुमुदेन्दु के लिए और कन्नड जनता के लिए एक गण्धर के समान हैं। कन्नड माता के लिए, कन्नड जनता के लिए, कार्यरत स्याद्वाद भीषङ मणि वैध राज पंडित श्री यल्लप्पा शास्त्री जी को जनता देश में जिस मान, स्थान और मर्यादा देने का सोचती है उसे प्रदान करें ऐसा जनता से निवेदन करते हैं । कन्नड भाषा की कहानी enU3X2000 0, १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ० णिच्चुव होसदागिरुवंकाक्षर। दच्चु गळोळ्गोम्बत्तु। णोच्चित्तु बिण्णत्तागिरुतरुवंकदा अच्च काव्यके सोन्नयादि।।७।। णुणुपाद सोनेय मध्यदोळ कूडिसे। गणितर्गे लेक्कुव तरुव।। अणीयाद सोनेगे मणियुत नानीग। गुणकर्गे भूवलयवनु॥१२॥ (खंड १ अध्याय २१) वरुषभारतदोळु बेळगुवेत्तिह काव्य। करुनाड जनरिगनादि।। अरुहनागमदोन्दिगे नय बरुवंते। वरकाव्यवन्नु कन्नडिपे॥१३॥ पुरुजिननाथ तन्नंकदोळ ब्राह्मिगे। अरवत नाल्कक्षरवित्त वरकुवरियर सौन्दरिगे ओम्बत्तुनु। करुणिसिदनु सोने सहित।।१७॥ __ (खंड १ अध्याय २२) 95 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय कन्नडदोन्देरळ मूरुनाल्कैदारु । मुन्न ऐळेण्टोम्बतेम्ब । उन्नतवादंक सोन्नेयिं हुट्टितें । देन्नुवुदनुकलिसिदनु।।२०।। (खंड १ अध्याय २३) कुमुदेन्दु मुनि के अनुसार आदीष ने अपनी बेटी ब्राह्मी को उस समय सिखाए गए अक्षर कन्नड के हैं, सौन्दरी को सिखाए गए अंक एक बिन्दु को तोड कर बनाए गए हैं, ऐसा कहा ही जा चुका है। लेकिन कन्नड भाषा कितनी प्राचीन रही होगी, इसे बहिरंग रूप से परिशीलन किया गया है । कन्नड भाषा यदि रही होगी तो भी सातवीं सदी से पहले बादामी चालुक्य के द्वितीय पुलकेशी के चाचा मंगलेश, के मेण बस्ती, विष्णु गवि के शासन से भी पहले लिपि बध्द नहीं हुई थी ऐसा विद्वानों ने निर्णय दिया है । लगभग इसी चालुक्य वंश के विजयादित्य ( सन् लगभग ४७५ ) की प्राणवल्लभा वेश्या विनापिटी के महाकूट के एक शासन को यहां उदाहरण के रूप में उस समय के कन्नड गद्य को प्रस्तुत किया है १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. स्वस्ति विजयादित्य सत्याश्रय पृथ्वी वल्लभ महाराजधिराज परमेश्वर भटा र प्राणवल्लभे विनापोटी गळ एन्पोर सूळे यार इव मुदुतायिवर रेवमञ चळगळवरा मगळिदर कुचिपोटिगळवरा मगळु विनापो टिगळ इल्लिये हिरण्यगर्भमिट्टु एल्ला दान मुं गोट्टु देवना पीठमान किसुविने कट्टि बेळ्ळिया कोडेयाछिसी मञ्ङ्लुळ्ळे अ शतं से त्र गोट्टु इदानदान पञ्चमहापातकनक्कु 96 ( इंडियन अंटिक्वरी सं १०. पृ. १०३ ) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय) इन शासनों का विस्तृत विवरण हम नही करेंगे । इस समय के भाषा विचार अत्यधिक चर्चित होकर एक स्तर तक पहुंच चुकी है। वर्तमान में हासन जिला के बेलूर ताल्लुक के हलमडि वीर भद्र देवालय के एक शिलालेख प्रकाश में आकर इस शासन में काल निर्देश न होते हुए भी यहाँ लिए गए नाम कादम्ब मृगेश वर्मा के नामानुसार यह शासन सन् ४६६ के लगभग जान कर, यही कन्नड में उपलब्ध अत्यंत प्राचीन शासन होगा, ऐसी जानकारी दी गई है (मै. अ. री.१९३८) इस काल के कन्नड के विषय में विपुल रूप से चर्चा होने के कारण सिध्द साहित्य उपलब्ध होने के कारण इस संदर्भ में हम कोई विवरण नहीं देंगें।। यहां से आगे आज के इतिहास का प्राचीन समय कुछ भागों को विषय से सीधे संबंध न होने के कारण छोड रहे हैं। (प्र. स.) भूवलय का स्वरूप परिचय कुमुदेन्दु मुनि भूवलय को अपने पंच भाषा मय भगवत गीता के अट्टविहकम्म वियला नाम के प्राकृत भाग से ग्रंथ का अक्षरारंभ कर इस गीता श्लोक को ऊपर से नीचे उतारते जाते हैं। तत्पश्चात अपने नवमांक पध्दति के अनुसार भूवलय सिध्दांतद इप्पत्तेळु । तावेल्लवनु होन्दिसिरुवा।। श्री वीरवाणी योळ्ह इ मंगल काव्य । ई विश्व दूधर्व। ४-७०॥ अभी सामने प्रस्तुत चक्र बंध के “ऊर्ध्व" भाग के २७ तावों (स्थाना) से लेकर उसी भगवद् गीता के “ओंकार बिन्दु संयुक्त” इस पहले श्लोक से भूवलय को प्रारंभ किया है। और अपने स्वीकृत भगवद् गीता को महाभारत से न लेकर इस महाभारत के लिए प्राचीन भरत-जय काव्य से अचानक ले लिया है, ऐसी जानकारी देते हैं । उस गीता के चक्रबंधाक्षर स्वरूप का परिचय देते हुए समग्र गीतामृत को ही हमारे सामने प्रस्तुत किया है। विश्व में लुप्त हो जाने वाले जयाख्यान का नाम लेते हुए उस भारत में अंतर्गत गीता को कहते हैं । गीता के एक श्लोकाध्याय के अंत में इस श्लोक को कहते हैं चिदानंद घने कृष्णे नोक्ता स्वमुख तोजुर्नम। वेदत्रै परानंद तत्वार्थ ऋषि मंडलम।।। 97 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय प्रथम श्लोकाध्याय को समाप्त कर द्वितीय अध्याय को इस श्लोक से प्रारंभ करते हैं अथ व्यास मुनि द्रोप दृष्टि जयख्यानांतर गत गीता द्वितीयोध्याय॥ अ २२॥ कुमुदेन्दु प्रथम गोम्मट देव, भरत को कहे गए तत्वाशास्त्र का आदि-अनादि गीता को प्राकृत में कहा था । इस गीता को नेमि से कृष्ण ने प्राप्त कर उसे अर्जुन को कहा था उसी को नेमि से प्राप्त संस्कृत गीता को मागधी के सित्थण बोध माय गछे (अ॥१६ श्रेणी) इस रूप में भी ऋध्दि मंत्र रूप के नेमिदत्त गीता को ऋषि मंडल रूपी व्याख्यान में, सभी तत्व शास्त्रों को तत्वार्थ सूत्र में जोडा: (अंतर पद्य ४४-५०) येल्लरिगरीवंते केळेन्दु श्रेणिका । गुल्लासदिन्दा गौतमनु। सल्लीलेइन्दलि व्यासरु पेळ्दर। देल्ला अतीतद कथेय।। व्यास से लेकर गौतम गणधर ने श्रेणिक को कहे गए इस गीता को कुमुदेन्दु : (अंतर पद्य १७-९४-१००) ऋषि गळेल्लरु एरगुव तेरेदिन्दलि। ऋषि रूप धर कुमदेन्दु।। हसनाद मन दिन्दा अमोघ वर्षांकगे। हेसरोटु पेळ्द श्री गीते ॥ इस तरह कुमुदेन्दु स्वयं ऋषि बन श्री कृष्ण के स्थान को अलंकृत कर अर्जुन रूपी अमोघ वर्ष को कन्नड व्याख्यान रूपी भगवत गीता को विस्तृत रूप से वर्णन करते हैं । इस तरह भूवलय विश्व के अत्यंत महत्व रूपी आधार मूल से प्रारंभ हुआ है । इसका विवरण आगे देते हैं । भूवलय का रचना विधान वशवाद करमाटकदेनटु । रसभन गदकक्षरद सरव।। मुकतियोळिह सिदध जीवर तागुत। वयकतावयकत्वदागि।। सकलवु करमाटदणुरुउप होनदुत। परकटदे ओमदरोळ अडगि।। ६-३॥ 98 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय णवदनदद ई भाषेगळेललवु। अवतरिसिद करमाट ॥६-३३।। घन करमाटकदादियोळ बहभाषे। विनयत्व वळवड्सिहुदु ॥६-३४।। कुमुदेन्दु मुनि इस तरह कन्नड_ कर्माटक दोनों को अनुरूप कर इस भाषा के शब्दों को ही विश्व के समस्त भाषाओं के लिए गणित पध्दति से विभक्त कर कन्नड में जोडते हैं। इस जुड़े हुए कन्नड काव्य में आदि में अक्षराणुओं को विनयत्व कहते हैं । इस पध्दति से प्रथम प्राकृत भाषा आती है। पूरे ग्रंथ में पद्य का आदि श्रेणी ऊपर से नीचे प्राकृत काव्य प्रवाह से बहती है। प्रथम खंड में तीसरा नवम संस्कृत बन सरिता सी बहती है । मुद्रित पूरे काव्य में इसे देखा जा सकता है। इस काव्य के तीन अध्यायों की श्रेणी में धर सेन शिष्य भूत बलि के भूवलय के समान प्राकृत-संस्कृत-कन्नड बन बहती है (अ-३-१७४)। ग्यारहवें अध्याय से दो सिर वाले एक प्राणी जैसे एक ही काव्य को दो भागों में विभक्त करते हुए इस भाग में १८ श्रेणी है ऐसा कुमुदेन्दु कहते हैं । यहाँ से काव्य के प्रथम अध्याय के पद्यों को अंतराधिकार के पद्यादि अक्षरों से पढा कर काव्य को बढाते हैं । इस श्रेणी से दूसरे काव्य को ऊपर से नीचे तक नीचे से ऊपर तक चलाते हैं । यहाँ से गद्य बेदंडे को चलाते हुए गद्य-पद्य दोनों को समान रूप से बढाते हैं । १३-१४ की श्रेणी में भगवद गीता के एक-एक श्लोको को उतार कर १४वें अध्याय से गीत को पद्यों के अंत तक ऋजुवक्रगति दोनों से आगे बढाते जाते हैं। आगे इस गीता के कन्नड श्रेणी में तत्वार्थ सूत्र, गणधर मंडलादि को गूंथ दिया है। १४से कन्नड गीता के साथ तत्वार्थ सूत्र को जोडा है। १६वें के बाद कायकल्पागम श्रेढीयोळ श्रेढी को १६ बनाकर इस श्रेढी में ही १६+१८=३४ काव्योंको समाहित किया है, कहते हैं । १८वें अध्याय से (प.५) से गीता को प्रथम अंकों में जोड़ते हैं । यहां गीता के लिए एक सरमग्गी कोष्ठक( गुणन सूची, पहाडा) को दिया है। इस प्रकार १९वें अध्याय में अनेक श्रेणियों का परिचय पुस्तक में देखा जा सकता है। इसी तरह इस पहाडा की कला को बढाते हुए अध्याय २० में १० संस्कृत श्रेणियों 1994 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय के साथ कन्नड को मिला कर १६ श्रेणी बना पहले की भाँति ही आगे चलती है। १६वें अध्याय के प्रासाक्षर से ही एक काव्य श्रेणी को बढाते जाते हैं । इस रीति से १०वें आश्चर्य कहलाने वाले भूवलय को जनता के सामने रखा है। इसमें हमने कोई गलती नहीं की है, हुई गलतियों को सुधारा है। भारतीय उसमें भी कन्नडिगा सहयद से स्वीकार करें ऐसी प्रार्थना करते हैं । संपादक - कर्ल मंगलम श्री कंठैय्या मागडी ताल्लुक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -( सिरि भूवलय नूतन परिष्करण के दो शब्द प्राचीन काल में आदि मानव के लिए अंगीकाभिनय ही भावाभिव्यक्ति का साधन था। इस व्यवस्था ने आगे चल कर चित्राभिव्यक्ति का रूप धारण कर लिया। यह चित्राभिव्यक्ति कोई श्रेष्ठ चित्र कला का प्रतीक नहीं था। आदि मानव ने चट्टानों पर पत्थरों पर दीवारों पर अपने भावों को चित्रों के रूप में व्यक्त किया। इसे मानवशास्त्रज्ञ चित्र लिपि युग pictographic age कहते हैं । मानव के द्वारा बोली का अविष्कार करने के कई वर्षों के बाद लिपि का अविष्कार हुआ। लिपि के साथ संख्या भी अवतरित हुई । मानव जब अपने भावों अनुभावों और अनुभवों को अक्षर रूप में उतारने लगा तब साहित्य का निर्माण हुआ । इसे अक्षर लिपि काव्य कहा जाता है। इसी प्रकार स्पंदित होकर भावों-अनुभावों को भाषा की तरह ही समर्थ रूप से प्रकट करने के लिए संख्या रूपी संकेतों का जन्म हुआ। इनके द्वारा रचित रचना को संख्या लिपि काव्य कह सकते हैं। इस रीति से उपलब्ध संख्या लिपि एकैक आश्चर्य जनक काव्य कुमुदेन्दु विरचित भूवलय है। सिरि भवलय विश्व के आश्चर्यों में से एक है ऐसी घोषणा करने के लिए आगे-पीछे सोचने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि यह एक अपूर्व अन्यादृश, विशिष्ट, संख्या धारित, सांकेतिक, धार्मिक काव्य, जैन धार्मिक काव्य कन्नड अंक लिपि में लिपि बध्द लेकिन विश्व के ७१८ भाषाओं को गर्भ में रख अपने महोन्नति से विश्व के भाषा साहित्य के लिए एक प्रश्न बनकर खडा, विचित्र और विशिष्ट कला कृति है। इसी कारण कवि कुमुदेन्दु इसे सर्व भाषा मयी कर्नाटक काव्य और विश्व काव्य कह कर संबोधित करते हैं और यह सर्वार्थ सिध्दि संपदद निर्मल काव्य। धर्मवलौकिक गणित।। निर्मल बुध्दियन वलंबिसिरुवर। धर्मानुयोगद वस्तु ॥ लेसिनि भजिसुत बरुव निर्मल काव्य। श्री शन गुणितद काव्य।। गिळिय कोगिले दनिकाव्य । “एळेवेण्ण दनियंक काव्य॥ इळे गादि मनसिज काव्य । सुलिपल्ल सुलियद काव्य।। 101 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय) तनगे बारद मातु गळ्नेल्ल कलिसुतं । विनयादध्यात्मा अचल ॥ तनुवनाकाशिके हारिसि निलिसुव । घनवैमानिक दिव्य काव्य ॥ रणकहळेय कूगनिल्लवागिप काव्य। दनुभवखेचर काव्य। अर्थात यह काव्य एक निर्मल काव्य है लौकिक धर्म का काव्य है। यह काव्य जिसे न सुलझा जा सके पर सुलझा हुआ कोयल की ध्वनि सा है। स्वयं को जिसका ज्ञान नहीं है उसे समझाने वाला तन-मन को काशी में पहुँचा देने वाला दिव्य काव्य है, ऐसी प्रशंसा करते हुए गीत गाते हैं । __ लेकिन यह सभी चक्र बंध संख्या लिपि में लिपि बध्द है । बहुतेक कन्नड सांगत्य छंदो विलास रूप में है । प्रत्येक चौकोर चक्र बंध रचना में कन्नड का ह्रस्व दीर्घ और प्लुतों से मिले २७ स्वर, क, च, त, ट, प जैसे २५ वर्गीय वर्ण, य, र, ल, व अवीय व्यंजन, बिन्दु अथवा अनुस्वार, (०) विसर्ग अथवा विसर्जनीय(8) जिह्वा मूलीय (8) उपध्मानीय (::) नाम के चार योगवाह सभी मिला कर ६४ मूलाक्षर १ से लेकर ६४ संख्याओं का संकेत देते हैं । यह क्रम रूप से २७ x २७=७२९ बनते हैं। कवि के निर्देशानुसार ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर, अंकों की राह पकड कर चले तो अक्षरजोडनेगैदरे वह एक भाषा की छंदोबध्द काव्य अथवा एक धर्म, दर्शन, कला विज्ञान बोधक शास्त्र कृति लगती है। उसे प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा दिए गए चक्र बंधों के विविध गतियों को अत्यधिक जागरूकता से ध्यान में रख कर अनुकरण करना चाहिए। उन्होंने अनेक अंक बंधों को दिया है। उनमें चक्र बंध, हंस बंध, पद्म, परपद्म, महापद्म, शुध्द, नवमांक बंध, द्वीप, सागर, पल्या, अंबुबंध, सरस, शलाक, श्रेणी, अंक, लोक, रोम कूप, क्रौंच, मयूर, सिमातितादि बंध, कामन, पदपद्म, नख, सीमातीत, गणीत बंध इत्यादि के नाम लिए जा सकते हैं । अश्व गति, सर्प गति, आदि गति गमन निर्देश भी देते हैं । इन गति बंधों में ही अपने काव्य को बाँधा है ऐसी जानकारी देते हैं । यह एक अर्थ में बाँधा गया है उत्पन्न नहीं हुआ है । भावजन्य मधुर काव्य नहीं है। फिर भी केवल एक ही कन्नड भाषा लिपि में प्रतिनिधित्व अंकों में ही विश्व की अनेक भाषाओं, अनेक काव्य शास्त्रों को अर्थ पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करने वाली विश्वविनूतन आश्चर्यकर रचना होने के कारण इसे अंकाक्षार विज्ञान रूपी विश्व कोष भी कह सकते हैं। - 102 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय इन विचारों की कुछ सीमाएँ हैं । इसी कारण इन विचारों को नकेल डाल कर सिरि भूवलय के शास्त्रीय शोध को, उसके जन्मजात के लिखावट को कर्नाटक के गिनती के विद्ववमणियों में से के प्रकांड पंडित डॉ. टी. वी. वेंकटाचल शास्त्री जी के सम्मुख रख अभी के लिए सिरि भूवलय के कवि कुमुदेन्दु के कन्नड अभिमान के विषय में एक-दो विचार प्रकट करने के लिए चेतन सह्रदयों से आज्ञा चाहता हूँ। वास्तव में अक्षर लिपि और संख्या लिपियों में रूप वैषम्य है परन्तु स्वरूप वैषम्य नहीं । स्वरूप में अर्थात काव्य शिल्प संदर्भ में परस्पर साम्य सौन्दर्य है। समान मूल्यों से भरित भी है। इन संकेत रूपों की अभिन्नता अपने काव्य के संदर्भ का कथानक में कवि कुमुदेन्दु अत्यंत मनोज्ञान रूप से चित्रित करते हैं। ___आदि तीर्थंकर होने वाले पुरुदेव तीसरे परिनिष्क्रमण कल्याण के बाद वैराग्य परावश होकर समस्त साम्राज्य को अपने सभी पुत्रों को बाँट देते हैं । मुख्य रूप से भरत को षट्खंड मंडल बाहुबली स्वामी को पौदन पुरादी भाग प्राप्त होता है। उस समय आदि देव की दो पुत्रियाँ कुछ शाश्वत संपत्ति देने का आग्रह पिता से करती हैं। तब आदि नाथ वृषभ स्वामी ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को अपनी बाँयीं तथा छोटी पुत्री सौन्दरी को अपनी दायीं गोदी में बिठा कर ब्राह्मी के बाएँ हाथ पर अपने दाएँ हाथ के अंगूठे से ॐ लिखते हैं । उसमें से ६४ अक्षरों के वर्णमाला का सृजन कर यह तुम्हारे नाम में अक्षर हो कह समस्त भाषाओं के लिए इतने ही अक्षर पर्याप्त हो कहकर आसीर्वाद देते हैं । ब्राह्मी से अक्षर लिपि को ब्राह्मी लिपि नाम पडा। उनके द्वारा ब्राह्मी को साहित्य शारदे नाम की शाश्वत संपत्ति प्राप्त वृषभ स्वामी ने अपने दाहिने गोदी पर बैठी सौन्दरी के दाहिने हथेली पर अपने बाँयें हाथ के अंगूठे से उसकी हथेली के मध्य भाग में शून्य लिख कर इस शून्य को मध्य में काटे तो ऊपर का भाग (टोपी के आकार का) दो भागों को अर्थ पूर्ण ढंग से मिलाते जाए तो OV30X2060 इस तरह शून्य से ही विश्व की सृष्टि हुई है, गणित में भी १० अंकों की - 103 4 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय - सृष्टि हुई है दिखा कर सौन्दरी को गणित अथवा संख्या शास्त्र विशारदे नाम की शाश्वत संपत्ति देते हैं । इस प्रकार सौन्दरी के अंक ही अक्षरों के और ब्राह्मी के अक्षर ही अंकों के बराबर होंगें ऐसा स्पष्ट कर, दोंनों पुत्रियों को दी गई शाश्वत संपत्ति एक ही वजन की है यह, अंकाक्षर लिपि में काव्य रचना की की साध्यता का विवरण करते हैं । इससे सौन्दरी को समधान और ब्राह्मी को संतोष मिलता है ।। सिरि भूवलय की तांत्रिक कहानी बहु भाषा समावेश की विशिष्टता हमें अचरच में डालें तो कवि कुमुदेन्दु का कन्नड अभिमान हमें आन्दानुभूति कराता है। वे कहते हैं जैन पुराण परि कल्पना के प्रकार उत्सर्पिणि और अवसर्पिणि दोनों समय काल में उदित हुए २४ जिन तीर्थंकर कर्नाटक के, और शुध्द कन्नडिगा ही थे। समवसरण मंटप के गंध कुटि के नडुवण (मध्य में) सहस्रदल पद्म पीठ के ऊपर चार अंगुल की ऊँचाई पर मंडित हुए तीर्थंकर स्वामी के मुख से कहे गए दिव्य वाणी को प्रकट करने की शक्ति कन्नड भाषा को है ऐसा अभिमान से कहते हैं । इतना ही नहीं आदि तीर्थंकर बने वृषभ स्वामी ब्राह्मी को दिए अक्षर लिपि कन्नड के हैं और सौन्दरी को दिए अंक लिपि भी कन्नड के ही हैं। कन्नड से ही व्यवहार में संवहन साधन भाषा की उत्पत्ति हुई है। वही भाषा साहित्य सृजन का कारण भी बनी। इसी प्रकार कन्नड के अंकों से ही कन्नड अंक लिपि का निर्माण होकर गणित शास्त्र के आविर्भाव का कारण हुई । इस कथन में सत्यांश चाहे कितना भी हो, कवि का कन्नडाभिमान सच में प्रशंसा के काबिल है। ___इतना कहने के लिए आप सब की सहनशीलता की परीक्षा ली है इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हैं। लेकिन फिर भी आखिर में मेरा एक कर्त्तव्य बनता है, वह है बुजुर्गों को, छोटो को, प्रेरकों को, अभिमानियों को, मेरी कृतज्ञता अर्पित करने का। मुझे अपना सहोदर जान कर आलिंगन कर, अपने प्यार की वर्षा कर, आज भी, हमेशा के लिए भी, अपने दोस्ती विश्वास का अमृत पान करा, अनिमित्त बंधु श्री वाय. के. मोहन जी को उनकी प्रिय बहु श्रीमती वंदना राम मोहन को, मैं परिषद का अध्यक्ष होने के समय ही, सिरि भूवलय की हस्त प्रति देकर प्रकाश दिखाने की चाह जगाने वाले आत्मीय श्री एम. वाय. धर्मपाल जी को, मित्र प्रभाकर चंडूर, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय श्री एच. एस. अच्युत, श्री उमेश जी को और इस कृति के प्रकाशन का भार वहन करने वाले पुस्तक शक्ति के सदस्यों का, सिरि भूवलय फॉउन्डेशन संस्था के समस्त पदाधिकारियों का, मेरे अत्यंत अभिमानी मित्र, देश के प्रसिध्द संशोधक, साहित्यकार, विख्यात विमर्शक बहुज्ञरु बहुभाषा विशारद पंडित श्रृंगार डॉ. टी. वी. वेंकटाचल शास्त्री जी को मेरा अनंतानंत प्रणाम । प्रो. सा. शी. मरुळैय्या गगिणी बेंगलूर ४० १०-२-२००२ 105 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय नूतन परिष्करण की प्रस्तावना (अक्षरस्थ परिष्करण के साहित्य के आधार पर) संस्कृत, कन्नड साहित्य में कुमुदेन्दु नाम का प्रचलन कुमुदेन्दु नाम अथवा उसका पर्याय रूप का प्रचलन कुछेक जैन यति और कवियों में होगा ऐसा कर्नाटक के शासनों से, ग्रंथ साहित्य की रचनाओं से ज्ञात हुआ है १. गुणभद्र से (सन् ९००) से बहुशः पहले रहे हुए कुमुद चंद्र नाम के अपरनाम धेय सिध्द सेन दिवाकर ने कल्याण मंदिर स्त्रोत नाम का पार्श्वनाथ तीर्थंकर से संबधित एक कृति (४४ पद्यों की) रचना की थी। २. माघनंदी सिध्दांत चक्रवर्ती के शिष्य चतुर्विद पांडित्य चक्रवर्ती भी रहे । वादि कुमुद चंद्र नाम धारित ने (सु.११००) प्रतिष्ठा कल्प टिप्पण नाम के कन्नड टीका की रचना की थी। ३. 'तत्व रन प्रदीप ' के कर्ता कन्नड कवि बाल चंद्र ने (स ११७०) अपने उस ग्रंथ को कुमुद चंद्र भट्टारक देव नाम के लिए प्रति बोध नार्थ रूप से रचित किया है कहते हैं (प्रकरणांत्य गद्य) ४. पार्श्व पंडित जी ने अपने पार्श्व नाथ पुराण नाम के कन्नड काव्य में (सन् १२२२) पूर्व के गुरुपरंपरा का उल्लेख करते समय शुभ चंद्र नाम के बाद एक कुमुद चंद्र महामुनि नाथ को कुमुद चंद्र यति पति को (१-४५-४६) पीर नंदी नाम के साधु के गुरु, एक और कुमुद चंद्र मुनीन्द्र को (१-५३) स्मरण करने के साथ अपने साक्षात्गुरु एक और कुमुदेन्दु को (१-९२) नाम दिया होगा लगता है। ५. कमल भवन (सु सन् १२३५) ने शांतीश्वर पुराण के कर्ता के उल्लेखानुसार जय कीर्ति वतीन्द्र के बाद एक कुमुदेन्दु योगी का स्मरण करते हैं । आप को शिष्याग्रेस प्राप्त माघणंदी मुनीन्द्र हैं वहीं जानकारी देते हैं (१-१७) | 106 - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ७. महाबल कवि अपने नेमिनाथ पुराण में (सन् १२५४) शुभचंद्र और विनय चंद्र नाम मुनि पर के मध्य एक कुमुदेन्दु मुनि प्रसक्ति को लाए हैं । ८. मूल संघ के बलात्कार गण जैन यतियो के एक समूह का नाम के जैन यति शास्त्रासार समुच्यादि ग्रंथों के कर्ता माघणंदी (सन् १२५३) स्वयं को कुमुदेन्दु के शिष्य के रूप में मानते हैं। अपने पदार्थ सार के अंतिम तींसवें अधिकार में मूल संघ बलात्कार गण के गुरु परंपरा को एक दीर्घ गद्य में कहने के बाद २९ संस्कृत श्लोकों में अपने गुरु कुमुदेन्दु की स्तुति करते हैं। इतना ही नहीं ग्रंथात्यंत में स्वयं को श्रक्कुमुद चंद्र भट्टारक देव के प्रिय शिष्य भी कहते हैं। गद्य भाग के स्तुति में वासु पूज्य त्रैविद्यदेव, उनके शिष्य उभय चंद्र सिध्दांत देव के बाद क्रम से कुमुद चंद्र ( कुमुद चंद्र भट्टारक) नाम के अपने गुरु की स्तुति करना ध्यान की बात है। ९. विविध षट्टदियों सम्मिश्रित काव्य कन्नड रामायण ग्रंथ की रचना करने वाले कुमुदेन्दु (सु सन् १२६५) कन्नड वाचक लोक में अधिक परिचित हैं । इनकी कृति कुमुदेन्दु रामायण के नाम से प्रसिध्द है। ये पद्मनंदी व्रती कामांबिके के पुत्र सिध्दांतत्रय चक्रेश्वर भी उस के बाद होयसल राय मणि गण किरण भी हुए। माघणंदी चक्रेश्वर के (सन् १२५३) शिष्य ( यही माघणंदी शास्त्रसार समुच्यादि टीका ग्रंथों के कर्ता और श्रवण बेळगोळ १२९वें शासनादि में उक्त नाद कहने वाले विद्वानोंके ग्रहिक) प्रतिष्ठा कल्प टिप्पण के कर्ता भी रामायण कर्ता कुमदेन्दु ही है, ज्ञात हुआ है। यही कुमुदेन्दु पूर्व जैन गुरुओं को स्वयं स्मरण करते समय कलियुग गणधर के द्वारा स्मरण किये हुए अभयेंदु के शिष्य एक और कुमुदेन्दु का स्मरण करते हैं। आत्रेय गोत्र के जैन ब्राह्मण कवि देवप्पा (सु सन् १५२५) पिरिया पट्टण के थे। इनहोंनें कुमुदेन्दु शतक ( कोमदेन्दु शतक) नाम के शतक ग्रंथ की संस्कृत में (आदिय एक कन्नड ग्रंथ भाग) रचना की थी, ऐसी जानकारी मिली है। मुझे देखने को प्राप्त इस शतक के आरंभ गद्य और १३ पद्यों को एक कागज के पन्ने पर और कर्ल मंगलम श्रीकंठैय्या जी १९३५ में सिरि भूवलय 107 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय परिष्करण के लिए लिखे प्राक्कथन में दिए गए कथन में इस कुमुदेन्दु का विचार इस प्रकार ज्ञात होता है। इस यति का नाम ; कुमुद चंद्र (१३) कुमुदेन्दु (२२) कौमदेन्दु मुनीश्वर (३२) कुमदेन्दु सूरी (३४) कुमुदेन्दु देव (४५) कुमदेन्दु पंडित मुनि (९६) __इस यति के व्यक्तित्व विवरण ; ये वासु पूज्य त्रैविद्य विद्याधरण उदयचंद्र यति के शिष्य (आरंभ गद्य); सिध्दांत शास्त्र विहितांतः करण दिव्यवाणी (पृ३४) यलवभू कुमदेन्दो राजवत राज तेजं (पृ ४४) श्री मान भूपाल मौली सुच्छरित मणि गण ज्योतिरू दोद्यातितांघ्र (पृ ४६) देशी गण- नंदी संघ- कुंद कुदान्वय- वक्रगच्छद यति (पृ ९६) __इस विवरण से इस यति के शामिल पंगड, विद्वत, वास स्थान और राज मान्यता आदि कुछ तो ज्ञात होता है। इतना ही नहीं सिरि भूवलय कर्तुव्य बहुशः इंगित होने के समान भूवलय शब्द अनेक बार (पृ. १३, ३८, ४५, ४६, ९२) उल्लेखित हुआ है । पदार्थ सार के अंत के तीसवें अधिकार के अंत में आने वाले आदि गद्य, वृत, २९ श्लोकों और कंद पद्य में स्तुतित कुमदेन्दु के गुरु परंपरा के निकट हुए वासु पूज्य त्रैविद्य देव, उदय चंद्र, (सिध्दांत देव) यही कुमुदेन्दु शतक के आदि गद्य में भी कुमदेन्दु के गुरु परंपरा में भी कहे गए हैं। इतना ही नहीं स्तुतित “सम्यकत्ववज्र धातेन। मिथ्या ताब्दी प्रभेदिन....” श्लोक में (पृ.२१) अल्प पाठ भेद सहित शतक में भी (पृ.२२) आवृति हुई है इसे ध्यान दें तो एक ही यति की स्तुति दोनों अक्षरों में हुई है कहना होगा । लेकिन इस यति का गण गच्छ अलग-अलग क्यों उल्लेखित हुआ है ज्ञात नहीं होता है । स्तुति में उसमें भी मूल संघ-बलात्कार गण, नाम से , शतक में देशी-गण, नंदिसंघ, कुंदकुदान्वय, वक्रे गच्छ नाम से है । गण-गच्छ विवरण में इस प्रकार की विधि निषेध नहीं है। कहा जाए तो विनिमय में शक्य कहें तो (A.N. UPADHYE: UPAADHYE PAPERS १९८३,ठ १९२,१९३) शायद समाधान मिलें । माघ नंदी के पदार्थ सार के कुमुदेन्दु स्तुति को देखा जाए तो इस पमय के शतक कर्ता देवप्पा ने इसी सरणी को थोडा बहुत अनुसरण कर अभी -108 108 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =( सिरि भूवलय - के सिरिभूवल्य के कर्ता कुमुदेन्दु को अन्वय कर विचार लिखा होगा लगता है; माघ णंदी प्रस्तावित व्यक्तिक जीवन साधना के अंशों को स्वयं किसी तरह संग्रहित कर जोडा गया है लगता है; ऐसा जोड नहीं किया होगा तो यहाँ कुछ इति वृत की रुकावट होगी कहना होगा। कुमुदेन्दु शतक के कर्ता देवप्पा चंद्र प्रभचरित नाम के सांगत्य ग्रंथ को लिख कर दोड्डैय्या के पिता (सन् १५८९) करणीकतिलकनू जिन पुराण कथागम निपुणनु बने देवप्पा ही है जानने की संभावना है (सु. सन् १५५०-६०) क्योंकि शतक(द) में कवि विषयक वृत (समाचार) आदि ब्रह्म विनिर्मितामल कह उभय समान वृत हो कर कृति कर्ता और कृति नामों में स्थान मात्र का अंतर किया गया है। इसी कारण इतिवृत विचार को परामर्श करें तो माघणंदी के गुरु कुमदेन्दु की स्तुति को आधुनिक बने देवप्पा विस्तार पूर्वक कर वहाँ कुछ-कुछ अधिक विबरणों को क्यों संग्रहित किया और उनको क्यों इस समय के सिरिभूवल्य के प्रस्ताव में आने के समान किया इस प्रश्नों के उत्तर को ढूँढना होगा। कुमदेन्दु शतक में दोड्डैय्या के संस्कृत भुजबलि चरित का और अन्य ग्रंथों से श्लोकों को निकाल कर अन्य जैनाचार्यों के नाम आने पर कुमदेन्दु नाम को मिलाकर रचित शतक (?) होने के कारण भूवलय के समय को निर्धारित करने में इससे कोई सहायता नहीं मिलेगी ऐसा एस. श्री. कंठैय्या शास्त्री जी अपना अभिप्राय देते हैं (अभिनंदन १९५६)। कुमुदेन्दु शतक का अस्तित्व, कर्तृत्व, स्वरूप सभी बहकाल से जिज्ञासा का विषय बना हुआ है । तिरूमले ताताचार्य शर्मा और के स्पंदगिरि राय के बीच इस संबंध में कुतुहल चर्चा होने का भी, शर्माजी इस संबंध के लिए पंडित येल्लप्पा शास्त्री जी से विचार विमर्श करने का भी, लिखित प्रमाण पत्र मिलता है। शर्मा जी ने पंडित जी से २-७-१९५३ में इस शतक के असमग्र प्रति को मांग कर प्राप्त किया (चिक्क गद्य कन्नड में ; ४९ संस्कृत पद्य; तत्पश्चात ९२ से १०२ तक ११ संस्कृत पद्य) इसका भी उल्लेख उस लिखित प्रमाणपत्र में मिलता है। लेकिन शर्मा जी के घर में उनके सुपुत्र श्रीमान तिरुमले श्री रंग चार्य के द्वारा मुझे प्राप्त एक कागज़ में बहुत अशुध्द रूप से लिखा हुआ आदि कन्नड गद्य और १३ पद्य मात्र मिलें । इस शतक का शुध्द और समग्र हस्त प्रति उपलब्ध होने की साध्यता कैसे होगी? मालूम नहीं । कर्लमंगलम श्री कंठैय्या जी ने भी 11092 109 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय इसकी असमग्र प्रति को ही देखा होगा, लगता है । इस विषय के बारे में थोडा सोच-विचार किए कट्टी नागराज देवप्पा के कहेनुसार कुमदेन्दु शतक के दोड्डैय्या का भुजबलिचरित धवल प्रशस्ति, जिन सेन का महापुराण इत्यादि ग्रंथों के श्लोकों के लेकर यह ग्रंथ कवि भी कुमदेन्दु भूवलय, यलवभू, नाम के आवश्यक पदोंको मिलाकर सृजित प्रक्षप्त साहित्य बना है ऐसा लिखतें हैं। ( सिरि भूवलय मूल प्रति क्या हुई? प्रजावाणी ३०-१२-१९७०; Siri Bhoovalay Jayakhyana Bharata Bhaga vadgita, Anantharanga Prathishtana Bangalore ५६० ०७६, १९९७ p. ४८) इस शतक ग्रंथ की रहस्यता को बढाती है। कुमुदेन्दु शतक का अस्तितव काल, कर्तृत्व आदि समस्या कुछ भी रही हो सिरि भूवलय का कर्ता कोई कुमुदेन्दु है, ऐसा विचार वह भी, यह मध्य काल की साहित्य कृति है ऐसा विचार अबाधित तथ्य है। उक्त लिखित अनेक कुमदेन्दुओं में सभी अलग-अलग है ऐसा नहीं कह सकते। एक ही को अलग-अलग कवियों ने अलग-अलग समय काल में उल्लेखित किया होगा ऐसा मुमकिन है । संस्कृत और कन्नड साहित्यों के आधार से ज्ञात कुमुदेन्दु नाम के इतने व्यक्ति होते हुए भी जैनेन्द्र वर्गों के प्रसिध्द परामर्श ग्रंथ जैनेन्द्र सिध्दांत कोष (१९७०) में एक भी कुमदेन्दु की क्यों नहीं चर्चा की, यही आश्चर्य जनक संगति है। सिरि भूवलय कर्ता कुमुदेन्दु ___अभी तक चर्चित अनेक कुमुदेन्दुओं में से सिरि भूवलय के कर्ता एक तो होना ही चाहिए या फिर यह कुमुदेन्दु कोई और ही है ? । सिरि भूवलय में इसके कर्ता ने स्वविचार कुछ इस प्रकार कहा है, कवि स्वयं को कुमुदेन्दु मुनि (९-१९७), कुमुदेन्दु गुरु, (१०-२-७३), कुमुदेन्दु (१०-४१), कुमुदेन्दु यति (१६-२१४) इस प्रकार कहते हैं । जैन यति हैं यह तो स्पष्ट है। स्वयं को स्वयं की कृति में समाहित करते हुए अपना परिचय कराते हैं शुभद गुरुवर वीरसेन के शिष्य कुमुदेन्दु गुरु विरचित काव्य (१०-७३) कहते हुए जानकारी देते हैं । माता-पिता के नाम का कहीं भी विवरण नहीं देते = 110 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय हैं । यह वीर सेन, राष्ट्र अमोघ वर्ष नपतुंग के गुरु पूर्व पुराण कर्त्ता जिनसेन के (सु.सन् ८५०) गुरु थे, ऐसी जानकारी मिलती है। यदि यह सत्य है तो कुमुदेन्दु राष्ट्र कूट के समय काल के होंगें। अमोघ वर्ष का विचार सिरि भूवलय में जहाँतहाँ स्पष्ट रूप से चर्चित होता आया है (८-२५६, ९-१४६, ९-१८१, ९-१९५, १६-२१४ आदि) इसमें अत्यधिक ध्यानार्थ विषय यह है कि ऋषिगलेल्लरु एरगुव तेरदिन्दले । ऋषि रूप धर कुमदेन्दु । हसनाद मनदिन मोघवर्षांकगे। हेसरि? पेळ्द श्री गीते।। ऐसी स्पष्ट उक्ति है : इस उक्ति में लिखितानुसार माने तो कन्नड कवि कुमुदेन्दु श्री गीते (जैन भगबद गीता) में वर्णित सिरि भूवलय को अमोघ वर्ष नृपतुंग को निरूपित किया होगा, ऐसा मानना होगा । - सिरि भूवलय के प्रथम परिष्कर्ता कर्लमंगलम श्री कंठैय्या इतिहासकार एम. श्री कंठ शास्त्री इस समकालीनता को मानते हुए कृति और कृति कर्ता को सन् ७८३-८१४ के बीच मानते हैं । श्री कंठैय्या जी अपने विचार का समर्थन करने के लिए कुछ और आधारों को रखने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह आधार प्रबल और प्रमाणिक नहीं है ऐसा कहा जा सकता है। भाषा की आधुनिकता को ध्यान में रखें भी तो अमोघवर्ष की समकालीनता को इतने में ही नहीं छोडा जा सकता है, ऐसा श्री कंठैय्या जी का मानना है। इसे छोडने का कोई साक्षाधार उन्हें या किसी अन्य किसी को ज्ञात नहीं हो रहा है। अभी के आप के एक लेखन में (अभिवंदना, १९५६, पृ ५६२-५८९) पुनः विस्तार पूर्वक चर्चा कर ईसा बाद ९३०-११२० के बीच भूवलय की रचना हुई होगी ऐसा मान ग्रंथ में अमोघ वर्ष, शिवमार (सन् ८१५) के उल्लेख के लिए परिहार को ढूँढना होगा, कहते सिरि भूवलय के कर्ता और कुमुदेन्दु शतक के नायक व्यक्ति एक ही है ऐसा मानने वाले श्री के. श्रीकंठैय्या जी ने शतक के कर्ता देवप्पा कुमुदेन्दु Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय के निकट समकालीन रहे होंगें, ऐसा जानकारी मिलने के कारण कुमुदेन्दु के दादा-पिता के नाम के साथ उनके जन्म स्थान के विषय में जानकारी रखते होंगें, ऐसा मालूम पडता है , ऐसा कहते हैं । (प्राकथन पृ.१५) लेकिन नायक व्यक्ति चरित्र के विषय में दोनों रचनाओं के मध्य के अंतर को उन्होंने ठीक से ध्यान नहीं दिया, ऐसा कहना होगा। इस विषय का विमर्शन हो तो सिरि भवलय के कर्ता के जीवन काल की समस्या कुछ हद तक दूर हो सकती है । ___कुमुदेन्दु शतक के एक श्लोक में श्री कंठैय्या जी के द्वारा उद्धृत कुमुदेन्दु के गण गच्छ विवरण इस प्रकार है श्री देशी गण पालितो बुध्नुतः श्री नंदीसंघेश्वरः श्री तर्कागमवारीधी मर्म गुरुः श्री कुन्दकुन्दान्वयः श्री भूमंडल राजपूजित लसच्छ्रि पाद पद्मद्वयो। जियात सो कुमदेन्दु पंडित मुनिः श्री वक्र गच्छाधीपः अर्थात कुमुदेन्दु पंडित मुनि, देशी गण नंदी संघ-कुन्दकुन्दान्वय-वक्र गच्छ यति और राज पूजित हैं, ऐसी जानकारी मिलती है। इस यति से संबंधित समान विवरण दोडडैय्या के संस्कृत भुजबलि शतक के अंत में स्तुतनागिरुवा (स्तुति किए गए) (और मूडबिदरे(एक स्थान) विज्ञप्ति पत्रों में आने वाले) 'पंडित मुनि नाम के यति के स्तुति के संबंध में भी दिखाई पड़ता हुआ, यदि यही कुमुदेन्दु पंडित मुनि हैं तो, ये देवप्पा दोड्डैय्या से बड़े समकालीन रह कर सिरि भूवलय को इन्होंने ही १६वीं सदी के मध्य भाग में कभी रचा होगा कह सकते हैं। तब ग्रंथ की भाषा छंद और वस्तु विवरणों के विषय में कुछ समाधान प्राप्त होने में सहायता मिल सकती है । श्री के. श्री कंठय्या जी ने सिरि भूवलय के नवें अध्य्याय में वीरसेन-जिनसेन महात्माओं के वर्णन के साथ उनके समय काल में मान्य खेट के राजा अमोघवर्ष को भी संबोधित कर उनके द्वारा पालित सद्गुरु कह कुमुदेन्दु अपने गण-गच्छ विवरणों में कहते हैं, ऐसा सूचित करते हैं । 11128 112 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय - भूविकीर्तियह सेनगणदि । अवतरिसिद ज्ञात वंशी। अवन गोत्रवदु सद्धर्म । अवन सूत्रवु श्री वृषभ।। अवन शाखेयु द्रव्यांग । अवन वंशवदु इक्ष्वाकु अर्थात उनका वंश इक्ष्वाकु उनका गोत्र सदधर्म उनका सूत्र वृषभ और उनकी शाखा द्रव्यांग है । ___ यह ग्रंथस्थ गण-गच्छ विवरण शतक में उक्त गण-गच्छ विवरणों से भिन्न है । परिशीलन करें तो यहाँ कुमुदेन्दु का नाम ही नहीं आने के कारण उनको यहाँ के विवरणों से (९-१९२-१९४) परस्पर संबंध नहीं बनते। यदि तालमेल बैठते तो बहुशः घनवाद काव्यद कथेय के कर्त्ता नवनवोदित शुध्द जयद अवतारद( मूल आशय को नवीन रूप से निदृष्ट रूप से व्याख्या किए हुए जयधवल का टीका?) जैन यतियों को वीरसेन-जिनसेन से तालमेल बैठता है या फिर केवल जिनसेन से ताल मेल बैठता है। विद्वान गण इन दोनों का व्यक्ति चरित्र के गण-गच्छ विवरण स्पष्ट नहीं हैं, कहते हैं। लेकिन ये दोनों मूल संघ-सेन गण है इस विषय में संदेह नहीं है।यह कुछ भी हो सिरि भूवलय के कर्ता कुमुदेन्दु से यह विवरण तालमेल नहीं बैठता है, विदित है। __ वीरसेन-जिनसेन के अमोघवर्ष के समय में रचित धवलाटीका पर आधारित कुमदेन्दु अपने सिध्दांत ग्रंथ भूवलय/सिरि भूवलय को कन्नड में रचने की बात स्वयं स्पष्ट करते हैं । आगे यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सिरि वीरसेन भट्टारकरुपदेश । गुरु वर्धमान श्री मुखदे तरतरवागी बंदिरुवुदनेल्लव । विरचिसि कुमदेन्दुगुरुवु॥ ओदिसिदेनु करमाटद जनरिगे । श्री दिव्यवाणिय कर्मदे। श्री दयाधर्म समन्वय गणितद । मोदद कथेय नालिपुदु॥ इन उल्लेखों से मुनियों की गुरु परंपरा से अनुस्यूत (एक साथ मिले हुए, पिरोया हुआ, ग्रंथित) वीरसेन से संपादित होकर षटखंडागम का धवला जयधवला नाम के टीकाओं को उसमें भी मंगल प्राभृत के (बहुशः गुणधर कृत कषायप्राभृत = 113 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय के ऊपर वीरसेन से रचित जयधवला टीका के पहले २० हजार श्लोक भाग)। कर्म मीमांसा के बारे में भागों को आधारित कर, कन्नड भाषा में कुमुदेन्दु आचार्य अनुसिरद वाणिय दायवनरियुत निरुपित करते हैं, जान पडता है। इसके अलावा ७१८ भाषाओं के लिए उपयुक्त गणित के विनोद के लिए अवकाश देने के भाति वह निरुपण है ऐसा कवि अभिमान पूर्वक कहना भी, उस चमत्कार को स्वयं जहाँ-तहाँ विवरण करते हुए भी दिखाई देते हैं। (१०-७३) ___ कुमुदेन्दु स्वयं को वीरसेन के शिष्य कहते हैं । इसके लिए क्या समाधान है ? उस परंपरा से मिले हुए, परोक्ष रूप से शिष्यत्व को कहने वाले, अपने द्वारा रचिर सिध्दांत ग्रंथ के आधार ग्रंथ के कर्ता बने हुए, ऐसे अनेक अर्थों को समझा जा सकता है इतना ही नहीं वीरसेन को कुमुदेन्द नाम के एक शिष्य थे ऐसा मानने के लिए हमें कोई आधार नहीं है । अभी मिली जानकारीनुसार वीरसेन को पूर्व पुराण के जिनसेनाचार्य के भी मिलने के भाँति दशरथ गुरु और विनय सेन नाम के केवल तीन ही शिष्य थे । ऐसे ही राष्ट्र कूट के अमोघवर्ष नपतुंग को वीरसेन-जिनसेन गुरु थे ऐसा जान पडता है इतना ही नहीं कुमुदेन्दु नाम के एक गुरु भी थे मानने के ले कोई आधार नहीं मिलता है यह कल्याणमंदिर स्त्रोत्र के कर्ता कुमुद चंद्र तो है ही नहीं । कुमुदेन्दु शतक के आदि गद्य के प्रस्तावना में कुमुदेन्दु को उदय चंद्र के शिष्य के रूप में वासु पूज्य यति के प्रशिष्य के रूप में कहकर, यहाँ जिनसेन वीरसेन की प्रासक्ति ही दिखाई नही पडती है । यह उदयचंद्र भी कविराज मार्ग मे उक्त में से पूर्व कवियों के श्रेणी के उदय नाम के गद्य कवि भी एक ही हैं, ऐसा श्री कंठैय्या जी का मानना भी दुर्बल विचार है । उनके जानकारी के अनुसार वासु पूज्य यति उदत चंद्र यति कुमुदेन्दु के पिता- पितामहों और गुरु सभी १३ वीं सदी के मध्य भाग में रहे होंगे। ___कळवल्प्पु कोवलाल(पुर) तलेकाडू स्थानों को गुरु के गोट्टीगा(ग्वाला) बातों से सैगोट्ट शिवमार के (सु. सन् ८२५) प्रस्ताप के संदर्भ के कारण (६-११७२९, १७-१४४) सिरि भूवलय को नवें सदी के आदि भाग में अथवा और भी पहले समय काल में मिले हुए हैं ऐसा मानना भी सयुक्तिक नहीं है । प्राचीन स्थल Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय नाम, व्यक्ति नामों के केवल उल्लेख से कोई भी कृति उस समय कालीन है ऐसा मानना मुमकिन नहीं है । कुमदेन्दु के लिए गंगर पहले शिवमार उनकी पत्नी जक्कीलक्की राष्ट्र कूट के दंति दुर्ग, शिष्य थे ऐसा ऐसा मान कर कवि के समय को सन् ६८० तक पीछे धकेलने को यूं ही मान लेने वाला निर्णय नहीं है । वास्तव में इतने पहले के कन्नड साहित्य का कुछ भी स्वरूप ही हमें ज्ञात नहीं प्रथम परिष्करण कर्त्ता कति के अंक चक्रों को अनिबध्द किए गए रूप में इस कृति की भाषा और छंद उस समय विशेष की तात्कालिक वस्तु विवरण, स्वयं ही अपने समय विशेष के विषय में परोक्ष रूप से साक्षी (गवाही) देती है। कृति की भाषा व्यवहारिक नडुगन्नड(मध्यकालीन कन्नड) है कहना (सु ईसा बाद ११५०१७५०) विदित है। उस समय की सभी भाषिक लक्षण सार्वजनिक रूप से यहाँ गोचर होते हैं। इसी तरह छंद भी अनेक स्तरों पर १५वीं सदी में रूपित हए अनंतर में विशेष रूप से प्रचारित हो सांगत्य होकर उसके छंद के लक्षण आज के समय के ललित सांगत्यकारों में गोचर होने के भाँति है। वस्तु विवरण के संदर्भ में । १. ७१८भाषाओं और ३६३ मतों के अन्वय और विचार सिरि भूवलय में दिखाई पडते हैं; कहना ही ग्रंथ की आधुनिकता को दर्शाती है । २. संस्कृत, प्राकृत और द्रविड भाषा लिपि के साथ आधुनिक आर्य भाषा जैसे मराठी, गुजराती, बंगाली, उडिया, बिहारी भाषाओं को भी ९-१० शतकों के बाद विशेषक कर साहित्य संवर्धनों में तमिल, तेलगु, मलयालम भाषाओं को (५-२९-६०) यवन, फारसी, खरोष्ठि, तुर्की देशों की भाषाओं का भी यहाँ नाम लिया गया है । ३. वीरशैव के उत्तकर्ष काल में तरह-तरह से प्रयुक्त होने वाले मनगाणिसुव गुरु लिंग (५-१८८) शिवगण (६-५९) ऐसी बातें भी हैं ।। ४. माधवाचार्य के काल में (१२३८-१३१७) अनंतर प्रवर्तित अद्वैत-द्वैत सिध्दांत भेद भी यहाँ प्रस्तावित है। 115 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ___महापुराण में हो या फिर अन्यत्र कहीं भी न दिखाई देने वाला रत्नाकर का (ईसा सन् १५५७) केवल “भरतेश वैभव” में दिखाई देने वाला भरत चक्रवर्ती की पत्नियाँ कही जाने वाली कुसुमाजी-सुमनाजी नाम के प्रयोग अंकों (=भाषाओं) का यहाँ परिचय दिया गया है । कुसुमाजी का “देश अंक" “(५-५३) रसिकर सुमनाजी का अंक (५-५४) इतना ही नहीं एक और बार “कुसुमाजी मुडिदलंकार" (७-१५८) कहकर आवृति की गई है। “भरतेश वैभव में भोग विजय का अरगिळियाळापसंधिया “ अमराजी ने लिखा कुसुमाजी ने कहा। सुमनाजी ने कृति बनाया।। गमकद नुडियत्ले..” यहुक्ति (७-६५) द्यान में आती है इतना ही नहीं भरतेश वैभव में विशि रूप से प्रस्तावित भोगयोग-समन्वय के विचार भी यहाँ गोचर होते हैं (२-२६)। गोमटेश्वर नाम बाहुबली को गंगरस के काल के चामुण्ड राय के गोमट्टनाम के द्वारा प्राप्त है, ऐसी जानकारी है । सिरि भूवलय में गोमटेश्वर नैय्या वृषभ। श्री महासूक्ष्मस्वरूप (३-८६-८७) ऐसा होने के कारण ग्रंथ चामिण्ड राय के समय (सन् ९७८) से पहले का होना संभव नहीं है ७. कुमुदेन्दु अपने कति में अनेक जैन क्षेत्रों का उल्लेख करते हैं जिनमें पेनूगोण्डे, गेरुसोप्पेगलु होयसला विजय नगर के समय से पहले के शासन में नहीं मिलते ऐसा श्री कंठ शास्त्री जी कहते हैं । इतना ही नहीं उस सूची में कैदाळ, मैदाळ, मलेयूरु, नंदापुर, तिरुमले, सिध्दापुर, सागर, तवरुरु, और कूच तमिलनाडु के स्थान आज के ही लगते हैं । इन कुछ साक्ष्यों को ध्यान में रखकर कहा जाए तो कुमुदेन्दु यति अपने कृति सिरि भूवलय को (सन् १५५०-१६००) की अवधि में अथवा और भी कुछ बाद में कभी रचा होगा, ऐसा कहना होगा। पदार्थ सार (सन् १२५३) कुमदेन्दु स्तुति और देवप्पा द्वारा रचित कुमुदेन्दु शतक आदि के लिए उभय समान कुमुदेन्दु यति के गुरु परंपरा को आधार माना जए तो इस कवि का समय १२२०/ ३० कह सकते हैं। इन्हीं को सिरि भूवलय के कर्ता मानना अनिवार्य होगा । परन्तु ग्रंथ की भाषा और छंद, पूर्वोक्त वस्तु विवरण ऐसा मानने के लिए अवसर नहीं देते हैं क्योंकि कुछ साक्षाधार अधिक आधुनिक है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय कुमुदेन्दु के स्थान के विषय में अभी तक कुछ विचार हुए हैं । सिरि भूवलय में कवि कर्नाटक के नंदी पहाड़ को आत्मीयता से याद करने के कारण (८-५५-६७) कुमदेन्दु शतक में उनको उअलवभू कुमुदेन्दो राज वद्रा जतेजम कहकर स्थल सूचित करने के करण भी (पृ. ४४) आप कोलार जिले के चिक्क बल्लापुर ताल्लुक के नंदी दुर्ग के समीप यलवळ्ळी नम के आज के ग्राम में वास करते थे ऐसा माना जाता है। चिन्नद नाडाद । इहके नंदीयु लिक पूज्य यह एक सुन्दर उक्ति है ( ८-५५) अर्थात कन्नड प्रदेश कोलार जिले के कारण स्वर्ण प्रदेश ही है । एस. श्री कंठ शास्त्री के सिरि कुमुद चंद्र मिणिका णिम्मवियंयलवभू मिमिणं कह कर उध्दरित कृति भाग से भी ( जैन भगवद गीता, संशोधन लेखन पृ३५७) हमारे ध्यान में आता है । इसी को विलोम क्रम में ग्रंथ नाम के रूप (यलवभू> भूवलय) में बनाया गया है, ऐसा विचार करते हैं। यहीं पर कवि कळवप्पु कोवलाल (पुर) तलकाड आदि को भी स्मरण करते हुए (८-७३) राष्ट्र कूट अमोघ वर्ष के शासनाधिकार के किसी तिरुळुगन्नड के प्रदेश को याने उत्तर कर्नाटक के प्रदेश का नाम न लेने के कारण आप दक्षिण कर्नाटक के हैं, कह सकते हैं । सिरि भूवल्य का आधार ग्रंथ षट्ट्खंडागम २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर जी के उपदेश वाणी को उनके प्रप्रमुख शिष्य इन्द्रहूत गौतम जी ने द्वादशांग श्रुत के रूप में संयोजित किया । उनका अध्ययन अनुसंधान आचार्य परंपरा में आगे बढता हुआ, फिर धीरे-धीरे कम होता हुआ धरसेनाचार्य तक आया। वे १२वें दृष्टि वादांग के अन्तर्गत ( समाहित) पूर्व में और पाँचवें व्याख्या प्रज्ञप्ति में कुछ-कुछ अंशों के पुष्प दंत और भूत बलि नाम के दो आचार्यों को पढवाया। ये दोनों आचार्य महावीर जी के निर्वाण के अनंतर में लगभग सातवें शताब्दी के समय सत्कर्या प्राभृत के ६००० सूत्रों को रचा। यह सूत्र संकलन ही षट्ट्खंडागम नाम का सिध्दांत ग्रंथ है। आगे इसी सूत्र ग्रंथ के टीकाओं को कुंद कुंद श्याम कुंद, तुंबलूचार्य, समंतभद्र, बप्प देव आदि कुछेक समय- समय पर रचते गए। अंतिम टीका के रचयेता अमोघवर्ष नृपतुंग के समय के वीरसेनाचार्य जी हैं, यही धवल टीका है। यह संस्कृत - प्राकृत भाषा मिश्रण की 117 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय रचना होकर सन् ८१६ में संपूर्ण हुई । यह ७२ हजार श्लोक प्रमाण की रचना है । षट्टखंडगम का छठवाँ भाग महाबंध है। इसकी रचना भूत बलि ने ही विस्तार पूर्वक की है । महाधवल नाम से प्रसिध्द इसका ग्रंथ प्रमाण ३०-४० हजार के लगभग है, इस पर कोई विशेष टीकाएँ प्राप्त नहीं हुई हैं। धर सेनाचार्य के समीप समय में ही गुणधर नाम के एक आचार्य भी थे। जिन्हें भी द्वादशांग का परिचय था। इन्होंने कशाय प्राभृत की रचना की थी। इसके लिए आर्य मंक्षु और नाग हस्ती ने व्याख्यान किया था । यति वृषभ नाम के आचार्य ने चूणी सूत्र की रचना की थी। इस कशाय प्राभृत पर भी वीर सेनाचार्य ने टीका लिखना प्रारंभ किया था। २० हजार श्लोक प्रमाण की रचना होने तक उनका स्वर्गवास हो गया लगता है। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने रचना को आगे बढा कर ४० हजार श्लोक प्रमाण में उसको सन् ८३७ में समाप्त किया। यही जय धवल टीका है। लगभग १२वीं सदी में रचित षट्टखंडागम की केवल एक ही संरक्षित हस्त प्रति दक्षिण कन्नड के मूडबिदरे के ग्रंथ भंडार में निक्षेपित ( गडा हुआ) था परन्तु आज अनेक संस्थाओं में प्रकट हुआ है । (१९३९-५९) धवल टिप्पणियों की रचना राष्ट्र कूट के अमोघ वर्ष नृप तुंग के शासनावधि में हुई थी (८१४ -७७)। इनमें उस समय के अन्य आचार्यों की टीकाओं का सार भी है। ऐसा विद्वानों ने जानकारी दी है। इस परंपरा को कुमदेन्दु ने अपने ग्रंथ के तेरहवें अध्याय के प्रारंभ में कहा है। यह प्रभाव सेन के द्वारा रचित पाहुडवम नाम के भाग तक दिखाई पडता है ( १ - १०७) । षट्टखंडागम सिध्दांत ग्रंथ के लिए विस्तृत और सुस्पष्ट टिप्पणियों के कारण इसे धवल ( जयधवल) नाम पड़ा होगा अथवा अमोघ वर्ष को अतिशय धवल नाम की उपाधि होने के कारण यह नाम पड़ा होगा। धवल ग्रंथों की रचना के पोषक होने के कारण अमोघ वर्ष को यह उपाधि मिली होगी। रचना को भूवलय / सिरिभूवलय नाम कुमुदेन्दु का अपनी रचना को यह नाम देने का क्या कारण है? भूवलय शब्द का अर्थ भूमंडल होने के कारण यह प्रदेश वाचक होने की संभावना कठिन 118 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय है। परन्तु रचना को यह नाम कैसे आया? कवि के स्वस्थल कोलार जिले के चिक्क बल्लापुर ताल्लुक नंदी दुर्ग के समीप यलवळ्ळी (यलव हळ्ळि) सूचित होने के कारण कुमुदेन्दु शतक में यलवभू कुमुदेन्दु राजवद्राजतेजम (पृ. ४४) ऐसा कथन होने के कारण विलोम वाचन के कारण यलवभू शब्द भूवलय बना यह एक प्रकार के चमत्कार का अवसर तो देता है परन्तु यह नाम कृति नाम कैसे होगा? इसकी एक संभावित कल्पना की जा सकती है। प्राचीन कन्नड जैन साहित्य में षटटखंडभूमंडल/क्षिति महीमंडल आदि कथन बार-बार आते हैं। क्या षट्टखंड का अर्थ भूवलय ही है? क्या यह एक प्रादेशिक शब्द है? परन्तु कुमुदेन्दु का स्थान, क्षुद्रक बंध, बंध स्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महाबंध नाम के विभागों से षटखंडागम नाम के सिद्धांत ग्रंथ के वस्तु सार को लेकर अपना ग्रंथ रचने के कारण 'षट्टखंड' के लिए शाब्दिक साम्य वाला 'भूवलय' शब्द का प्रयोग किया होगा। यह भी एक प्रकार का चमत्कार ही है। उनके मन में ऐसा विचार रहा होगा ऐसा संभव है जो आगे के श्लोक से ज्ञात होता है भूतबल्याचार्यनवन भूवलय। ख्यातिय वैभव भद्रा।। नूतन प्राक्तनवेरडर संघिय। ख्यातिय सारुव सूत्र॥ ९-२२८) यहाँ भूइ त बलि का कर्त्ता भाग ही अधिक होने के कारण घट्टखंडागम प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इंगित हुआ होगा। वास्तव में उस सिद्धांत ग्रंथ का महात्म्य का प्रचार करने के लिए, कीर्ति बढाने के लिए सिरि भूवलय का आविर्भाव हुआ होगा। सिरि भूवलय का सामन्य स्वरूप प्रशस्ति . कुमदेन्दु विरचित सिरिभूवलय ५६ अध्यायों का एक जैन सिद्धांत ग्रंथ है। ग्रंथ होने पर भी यह एक परिचित रीति का ग्रंथ नहीं है अर्थात किसी एक भाषा की वर्णमाला के वर्गों का प्रयोग कर तैयार किए गए शब्दों से लिपि बध्द रूप का गद्य-पद्य निबध्द ग्रंथ नहीं है। गणित में प्रयोग किए जाने वाले संख्या लिपियों को अर्थात मात्र अंकों का प्रयोग कर तैयार किया गया ग्रंथ है। इन अंकों को अक्षरों के स्थान पर उनके प्रतिनिधि तथा प्रतिरूप के रूप में उपयोग करना ही 119 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय इसका वैशिष्टय और वैलक्षण है। संस्कृत - प्राकृत और कन्नड भाषा के लिये समान रूप से (अन्वय) संबंधित संप्रदाय रूप प्राप्त ६४ मूल वर्गों को १ से ६४ तक के अंक(संख्या) प्रतिनिधित्व करते हैं। उन प्रत्येक अक्षरों के लिए उपयुक्त अंकों को चौकोर खानों में ( २७ गुणा २७ = ७२९) भरे गए अंक राशी के चक्र ही इसके पृष्ठ हैं। ऐसे अंक राशी के पृष्ठ अभी १२७० संरक्षित है । कवि ही इसे अंक काव्य कहकर संबोधित करते है ( विमलांक काव्य भूवलय ८-९६)। इन्हें ही चक्र बंध काव्य, अंकाक्षर काव्य, अंक लिपि काव्य आदि नामों से पुकारा जा सकता है। निशब्द काव्य इस काव्य के लिए उचित संबोधन जान पडता है। कुमुदेन्दु की स्व हस्ताक्षर प्रति उपलब्ध नहीं है। सेन नामक दंड नायक की पत्नी मल्लिकब्बे ने इसकी प्रति बनवा कर माघ नंदी आचार्य को शास्त्र दान किया था। ऐसा ग्रंथ परि शोधक और संपादक की जानकारी होते हुए भी एस. श्री कंठ शास्त्री जी के मतानुसार उदयादित्य नाम के एक व्यक्ति ने, अपने राजा शांति सेन की पत्नी मल्लिकब्बे देवी के लिए, भूत बलि का महा बंध की प्रतिलिपि बनवाई और श्रुत पंचमी के उद्यापन में गुणभद्र सूरीय के शिष्य माघ नंदी को दान में दिया गया, ऐसी जानकारी प्राप्त होने के अलावा, कुमदेन्दु के भूवलय को मल्लिकब्बे ने प्रति बनवाई वही प्रति अभी कागज़ की प्रति है, ऐसा मानने के लिए आधार नहीं है। ग्रंथ के प्रशस्ति में इस मल्लिकब्बे का वर्णन इस प्रकार है महानीय गुण निधानं सहजोन्नतबुध्दि विनयनिधियेने नेगळ्दं महविनुत कीर्ति कांतेय महिमानं मानिताभिमानं सेनं ॥ अनुपम गुणगणदा स्व मार्न शीलनिदानेयेनिसि जिनपदसतको कनदशिलीमुखळेने मा 1 ननिधि श्री मल्लिकब्बे ललनारत्नं ॥ आ वनितारत्नद पें 120 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) पावगं पोगळरिदु जिनपूजिय ना ना विधिद दानदमुळिन भावदोळा मल्लिकब्बेयं पोल्वववरार।। विनयदे शीलदोळ गुणदोळादिय पेम्पि(ने) पुट्टिदा मनो जन रति रूपिनोळ क्जणीयेनिसिर्द मनोहर वप्पु दोन्दु रू पिन मने दानसागरमेनिप्प संद से नन सति मल्लिकब्बेगे धरित्रयोळार दोरे सद्गुणंगळोळ।। श्री पंचमी यं नोन्तु द्यापनेयं माडी बरेसि सिध्दांत मना रूपवति सेनवधु जित कोपश्री माघनंदी यतिपतिगित्तळ।। ये पद्य प्राचीन कन्नड के होने के कारण स्वभाविक रूप से रन्न कवि अपने अजित पुराण में (सन् ९९३) प्रशंसित दान चिंता मणि अत्ती मब्बे की याद को ताजा करता है लेकिन कोई शाब्दिक साम्य नहीं दिखाई पडता है । जैसे कन्नड वड्डाराधने के विषय में घटित हुआ वैसे ही कन्नड सिरिभूवलय के विषय में भी ग्रंथ का समय काल, कर्ता के नाम की समस्या, ग्रंथ नाम के सादृश्य के कारण से ( भूत बलि का महाबंध/भूवलय कुमुदेन्दु कन्नड रूप भूवलय) हुआ होगा। ... इस विलक्षण ग्रंथ में मूल विज्ञान विषय, दर्शन का तात्विक विचार, वैद्य, अणु विज्ञान, खगोल विज्ञान , गणित शास्त्र, इतिहास और संस्कृति विवरण, वेद, भगवद गीता का अवतरण सभी समाहित है। ऐसा ग्रंथ संपादक और विमर्शक विद्वान कहते हैं। इस कारण संशोधको के विचारानुसार, इन सभी को उभारने के लिए, आधुनिक शोध से तुलना करने के लिए और प्रायोगिक परीक्षा द्वारा तथ्यों को पहचानने का प्रयत्न अभी आगे और तीव्र गति से होना बाकि है। यह प्रयत्न व्यक्तिक रूप से चलने के बजाए संस्स्थ के द्वारा चले तो इनमें विविध क्षेत्रों से और भाषा विद हाथ मिलाएँ तो अधिक लाभदायक होगा। 121 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय वीरसेन प्रोक्त जयधवल व्याख्यान का थोडा बहुत जैन सिद्धांत को जैन भगवत गीता का और तीर्थंकर चरित का विवरण चमत्कारिक रूप से निरुपित करने का उद्देश्य रखने वाले कवि विमलांक-नवमांक पद्धति में अंकों का ही प्रयोग करने के कारण इनको लिपि बध्द करने के बाद भी रचना गणित को व्याप्ति में ही निर्वाह होने के कारण वस्तु ज्ञान व्यापक और स्पष्ट नहीं है। चमत्कार तो अद्भुत है लेकिन वक्त व्यार्थ अविदित रहकर कर साहित्य न बन कर सिद्धांत शास्त्र वाला यह ग्रंथ एक प्रकार का गणित-गुणित का क्लिष्ट विज्ञान ग्रंथ बन कर, साहित्य का सामान्य ज्ञान वालों के लिए दूरगाह्य और अरुचिकर बना हुआ है। इसमें साहित्य और गणित शास्त्र का सव्यसाची( सत्य तथ्य) समाहित होकर वक्तव्यार्थ को बाहर लाने तक इस ग्रंथ को जन प्रिय बनाना कष्ट कर ही है। गणित शास्त्र का, उसमें भी जैन गणित के मर्म को जानने वाले आधुनिक समय के गणक यंत्र की सहायता से इस के सिद्धांत विषयों को बहु भाषिक चमत्कारों को उजागर करने का कार्य अत्यावश्यक कार्य है। इस ग्रंथ के प्रकटण से ऐसे लोगों को आकर्षित करने में समर्थ हो तो प्रकाशक का प्रयत्न सार्थक होगा। भाषा कुमुदेन्दु द्वारा रचित सिरि भूवलय एक मध्य कन्नड भाषा की रचना है। सांगत्य, अनिर्दि, छंद बम्ध, पद्य पंक्तियाँ उस भाषा के वैलक्षणों (विशेषताओं) को लेकर ही रचित है। प्राचीन कन्नड के (प्राचीन कम्मडा) प्रस्ताव को लाने पर भी (१०-७५) वह औपचारिक है। हाडलु सुलभवादांग नोडलु मेच्चुव गणित (गीत की भाँति सरल और दृष्टि भावन गणित) कहना ही यहाँ ग्रंथ स्वरूप है (१०-७६-७७)। इस ग्रंथ के सामन्य भाषिक लक्षणों को क्रोडीकरण( संग्रह) कर सकते हैं। इस क्रोडीकरण के लिए अंकों का अनिबध्द रूप ही आधार है। १. व्यंजनांत शब्द स्वरांत बने हैं। २. छ-ळ ? र ध्वनियों के बीच अंतर न करते हुए प्रास स्थान में भी और अन्यत्र भी प्रयोग किया गया है। - 122 Page #126 --------------------------------------------------------------------------  Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =(सिरि भूवलय - रसवु मूलिकेगळ सारव पीवंते। होस काटकभाषे । रसश्रीनवमांकवेल्लरोळु बेरेयुत। होसेदु बंदिह ओंदंक। हदिनेन्टु भाषेयु महाभाषेयागलु। बदिय भाषेगळे न्ळोरं हृदयदोळडगिसि कर्माटलिपियागि। हुदुगिसिदंक भूवलय।। छंद यह ग्रंथ अपने आप में अनेक भाषाओं को समाहित किए हए भी अनेक विध से भाषा चित्रों को बंध चित्रों को प्रकट करते हुए भी रचना के लिए आधार रूप से प्रयोग किए गए मुख्य छंद प्रकार, कन्नड़ भाषा की मध्य कन्नड समय का साहित्य कृतियों के लिए प्रयोग किए गए बहु परिचित “सांगत्य” नाम का शुध्द कन्नड छंद है। इस विषय को ग्रंथ कर्ता ही अपने ग्रंथ के अलग-अलग स्थानों पर प्रासंगिक रूप से सूचित करते हैं उदाहरण के लिए “ इतिहास के सांगत्य रागदोळडगिसि परितंद विषय (६-१९२)”, इतिहास का सांगत्यवेने मुनि नाथर । गुरु परंपरा विरचित (९-१९६), "उसहसेनरु तोरुवुदु असमान सांगत्यहुदु (९,२२१-२२), वशवाग देल्ली कालदोळगेम्बा। असदृश्य ज्ञानद सांगत्य(१०-७०) आदि ऐसे उल्लेखों को देखा जा सकता है। “चरितेयोळु बरेदिह सरस्वतीयम्मनापरियन रितुसाकल्य” (११-८४) कहने में भी चरिते शब्द सांगत्य छंद को ही परोक्ष रूप से सूचित करता है।ग्रंथ को ही आधार मान कर पद्यों का विस्तार किया जाए तो यह विषय अपने आप और भी स्पष्ट होता है। इतना ही नहीं रत्नाकर वर्णी मंग रस आदि के काव्यों में दिखाई देने वाले वैसे ही लक्षण भी दिखाई देते हैं। यह पर्याय गण लक्षण सहित स्निग्ध रीति का भी जान पडता है। ग्रंथ में सांगत्य शब्द का प्रयोग होना एक प्रकार से उसकी रचना में १५वीं सदी के उत्तरार्की अनंतर में हुई होगी ऐसा सूचित करता है। इसके लिए ग्रंथ के भाषा रूप पोषक साक्ष्य रूप में प्राप्त होंगे ऐसा कहना विदित है। इतना ही नहीं ग्रंथ पद-पध्दति कहाँ है यह आशय भी( १७-६) देशीय छंद में वह भी रचित हुआ होगा रचित करता हुआ है। अब सांगत्य पदपुजों के बीच-बीच में कुछ अध्यायों तक प्रासबध्द रूप से आने वाले “रगळे" (एक प्रकार का छंद) की पंक्तियों क स्वरूप और भी स्पष्ट 124 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय होना है और इनके छंदोवैलक्षण अलग (प्रत्येक) परामर्श से विस्तृत होना भी है। वैसे ही बीच के पद छंदांशों के द्वारा वाचन के लिए अनुकूल होकर दिखाने वाले आगे के अध्यायों के छंद प्रकारों के छंदोवैलक्षण भी परिचित वाचन मुद्रण क्रम में प्रकाश में आने से और भी स्पष्ट होना होगा। विविध भाषा सम्योजनों के संसर्ग के कारण इन कुछ भागों के छंद प्रकारों को तुरन्त जानना मुमकिन नहीं हो सकता है। बंध चित्र सिरि भूवलय नाम का जैन सिध्दांत ग्रंथ अक्षरात्मक लिपि स्वरूप में ही न रहकर गणित में प्रचलित अंकों को निश्चित संख्या के चौकोर खानों में समाहित श्रेणी बंध के रूप में होना भी अत्यंत कौतूहल का विषय है। अंकों को अक्षरों में परिवर्तित कर विशिष्ट क्रम में पढा जाए तो संस्कृत-प्राकृत-कन्नड भाषाओं के पद साहित्य का निष्पन होता है वैसे ही अन्य भाषाओं का साहित्य भी। एकएक श्रेणी बंध लम्बाई में २७ और चौडाई में २७ चौकोर खानोंके साथ ७२९ खानों की एक रचना बनती है। कवि इसे चक्रबंध कट्टिनोळ विश्व काव्य (चक्र बंध के बंधन में बाँधा हआ विश्व काव्य) कहते हैं(१-१९)। श्रेणी बंध को अक्षरात्मक रूप में परिवर्तित करके लिखे तो चित्र काव्य संप्रदाय में परिचित चक्रबंध के प्रभेदों(रूपान्तरों) में विश्व के समस्त भाषाओं के लिए भी स्वयं का एक सिध्दांत शास्त्र ग्रंथ उद्भव हो सकता है ऐसा कवि का आशय रहा होगा। चक्र बंध अरगल सहित या रहित रहने वाले द्विश्रृंगाटक, विविडित, द्विचतुष्क, चतुरर, षोडशदळ, गरुडगति इत्यादि प्रभेदों के एक प्रकार से षडर, अष्टार, नाम के और दो प्रकार से भी मिले हुए रहते हैं। इनके लक्षण लक्ष्य संस्कृत कन्नड काव्य लक्षण ग्रंथों में निरूपित हुए हैं। ऐसे इस अक्षरांक काव्य के अन्तर्गत अनेक संख्याओं में छिपे हो सकते हैं। इस ग्रंथ को परिचय कराते समय ७ सांगत्य पदों के १ चक्र में समाहित हुए होकर ऐसे १२७० चक्रों के नाना बंधों में पढा जाए तो ५६ अध्यायों के ६४८०० श्लोक (पद) मंगल प्राभृत नाम के पहले खंड के साहित्य का सृजन होता है ऐसी जानकारी दी गई है। इतना ही नहीं 125 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय १२, १९, और २०वें अध्यायों से आगे चले तो अश्व गति, नाग बंध, जोडी नाग बंध (नागद्वय), के द्वारा नए साहित्य की रचना आरंभ होगी ऐसा तर्क कहते हैं। ग्रंथ कर्त्ता स्वयं ही हंस, पद्म, शुध्द, नवमांक, वरपद्म, महापद्म, द्वीप, सागर, पल्य, अम्बु, सरस, शलाका, श्रेणी, अंक, लोक, रोमकूप, क्रोंच, मयूर, सीमातीत, कामन, पदपद्म, नख, चक्र, सीमातीत का गणित, इत्यादि बंधों का प्रयोग किया गया है, ऐसी जानकारी देते हैं। इनमें शब्दान्वय और स्वरूपों में बहुत कुछ अस्पष्ट ता है। पद्म के संख्या प्रभेद परिचित होने पर भी यहाँ पर पद्म की रचना कैसी है? पता नहीं है। क्रोंच मयूर, हंस आदि प्राणी वर्ग के बंध चित्र का विचार भी कुछ ऐसा ही है । द्वीप, सागर, पल्या, लोक, अंक, नवमांक, सीमातीत, आदि गणित मिश्रण और जैन संप्रदाय के पूर्व वृतांत के बंध दिखाई देने के बावजूद इनके विन्यास बहुत ही अस्पष्ट है। अम्बु, परिचित शर बंध ही होगा अन्य सब कैसे हैं कौन जाने? सिरि भूवलय को, १ से लेकर ६४ तक के वर्णों को प्रतिनिधित्व करते हुए ९२ पृथक अंकों का प्रयोग कर उनके विविध शब्दात्मक संयोगों को अक्षर लिपि में परिवर्तित कर प्राप्त होने वाला, एक चित्र काव्य कह सकते हैं । विद्वानों के द्वारा अनादर सिरि भूवलय का रचना संविधान, उस संविधान में दिखाई पडने वाला कविकौशल, उस कौशल की अनन्यता और वस्तु विमर्शता, इन सबके विषय में कन्न भाषा साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा दिखाई जाने वाली उपेक्षा, निस्सहायता, आज के दशक में दीर्घावधि का इतिहास होगा। इस के लिए कुछ कारणों को सोचा जा सकता है-. १. ग्रंथ का स्वरूप, संविधान विलक्षण है। रचना का धर्म गणित के भाग पर आधारित होना, प्रथम परिष्करण के प्रकटन का असमग्र होना प्रकरण में अनुगमन (प्रयोग) किए हुए मुद्रण विधान भी वाचन और वस्तु ज्ञान के लिए अवरोध उत्पन्न करने के भाँति ही विलक्षण है। 126 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सिरि भूवलय संपादन कार्य में लगे हुए महनीय सज्जन के द्वारा अनुगमित विधि-विधानों के बारे में; कृति कर्त्ता के काल देश के बारे में; विशेष रूप से कर्ल मंगलम श्री कंठैय्या जी के वाद-विवाद और निर्णय के बारे में, इन सबका परिशीलन करने वाले विद्वानों को संतोष न मिलना। ३. प्रथम परिष्करण की कृति पाठ की शुध्दाशुध्दता को विमर्शित कर समझने में विद्वानों को अंक लिपि रूप के मूल ग्रंथ के हस्त प्रति आसानी से परिशीलन के लिए उपलब्ध न होना और अंततः परिशीलन के लिए अत्यधिक सहन शक्ति और परीश्रम की माँग । ४. मुद्रण के लिए तैयार और स्वीकृत अनंतर में मुद्रण करवा कर प्रकटित ग्रंथ के अधिकृतता के लिए श्री कंठैय्या जी के संपादकीय प्रयत्न और साहस को अत्यंत व्यैक्तिक और बहुशः दुर्बल भी समझना । इस प्रकार कुछ संभावनीय कारणों से यह ग्रंथ विद्वानों और जन सामन्य के ध्यान को आकर्षित करने में असमर्थ रहा होगा। कन्नड इतिहासकार हो, साहित्य विमर्शदाता गोविन्दपै, ए. वेंकट सुब्बैय्या, के. जी. कुंदणगार, डी. एल. नरसिंहाचार, सेडीयापु कृष्ण भट्ट, आदि गण विद्वान हो इस ग्रंथ के विषय में कुछ भी न कहना एक आश्चर्य जनक संगति है। इस कारण कर्ल मंगलम श्री कंठैय्या जी को “ इस ग्रंथ के विषय में देश के विद्वानमणियों ने जिम्मेदार लोगों ने जो मौन 'और तिरस्कार धारण किया है, इस विषय में आज के कन्नडीगाओं को कुछ कहना ही होगा" ऐसा एक संदर्भ में लिखना पडा (प्रजावाणी २८-६-६४)। कवि कुमुदेन्दु का काल, देश, जीवन वृतांत के विषय में वाद-विवाद के कारण इस ग्रंथ के विषय में विचार विमर्श करने वाले अन्य विद्वानों की लेखनी में अधिकतर समीक्षात्मक परिचय ही रहा; उस कारण से कन्नड भाषा साहित्य इतिहास में जिस प्रमाण में प्रचारित होना था प्रचारित नहीं हुआ। संशोधन मूल्य भी प्राप्त नहीं हुआ। अब समग्र ग्रंथ का प्रकटण और अनंतर में यह कार्य परिष्कृत रूप से आगे बढना होगा। १९५३ का असमग्र परिष्करण का पठ्य और प्रस्तावना को आधारित कर स भूवलय का कवि काव्य विचार के विषय में आज तक के कुछ विचारों को यहाँ 127 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय विमर्शित किया गया है। यह विमर्शन स्थूल रूप से परिचयात्मक है, कह सकते हैं । ग्रंथ मूल के अंक लिपि को अक्षर लिपि में परिवर्तित पठ्य ही कवि रचित साहित्य है। यही परिचयलेखन की लेखनी है । इस तरह ऐसे पठ्य के लिए उपलब्ध सभी सीमित और दुर्बल प्रस्तावना के लिए भी अनिवार्य है कहना होगा। वास्तव में विचार विमर्श और भी होना है। ऐसा होने पर चाहे तो आज के प्रयत्न को नांदी पद ( मंगल गीत) माना जा सकता है। पठ्य के अनेक वस्तु विवरण संकेत चिन्ह भाषा शैली मुझे समझ में नहीं आई है उन सभी को विशेषज्ञ, साहित्यकार, और गणितज्ञ विस्तृत रूप से परमर्श करें और वह परामर्श इस ग्रंथ के अगले भागों के प्रकटण के लिए भी पहले भाग के परिष्करण के लिए भी सहायक हो ऐसी मैं प्रार्थना करता हूँ । इस संदर्भ में दो-तीन विद्वानों का स्मरण करना मेरा आवश्यक कर्त्तव्य बनता है। पहले, ग्रंथ संरक्षक और परिशोधक पंडित येलप्पा शास्त्री, दूसरे ग्रंथ संपादक और प्रस्तावना के लेखक कर्ल मंगलम श्री कंठैय्या जी । ग्रंथ परिचयकार और प्रचारक के. अनंत सुब्बाराव जी का योगदान भी महत्त्वपूर्ण है। बंगलोर जिला के नेल्मंगला ताल्लुक में मिला दोड्डबेले ग्राम सिरिभूवलय के कर्त्ता कुमुदेन्दु का स्थान है। यह यलवळ्ळी से लगभग ३२ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा-सा ग्राम है। वहाँ के जैन विद्वान धरणेन्द्र पंडित अपने पास एक अमूल्य ग्रंथभंडार को रखे हुए थे। उनके मरणोपरांत उस भंडार की हस्त प्रतियाँ कुल के हाथ से चली गई उसमें कोरी कागज़ ( हाथ से बना मोटा और खुरदुरा कागज़) में लिखे गए विलक्षण हस्त प्रति सिरि भूवलय नाम के शास्त्र ग्रंथ का भी यही हाल होने वाला था। उसी समय प्राचीन साहित्य में आसक्ति रखने वाले पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी विशेष रूप से आसक्ति रख उस ग्रंथ को अपने अधिकार में लिया। उस प्रयत्न को किस प्रकार फल प्राप्त हुआ इस विषय में १९५३ के परिष्करण में उसके संपादक कर्ल मंगलम श्री कंठैय्या जी ने हार्दिक रूप से निरूपित किया है। उसके पश्चात यल्लप्पा शास्त्री जी को कर्ल मंगलम श्री कंठैय्या जी की दोस्ती प्राप्त होकर दोनों ने उस विलक्षण हस्त प्रति अर्थात अंक लिपि में रचित स्वरूप 128 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलयः को समझने के लिए बहु काल तक संयुक्त रूप से प्रयत्न किया। अंकों के राशि में समाहित सिध्दांत साहित्य सरस्वती का साक्षात्कार होने में वह प्रयत्न सफ़ल नहीं हुआ। इतने मेम काराणांत से कर्ल मंगलम श्री कंठैय्या जी अपने ग्राम वापस चले गए। येलप्पा शास्त्री जी ने अपने प्रयत्नों को आगे बढाया और उसमें वे बहुत कुछ यशस्वी भी हुए। उस यस्श्स्व के विषय में श्री कंठैय्या जी कहते हैं हमारी जानकारी के अनुसार संसार में इस तरह का अंकों का ग्रंथ केवल यही है। इसको कन्नड का, कन्नडिगाओं का एक विशाल संपत्ति मानना गलत नहीं होगा। इससे पहले ही संपादकत्व में ग्रंथ बाहर प्रकट होने में ही वस्तु विमर्श कर विस्तार पूर्वक एक प्रस्तावना लिखने का विचार शास्त्री जी कर चुके थे ऐसा लगता है। इन दोनों का स्नेह, साधना और सहयोग अनुकरणीय है। अब सिरि भूवलय के समग्र रूप से प्रकटण की सभी तैयारियां हो रही है। ग्रंथ के५६ अध्यायों में से केवल ३३ अध्याय १९५३ में (शक १८५३, ज्येष्ठ बहुल पंचमी; ईसा बाद ५-३-१९५३) प्रकटित हुए। उस समय बंगलोर के सर्वार्थ सिध्दि संघ ने प्रकटित किया। अभी पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी के सुपुत्र एम. वाय. धर्मपाल जी बंगलोर के पुस्तक शक्ति के प्रकाशक के वाय. के. मोहन जी ने सभी सहयोग उदारता पूर्वक देकर इस अपूर्व ग्रंथ को सभी आसक्त, संशोधक, जनकल्याण के हितासक्त और शास्त्रार्थ प्रियों के ध्यान में लाए हैं। इन दोनों का स्नेह, सहयोग, और साधाना अनुकरणीय है। बहुत समय से धर्मपाल जी हस्त प्रति को संरक्षित कर समग्र ग्रंथ के प्रकट होने के शुभोदय दिन का इंतजार कर रहे थे। उनके सहयोग के सिरि भूवलय फ़ॉउंडेशन (रि) संस्था के सभी सदस्य सम्माननीय है। वैसे ही जटिल और कठिन इस शास्त्र ग्रंथ के प्रकाशन के लिए देश के सभी विशेष प्रकाशक संघ संस्था के प्रकाशक हिचकिचाते समय ब्रह्मास्त्र के सामने सीना ताने खडे हो और इस पुसत्क के प्रकटनण के लिए धैर्य और साहस के साथ प्रयत्न करते हुए श्री वाय. के. मोहन, श्री प्रभाकर चेंडूर जी, श्रीमती वंदना राम मोहन और उनके सहयोगी बंधु मित्र भी समाननीय हैं। इस सभी महानुभावों को उनके ग्रंथ संपादन के लिए और हम तीन विद्वानों के लिए अवसर लभ्य कराने के लिए मेरी और उनकी तरफ़ से कृतज्ञता अर्पित करता - 129 = Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय हूँ। सिरि भूवलय ग्रंथ भूमंडल का सिरि (संपत्ति) बने सौभाग्य बने ऐसी शुभकामना करता हूँ। सिरिभूवलय का प्रथम संस्करण के विमोचन के संदर्भ में डा. टी. वी. वेंकटाचलशास्त्री जी का भाषण कुमुदेन्दु मुनि सिरिभूवलय कन्नड में एक अपूर्व, अनन्य तथा चमत्कारपूर्ण ग्रंथ हैं । दुनिया की किसी भी भाषा में इस प्रकार का एक और ग्रंथ शायद नहीं हैं । इस ग्रंथ में वर्णमाला के अक्षरों का प्रयोग नहीं किया गया है ; केवल संख्याओं का प्रयोग किया गया है । यह संख्याएँ अक्षरों का प्रतिनिधित्व करते हैं । संख्याओं को वर्णों में परिवर्तित करने पर भाषारूप साहित्य सिद्ध होगा । इसलिये यह एक अंक लिपि काव्य हैं । सिरिभूवलय के कर्त्ता कुमुदेंदु मुनि हैं । आप कुमुदचंद्र, कुमुदेंदु सूरी, कुमुदेंदु पंडितमुनी ऐसे अनेक नामों से परिचित थे । कन्नड साहित्य में कई कुमुदेंदु हैं । हमें ज्ञात सिरिभूवल के कर्त्ता ; शायद कोलार जिला के हैं। # ग्रंथ और ग्रंथ कर्ताओं के बारे में इससे पहले कई विद्वानों ने विशेष कर पंडित येल्लप्पा शास्त्री जी, कर्लमंगलं श्रीकंठैय्या जी, के अनंतसुब्बरावजी, प्रो. एस. श्रीकंठशास्त्रीजी, कट्टे नागराजजी, के. आर, शंकर नारायणजी, अपने लेखनों में विचारों को प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेकों ने कुमुदेंदु, १०वीं सदी में, अमोघवर्ष नृपतुंग नाम के राष्ट्रकूट राजा के समय में, अपने ग्रंथ को रचा ऐसा कहा है। यह ज्ञात करने के लिये ग्रंथों में रहें आधारों का शोधन किया है । इनके अलावा १६वीं सदी के कवि देवप्पा द्वारा लिखित कुमुदेम्दु शतक नाम के संस्कृत-कन्नड मिश्रित कृति का भी अध्ययन किया गया है । किंतु उनके द्वारा प्रस्तावित आधार निर्विवाद, प्रमाणिक हैं ऐसा नहीं कह सकतें हैं । हमें अनेक उलझनों (रुकावट) का सामाना करना पडता हैं। कुमुदेंदु शतक के आधारोंनुसार कह सकते हैं कि : कवि कुमुदेंदु, वासुपूज्य का परम शिष्य, उदयचंद्र के शिष्य, आप देशीगण - नंदिसंघ - कुंदकुंदान्वय- वक्रगच्छद 130 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय यती; यलवभूनिवासी, सिद्धांत शास्त्र पंडित, राजपूजित थे । यलवभू कोलार जिले के चिक्कबल्लापुर तालुक्क के नंदिदुर्ग के समीप यलवळ्ळि ग्राम ऐसा विद्वानों ने पता लगाया हैं । यलवभू को दायें से बायें पढ़ने पर भूवलय बनाकर यही पुस्तक का नाम रख कवि ने अपने स्वस्थल के अभिमान बढाया हैं ऐसे कहतें हैं । ग्रंथों में श्रवणबेल्गोल- कोलार - तलकाडु आदि के नाम आने से आप दक्षिण कर्नाटक प्रांत के हैं ऐसा समझा जा सकता है। १२वीं सदी में प्रसिद्ध माघनंदी यति ने पदार्थसार नाम के जैनधर्म शास्त्रग्रंथ की रचना की हैं । उसमें अपने गुरु के रूप में एक कुमुदेंदु यति की स्तुति करते हैं । पिरिया नगर के देवप्पा भी उसी स्तुति को लेकर उसको अपने अनुसार परिष्कृत कर अपने शतक ग्रंथ की रचना की है ऐसा कुछ लोग कहतें हैं । इसके समर्थन के लिये थोडा अवकाश हैं । देवप्पा के पुत्र दोड्डैय्या के द्वारा रचित भुजबलिशतक नाम के एक ग्रंथ में कुमुदेंदु यति से संबंधित उन्हीं विवरणों को यहाँ स्तुतित पंडितमुनि से मेल खाना एक आश्चर्यजनक विषय हैं । कुमुदेंदु पंडित मुनि और यह पंडित मुनि यदि अलग अलग हों तो ग्रंथ के कर्तृत्व संबंधी अनेक उलझनों का निवारण होगा । तब यह कुमुदेंदु मुनी १६वी सदी के पिरियानगर के देवप्पा दोड्डैय्या के समकालीन होंगे । तब इस ग्रंथ की भाषा नडुगन्नड, (मध्यकन्नड) छंद सांगत्य, वस्तु विवरण आदि मध्यकालीन भारत के हैं ऐसी वस्तु स्थिति से अन्य संगतियां परस्पर तिलती है वस्तुविचार : जीवस्थान को मिलाकर छह खंडों का जैन सिद्धांत ग्रंथ षट्खंडागम रचना को अमोघवर्ष के काल में उनके गुरुस्थानीय वीरसेन, जिनसेन आचार्यों ने धवला नाम के संस्कृत प्राकृत मिश्र टीकाओं की रचना की । उनके आधार पर कुमुदेंदु ने अपने कन्नड ग्रंथ की रचना कर षट्खंड शब्द के पर्याय शब्द भूवलय नाम से शायद उसको संबोधित किया होगा, ऐसा लगता हैं । मुनि परंपरा से प्राप्त वीरसेन द्वारा संपादित धवला - जयधवला के टीकाओं को उसमें भी कर्ममीमांसा के भागों को आधारित आचार्यनुरिसिद वाणिय देवनरियुत कन्नड में कुमुदेंदु कृति की रचना की ऐसा ग्रंथ से ही ज्ञात होता हैं । इस प्रकार वीरसेन - कुमुदेंदु मुनिद्वय के साक्षात गुरुशिष्यत्व और समकालीनत्व प्रश्नों का प्रश्न 131 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ही नहीं उठता । इस दृष्टि से पूर्वसूरियों के विचारों को और एक बार पुनः परामर्श करना पडेगा। संख्यानिष्ठ ५६ अध्यायों के इस चक्रबंध रचनाओं को निर्दिष्ट वाचनविधि के अनुसार पढकर भाषा रूप में परिवर्तित करने पर प्रथम कन्नड भाषा का शास्त्रकाव्य नज़र आएगा विभिन्न वाचनक्रम से १८ महाभाषाएं, ७०० सामान्य भाषा अपने साहित्यों को प्रकट करतें हैं ऐसा कुमुदेंदु स्वतः कहते हैं । इस दिशा में भारतीय भाषा विद्वानों को गहरे, तल स्पर्शी होकर संशोधन को अपनाना चाहिये। वस्तुवैविध्य की दृष्टि से सिरिभूवलय एक विश्वकोश ही है ऐसा ज्ञातव्य ही हैं। भगवद्गीता से समाहित वैदिक साहित्य, विविध विज्ञान विषय मानविक शास्त्र विषय, सामाजिक सांस्कृतिक संगतियां, भाषा लिपियां ऐसे अनेक लोककल्याणकारक, विस्मयकारी वस्तु विवरण इस ग्रंथ के गर्भ में खान में अमूल्य रत्नों जैसे दबेछिपें हैं । इसको जानकार और विद्वानो को समझ कर शोधन और प्रकाशित करना होगा। साहित्य लोक के एक विस्मयकारी, परिगणित, कुमुदेंदु कवि का सिरिभूवलय क्या हैं? यह जानने के लिये कर्नाटक के विद्यावंत नागरिक, विद्या संस्थाओं के द्वारा किए गए प्रामाणिक प्रयत्न के लिये हमें प्रतीक्षा करनी होगी। ऐसे प्रयत्न जारी रहें इस के लिये ग्रंथ के संरक्षक संपादक, प्रकाशक सभी हृदय पूर्वक कामना करतें हैं। मैसूर के सेंट्रल इन्सिट्यूट आफ इंडियन लैंगवेज़स संस्था के भाषा संशोधको ने पहले से ही इस विषय में अपना कुतूहलभरित अभिलाषाओं का प्रकट किया हैं । ऐसा कहने में मुझे (वाय के मोहनजी) अत्यंत आनंद मिलता हैं । ग्रंथ के हस्तप्रति संरक्षक और संशोधक पंडित येलप्पा शास्त्री जी वैद्य शास्त्र के विविध शाखाओं से संबंधित अपने शोधों को प्रकटित करने की भाँति ही अन्य शास्त्र के विषयों में भी विशेषज्ञ अपने-अपने शोधों को प्रकटित करे तो वह सारे संसार के लिये बहुत बड़ा उपकार होगा । मैसूर १-१-२००२ डॉ. टी. वी. वेंकटाचल शास्त्री प्रधान संपादक 132 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सिरि भूवलय कन्नड का कामधेनु-कल्पवृक्ष सर्व भाषामयी सिरि भूवलय ग्रंथ परिचय १. सर्व भाषामयी सिरि भूवलय ग्रंथ कर्नाटक राज्य (मैसूर) के कोलार जिले के चिक्क बलापुर तालुक्क के सुप्रसिध्द नंदी ग्राम के समीप स्थित यलवभू (यलवळ्ली) के निवासी श्री कुमुदेन्दु जैन मुनि के द्वारा उनके १५०० शिष्यों के द्वारा लिखवाया अति प्राचीन साहित्य है। २. श्री कुमुदेन्दु मुनि ने गंगरस सैगोट्ट शिवमार को भी, मान्य खेट के राजा अमोघ वर्ष को भी इस काव्य का परिचय दिया था ऐसा इस काव्य में ही कहा गया है। मैसूर जिले के पिरिया पट्टण के शहर देवप्पा नाम के कवि ने इस कुमुदेन्दु आचार्य के अप्रतिम ज्ञान को कुमदेन्दु शतक नाम के ग्रंथ में बहुत ही सुन्दर रूप से वर्णित किया है । ३. यह काव्य प्राचीन अथवा नवीन किसी भी लिपि में लिखा नहीं गया है।केवल कन्नड के अंकों से लिखा गया है। इन चक्रों में १ से लेकर ६४ तक संख्याओं का उपयोग किया गया है। प्रत्येक चक्र में २७*२७= ७२९ खानों संख्या हैं। ऐसे १६००० चक्र बंध हैं कहा गया है। श्री कुमुदेन्दु मुनि के द्वारा लिखवाई गई मूल प्रति उपलब्ध नहीं है। उस महा ग्रंथ को सेन नाम के दंड नायक की पत्नी मल्लिकब्बे ने पुनः प्रति बनावा कर माघनंदाचार्य को शास्त्र दान के रूप में प्रदान किया था थी ऐसा कहा गया है। वही प्रति आज सर्वार्थ सिध्दि संघ के पास सुरक्षित है । ५. सुप्रसिध्द जैन क्षेत्र मूडबिद्रे में जिस प्रकार धवलादि सिध्दांतत्रय महा प्रयत्न से प्रकट हुए उसी प्रकार इस ग्रंथ के चक्रे बंधों के रहस्य को आयुर्वेद के विद्वान पं. यल्लप्पा शास्त्री जी ने अनेक मुनियों के साथ, विद्वानों के साथ, शास्त्र सिध्दांत के द्वारा तपस्या सम कष्ट उठा कर, भरत खंड का भ्रमण कर, जान कर, पहचान कर, संशोधित कर, हमारे लिये इसे उपलब्ध कराया है। - 133 6. 133 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय १. ऊपर कहे गए १ से लेकर ६४ तक के अंक 'अ' से :: (फ़क) तक ६४ उच्चारण घोष बने हैं। उनमें २७ स्वर, ३३ व्यंजन, ४ अयोग वाह हैं। उन सब की सूची आगे दी गई है। इस प्रकार यह एक अंकाक्षर विज्ञान है। २. सष्टि के आदि में ही अर्थात् अनादि काल से ही पशु, मृग, पक्षी, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, वृक्ष, लता, सभी एक गणित के आधार से तथा तत्व के आधार पर निर्मित होकर विकसित होकर संसार के सभी देव मानव, पशु-पक्षी, क्रिमी-कीट आदि की बोलने वाली भाषा, उच्चारित समस्त शब्द ध्वनियाँ परमात्मा के द्वारा एक प्रकार के गणित के सिध्दांत के द्वारा दिव्यध्वनि बन कर पहले ही निर्मित हो चुकी हैं वही समस्त ब्रह्मांड के लिए आदि भगवद गीता बन कर (पुरु गीता) समस्त भाषाओं को समस्त धर्मों को, समाहित कर विकसित होती गई है इसे ही, श्री कुमदेन्दु आचार्य अंकाक्षर विज्ञान और चक्र बंधों के द्वारा बहुत समय पहले ही, आज के आधुनिक, नव सभ्यता ने दुनिया को दिखाया है, ऐसा इस ग्रंथ के द्वारा जाना जा सकता है । ३. इसे सिरि भूवलय में आदि वृषभ तीर्थंकर अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सौन्दरी को अंकाक्षर ज्ञान के रूप में शाखत संपत्ति प्रदान करते हैं। उसे वे अपने सहोदर भरत गोमट्ट को सुनाते हैं । उसी ज्ञान को भरत के बाद आने वाले सभी तीर्थंकर , फिर सभी आचार्य और फिर कुमुदेन्दु संसार को उपदेशित करते हैं, ऐसा कहा गया है। ४. ऊपर कहे इस ग्रंथ के चक्रों में रहने वाले अंकों के लिए अथवा ध्वनियों को बना कर उन्हें अगले पृष्ठ पर दिए बताए गए खानों में आने वाले श्रेणी बंध के द्वारा पढा जाए तो “अषट महापराति हारय” श्लोक से आरंभ होकर इस ग्रंथ के प्रप्रथम ७ सांगत्य पद्य एक चक्र में आते हैं । यह आज के प्रचलित ध्वनियों में न होकर संस्कृत, या अंग्रेजी लिपि में आने वाले उच्चारण घोष रीति के अनुसार एक रीति से स्वाभाविक शब्द क्रमानुसार लिखा गया १०. इसी प्रकार शेष १२७० चक्रों को भी विविध बंध में पढा जाए तो ५९ अध्याय के ६४८०० श्लोकों के मंगल प्राभृत नाम के प्रथम खंड के साहित्य का Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय सृजन होता है । इसके उपरांत प्रथम खंड के १२७० चक्रों से १४७३० चक्रों के साथ इस प्रथम खंड के साहित्य से और ५३५२०० श्लोकों वाले ८ के बराबर साहित्य भी एक के साथ एक सृजित होता है। इस प्रकार यह ग्रंथ ६००००० कन्नड श्लोको वाला संसार का सबसे अधिक वृहद ग्रंथ बनता है। ऊपर कहे गए १२७० चक्रों के लिए कुल ध्वनियाँ ९२५८३० बनती है और ४९० लाख शब्दों के बराबर साहित्य का सृजन होना शेष है। ऊपर कहे गए मंगल प्राभृत (प्रथम खंड) का केवल ३३ अध्याय ही प्रकट हुए है। अभी और इस खंड में २६ अध्याय और शेष ८ खंडो के बराबर महा साहित्य का प्रकट होना शेष है। . ११. इसके उपरांत इसी प्रकार से आने वाले कन्नड श्लोकों के प्रत्येक पद्य के प्रथम अक्षरों को एक क्रमानुसार मिला कर पढे तो अट्ट विह कममवियला प्राकृत भाषा की भगवद् गीता के साहित्य की उत्पत्ति होती है १२. इसके उपरांत इसी प्रकार प्रत्येक पद्य का २७ वें स्थान के अक्षरों को मिला कर पढे तो 'ओंकार बिन्दु समुयुकतं' संस्कृत भाषा के भगवद् गीता की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार ११ अध्यायों के कन्नड सांगत्य पद्यों में प्राकृत, संस्कृत साहित्य को समाहित हुआ देखा जा सकता है । १३. इसमें संपूर्ण ग्रंथ में पूर्ण पद्यों के बीच, जहाँ-तहाँ पाद पद्य आते हैं उदाहरण के लिए पहले अध्याय के १२ से लेकर १८ पद्य । ये पद्य उनके ऊपर के पद्यों के प्रास (तुक) में मिल, अंत में विशेष पाद-पद्य कहे जा सकते १४. आगे १२वें अध्याय के २६वें पद्य से प्रत्येक अध्याय में भी "..” चिन्ह के बीच रिदध सिद धिगे आदिनाथरु अजितर गददुगे एततु आनेगळु मुददिनि सयादवाद ऐसा अश्व गति में अलग-अलग साहित्य प्रवाह रूप से प्रकट होते हैं। १५. इसके उपरांत १९वें अध्याय में पहले कहे गए प्राकृत-संस्कृत अश्व गति के अंतर साहित्य के साथ प्रत्येक पद्य में भी ४ स्थानों पर कुल १० अक्षर 135 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) के बगल में बिन्द का चिन्ह रखा गया है । उन्हें उनके पिछले पष्ठ में दिखाए गए जैसे ऊपर से नीचे अध्याय के आखिरी पद्य तक एक-एक अक्षर को मिला कर पढ कर, फिर उसके बगल के अक्षर से ऊपर पहले पद्य तक, पुनः बिन्दु चिन्ह वाले अक्षर से नीचे की ओर, अंत के पद्य में पुनः ऊपर की ओर नाग बंध में पढते जाए तो एक अलग संस्कृत साहित्ये का आविर्भाव होता है। १६. ऊपर की भाँति ही २०वें अध्याय से ग्रंथ के आखिर तक पहले कहे गए प्राकृत-संस्कृत अश्व गति साहित्य के साथ १८ अलग अलग पंक्तियों में कन्नड और संस्कृत साहित्य जोडी नागर बंध में नए रूप में सजित होता है। उदाहरण . पहला अक्षर .. ऐघणघाईमहणा तिहुवण ..' ॥ प्राकृत २रा अक्षर दीपतितेजवनातमचकरदोळ ( नीचे पुनः मिलाकर अनेक अध्यायों तक।। कन्नड ३, ५, ९, ११, १४, १५, और आखिर के अक्षर (नीचे की ओर) (एक ही अध्याय। कन्नड ४, ६, १०, १२, १८, २२, अक्षर अध्याय के अंत से ऊपर की ओर ॥ कन्नड १७. इस प्रकार अब मुद्रित किये गए मंगल प्राभृत के ३३ अध्यायों में भी, आगे प्रकट होने वाले २६ अध्यायों में भी इसी प्रकार आने वाले एकाक्षर प्रवाह साहित्य को ही कमानुसार पक्तियों में लिख कर पुनः-पुनः ढूंढ कर पढा जाए तो अक्षरों के लिए लाख के बराबर कभी न खत्म होने वाले अंतर साहित्य प्रवाह सागर के बराबर सृजित होगा । १८. आगे ८२सी पृष्ठ में ७ भाषा की उत्पत्ति होने वाले २रे खंड के एक अध्याय को उदाहरण रूप में दिया गया है। उसमें हमेशा की तरह ललित रूप से आने वाले कन्नड सांगत्य पद्यों में पहला अक्षर नीचे की ओर :- प्राकृत:- सुदाणाणससाअवरणियं ॥ 136 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय ९वाँ अक्षर नीचे की ओर :- गीर्वाणी :- दिवयगिह दिवया अमानुषि।। २७वाँ अक्षर- नीचे की ओर:- तेलगु:- सकल भूवलय मुनकु।। ५४वाँ अक्षर- नीचे की ओर:- तमिल:- अगर मुदल एळत तललां ।। इसके उपरांत पाद-पद्यों में पहला अक्षर नीचे की ओर :- अपभ्रंश:- वनदिततु सवव सिदधे दुव ॥ "_' चिन्ह के बीच अंतर साहित्य :- शौरसेनी:- णमोअरहताणं ॥ ब्यासी पद्य से "-" चिन्ह के बीच आने वाले अंतर साहित्य से :- अर्ध मागधी:बारह अन गानगीजा ।। (धवल सिध्दांत) इस प्रकार सिरि भूवलय के संपूर्ण होने की पहले दुनिया के समस्त भाषाओं में भी लाखों-करोडों श्लोक, साहित्य ललित कन्नड सांगत्य पद्यों में सृजित होकर पूरी दुनिया को भरने के बराबर उभरेंगे। १९. इस ग्रंथ से उत्पन्न होने वाले अनेकानेक श्लोकों से सजित होने वाले श्रीमद्भगवद् गीता, ऋषि मंडल, मोक्ष सूत्र, आदि के साहित्य को अलग से दिया गया है। २०. इस प्रकार कन्नड में अंकाक्षर विज्ञान में दुनिया की समस्त भाषाओं को, समस्त मत धर्म शास्त्रों को, वैद्य, शिल्प, विज्ञानादि समस्त कलाओं को, बांधने की एक महा शक्ति है, ऐसा श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने प्रत्यक्ष रूप से दुनिया को दिखाया है तथा दुनिया में रहने वाली समस्त भाषाएँ कर्माटका और कर्नाटका नाम के इस सुन्दर. कर्नाटका भाषा में समस्त भाषाएँ स्वयंमेव सुललित रूप से प्रवाहित होती है इसे किसी भी कृत्रिम मार्ग के बिना गणित सिध्दांत में, सरमग्गी कोष्ठक (गुणन सूची, पहाडा) के समान सहज रूप से बांधा गया है ऐसा इस ग्रंथ में कई स्थानों पर कहा गया है । २१. इस गणित सिध्दांत के द्वारा १ से लेकर ६४ ध्वनियों में एक विशिष्ट रीति के विविध संयोग भंग के द्वारा (permutation & comabination) संसार के सभी शब्दागमों को ९२ अलग-अलग अंकों में (digits) समाप्त होते हैं उसमें भूतकाल, वर्तमान काल तथा भविष्य के सभी शब्द स्वयंमेव ही उत्पन्न हुए =1374 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय हैं ऐसा दिखाया गया है। उदाहरण; गज नाम के दो अक्षर से जग नाम का एक और शब्द, दवन नाम के एक सामान्य तीनाक्षर से वनद, नवद, दनव, वदन, नदव, आदि छह शब्द बन, इसी प्रकार ६४ अक्षरों के संयोग भंग से ९२ अलग-अलग अंकों के बराबर समस्त शब्द भंडार का सृजन होता यह गणित भी इसी साहित्य की भाँति अर्थात् सागर के बराबर ही होगा। क्योंकि जितने अंक हैं उतने ही अक्षर भी होंगें यह कथन स्वतः सिध्द होती है। इससे सभी शब्द पहले ही सृजित हुए हैं ऐसा व्यक्त होता है और ये ६४ ध्वनियाँ किसी एक बंधन के द्वारा बाँधे गए होने के कारण समस्त साहित्य सहज रूप में पहले ही सृजित हुआ होगा ऐसा जान पडता है। ऐसा कौन सा गणित का बंधन है इसे गणितज्ञों को ढूंढना है। ( इस ग्रंथ में कहे गए गणित विवरणों को एक और पुस्तक में दिया गया है)। २३. उसी कारण इससे केवल १ से लेकर ९ तक और ० से लिखे गए ९२ संख्याओं में ध्वनियों में अथवा अक्षरों में दुनिया की समस्त भाषाओं के समस्त ध्वनियों को बाँधा जा सकता है और कोई भी किसी भी भाषा के शब्दों को किंचित भी गलती के बिना स्पष्ट रूप से लिख पढ सकता है । इससे आज बृहदाकार रूप धारण करने वाली बहू भाषा लिपि की समस्या, दैवानुग्रह से संसार में एक रीति से रहने वाली केवल १ से लेकर ९ तक अंक संख्या गणित के कारण बड़ी आसानी से सुलझ सकती है । २३. इस ग्रंथ के विशेष प्राक्कथन में सकल काव्य सृजन के लिए प्रारंभ का कारण बनने वाले शून्य से किस प्रकार कन्नड के अंक उत्पन्न हुए इसे समझा जा सकता है । कमोबेश इसी प्रकार से अंग्रेजी और संस्कृत के अंकों का भी रहना एक आश्चर्य जनक विषय है। २४. इस प्रकार यह ग्रंथ हजारों वर्षों के पहले ही संसार के ७१८ भाषाओं को, ३६३ मतों को, ६४ कलाओं को (विद्याओं) समाहित किया हुआ एक मात्र विश्व साहित्य है। 138 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय २५. हमारे सम्मानीय प्रप्रथम राष्ट्राध्यक्ष श्री बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी ने भी इस ग्रंथ की प्रशंसा की है। २६. आज इस ग्रंथ की मंगल प्राभृत के १२७० चक्रों को और भारत सरकार की कृपा से संसार के उपयोग के लिए माइक्रो फिल्म के द्वारा तैयार करने का प्रस्ताव रखा गया है। २७. इस ग्रंथ के प्राक्कथन कवि विचार भाषा और लिपि भाषाएँ काव्य बंध कन्नड की कहानी भूवलय के प्रत्येक अध्याय में आने वाले विषयों की जानकारी आगे दी गई है । २८. इस ग्रंथ के विषय में प्राप्त अनेक प्रशस्ति पत्रों में से कुछ पत्रों को अंत में दिया गया है। और अधिक जानकारी के लिए सर्वार्थ सिध्दि संघ से संपर्क किया जा सकता है बेंगलुरु सिरि भूवलय प्रचारक के. अनंत सुब्बाराव पत्रिकाद्योगी, कन्नड शीघ्र लिपि ( शार्ट हैंड) और कन्नड टाइप राइटर ( टंकण यंत्र) के अविष्कारक 139 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय वस्तु परिचय (अध्याय ५५१-८) अध्याय-१ श्लोक-१२५, अक्षर संख्या- १४,३४२ पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलं श्रीकंठैय्या : कुमुदेन्दु मुनि अपने पहले अध्याय में ग्रंथ का प्रमाण इस तरह कहते हैं धर्मध्वज्दरोळु के त्तिद चक्र। निर्मलदष्ट हूवुगळम।। स्वर्मनदलगळ ऐवत्तोन्दु सोनेयु। धर्मद कालु लक्षगळे।। आपाटि अंकदोळ ऐदु साविर कूडे। श्री पादपद्मदनद।। रूपि अरूपिय ओन्दरोळ पेळुव । श्री पध्दतिय भूवलय।। अर्थात इस प्रकार भूवल्य के अंक, अक्षर पद्मदलों ५१०२५००० के बराबर हैं। इस संख्या में ५००० मिला दिया जाए तो समस्त भूमंडल का अक्षर संख्या बन जाएगा, यह सूचित करते हैं । इस ५१०३०००० को गणित का संयुक्तांक ९ से प्रारंभ कर नवमांक गणित पध्दति के द्वारा इस संख्या राशि को भागित करते हैं। उसको (अंतरपद्य १-६८से ७६) करुणेयोम्बत्तु इप्पत्तेळु ॥६८॥ अरुहन गुणवेम्बत्तु ओन्दु ।६९।। सिरियोळ्नूरिप्पत्तोम्बत्म ॥७०॥ बरुव महांकगळारु ॥७१।। एरडने कमल हन्नेरडु ॥७२॥ करविडिदेळंक कुम्भ ॥७३।। अरुहन वाणि ओम्बत्तु ॥७४।। परिपूर्णनवदंक करग ॥७५।। सिरिसिध्दं नमह ओम हत्तु॥७६।। इस प्रकार वर्णमालाक्षर राशि ·९-२७-८१-७२९' इस व्यूह का '६-१२-७-९' इस तरह पूर्ण वर्गों में विभक्त कर ९७९-८१७७९*९-६५६१ इस संख्या में इस पहले अध्याय को समाप्त करते हैं। इस प्रकार इस राशि में अपुनरुक्त रूप से ९ ‘अ’ हैं कहते हैं 140 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुनरुक्तं ९ ‘अ’ अक्षर भूवलय के ९ खंड हैं। इस काव्य के अंकों को अक्षरों में खंडित किया जाए तो '९२ ' के लगभग अलग-अलग अंक बन कर फिर असंख्य अक्षर बन ७१८ भाषाओं में करोडों पदों के बराबर काव्य बनेगा कहते हैं । के. अनंतसुब्बाराव - १. इस पहले अध्याय में ९ चक्र हैं। पहले चक्र में पहली पंक्ति में १४वें अंक - (१) अक्षर से (अ) आरंभ करना है। अनंतर में सीधे अंतिम पंक्ति पर आना है । उसमें १५वें अक्षर से (५८ - ष) कोने से ले कर चक्र में दिखाए गए जैसे (६० - ह ) तक पढना है । बाद में चके के पहले अंकाक्षर (१ - अ) के द्वारा पुनः कोने से लेकर चक्र दिखाए जैसे आगे पढना है । उसके बाद इसी तरह चक्र के बगल में दिखाए गए जैसे क्रम से ४-५-६-७-........५३ पँक्तियों को क्रम से पढना है। इस रीति से पढने . कन्नड साहित्य का आविर्भाव २. सिरि भूवलय नवकार मंत्रदोळादिय सिध्दांत । अवयव पूर्वेय ग्रंथ ।। दवतारदादिमदक्षरमंगल । नव अ अ अ अ अ अ अ अ अ || ३. ५. पर “अष्ट्अ, म्अह्आ प्रआत् इह्आर् य्अ होता है। ये सभी पद्य कन्नड साहित्य के पद बनते हैं । इन पद्यों में प्रत्येक पद्य के पहले अक्षरों को ही जोड कर पढा जाए तो –“अट्ट विहकम्मवियला.....” प्राकृत श्लोक का आविर्भाव होता है ४. ऊपर लिखे कन्नड पद्यों के मध्य में अन्य किसी अलग-अलग अक्षरों को जोड कर पढा जाए तो " ओकारम् बिन्दु सम्युक्तम् .” संस्कृत श्लोक बनता है। ..... इस तरह इन अध्यायों के ९ चक्रों को पढा जाए तो ५३ पूर्ण पद्य, ७२ पाद पद्य, सभी मिला कर १२५ कन्नड पद्यों की रचना को पढ़ा जा सकता है। 141 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ६. प्रत्येक अध्याय के अंत में उस अध्याय के सही शब्दों को पद्य में ही जोडा गया है। इस ग्रंथ का यह एक अद्भुत वैशिष्टय है। इस तरह पहले अध्याय के मूल में ६५६१+अंतर ७७८५= १४३६६ शब्द बनते हैं । ७. इस अध्याय में अनेक पद्य,काव्य महिमा और जैन सिध्दांत को कहते हैं। ८. इस अध्याय में आदि वृषभ देव ने अपनी बेटियों ब्राह्मी को अक्षर का और सौन्दरी को अंकों का ज्ञान दान दिया ।उनके भाईयों को गोम्मट देव भरत को इस काव्य को चक्र बंध में बाँध कर सुनाया, ऐसी उक्ति है। ९. इस अध्याय मे तावरे(कमल) से रस सिध्दि बनाने के क्रम को, उसकी महिमा को कहा गया है। अध्याय-२ श्लोक-१५५, अक्षर संख्या-१४,४०९ पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलं श्रीकंठैय्या ____ करणसूत्र गणिताक्षर के समान ह-क को जोडा जाए तो २८+६०-८८ बनता है। "८८” को जोडा जाए तो ८+८= १६, इसे भी जोडा जाए तो १+६=७ बनता है । इस तरह सात भागों में विभक्त कर इसको ९ से भाग कर प्राप्त लब्धांक से, अपने इस काव्य का प्रारंभ किया होगा, एक सरमग्गी कोष्ठक (गुणन सूची, पहाडा) को दिया है। यहाँ अनुलोमांक को ५४ अक्षरों के वर्ग भंग कर अंकों की राशि के एक सूक्ष्म केन्द्र को ८६ अलग-अलग अंक राशि बनाकर निरूपित किया है। इस अनलोम राशि को प्रतिलोम राशि के उसी ५४ अक्षर वर्ग के ७१ अलग-अलग अंक राशि में वर्गीकरण कर, इन अंको के परस्पर घटा कर, भागब्ध कर २५ अलग-अलग अंक राशि को बनाया है। इन अंको को वर्ग भाग कर २५ अर्ध भाग कर इन अंक राशि का २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, १ पहाडे से परस्पर भंग कर अपने काव्यांक बनाकर काव्य को मोतियों के हार की भाँति पिरोया है। इस वर्ग गणित का “प्रतिलोमनवम” शुध्द नवम होने के कारण उत्तर में गलती होगी, इसमें कोई गलती नहीं है, सही उत्तर को आगे कहूँगा, इसमें एक अंक गलत आयेगा, स्वयं कहते हैं (इस गणित को श्री येलप्पा शास्त्री जी ने ठीक तरह से देख कर आने वाली एक गलती को ढूँढा है) यहाँ कुमुदेन्दु =142 = Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय नवदंक्वनेरडम परस्परदिंदम तविसुव कालक्रमदे अवतरिसिद तप्प तप्पेनलागदु सवियंकदुपदेश मुन्दे ।। २ - २३ ।। णोवदंकदे बंद तप्पितवेनिल्ल ओवियादुत्तरदंक कोविद ओदंक उत्पत्तियात्यिल्लि नववैदरिं भागवायतु ।। इस तरह कुमुदेन्दु कई अज्ञात गणित समस्याओं के राशि राशि को दिखाते है। इस दिशा में बहुत अनुशीलन होना शेष है। के. अनंतसुब्बाराव इस अध्याय में करण सूत्र को अनेक गणित लेख्य को साधु, गुरु, आचार्य, सिध्द, पुरुषों और जिनरों ने इसके लक्षणों को वर्णित कर और अक्षर - अंक सभी को ओंकार में समाहित है, ऐसा कहा गया है। अध्याय ३ श्लोक - १७४, अक्षर संख्या १७,८५६ पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलं श्रीकंठय्या कवि अपने काव्य की शोभा का वर्णन करते हुए देह और भूमि पर रहने वाले वस्तुओं, उससे संबंधित अनेकानेक विषय किस तरह एक दूसरे से जुडे हुए हैं, मर्कट (बंदर) किस तरह मानव बना, चिंतामणी रत्न का प्रस्ताव, ६४ दिव्य कलायें, कर्माटक कथन में उत्पन्न धर्म ३६३ स्वयं को ज्ञात न कथनों को सिखाते हुए, यहाँ— वहाँ उदाहरण देते हुए आदि जिनेन्द्र भूवलय कह कर प्रचारित करते हैं । के. अनंतसुब्बाराव इस अध्याय में भी अपार रूप से काव्य महिमा का वर्णन है। अध्यात्मक योग, सर्वज्ञ दर्शन, अनंत गुण, देश चरित्र (इतिहास) दर्शन, ज्ञान, इतिहास, सिध्दि का क्रम आदि को वर्णित किया है। 143 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय अध्याय ४ श्लोक-१८५, अक्षर संख्या-१८,२१६ पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलं श्रीकंठैय्या इस पूरे अध्याय में काव्य बंध स्वयं कुछ गुरु परंपरा के भागों को कहकर, रर्स सुवर्ण ही लौह शुध्दि के विषयों के सूक्ष्म रूप से विवरित करते हैं। यहाँ रस शुध्दि के लिए अनेक पुष्पों के नाम कहते हैं। इस अध्याय में रस मणि शुध्द रूप में, वैद्य शास्त्र का वाचकों को परिचय देते हैं । मुख्य पुष्प अर्थात नाग संपिगे, नाग मल्लिगे, कृष्ण पुष्प, पनस पुष्प, (यह रस शुध्दि के लिए प्रमुख है और विमान निर्माण के लिए उपयोगी) मादल, मारनंगैय, केदिगे, पादरी और गिरिकर्निगे इन आठ पुष्पों के सार (रस) को पाद रस (पारा) मिलाकर रस सिध्दि कर रस मणि मिलता है, ऐसा कहते हैं । के. अनंतसुब्बाराव इस अध्याय में भी अपार रूप से काव्य महिमा का वर्णन करते हैं। इस काव्य को बाँधे गए चक्र बंध, हंस बंध, आदि नाग रसमणि मोक्षसिध्दि के क्रम को कहा है। अध्याय ५ श्लोक-२०१, अक्षर-२०,०२५ पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलं श्रीकंठय्या । इसमें अनेक देश भाषाओं के नाम अंकों के नाम कहकर भाषाओं के वर्गीकरण को स्पष्ट करते हैं । यहाँ अनेक भाषाओं के नाम लिपिया, नव कर्माटक, की भाषाओं को गणित बंध में बाँधे गए विषय का विवरण देते हैं। अंत में २४ तीर्थंकरों के नाम के गणित का विवरण देते है। के. अनंतसुब्बाराव ___इस अध्याय में नव मांक बंध नवमांक महिमा, रिध्दि-सिध्दि, नवपद सिध्दि, अनेक गुरु मुनि तीर्थंकरों के नाम दिए गए हैं। इस काव्य में आने वाले ७१८ भाषाओं में से केवल कुछ भाषाओं के नाम इस अध्याय में दिए गए हैं और १८ महा भाषाओं और उनके अंक लिपि के नाम दिए गए हैं । 144 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय अध्याय ६ श्लोक-२०६, अंक संख्या-२०,७३६ पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलं श्रीकंठैय्या यहाँ अद्वैत-द्वैत अनेकांतों को अपने जैनत्व में बाधित न होने की तरह से मिलाकर अपने तत्व शास्त्र में समायोजित करते हैं । के. अनंतसुब्बाराव ____ इस अध्याय में अद्वैत-द्वैत अनेकांक और अन्य ३६३ मत धर्म के समन्वय को हरिहर जिनधर्म का वर्णन किया गया है। इस काव्य से सर्वार्थ सिध्दि होने की भी अपार प्रशंसा की गई है। __ अध्याय ७ श्लोक-२१३, अक्षर-२१,१५० पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलं श्रीकंठैय्या यहाँ गुरु परंपरा से साधित आत्मा की साधना समाहित योग का “भूवलय" कह, दर्शन शक्ति, ज्ञान शक्ति, और चरित्र वेरेसिद रत्न वरव कह “बरेय बारद, बरेदरु ओदलारद सिरि सिध्दांत भूवलय” (न लिखा जाने वाला, लिखा गया तो न पढा जाने वाला सिरि सिध्दांत भूवलय) कह कर घोषित किया गया है। मान, माया, लोभ, क्रोध रूपी कषाय (काढा) आत्मा स्वरूप को किस तरह मुक्ति की ओर नहीं पहुँचाती, उसे समझा कर उस को गणित पध्दति के प्रकार से कह, जिन बिम्ब का दर्शन कर कषायों को छोडना ही आनंद रूप को प्राप्त होना, कहते हैं। रस सिध्दि के लिए आवश्यक २४ जाति पुष्पों को, रस के उपयोग को वर्णित कर “अष्ट महा प्रातिहार्य" में एक सिंह का नाम कह, कर्नाटक का चिन्ह नाल्मुगद (चार चेहरे वाला सिंह, हमारा राष्ट्रीय चिन्ह) होगा ऐसी भविष्य वाणी उसी समय की थी। - 145 - 145 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय के. अनंतसुब्बाराव इस अध्याय में २४ तीर्थंकरों के नाम सिध्द रस की महिमा, पुष्पायुर्वेद के २४ पुष्पों के नाम, नाल्मुगद सिंह (चार मुख वाला सिंह) की महिमा का वर्णन करते हैं। अध्याय ८ श्लोक - २५६, अक्षर संख्या - २५, ७०४ पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्ल मंगलं श्रीकंठय्या इस भाग में सभी तीर्थंकरों के वाहन सिंहों के आकार रूप स्वभाव के साथ गणितांक राशि से तुलना कर उनको उस-उस नाम की शंका समाधान के साथ गणित शास्त्र है, ऐसा निरूपित कर, उस संदर्भ में यहाँ विवरण प्रस्तुत किया है और भरत खंड का शुभ चिन्ह यही नाल्मुगद सिंह (चार चेहरे वाला सिंह) है, ऐसा कहते हैं । के. अनंतसुब्बाराव १. इस अध्याय में सभी तीर्थंकरों के वाहन सिंहोंके आकार रूप स्वभाव की आयुष नामों को गणित शास्त्र के प्रकार से विवरण किया गया है। २. कुमुदेन्दु मुनि का वास स्थान नंदी बेट्टा ( पहाड) के वर्णन को, नामुगद सिंह भरत खंड के शुभ चिन्ह को, महादेवी चक्रेश्वरी पुरुषदत्ते, काली, गौरी, इत्यादि यक्ष-यक्षिणियों की प्रशंसा की है 1. ( वाक्य रचना को जहाँ-तहाँ ठीक करने पर भी वस्तु विवरणों की अस्पष्टता बनी हुई है, इस कारण क्षमा प्रार्थी हैं : प्र. सं ) 146 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय संग्रह सारांश प्रथम खंड मंगल प्राभृत प्रथम 'अ' अध्याय अष्टमजिनों को नमस्कार करते हुए यह सिरि भूवलय आरंभ होता है। नवकार मंत्र सिध्दि के लिए कारणों को कहते हुए उसके लिए टवनेय कोलू( जोडी दंड), पुस्तक, पिंछ(मयूरपुच्छ), पात्रे(बर्तन) और कमंडल की सहयता की आवश्यकता है ऐसा निरुपण है। इस कृति में ओंकार का अतिशय है। इसको “महावीर वाणी प्राभृत" कहते हैं, ऐसा कहते हैं । ___ गोमट देव अपने बड़े भाई भरत को चक्र बंध के जंगल में बाँधे गए विश्व काव्य यह भूवलय, विंध्यगिरि के निजसत्व दर्शन को दिखाने वाले, विजय धवल का भूवलय, इसको कर्माटक वलय मंगल काटक कहते हैं । ___ यशस्वती देवी की बेटी ब्राह्मी को कर्माटक ऋषि ने ६४ अक्षरों में बटकर (मिलाकर) अंगैय (हथेली) भूवलय कहकर उस ६४ अक्षरों के स्वरूप को वर्णित किया गया है। __इस भूवलय के अंक, अक्षर, पद्मदल, ऐवत्तोंदु सोन्ने कालु लक्ष्या अर्थात ५,१०,२५,००० पाँच करोड दस लाख पच्चीस हजार। इसमें ५०० को मिलाया जाए तो भूवलय में कुल मिलाकर ५ करोड, १० लाख, ३० हजार, अक्षर प्रमाण सिध्द होते हैं। कुमुदेन्दु इस अक्षर प्रमाण को नौ से भाग करते हुए नवमांक गणित पध्दति के प्रकार से वर्गीकृत करते हैं । ९-२७-८१-७२९ और ६-१२-७-९ वर्ग को बनाकर ९५९४९४९= ६५६१ प्रमाण के गणित का निर्णय लेकर अध्याय को समाप्त करते हैं। द्वितीय “आ” अध्याय इस परे अध्याय में अनेक गणित के हिसाब-किताब हैं। सरमग्गी (गणन सूची, पहाडा) कोष्टक में है, ऐसा ग्रंथ संपादक के कहे कथन को छोड दिया जाए तो ग्रंथ पाठ के अनुवाद को देना क कर है । करण सूत्र, गणिताक्षरांक, अनुलोम, =147 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय वर्गभंग, सूक्ष्म केन्द्र, प्रतिलोमराशि, प्रतिलोमनवम, अशुध्द नवम, आदि गणित शास्त्र के शब्दों के लिए अलग-अलग व्याख्यान ही करना पडेगा । तृतीय “आ” अध्याय इस अध्याय में भूवलय की रचना रीति तथा अध्यात्मक तत्व का विवरण है। यह भूवलय का काव्य आदि देव के कहे गए अध्यात्म योग और अज्ञान नाश के द्वारा धर्म साधना का कारण बनता है। यह “हितवाद अतिशय मंगल प्राभृत" है । भद्र पर्याय, ज्ञात-अज्ञात, तत्वों को सतत रूप से कहने वाले ख्याति का "अंक शिवसौख्य काव्य" है । मन को सिंहासन बनाने वाले, काव्य के अनुभव को धनत्व के सिध्दांत के ओर खींचने वाला काव्य है। समझना ही ज्ञान है ज्ञान के द्वारा देखना ही दर्शन है दर्शन के द्वारा परम को समझना ही आचरण है कहना ही रत्नत्रय ( जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष साधन के तीन तत्व, सम्यग दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग आचरण) है। नवशुध्द चारित्र, नवयोग शक्ति, नव शुध्द दर्शन योग, नवमांक अद्वैत योग, आदि की साधना इस काव्य से संभव है। सिध्द को नमस्कार करते हुए चलने वाले योग से लोकाग्रक पर पहुँचने वाले योगी को कहते हुए, गुरुओं के द्वारा आचरण की रीति ही देश के आचरण को दर्शाती है, ऐसा वर्णित करते हैं । कवि कुमुदेन्दु अहितकर काढे (क्रोध, माया, मोह) को निर्मूल करने की रीति का वर्णन करते हुए सिध्द बनने के लिए आयोग केवली बनने के लिए काढे का वियोग होना है । उसके लिए इस गहरे संसार का नाश और देह वर्जना होना है ऐसा निरूपित करते हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र(आचरण) इन तीन स्पर्श मणी के छूते ही मर्कट मानव बना। नवपद धर्म का गणित, नवमांक गणित, नवपद योग के द्वारा स्वद्रव्य को समझने वाला भवभय नाशक बनता है। अवतार लेने वाला घने अंधकार को दूर करने वाला होता है। वह निरन्जन पद वाला बनता है(परमात्मा, निर्दोष) । ऐसे निरंजन पद वाला विशाल साम्राज्य के पर्वत पर स्थित होता है इस कारण कवि की कल्पना को प्राप्त नहीं होता। ऐसा व्यक्ति नौ का भाग करता है, भवसागर को दो से गुणा करता है, नवकार जप में रह कर नव स्वरों को मिलाता है, ऐसी उक्ति की गूढार्थ की व्याख्या होनी बाकि है। 148 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =(सिरि भूवलय - सम्यक चरित्र से आत्मा को संसार से दूर कर अर्हन्त सिध्द के मन में आने वाला स्वयं सिध्द की पदवी को प्राप्त होता है। इस भूवलय को कहने वाला “अर्हन्त” है। यह अध्यात्म भूवलय, शेष को समाप्त करने वाला काव्य सिध्द संपद काव्य, जिनभक्तों के द्वारा भजन करने वाला निर्मल काव्य, अष्ट कर्मों को निर्मूल करने वाला वैभव काव्य है, इळे (धरती) की रक्षा करने वाला, अभिवृधिद होने वाला तहों को खोलने के सादृश्य, छिले हुए केले सा मुलायम, स्पष्ट सरलांकों द्वारा बना हुआ, कोयल की ध्वनि जैसा, कन्या की आवाज़ के समान धरती के अंधकार को दूर करने वाला, अर्हन्त के सामीप्य को दिलाने वाला, व्रत वाला दिगंबर काव्य है। 'कर्माटक का कथन' अर्थात कन्नड भाषा में रचित ३६३ धर्मों को महत्त्व देने वाला काव्य है। यह काव्य एक व्यक्ति की अज्ञानता को दूर करता हुआ, उसे अध्यात्म की ओर, विनय से, स्थिर रूप से, खींचने वाला काव्य है। ७२९० घन अंक १५०६६ आनंद, १८७००न दिखने वाले ४४ अंक इस प्रकार तीन प्रकार के काव्यों से बना हुआ यह 'अक्षर' काव्य ही आदि जिनेन्द्र का भूवलय है। चुतर्थ “इ” अध्याय इस अध्याय में काव्य बंध, गुरु परंपरा, रस, स्वर्ण आदि लौह को शुध्दिकरण के विषय में विवरण दिया गया है। यह यशस्वी देवी के साथी वृषभ देव का काव्य है अशरीर सिध्दत्व के उत्पन्न होने का काव्य है । यह नवमांक बंधन में है। इसमें चक्र बंध, हंस बंध शुध्दाक्षर का अंक रक्षा का आवरण है। सरस शलाका की श्रेणी अंक, क्रोंच, मयूर कामन, पदपद्म, नख, चक्र, कामन गणित, सरमग्गी कोष्ठक(गुणन सूची, पहाडा) वाला अध्यात्म बंध नवपद्म बंध आदि का उल्लेख है। ____ यह तन को आकाश तक पहुँचा कर स्थिर करने वाला घन वैमानिक काव्य है। पनस पुष्प का काव्य, विश्वम्भर काव्य, जिनरूप का भद्र काव्य, आदि अंत को मिटा कर भव्य जीवों को जिन रूप में पहुँचाने वाला काव्य रणकहळेय कूगन्नु इल्लवागिप काव्य (युध्द की आवाज़ को मिटाने वाला काव्य) कहकर काव्य प्रयोजनों में कहा गया है। इस संदर्भ में आने वाले रथ को खींचने वाले मार्ग में आने वाले 149 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अंकों की रक्षा, अनार के फलों के रस को मिला कर बनाने वाला दिव्य रोग नाशक, मार्ग के पुष्प, मन्मथ की हथेली में रहने वाला केवडा का रस, पुष्प का दिव्य योग, साराग्नि पुट दिव्य योग, आदि विचारों को कुतूहलकारी सेरद मनसन्नु पाद रसदल्ली कट्टी (मन को पारे में बाँध कर ) सौ सजार पुष्पों के रस को मिलाने से भूवलय सिध्द होता है। इस भूवलय में ७१८ सरस भाषाएँ जन्म लेती है। पंचम “ई” अध्याय पंचपरमेष्ठि में कहे गए समस्त ज्ञान को जौ के दाने के बराबर क्षेत्र में समाहित कर उसमें नवमांकों की मिठास सी इस भूवलय की रचना है। यहाँ अनेक “नवमों” का उल्लेख है उदाहरण स्वरूपः पावनपरिशुध्दनवम, साविरलक्षांक नवम, पावन सूच्यग्र, दावानल कर्मा नवम, विद्या साधन नवम, ऋवागमवर्ष नवम आदि । इसी तरह अनेक अंकों को भी नाम दिया गया है जैसे नवपद निर्मलांक, केवल लब्धी अंक, मूरूमूर्लोम्बत्तंक, शुध्द कर्माटकदंक, प्राकृत लिपि अंक, रसद संस्कृत द्रव्य अम्क, द्राविड, आन्ध्रा, महाराष्ट्र, मळेयाळ, दंक आदि इन अंकों को देशवारू ( देशों के नाम ) सूची में भी दिया गया है। रिसिय गुर्जर देश, रस सिध्दि अंग यशद कलिंग, रसद काश्मीर, ऋषिय काम्भोज, पसनद हम्मीर, यश शौर सेनी, तेबती, वेंगीपळु, वंग देश, वैदर्भ, वैशाली, सौराष्ट्र, लाट, गवुड, मगध, विहार, उत्त्कल, कन्याकुब्ज, वराह, वैश्रवण, बनबासी आदि। ब्राह्मी, खरोष्ठि, निरोष्ठ, अपभ्रंश, पैशाची, अर्ध, मागधी, आदि भाषा लिपियों के भी यहाँ नाम है । १८ लिपि के अलग न किये जाने वाले नौ अंक कहने के पश्चात कुछ और लिपियों के नाम लिए गए हैं जैसे हंस लिपि, भूत लिपि, मीरूक्षिय, लिपि (?) राक्षसी लिपि, उहिया लिपि,(?)यवनानिय लिपि, तुर्की लिपि द्रमिल लिपि, सैन्धव लिपि, मालव लिपि, किरिय लिपि, देवनागरी लिपि, लाड लिपि, पारशी लिपि, आमित्रक लिपि, इत्यादि। इस संदर्भ में उल्लेखित पुट्ट, भाषाओं (लघु भाषाओं) की ७०० अंक, बोलचाल के ठोस लिपियों के न होने वाले अंक, जन्मित अक्षर भाषा को समझने वाला, न जन्मित लिपि अंक इत्यादि कथनों के अर्थ हमारी समझ के बाहर है। इस भूवलय का सवभाषामयी कथन अपूर्व होने पर भी उसकी व्याख्या के लिए संपूर्ण काव्य को पढना आवश्यक है। 150 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय १८ लिपि- भाषायें इस काव्य में समाहित है , कहा जाता है। इस भूवलय में ब्राह्मी प्रथम लिपि अंक, यवनांक दूसरा, मरळिद दोष उपरिका तीसरा, वराटिका चौथा जीवरसापिका लिपि पाँचवाँ, प्रभारात्रिका छठवाँ, उच्चतारिका सातवाँ, पुस्तिकाक्षर, आठवा, भोगयवत्ता नवा, वेदनतिका दसवा, निन्हतिका ग्यारहवाँ, सरमाले अंक बारहवा, परमगणित तेरहवाँ, गांधर्व चौदहवा, आदर्श पंद्रहवा, महेश्वरी सोलहवाँ, दामा सत्रहवाँ, और बोलिदि अठठारहवाँ है। इन सभी लिपियों को अंकों को लिखा जा सकता है, उच्चारित किया जा सकता है, कहा गया गया है। ये सभी सरस अंकाक्षर लिपि हैं। यशस्वती देवी की छोटी बहन सुनंदा के बेटे बाहुबली/कामदेव, के त्याग सिध्दि को इस भूवलय में देखा जा सकता है । यह ७०० अक्षर भाषाओं को समझने में सहायक चाक्क कन्नड भूवलय; इसको बाहुबली और उनकी बड़ी बहन ब्राह्मी जानते थे । इसमें ६४ अक्षरों के नवमांक शून्य पध्दति हैं। यह एक सरमग्गी को क (गुणन सूची, पहाडा) काव्य है । षष्टम् “ ही" अध्याय ___ यशस्वती देवी की बेटी ब्राह्मी ने समझ कर ७०० से भी अधिक, पशु देव नारक, भाषाओं को समाहित काव्य यह भूवलय है । द्वैत-अद्वैत और अनेकांतों को हितकर रूप से सिध्द करने का कार्य इस काव्य से चल रहा है। यह नाळे काणिसुवा अद्वैतद (कल दिखने वाला) काव्य है। हनुमंत जिन का केलसांक, मुनिसुव्रतर अंक, वर्धमानांक, वाली मुनियों का गिरियांक, शुध्द रामायणदंक, कवि वाल्मिकि का महाव्रतदंक, विषहर नील कंठांक इस प्रकार वैदिक जैन देवताओं, कवियों, के नाम का उपयोग किया गया है। इससे हरिहर जिनधर्म का अर्थ भी प्राप्त होता है ऐसा कथन भी यहाँ है। सप्तम् “उ” अध्याय यशस्वती देवी और सनंदा के पति रस ऋषि ऋषभ नाथ तीर्थंकर, २४ जिन तीर्थंकरों के अंकों और उनसे संबंधित कुछ विचारों की सूची इस विषहर काव्य भूवलय में निरूपित हुआ है। उदाहरण के लिए असमान सिध्द सिध्दांक, कुसुमायुधन गेल्दंक, असदृश्याजित नाथंक तथा अलग-अलग रीतियों में तीर्थंकरों, जिनों, सिध्द Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय साधुओं, के विषय में उल्लेख करते हुए उनके नामों को विशेषण से मिले अंकों को कवि सूची बना कर प्रस्तुत करते हैं। सिध्द रस को तैयार करने में आवश्यक तीन का पहाड़ों का एक हिसाबकिताब देकर उस रस से प्राप्त प्रयोजन के देते हैं । जैसे, वह रस आशाओं की पूर्ति करता है राशी कर्मों को न करता है, राशी ज्ञान को प्राप्त कराता है, औषध रूप बन कर रहता है। यह भूवलय गुरु गौतम से प्रणीत ( बनाया हुआ ) होकर भक्तों द्वारा प्रवाहित हुआ आगम (वेद शास्त्र) है रस सिध्दि के लिए कारण बनने वाला आवश्यक अशोक, न्यग्रोध, सप्त प्रणांक शाल, सदल प्रियंगु, शिरीष, श्री नाग, अक्ष, धुलियवण, पलाश, पाटल, नेरिल, दधीपर्ण, नंदी, तिलक, बिली मावु (सफ़ेद आम), कंकेली, संपगे, बकुल, सळरस, मेषश्रृंग, यशधूल, धवशाल, वरदेरस, आदि २४ पुष्ट जाति के पेड-पौधों वृक्षों के नामों का उल्लेख किया गया है। आर्युवेद के “पुष्प रस” सिध्दांत में इन वृक्षों के विषय में विवरण प्राप्त हो सकता है। सिध्द को नमस्कार करते हुए चलने वाले योग से लोकाग्रक पर पहुँचने वाले योगी को कहते हुए, गुरुओं के द्वारा आचरण की रीति ही देश के आचरण को दर्शाती है, ऐसा वर्णित करते हैं । कवि कुमुदेन्दु अहितकर काढे (क्रोध, माया, मोह) को निर्मूल करने की रीति का वर्णन करते हुए सिध्द बनने के लिए आयोग केवली बनने के लिए काढे का वियोग होना है । उसके लिए इस गहरे संसार का नाश और देह वर्जना होना है ऐसा निरूपित करते हैं । ह्रस्व, दीर्घ, प्लुतों से बने हुए स्वर वर्ण २५, ८ अवर्गीय व्यंजनों, साथ में ४ योगवाहों, इस प्रकार कुल मिला कर अक्षरों के हिसाब को " अ महप्रातिहार्य” कहकर संबोधित किया गया है। इस " अ महाप्रातिहार्य " मे एक हुए सिंह के स्वरूप को नाल्मुगद सिंह (चार चेहरे वाला सिंह) कहकर वर्णित किया गया है। “यापनीय संघ" का भी उल्लेख मिलता है । 66 अष्टम् “ ऊ” अध्याय यह अध्याय तीर्थंकरों के वाहन, सिहों के आकार, स्वरूप पर प्रकाश डालता है। आदि नाथ के लिए ५००, नव धनु की ऊँचाई, अजित नाथ के लिए ४५०, 152 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय शंभव नाथ के लिए ४००, अभिनंदन के लिए ३५०, सुमति नाथ के लिए ३००, शीतल नाथ के लिए ९०, श्रेयांस के लिए ८०, विमल नाथ के लिए६०, अनंत नाथ के लिए ५०, धर्म नाथ के लिए ४५, कुंथु नाथ के लिए ३५, मल्लिनाथ के लिए २५, नमीनाथ के लिए १५, नेमिनाथ के लिए १०, पार्श्व नाथ के लिए ०९, महावीर के लिए ०७, इस प्रकार्बिल्लु (धनुष) की ऊँचाई को कहा गया है। कुछ तीर्थंकरों के नाम लिए जाने पर भी उनके कम संख्या को कह ऊँचाई के प्रमाण को सूचित करते हैं। यह जैन संप्रदाय में आने वाले जिनों की मूर्तियों की ऊँचाई को निर्धारित करता हुआ बिल्लिन (धनुष ) गणित का एक नाप है। उन तीर्थंकरों के सिंह वाहनों के रंग इस प्रकार है उदाहरण के लिए पुष्प दंत के लिए कुंद पुष्प के रंग का सिंह शरीर वाहन, पार्श्व/सुपार्श्व हरित वर्ण का सिंह वाहन, सुव्रत के लिए हरवर्ण, नेमी नाथ, पदप्रभ, वासु पूज्य के लिए लाल वर्ण । ये सिंह वाहन भरत चक्रांक, भरत खंड का शुभ चिन्ह बना हुआ है। इन सिंह वाहनों की आयु का प्रमाण इस प्रकार है महावीर के सिंह वाहन के लिए समवसरण में १० वर्ष की आयु, पार्श्व नाथ के सिंह वाहन की आयु ६९ वर्ष ८ महीने, नेमी नाथ के सिंह वाहन की आयु ५६ दिन कम ७०० साल के लिए, नमी नाथ सिंह वाहन की आयु ९ वर्ष कम २५०० वर्षों के लिए, मल्लि नाथ के सिंह वाहन की आयु ७५०० वर्ष। इन सिंह वाहनों के आकार को " गणितांक राशि” से तुलना कर सूची को दिया गया है। इस नाल्मुगद सिंहों की रक्षा करने वाले यक्ष-यक्षिणियों, ज्वालामालिनी, कूष्माडिनी, पद्मावती, सिध्दायिके, इत्यादि का वर्णन है। देवदेवन के ये यक्ष-यक्षिणियाँ नीम के फूल को इत्तवरु ( रखने वाले) कमल के फूल के रस से इस विश्व रस को रक्षा करने वाले, जीव कोटियों की रक्षा करने वाले, श्री वीर वाणी के सेवक हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्र(आचरण) इन तीन स्पर्श मणी के छूते ही मर्कट मानव बना। नवपद धर्म का गणित, नवमांक गणित, नवपद योग के द्वार स्वद्रव्य को समझने वाला भवभय नाशक बनता है। इस भूवलय के पाप को नाश करने वाला अ मंगल पदार्थों से बना हुआ प्राभृत पद परमात्मा के चरण कमलों येन्टक्षर (आठ अक्षर) लिखा हुआ "पाहुड ग्रंथ” है। यहाँ अमोध वर्ष का राज्य सारस्वत” है, ऐसा उल्लेख है । डा. के. आर. गणेश 66 153 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ग्रंथ प्रशस्ति दरुशनशक्ति ज्ञानद शक्ति चारित्र वेरसिद रत्नत्रयव बरेयबारदु बरेदरु ओद बारद सिरिय सिद्धत्व भूवलय ।। यारे जपिसिदर सत्फलवीव सारतरात्मकग्रंथ नूरु साविर लक्ष कोटिय श्लोकांक सारवागिसिद भूवलय ।। मेरुव बलक्कि तिरुगुत नेलसिर्प भूरि वैभवयुत्तराद सारद बैळक बीरुव चंद्रसूर्यरु धारुणियोळु तोर्प वरेगे ॥ नीलांबरदोळु होळेयुव नक्षत्र मालिन्यवागदा वरेगे शीलव्रतंगळोळु बाळ्दु जनरेल्ल कालन जयिसले निसलि ॥ सिव पार्वतीशन गणितद श्रीकंठ दवनिय ताळेयोलेगळ सुविशालपत्रदक्षरद भूवलयके सविस्तरकाव्यकेन्न नमनवु ॥ तनुवनाकाशके हारिसि निलिसुव घनवैमानिक दिव्य काव्य पनसपुष्पद काव्य विश्वभरकाव्य जिनरूपिन भद्रकाव्य ॥ 154 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय ननेकोनेवोगिसि भव्यजीवरनेल्ल जिनरूपिगैदिप काव्य रणकहळेय कूगनिल्लवागिप काव्य दनुभवखेचर काव्य ॥ अर्थात् :- न लिखा जा सके और यदि लिखा गया भी तो न पढा जा सके दर्शनशक्ति ज्ञान शक्ति के सार से भरित अंकों में लिखित सिरिभूवलय ऐसा एक ग्रंथ है। जो जितना इस का जप कर सकता है उसे उतना फल प्राप्त होगा । यह सौ हजार लाख करोड श्लोकों से भरित सार गर्भित ग्रंथ है । सूरज और चाँद के चमकने तक घनवाद उपदेश देने वाला ग्रंथ है । नीले आकाश में नक्षत्रों के मालिन्य होने तक जन सामान्य को ज्ञान देने वाला ग्रंथ है। शिव पार्वती की महिमा को गणित के द्वारा ताड पत्र पर विवरित करने वाला ग्रंथ है। मानव शरीर को आकाश में उडने के लिए संभव बनाने वाला विमान शास्त्र का विवरण करने वाला महाग्रंथ है। भव्य जीवियों के लिए जिन रूप को शांति से परिचय देने वाला ग्रंथ यही सिरि भूवलय है। 155 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ४ ५ ६ sw9 ७ vada a ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ 12345 ON RATE OF 2 2 2 2 2 2 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 4444444A AA, 8A / भल् ला लैस झ झ घच्कच्कच्च छ आ ओ और और औ औ औं A ĀĀ ÃÃÃ E EE EEE U UO UOO R RU ROO L LU LOO 8 °° ° ≤ ± mm EEÃ Al Alll Õ 000 OU QUU ᄌ은 OUUU K KH सिरि भूवलय GH NG 156 ३३ ミン ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ 28228 £ £ £ £ £ 8 8 8 8 8 8 33 च् CH 34 35 36 37 38 40 41 42 43 44 45 46 47 48 50 52 53 54 55 56 57 59 60 61 ́ ́ ́ toto ho ho bhab z ≠ है _ _ 8 z ≠ ≠ z # z a £> > ___ = ≤ ± ¥ ¥ 64 ० 11.4,५. ::: CHH J JH NY T TTH D DDH N TH THH DH DHH N P PH B BH M Y R L V SH SHH S H AM AH AK PHK परिकल्पना : पुस्तक शक्ति Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय - ६४ ध्वनियाँ स्वर -अ, इ, उ, ऋ, ळ, ए, ऐ, ओ, औ, इस प्रकार ह्रस्व रूप। इसी प्रकार दीर्घ और प्लुत नाम के तीन रूप के साथ २७ स्वर जैसे १-अ, २-आ, ३-आ (आ अर्थात आ में ही आ की मात्रा) इसी प्रकार ४-इ, ५-ई, ६-ही, क्रमशः (ड़ी अर्थात ई में ही ई की मात्रा) ७,८,९,- उ ऊ कू, (कू अर्थात ऊ में ऊ की मात्रा) १०,११,१२,- ऋ, ऋ, ऋा, १३,१४,१५- ळ, लू ळू,• १६,१७,१८ - ए, ए, एा, (ए। तथा एा अर्थात ए में ही क्रमशः १ बार ए की मात्रा तथा २ बार ए की मात्रा) १९,२०,२१- ऐ ऐ, गो, (ऐ तथा ऐा, अर्थात ऐ ही में क्रमशः १ बार ऐ की मात्रा तथा २ बार ऐ की मात्रा) २२,२३,२४,- ओ ओ, ओ, (ो तथा ओौ अर्थात क्रमशः ओ ही में १ बार ओ की मात्रा तथा २ बार ओ की मात्रा) २५,२६,२७-औ, औ, औौ (ौ तथा में १ बार औ की मात्रा तथा २ बार औौ अर्थात क्रमशः औ ही औ की मात्रा) विशेष – यह अक्षर संस्कृत, प्राकृत तथा हिन्दी में प्रचलन में नहीं है परन्तु कन्नड और मराठी भाषा में आज भी प्रचलन में है इसका उच्चारण स्थान जिह्वा से तालू का स्पर्श है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय वर्गीय-क,च,त,ट,प, वर्ग के २५ अर्धाक्षर (अर्थात २८-क २९-ख, ३०ग् क्रमेण) अवर्गीय-य ,र ,ल ,व, श, ष, स, ह वर्ग के आठ अर्धाक्षर (अर्थात ५३य,५४-र् क्रमेण) योगवाह- बिन्दु-०, विसर्ग-:, उपध्मानीय-. (इक)• तथा जिह्वामूलीय::(फ़क). विशेष-• यह चिन्ह तमिल में बिन्दु का स्थान ग्रहण करता है। .. यह फारसी भाषा में उपयोग किया जाता है (यह कथन पूर्णतया स्पष्ट नहीं है) 158 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय) ४ चक्र श्लोक अक्षर संख्या १२५ १४३४६ १५५ १४४०९ १० १७४ १७८५६ १० १८५ १८२१६ ११ २०१ २००२५ १२ २०६ २०७३६ २१३ २११५० १२ २५६ २५७०४ ८ अध्यायों ८५ १५१५ । १५२४४२ ३३ अध्यायों ४६८ ९६२५ ९६०३३६ १२७० १४००००० ५६ अध्यायों ६००००० संकेत चिन्ह आगे के पृष्ठों में पहले आठ अध्यायों के चक्र, और श्लोकों को दिया गया है। पहले अध्याय को चक्र बंध में खोलने पर प्रकट हुए श्लोकों को दिया गया है । दूसरे अध्याय से आठवें अध्याय तक नवमांक बंध में खोलने पर प्रकट हुए श्लोकों को दिया गया है । इन अध्यायों में प्रत्येक चक्र के उप चक्रों को नीचे दिये गए अनुक्रम के अनुसार पढना है। २.३ ४ ५ ३.२ ३ ४ ४.९ २ ३ .. ५.८ ९ २ ६.७ ८ ९ ७.६ ७ ८ ८.५ ६ ७ २ १६ ९१ ५ ८१ ४ ७ १ ३ ६ १ २ ५ १ ९ ४ १८ ९ ८ ७ ८ ७ ६ ७ ६ ५ ६ ५ ४ ५ ४ ३ ४ ३ २ ३ २ ९ कन्नड वर्ण माला के ह्रस्व “ए” और ह्रस्व "ओ" अक्षरों को संस्कृत वर्णमाला के क्रमानुसार दीर्घ “ऐ” और दीर्घ “आ” अक्षर के रूप में पढा गया है। १९५३ के परिष्करण में और २००३ के परिष्करण में जहाँ-तहाँ पठ्य को पढने की रीति में अंतर है। बेरळच्चु (टाइप) किये गए पठ्य को आधार मानने के कारण यह अंतर आया होगा। उन जगहों पर मूल प्रति के चक्रों को परीशीलन कर एक हद तक सुधारा गया है। ग्रंथ का पाठ करने वाले ग्रंथ पढने के क्रमानुसार ठीक पठ्य को पहचाने, ऐसा सूचित किया जाता है। परिकल्पना : पुस्तक शक्ति 159 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय) अध्याय-1 Chakra 1.1.1 59 23 1 16 1 28 28 1 1 56 59 4 56 1 1 47 16 34 1 7 16 1 1 7 56 160 53 54 47 28 1 47 45_28 74 59 41 4 4513047 47 45 42 53 28 51 1 52 1 1 1 22 1 30 2 1 2 55 30 1 7 45 47 52 1 4 1 47 1 1 1 1 53 1 52 59 52 (5) 59 302 55 55 13 16 2 53 60 14 16 47 48 45165656 43 45 156 1 4 1 13 47 45 1 1 22 30 51 1 2 56_38 30 4 1 1 56 1 1 16 1 57 7 56 56 1 22 1 54_52 52 45 1 7 55_48 1 58 52_35_28 55 1 38 45 30 55_4_47 7 45_38 45_38 1 1 1 1 28 13 56 55_51 54 1 1 1 1 42 2 4 4 1 43 16 47 7 1 13 4 51 4 28 5347 22 8 1 53 59 38 7 43 40 1 52 59 5430 145 16 1 28 2350 7 43 43 1 2 45_51 30 1 52 58 48 59 47 54 4 4 1 47 45 47 5628 1 45 1 13 7 77 55 1 53 47 56 1 1 7 1 1 2 60 48 56 1 1 16 1 1 54 1 52 17 30 54 45 45 59 56_52 1 45 1 55_28_52 28 1 2 1 52 54_4_43 60 48 28 1 16 23_8_53 7 1 2 1 53_52_43 23 2 4 16 52_44 54 1 2 42 1 1 7 47 30 28_48 47 1 54 52 16 45_54 23 4 28 45 45 30 1 59 1 56 28 2 54 53_38 2 2 1 28 55 4060 450 28 2 13 47 1 1 4 17 45 1 56 1 52 56 51 1 47 55 55_45 7 2 54 1 56 7 1 1 23 4 53 54 59 48 13 56 1 47 23 1 2 55 16 1 1 47 40 54_16_52 1 47 60 43 60 45 1643 1747 1 7 1 4 54 54 143 28 28 7 1 2 7 52 30 1447 4 13 42 154 13 1 28 1 45 42 5 48 56 1 1 1 52 54 7 1 1 2 5656 243 1 1 (6) 5643 22 45_56_43 2 2 56 1 8 48 59 59 7 16 53 55_53_48 1 1 46 2 30 53 1 47 45 1 2 54 56 562 55 51 4 16 7 13 30 16 1 1 4 52 52 4 5447 2 38 1 1 5460 56 54 1 60 1 1 1640 38 17 1 47 56_33 55 1 1 59 48 1 53 7 1 1 1 52 16160130_5330747 13 13 22 8 13 4559 54 1 242 54 47 5352 53 16 30 1 4 52 47 56 1 28 16 1 22 59 51 1 1 7 28 53 60 7 1 16 16 1 158 (3) 4 53 56 1 52 2 13 52_38 30 45 7 1 30 56 16 1 1 1 30 48 56 54 1 47 47 1 28 22 1 47 1 1 45 46 1 1 47 53_55_52 1 1 7 432 1 1 143 1 4 53 1 45 43 16 5552 4 47 55_45 22 51 56 1 38 13 30 2 28 56 13 56 28 55 4_16_46 1 1 16 1 1 1 1 1 47 59 4 8 38_58 1 1 48 1 1 22 1 1 160 52_4_30_56_53_52 54 1 30 52 1 16 54 7 58 1 30 54 1 56 51 53 56 57 56_4_60 160 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Chakra 1.1.2 30 45 8 11 40 43 46 1 7 52 16 47 52 58 30 28 43 7 18 55 1 53 53 51 59 53 1 38 42 47 1 1 43 54 43 28 56 16 1 4 1 1 1 52 28 1 30 1 2 (13) 1 45 53 54 45 46 60 1 7 28 4 55 1 16 1 2 42 43 1 2 22 35 53 60 1 1 (17) (19) 53 1 1 28 53 28 4 1 2 52 54 45 59 52 2 45 1 1 4 1 47 4 13 45 45 2 55 1 53 30 45 (10) 56 30 1 1 4 47 35 45 4 56 47 7 23 55 48 4 59 1 54 47 53 2 56 1 1 1 1 60 1 52 16 1 57 8 55 56 55 55 2 60 1 7 56 30 4 1 4 45 1 1 56 1 4 1 30 53 28 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ल द्य् इ न् अ ल उ इ ऊ ग् अ क अ अ उ द् त् र् न् इ र इ ए उ म श् अ अ स् द न त् व न स् ए अ अ उ अ म् स् व ल् अ द् र् य म म् अ उ स् अ इ अ अ आ अ अ व् र् द् ए इ व् ऊ अ अ क र् उ अ अ ब अ अ क अ . अ न ह व त् स् ए उ अ आ य् अ अ श म् द् ध व् द् व व न र् ल् औ ड् इ र् प इ व् व त् उ अ त् द् द् अ र् अ न् अ ख ध् अ अ क ओ क् म् ह न् अ ह न अ इ उ अ र औी अ म् न् न स् ग् क य् आ त् अ अ ळ् उ ब् अ गौ ड् अ आ त् ह भ् व अ ब औी उ.न् क ग् ई अ अ अ न् आ अ अ अ भ् अ द् द् ए त् ल् उ अ अ उ व अ ळ द् अ अ ल् अ ल् न् त् र् अ व ग अ त् ड उ न् उ क भ् त् न क अ त् अ ए औ म् अ र ल अ अ अ अ उ आ न उ म् अ ए अ पो अ इ ग् ऊ त् ए ग् ब अ ब द् व् अ य अ द् अ न द ग ह ऊ व् ह व् द् न गौ अ ड् न र् ए त् ळ् अ अ अ द् आ व आ अ अ इ अ अ र उ अ अ आ ग् व् स् अ आ अ ड् उ अ त् ब स अ ण् अ व् अ इ य अ त उ ह द् र् र अ अ अ ल् ल् क उ फ् स् अ अ व प अ क अ द् अ अ व ह भ अ इ अ एा अ त् व अ र् उ अ इ इ र् ळ अ र म आ य इ अ भ् उ अ अ द न् म् ळ व् उ इ य अ भ् व् य ह अ स् स् आ ५ र अ म् अ ल् ऐ ओ न् ग् न् न् इ न् ए न उ न् ए ह उ अ भ् न् अ ी अ अ व न् अ अ उ ल् अ अ अ ऊ म्म् ए र आ र् भ र् अ म् अ अ व द् अ व अ प् अ न् अ द् अ आ ट् द् ट अ त् ग् म् त ग् ड् उ र् र् अ अ उ म् अ प अ अ उ ग् आ म् लकलhe र् अ उ व औ द् म् । न । ए अ ए द् । अ । अ ग अ र आ व अ अ ह न् ऊ भ अ त् व अ त् न् र ऊ क ओ र अ न् स् अ औ र् अ द् व अ ह ल VEERPFtub ups लल 16 16-लक norter 18 4.44A,24 : 5 và E5 P: E 1516कल | 177 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ -(सिरि भूवलय कुमुदेन्दु विरचित सिरि भूवलय प्रथम खंड - मंगल प्राभृत प्रथम "अ" अध्याय अष्ट महापातिहाय् वयभवदिन्द् । अष्टगुणन्गळोळ ओ*मदम् । सृष्टिगे मन्गल पर्यायदिनित्त् । अष्टम जिनगेरगुवेनु टवणेय कोलु पुस्तक पिन्छ् पात्रेय । अवतारदा कमन्डलद || नवका र मन्त्रसिद्धिगे कारणवेन्दु। भूवलयदोळुपेळ्द महिमा टवणेयोळक्षर दन्कव स्थापिसि । दवयववदे महाव्रतवु ।। अवर वरिगे तक्क शक्तिगे वरवाद । नवमन्गलद भूवलय विहवाणि ओम्कारदतिशय विहनिन्न महावीरवाणि एन्देनुव ।। म्*हिमेय मन्गल प्रातवेन्नुव महसिद्ध् काव्य् भूवलय हकवु द्विसम्योगदोळगे इप्पतुएन्टु प्रकअदोळ् अरवत्तम् कूडे ।। सकलान्कदोळु बि*ट्ट सोन्नेये एन्ट्एन्टु । सकलागम् ऐळु भन्ग कमलगळेळु मुन्दकेपोगुतिर्दाग। क्रमदोळगेरेडुकाल्न्नू रु ।। तमलान् क ऐदुसोन्नेयु आरु एरडयदु । कमलदगन्ध भूवलय ममहरुदयदोळा कमलगळ् चलिपाग । विमलानक गेलिवन्दव्अदु*॥ समवनु बेसदोळु भागिसे सोन्नेय । क्रमविह काव्य भूवलय मविरुद्ध सिद्धान्तवनु महाव्रतकेन्दु । नवपदवणुव्रतकेन्दु ।। स वियागिसि प्रउढ मूढरीर्वरिग् ओम्दे । नेवपद भक्ति भूवलय वियलिय मलमूढ दम्सणुत्तलिया । जयपरीषहव् इप्पत् एरडम् ।। नयम् आर्गदिन्द गेल्दवर सद्वम्शद्। स्वयसिद्ध् काव्य भूवलय यल यल दिक्कुगळ् हत्तनुबट्टेय । नलविनिम् धरिसिर्द मुनियु* ॥ सलुव दिगम्बरनेन्तेन्दु केळुव । बलिदन्क् काव्य भूवलय कलियन्ककाव्य भूवलय ॥११।। बलशालिगळ भूवलय कळेयदपुण्य भूवलय ।।१३।। गेलवेरिसुव भूवलय विलयगेयदघद भूवलय जलजधवलद भूवलय सलुवप्रमाण भूवलय सलेसिद्धधवल भूवलय ||३|| ||४|| ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ||८|| ॥९॥ ॥१०॥ ॥१२॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ 178 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२५॥ ||२९|| (सिरि भूवलय) लावण्यदन्ग मेय्याद गोम्टदेव। आवाग तन्न अणिगे।। ईवाग चक र बन्धद कटिनोळ्कटि। दाविश्व काव्य भूवलय। णिजद हत्तनु आत्म धरम्वागिसिकोन्ड। भजकर्गे श्रीविन्ध्यगिरिय। निजत् ववेळ दवन्नित्त। विजयधवलद भूवलय ट्क् किनिसिल्लदा हत्तनु निजदिन्दा तक्कजनके पेल्दमहिम।। सिक् करु सम्*सार सागरदोळ्गेम्ब। चोक् क कर्नाटक वलय टिदि अणुभाग बन्धदे प्रदेशवहोक् कु।विदियादि हदिनाल्क होन्दि। अनल्लिनि* धियागि शिवसौख्य होन्दिद। पदवे मन्गल कर्नाटकवु यशस्वतिदेविय मगळाद ब्राम्हिगे। असमान कर्नाटकद।। रिसियु नित्*यवु अरवत्नाल्कक पर। होसेदअन्गय्य भूवलय रसद् ओम्कार भूवलय ॥२४॥ यशदेडगय्य भूवलय् रस मूरु गेरेय भूवलय ॥२६॥ रिसिरिद्धि यरवत्तनाल्कु ॥२७॥ - यशवुनाल्कारदु हत्तु ॥२८॥ रससिद्धिया हततु ओम्दु करुणेयम्बहिरन्ग साम्राज्यम्लमिय। अरहनु कर्नाटकद।। सिरिमात य्त्न दे ओम्दरिम् पेळिद।अरत्नाल्कन्क भूवलय. ज्यसिद्धियादि आ ओम्देअक् षर ब्रम्ह नयदोळग्अरवत्नाल्कु।। जयिनगें सम्य त्नदाकलेयतिशय । स्वयसिद्ध् भन्गभूवलय जाति जरा मरणवनु गुणाकार। दातिथ्य बरे भागहार। ख्यातिय भन्गदोलरिवम् विख्यात । पूतवु पुण्य भूवलय पदपद्मदोलगणन्काक्षर विज्ड़ान ।अदर गुणाकार मग्गि।। वदगि बन्दाध्*यानियरिविगे सिलुकिह ।सदवधिज्ड़ान भूवलय णवपददन्कदिम् गणिसलोम्बत्तम्। अवरन्कवनुलोम भन्ग।। दवतारव यत्नपूर्वक भागिसे। अवनिगे ऐळु भूवलय । ट्कद सम्योगदे भन्गवागिह हत्तु सकलान्क चकरेश्वरवु। अकलन्वाद हत्तन् कद ओ मुन्दे। प्रकट्द गुणकार बिन्दु टकवनु महावीरनन्तर्मुहूर्तदिम्। प्रकटिसे दिव्य वाणियलि।। सकलाक् परवति दिदिह गौतम। नकलन्क हन् एरडुअन्ग.. सर्वार् थसिद्धियेन्देनलु अक घरभन्ग। निर्वाहदोळगन्क भन्गम्।। सरवान्क यो गदोळ् अरत्नाल्कननेल्ल। निर्वहिसलु हत्तु भन्ग म्मवादा हत्तम् बळेसुव(कालदे) योगदे। निर्मलम् शुद्ध सिद्धान्त ।। धर्मव हरडुव आगि न जिनपाद । शर्मर सिद्ध भूवलय सागरद्वीपगळेल्व गणिसुव । श्रीगुरु ऐदवरन्क।। नागव नाकव नरकव मोक् षव ।साघन वागिसिद् अन्क राशियोळोम्दम् तेगेयलाराशियु । घाशियागदले तुबिरुव ।। श्री शानन् तद पद विह सम् ख् यात । दशोयनन्त सम्ख्यात दिशियोळु बन्द अनन्त सम्ख्यातद । वशदोळसम्ख्यातवदम् ।। रसकमलगळेळु का दिरिसिद दिव्य । रससिद्धि जलपद्मगन्ध.. ट्वणेयोळिरुवन् क दोळु कूडिद् अरवउ ।सवियन्क वेन्टेन्टवरोळ् ।। अवतिह श्रीपद्म* हदिनारु स्वपनद अवयवस्थलपद्मगन्ध.. ट्वणेयोळिरुवन्कदोळु कूडिद् एन्टेन्टु । अवनु मत्पुनह कूडिदरे ।। नवपद्मव्अद रिन्द बरुवन्क ऐळुम् । सविदरे बेट्टद पदम् .. ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ||३९।। ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ 179 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५२॥ ॥५२॥ ॥५४॥ ॥५६॥ ॥५८ समनाद् ई मूरु पद्मगळन्नेल्ल। ममह्दयद शुद्ध रसद।। गमकदोळ् अन्टिद अन्टद् अन्टम्*शिअमविल्लदे सोन्नेगेयदा यशद ध्यानाग्निम् पुटविडे रससिद्धि। वशवागुवुदु सत्य मणियु। रसमणिमो क् षदे कामदवहुदेम्ब। रससिद्धियन्क भूवलय लवमात्रवादरु दोषगळिल्द । नवमान्कदादि अर्हन्त ।। अवनेरडू कालन्नूरिद्दन्द । सविये भाविसि महापद्म त्रतरवादेरळ् आ पाद(गळ्न एल्ल) पद्मगौलु। बरुव अतितानागतद। वरवादोम्दु आ समयद *ट्पद। दरियिरि वरत्मानवनु थणथणवेन्नुव रसमणियौषध । गणितवम् नागर्जुननु।। क्षणदोळगरिदनु गुरुविन्द लातनु। गणिसुतलेन्टु कर्मवनु साधिसि केडिसुत सिद्धान्तमार्गद । ओदिनन्काक् षर विद्ये।। मोददहिम्सा लक्षण धर्मदिम् । अदिजिनेन्द्रर मतदिम् रागव गेलिदवरागपेळिददिवयम् । नागसम्पगेय हूवुगळम् । सागरदुपमान गुणितदच* रितेयिम् । भोगवयोगदोळ् कूडि सिद्धरसवमाडि हूवनु कोन्दिह । बुद्धियज्ङानव केडिसि।। शुद्धात्म नेलेइ ह सिद्धर लोकद । सिद्ध सिद्धान्त भूवलय द्रुशन माडलु सद्दर्शनवागि । परमात्म पादव गुणिसे । तिरुगिद कमलव* दलगळ कूडलु । बरलोमदु साविरददेन्टु अरुहन पदपद्म भन्ग परमन पदपद्मदन्ग गुरुपरम्परेयादि भन्ग सरसान्क हुट्टिद भन्ग गुरुगळ उपदेशदनग परिशुद्ध परमात्मनन्ग सरसद हन् एरडन्ग करुणेय मूरु हूवन्ग ॥६०॥ परिमळ रसवगेल्दन्ग सरसाक्षरऐळुभन्ग ॥६२॥ गुरुसेनगणदवरन्ग परमम्नगल काव्य भन्ग ध्रमध्वजवदरोळु केत्तिद चकर् । निर्मलदष्टु हूवुगळम् ।। स्वर्मन दलगळउवत्तोन्दु सोन्नेयु। धर्मद कालु लागळे आ पाटियन्कदोळ् ऐटु साविर कूडे। श्रीपादपद्म गन्धजल(दनगदल) |रूपि अरूपिया ओ मदरोळ् पेळुव। श्रीपद्धतिय भूवलय सिरिसिद्ध अरहन्त आचार्य पाठक । वरसर्वसाधु सद्धर्म ।। परमागमवदम् ।। बरेव चयत्यालय । दिरुव श्रीबिम्ब ओम्बत्तु करुणेयोम्बत् इप्पत्ऐळु ॥६८॥ सिरियोळ्नूरिपपत् ओमबत्म् बरुव महान्कगळारु ॥७०॥ अरुहनगुणव् एम्बत् ओम्दु एरडने कमलहन् एरडू ॥७२॥ करविडि देळन्क कुम्भ ॥५३॥ ॥५५॥ ||५७॥ ॥५९॥ ॥६ ॥ ||६३॥ ॥६४॥ ॥६५॥ ।६६। ६७। ॥६९।। ॥७१॥ ॥७३॥ 180 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) ॥७७॥ ॥७८ ॥७९॥ ||८०॥ ।।८।। ।।८२। ||८३॥ अरुहनवाणि ओम्बत् ।।७४॥ परिपूरण नवदन्क कुम्भ करग ॥७५।। सिरिसिद्धम् नमह ओम्हत्तु ॥७६॥ गणित राशियोळुत्पन्नवागिह।। बगेबगेयन्कदमरद । सोगसिनिम् मन्गलप्राका भद्रवु। बगेगेशुभदसउख् यकरवु धिषणर् एन्देने वृद्धमुनिगळ सम्पद । दिशेयोळु बह बालमुनिगे ।। वशवागद राशियतिशय हारदे । होसेदरे बन्दिह शिववु मनवुसिम्हासन तनवु चय्त्यालय। जिनबिम् बदन्ते नन् आत्म।।नेनुत अक्षय* वाद भावद्व्य गळिन्द घन्बन्द पुण्य भूवलय मरेतिह देहाभिमानदोळध्यात्म । सरमालेयोळु बन्धकरगे ॥ अरहन्त रूपिन* द्रव्यागमकाव्य । सिरियिर्प सिद्ध भूवलय मनदर्थियिन्द शरीरव तपिसिद । जिनरूपिनाशेय जनरु । घनकर्नाटकवेन्टनु गेलेमो म । दनुभव मन्गल काव्य दिशेयोलोम्बत्तर वशगोन्ड सूत्रान्क दसमान पाहुड काव्य ।। वशवाद नम्* मात्म स्वसमयवेन्नुव। कुसुमयनाशक काव्य सर्वार्थसिद्धिसम्पदद निर्मलकाव्य । धर्मवलौकिक गणित ॥ निर्मम बुद्धियन वलम्बिसिरुवर । धर्मानुयोगद वस्तु शर्मर निर्मल काव्य ॥८४॥ धर्म मूरारु मूरन्क धर्म समनवय काव्य ॥८६॥ निरममकार वक्यानक धर्म भाषेगळेन्टोन्द्ऐळु मर्म पश्चादानुपूर्वि धर्मसमन्वय गणित ।।९।। कर्मद अरिकेय गणित कर्मद सम्ख्यात गणित कर्मद असम्ख्यात गुणित कर्मदनन्तान्क गुणित कर्मदुत्क् रुष्टदनन्त कर्मसिद्धान्तद गणित ॥९६॥ निर्मलदध्यात्म बन्धम् सर्वस्व सार भूवलय ।।९८॥ धर्ममन्गल प्रातवु निर्मल शुद्ध कल्याणम् ||१००।। धर्मवय्भव भद्रसौख्य नवकार मन्त्रदोळादिय सिद्धान्त् । अवयव पूर्वेय ग्रन्थ। दवतारद् आदि म द्अक् षरमन्गल। नव अ अ अ अ अ अ अ अ अ अवरोळु अपुनरुक् तान्क अवु नोडलपुनरुक्त लिपि अवरोळगादियभन्ग ॥१०५|| सविएरळ मूनाल्कु भन्ग इवु ऐदारिळेन्टु भन्ग ।।१०७॥ सवोम्बत्तु हत्हन्ओम्दु ||८८॥ ॥८५॥ ।।८७॥ ॥८९॥ ॥९ ॥ ।।९२।। ॥९३|| ||९४|| ॥९५॥ ।।९७॥ ॥९९|| ||१०|| ॥१०२।। ।।१०३|| ॥१०४॥ ॥१०६।। ॥१०८॥ 181 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-सक्रमवर्ति सिरि भूवलय सविहन् एरड् हदिमूरु भन्ग अवु हदिनार् हदिनेछु अवु हत्ओम्बत्तु इप्पत्उ सवि नाल्कय्दारेळेन्ट्अन्ग्अ अवु हत् मुन्दे नलवत्तु अवु हत् ए अर्वत्तु भन्ग अवु हदिनाक् हदिनयदु नववेरड्ने हदिनेन्टु अवरमुनदओम्देरळ्मूरो नवमुन्देमूवत्तु भन्ग सवि हत्उ अय्वत्तु भन्ग सविय् ओम्एद्रडुमूर्नाकु सविय् अरवत्नालुकु भन्ग अवु अडगिहुदु अन्तरद ओळगे तुळियलु आरूवरे साविर मुन्दे । बळसिह अरवत्तोन्दु । तिळियन्क ओम्ब्अत्तर मूर्ह * रिमुन्दे ।। कळेये मन्गलद (बळसे) पाहुडवुम् श्री ९x९x९ = ६५६१=९ अ ६५५१+ अन्तर् ७७८५ = १४३४६=९ अवु क् ड्अल् अरवत्तनालकु अवरन्कवदुतोम्बत् एरडु अट्टविहकम्मवियलाणीट्टियकज्जा पणट्टसम्सारा दिट्टसयलत्थसारा सिद्धअसिद्धिम् ममदिसन्तु ||१|| 182 ॥१०९ ॥ ।। १११ ।। ।।११३ ॥ ।।११५॥ ।।११७ ॥ ।। ११९ ।। ।। १२१ ।। ।। १२३ ।। ॥११०॥ ।। ११२ ।। ।। ११४ ।। ।। ११६ ।। ।। ११८ ।। ॥१२०॥ ॥ १२२ ॥ ।। १२४ ।। ॥१२५॥ संस्कृत - अक्रमवर्ति ओकारम्बिन्दु सम्युक्तम् नित्य्यम् ध्यायन्तियोगिनह ॥ कामदम् मोक्षदम् चइवम् ओम्काराय नमम् नमः ||१|| Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Chakra 1.2.1 53 1 33 57 56 1 7 9 7 51 52 18 1 1 2 4 54 1 58 ---~ N 35 1 1 6 1 48 13 1 56 55 1 7 4 - 4 ༄ ྴཡྻ ུ་གླུ ག་- ཚོ་“ཚེ་ཆུ 28 : 8vན་ཧྥུ་༄ནྟཱིvུ་8: - v 8ཚི- - "➢v:8-, ལྷ 162 444-28 2 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-------------------------------------------------------------------------- ________________ =(सिरि भूवलय Chakra 1.2.4 544548-55_42 1 43 55_43594 45 1 47 51 1 1 54 3 1 1 1 43 28 517 43 (26) 4 43 55 56 45 1 4 43 1 56 7 2454 52 4556 1 74052 45 1 24 4 47 153 7 4 23 1 45 47 7 28 56 54_43 1 4 52 7 45 1 9 1 1 53 60 30 1 45 7 4 43425047 18 45 1 241 47 45537 154 4560 52 53 1 1356 1 555048 (25) 4 16 1 56328 1 28 53 21 3 43 42 4 1 47 1 16 45 45 47 1 47 1 1 7 4 (24) 45 4 1 53 47 45 47 3 54 56 1 3 30 54 : 46 45 56 1 53 30 4 54 1 47 47 7 48434 1 52 4353 4 1 47 503 1 30 1 1 1 1 1 2445 1860303054 60 1 56 45_2443 4 56 28 48 54 56_45 1 55 55 56 30 1 4 1 16 4 24 3 60 7 30 24 1 1 1 4 7 47 1 55 1 1 47 1 47 1 3 47 28 47 57 45 53_47 7 28 24 45 42 24_56 28 1 45 1 1 58 1 1 47 47 43 1 43 48 1 16 1 56_45_52 4 16 1 4 43 3 7 7 1 56 55_28 1 28 7 1 28 55 1 48 30 1 47 1 1 60 30 28 48 4 45 46 47 54 43 3 1 1 48 1 52 52 1 3 56 1 3 53 47 53_56 16 24 1 1 47 54 43 1 5160 43 59 55 4 48 1 1 56_45 1 4355 4 1 1 43 47 52 56_47 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(28) 1 54 52 55 1 38 28 51 1 1 1 55 4 3 1 4 24 1 1 47 45 1 47 1 5447 1 (35) 52 4 52 4 38 1 1 47 56 47 16 35_45 51 47 53_43 54 1 1 47 51 31 59 4 4553 592840 4 47 564 1330 1 4 1 7 1 47 30 35343 1 3357 77 (36) (29) (31) 1 1 1 1 4 35 47 59 1 53 48 47 52 473 35 47 4 35 55 52 45 1 54 60 45 52 (37) (30) 47 30 31 13 13 52 47 45 484 13434 53 54 30 1 54 155 604 114 (38) (32) 54 1 1 53 52 1 1 54 1 35 1 30 7 56 1 1 3 24 1 56 55_16_28 56 30 38 56 (39) 52 56 1 1 53_45 30 463 13 35_47 1 47 59 51 47 4 1 4 5428 1 54_58 1 28 (33) 56 55 46 35 1 1 3 52 54 1 4 30 1 1 27 1 43 1 52_45 24 51 45 7 51 1 56 (34) 1543601 47 1 1 9 56 47 43 55_47 4428 30 30 7 60 7 1 47 1 47 1 1 (40) 186 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Chakra 21000 59 1 1 དེ པཱུ ནི ཆེ 8 ་ 1 ་ ་ ་ 1 7 7 1 59 1 13 59 1 59 54 47 59 1 1.2.5 46 47 51 24 45 30 13 56 4 43 45 7 1 8 47 1 ེཆེ་་གླ་བོ་ཆེ་8བེ8ཋེ་བེ་་བེ ៦ ៩៩៨ ៖ ឧ I ៖ ១ ចិន → ៩ ឧ. . . . . ྃ ིི་ - ༞ - 1 7 16 1 -- -- 48 4 - 28°~ - ཆ ་སྒྲསྒན 3 53 1 47 45 45 30 53 16 ༠ 8• ཚེ 47 1 7 3 1 :ན་ཚེ་ཝ་ལྷ་8ཆོག་པ།ཚེ་པས་བྱ-གས་སོ།། 54 59 54 54 1 56 28 3 47 47 3 ཤྲཱ ༔ བྲཱ ྃ ༢༠༢་ལྷ་ཉི 33 55 24 16 30 13 3 1 48 39 1 . ܘ ܨ ܂ ܘ ܘ ܘ 5 47 30 47 56 54 42 1 46 3 56 47 45 1 29 56 53 43 47 3 54 7 29 3 54 1 56 1 24 45 3 1 2 1 52 4 47 1 1 (43) -་ལྷ་རྒྱལྷ་ཚེ༤ 53 7 43 47 3 ཞི་ལྷ་ཐུབ་ས་ ན ་ ྃ॰ དྲ་གཞིགའི 28 1 57 7 59 56 1 56 30 -8--8 23-28 5 8 8. གཞི་སྒ་ཇ་ ༤ 13 52 7 43 1 (59) འི ་ཤ བོ བཻ་ - ༠ 1 16 45 56 53 46 54 45 56 1 13 43 52 28 7 54 35 7 ཌ 8 4 59 24 9 1 45 ܐ ܛ ܝ ܘܐ ܝ9 ܐ 53 38 47 7 56 1 རྨུ་ ང་་,་ ྴལྷ 45 1 46 16 7 3 24 1 ជា - सिरि भूवलय a 8à ་ཡ - à ཀྲཱི 8 གྷ 1 45 54 52 52 43 57 24 1 45 48 24 55 1 3 53 30 54 31 48 58 47 56 3 47 47 16 1 45 28 30 52 6 1 53 4 56 3 1 16 56 7 (57) 47 7 1 45 48 30 ** 1 43 56 47 4 54 1 44 1 1 30 47 1 28 4 59 3 4 1 1 53 46 1 7 56 1 4 1 56 1 ** 0% - - 3 2 - 26 52 (47) 43 54 1 52 31 1 (48) (44) (56) 56 1 1 47 53 1 1 ** རྒྱལྷ་སྒ་ཆ་ད 43 54 4 187 54 43 57 48 1 56 33 1 ཆ་བོ་སྐ རྒྱ་ 1 ཆེཡྻ༤ ཨོཾ ༞ ° “ང་༔ ༞ “ 。 31 47 3 1 47 35 54 54 52 56 47 28 °°° 60 47 45 53 1 4 11 1 -- ་་ ་་ ་ ་ 8 ི ཙཱུ༠ 45 47 1 1 1 28 4 རྒྱ་༤ ུ༠༡༦་ ུ་ད་ལྷུང་ལྷུ ཚོ་ན་ཆེ་༔ ཡིn ཧྲོ་ད ྂ ང --8--- 2 4 - 82 ་ 1 1 3 16 56 53 48 53 54 3 1 7 4 45 43 43 30 54 47 28 51 1 51 42 59 52 43 47 1 1 1 45 59 16 3 4 3 1 1 45 45 g་ྲ་༦ ༦་ -་གླུ་- ཕྲུ སྒབི་ê⌘་ཆུ་བཻ་ 1 1 3 50 1 1 52 1 45 1 45 56 56 30 16 1 4 1 1 3 1 1 16 7 43 56 1 4 56 40 1 47 55 4 1 47 1 56 4 31 7 40 1 56 40 53 30 51 3 29 (50) 1 1 47 24 883 53 7 40 56 1 4 1 47 45 8 :88 +25 22:38 - 47 1 52 1 54 1 4 33 1 (49) 35 59 56 རྡུབ་ གྲྭ ཟ 4 1 30 7 1 53 35 27 1 4 43 (51) 45 1 48 59 53 52 7 1 (58) 1 42 60 28 56 30 54 1 47 56 13 7 1 1 1 3 1 59 3 24 52 47 4 1 45 1 1 57 56 1 52 1 53 45 43 43 50 24 30 57 45 47 54 47 57 7 1 60 35 4 45 45 1 7 7 56 1 53 1 3 1 1 56 43 1 1 47 16 7 57 53 33 50 56 1 56 52 45 52 40 55 18 1 33 3 51 1 47 7 ឌ ន តិ ទ → ៩ គ 18 54 60 54 46 52 1 (54) 28 54 1 (55) 1 55 53 3 52 1 56 55 16 1 (53) 56 56 48 :- -- 56 1 1 1 1 57 53 45 54 1 1 4 30 3 56 1 1 59 9 47 56 1 48 1 31 53 56 28 56 3 1 47 47 57 47 7 50 47 24 7 & གྲུདྡྷེ8 8 ཆེ ་གྷ 45 1 56 1 4 1 60 55 45 53 33 30 7 30 13 43 7 (52) ទ 1 47 52 54 1 52 1 24 56 -58 45 28 55 52 55 16 28 43 60 56 13 30 16 43 1 1 1 4 16 16 47 1 7 55 54 1 1 30 45 7 38 30 55 7 43 1 54 58 1 7 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय Chakra 1.2.6 54456045 1 1 1 14545 1347 46052 1 5552 416 1652 54 1 151 (67) 14454_48 5359 1 3 54 531 7 1 1 58 3 155_433024 1 54_43 14 (70) 60541932457 45_58130159567 28 1 147 148 48564 45 43 (71) 456 52 4560 16 1 27 18 146 54 1 541 6059 4550 16 16642 130481 1 1 7 1 45_57 53 45 46 45 3 53_56_47 1 1 1 30 45 45 43 1 59 3 45_54 1 (68) (73) 59 154 1 1 4 135_4547 1 7 15655 45 7 4 1 45 30 1551 1 541 (72) (74) 13 30 48 53_46 1 7 54 4 35_47 44 4 55 54_47 59 18 1 1 54 4 43_56 1 30 45 37 1 54 59 50 358 24 1 3 54 161 11-59133307 1 53 54_47 56 (69) 4553 1 244656 1045 45847 1 52_48 153 157 51 33 4 59 5153 3 1 43 45 17485445 1 30 16 3 1 54 1 59 53 1 5347 1 55 1 43 1 33_47 48 1 (61) (62) 541 3 1 59 1 595645453 4 56 55 1 54 5456 16 4 1613 1 52 44 45 (63) (60) 53 52 52 1 54 24 45_59_45 1 40 9 1 56 45 4_47 30_60 30 56 47 45 1 54 54 55 143 1 160 11 1 1624 511 1647 59 1 3 554 7 1 1 5933 17 3 47 56 1 56 1 54_43 59 16 47 55453 50 9 1 4759 47 56_16_45_33_47 54 54 (64) (65) 3 1537 30 1 1 2460 145 13 1151561 45 1 1 43 1 4 1 1 14 . 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DESEBy to Fr'roor 8tub loon 4-4 अ.444444444444AA244 yr hota hr -244444444444444444444 4444444444444444444444,014 ल Vvvr's bomb " E ल REVERBER ल ल अध्याय 1-2-1 य अ अ अ ह अ व अ श् कू स् उ य अ उ न् ज् उ क् औ ओ ट् ळ उ अ अ अ च् श् व् ड् द् उ म् इ अ अ ळ ए ज् न अ अ द् भ् स् य इ द् य् ल् न् द् न अ अ आ इ र अ त् अ अ ओ ल् उ अ व् थ् आ स् र् इ व् अ आ उ उ र अ अ भ् म् एा इ य अ भ व न अ न् ल् य अ न् अ अ ळ् अ द् म् प् अ र् स् व अ प् ळ अ ळ उ ए अ य अ अ इ म् इ य ए अ क उ अ ओ अ अ इ एा न उ व ल ी न् ग् घ् अ व ब म् न् प अ द् ग् अ उ द् अ अ क स्र् द् अ र कू अ र् अ इ इ व् अ न् इ अ कू ल इ म् द् न् र य् द् आ अ अ न् म् अ एा उ अ द् र् त् र् र् अ ब व र् अ व् आ अ अ ऑी द् उ त् व् द् अ ए ह व् अ ज अ क क क आ व अन अव अक ओ र द आइक अ न ई उ उर र र अ ए द् व् अ इ म् अ अ द् व् व् अ आ अ ज् व् म् अ इ अ इ क अ अ न अ व अ गौ द् अ व य ब अ अ व श य आ अ उ ी र ग व न् द् द् ए श ण र भ् ओ उ ग अ अ न् ल् द् अ इ अ र् त् न अ अ अ अ अ आ न्न् आ न अ अ द् उ आ म् व् उ आ इ न् त् स् म् इ द् ग् म् ब् न् व् अ इ अ व् औी द् क अ द् व अ अ न स व न अ अ आ ५ अ आ अ अ अ अ ण द थ् एा स त न अ अ द स य अ अ अ उ ध न अ आ अ थ ल श प अ अ उ अ द ए इ अ घ त आ अ इ द् ऋ इ द् न् द् द् स् व् र अ औी इ य् आ न् म् ए द् र् न् य इ र र् त् अ अ न् न् अ अ व् य अ अ र् न् द् इ ब् अ स् द् अ अ अ ए ल आ अ उ व् र ए इ ब् व् अ स् भ् अ इ अ म् द् ज् य अ इ स् य् ण् द् अ क् म् हु इ उ न स ब र अ म ए द ल अ ट ळ ह त य व क अ ल द य ल क अ स व अ अ अ अ य ए क ग अ व् ट् अ इ अ अ अ अ त् अ अ फू अ न् ळ् म् अ द ण व ध् इ ट् न् अ अ अ उ ग ल द ल क इ द् क म भ व अ एा अ उ हु अ अ ब ड् प् अ त्र अ ह अ अ अ अ न् र न् न् अ अ क द् द् त् ग ण् अ अ उ इ ए श् त् प् द् र् ग् क् ट् व् अ अ इ ए उ व् अ अ न् इ उ ब् स् ग ल् ग् ळ इ उ अ अ अ द् अ अ कू द् ळ् ग् स् य् न् ह उ अ ज् व् म् अ आ उ अ अ व् उ व द क उ अ व भ् अ एा आ न ए अ र् ळ ब आ अ ए अ द् र अ अ अ त् अ अ अ ह स क ण् व न् भ् णी न् भ् प् त् इ भ ल ी श् ब् इ य ओ स् न् ण् द् ऊ अ इ न ब अ अ इ स् इ उ अ अ अ म् अ व अ एा ए अ द् र ल ल EP's A244444444444444444 4.4A404444444444 ल Flm Vल 85 no-FD N-Hinbr 40099NEN ल 'B's | 1934 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय R rt लक BE-BF- D tims+Pr A AAAAAA99449 3447049244444444440019-ANA En's AALANA 944476444444484 छHBhEomen he teube #m Emm18ललल ल HD VnF8BEEGm कल-1618 FE 8 m buttons Pvte- .444444444444449244444 or BE BFtor to ths'F' Vo PEmbh hey REPOm to 44-9-14AAAAAA8494-9-4 A ng its to Bists' tvrte' ty_ms. Etv Isotry Funn VEDEEtone bur अध्याय 1-2-2 म् ट् गौ म् अ ए उ ओौ द् एा र् न् ब् र् . ट् ट् द् स् ळ् ड् द् अ र उ र् अ उ ट् ट् र् न् न् द् अ य उ ए अ उ ए न् ट् य अ ओ अ य र ए ट् कू म् र् एा न् आ अ अ अ ड् अ ळ् ओ म् ळ न ए अ अ म् त् उ अ अ द् न् म् इ आ इ र् य् घ् क् ब् ड् क् । उ ए प न य उ ट् अ अ त् अ स् अ ब त् व् ड् ळ ए र अ ए ओ ल ट आ क ए ओ अ द न स ब द ग र म म अ उ अ अ र आ उ द् आ न् न् ल् ड् द् ड् ल ए उ म् म् उ कू स् ओ ओ त् र् र ए ड् त् र नए अ ग ड अ न आ क क ी ओ क म उ अ द् म् ए अउ बत् क द् तु र द अउ क उ अ न ल उड़ ल उ ळ रन अद म र म अ अ म् कू इ घ . म् म् आ ळ अ आ अ एा ए अ उ गीउ उ ओ द प ओ डी द् त न र आ ए त ओ ओ कू आ त् त् व इ व उ र अ अ ए र ओ न् ब् म् अ टु न न अ औौ म मन इ अ व अ ग अ क स क प ण म अ अ ए उ अ ब न उ ी ब न अ अ व ब ळ अ अ न ल र ळ ळ उ ए ब र द द द । उ ए अ स् न एा ड् ढ् द् म् ओ द्ळ अ आ ए अ अ ग ट् उ अ म् म् न् अ ब त ी व अ अ म म क अ ओ त न ळ क स ी न र ह ी य अ त य न य अ रन औ त् ण व अ इ उ अ लउड् अ अ त् उइ ब इ एम् ए न् ए न ए इ म् अ उ ो घ् प् त् ग् आ र र व अ अ त् र उ र इ ओ र इ उ अ तुज ऑी ब ज क ी मत ए व आ ए अ य अ उ अ ल अत् ल श ब ५ अ ऊ र् द् कू ल् स् त् अ न र् र् आ र अ ह अ स् अ च । अ क म अ म् ट् आ श ी अ ट स ऊ द य अ य द ए य ओ ए आआ आआ उ ह व य आ व अ अ अ अ उ ब उ अ क य अ द् अ न् ळ ओ स् न न ष् म् इ र इ न अ र् र् उ न र म ळ र ल ड़ ट प य अन द उ अ एक अद् अर अद् आ अ ओ म् व ने एा उ आ अ न इ आ आ इ अ ळ ह त अ ळ त ब अ ब व त् स र र अ द क द न र ए ल अ द उ र अ उ त एा पा आ उ त म य अ अ अ क इ अ व म् न् ए द् उ ळ द् ल ग अ उ ट्ट् र त अ अ र द् द् अ य अ इ नए अ क अ उ म आ ऑी इम अ न न क ओ त्ए अ अ इ म अ गम द व व् श् उ द् द् औी न् द् ओ क र ए ए न् अ त् न अ आ ए औी प अ अ अ र ए अ र् अ म् त् उ अ स् उ ए त् द् अ न उ न र् ल् ल् ल् अ य अ र् अ क म् Emmsen her to PB tury F FERENCE Photos m 5 n n Entrik F 18yeyल sts in FB Post लल tutotor to ore 194 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) अध्याय 1-2-3 अ य अ न् ए न् अ ल् क द् अ र् अ अ sh-BheEnल 2 उ न् म् न र् 외 외 'कल ल तथा 44444444444-9-444 Envi ल ल ल 4424 र न 외 외 44444444444444444444 ov 24 on 98606- Fry - 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स् द अ अ एट ी व अ क र क न क अ र उ न इ र ब अ व् त् म् अ इ ध् य र एा उ अ द् ो उ अ अ न व् अ त् र ल् कू उ म् त् प् ी ल् व् र क अ ट् ळ व् अ द्ष् र ळ अ ए इ द् न् द् अ म् द् म् अ त् अ अ अ आ त् न् व अ श् अ इ अ अ ळ र् न इ अ अ क् .0 Fm_ry Evvm is yourn ल s 4 he REVE16 여 , 1위 외의 외 - 위 외 외 tarius 16.mF 0444444 torner । 884 AMEENA 202 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ॥१॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ 1८1 द्वितीय "आ" अध्याय आदिय अतिशय ज्ञानसाम्राज्य। साधित वय्भववाद | मोद अ*र्थागम अविरलशब्दव। नोदिप नवम बन्धदोळु दिवद देवागमवाद समवसति। यवयववद नाल्वेरळ।। सवि* रदे निन्दुनभोविहारव माडि।दवनुपेळिरुव भूवलय ॥२॥ मनुजरोळतिशयदनुवभव चक्रिगे। घनशक्तिवय्भवकर नु। अनुजनु दोर्बलियवनादिमन्मथ । जिनरूपिनादि भूवलय॥३॥ सरसविद्यगळोळु कामद कलेयोळु । हरुषदायुर्वेददोळ्उ ॥ ल* रयद अपुनरुक्ताक् षरदनकद । सरस सवन्दरि देवियोडने ॥४॥ म्नविटु कलितवनाद कारणदिन्द ।मनुमथनेनिसिदे देवा।। श* रणसदे सन्दरियरितन्कगणनेय । घनविद्ये इरुव भूवलय हकदन्कदोळु बन्द्ऐळर भाजितम् । सकलवु गुणितवो एम् ब्*आ। सकलशब्दागमऎळु भन्गगळिह । प्रकटद तत्व भूवलय णवदन्कवदनेळरिन्दलि भागिसे ।नव सोन्नेय हुट्टिबहु द* ॥ अवधरिसलु बिडियन्कगळ् एष्टेम्ब ॥ सविशन्केगिन्तु उत्तरवु णवपदन्दद करणसूत्रव कोळ्व । अवयवदोळग्इह ध* णित ॥ नवमत्तुनाल्कु सोन्नेगळेरळ मूर्नाल्कु। सवि आरारेरडोम्बत् आरु जुणि एन्ट नल्कोम्बत् सोन्ने सोन्नेयोम्बत्तु। घनवे नौ* ओम्बत्तेरड अयदु । जिन ओम्दु मूरोम्बत्मूरु बन्दन्कद घनदे मुन्दके बरुवन्क ॥९॥ दोड्ड ओम्बत्नाल्कयदु मूरेन्ट ऐळु ओड्डिदनाल्केन्टौघ* गुड्डेयारेळु सोन्ने एन्टेरडयदु । अड्ड नल्केन्अयुदु नाल्कु सम सोन्ने ऐळुओम्बत् एरडोमदु । गमनाल्कु मूरऐळु बर् प्*आ । क्रमदेनुटु ओम्दोम्बत्मूरु ऐदोमबत्तु विमल ऐदेरडारु ऐळ मरळि एरडु मूरु एरडारय्दोम्बत्तु ।सरदे मूरेन्टेम्ब र* शि ॥ अरुहर ओम्बत् ओम्देन्टु एन्टेन्टु । सरियोम्दु बरलु बन्दनक ।।१२।। १८८८१९८३९५६२३२७६२५९५३९१८७३४१२९७०४५८४५२८०७३६८४७८३५४९३९३१५२९९००९४८६९२६६४३२००००००००००००० इदु८६के५४अक्षर भंग ३६०९ । चरितेयोळप्रतिलोम गुणाकरदिम् बन्द ।वर वयवत्आ- अमरद ।।सरमाले इदरोळु अनुलोम क् रमविह परियद्रव् यागमवरियय ॥१३॥ उत्तरदोळु सोन्नेगळ हन्नेरडुम् । ओत्ते नाल्केरडे अक् षा* । मत्तेन्टेळयदय्देन्टारु बन्दन्क ।ओत्तिनोळेन्टु नाल्केळु रसदोम्दोमदु नाल्कू सोन्ने एरडयदु विशदेन्टयदारुकु लि* षा । यशदेळयदारु ओमदु ओम्दु । ओम्बत्तु नोल्केरडु स्र नाल्कारु सोन्नेयु ओमदु एरडारु । एरळमूरु ऐदेन्बरि त*। सरि ओमदेळयदु मूरेन्टु मूरुनाल्कु। बरे सोन्ने योमदारु ओमद ॥१६॥ सवि मूरेन्टु सोन्नेयु एन्टोम्बत्तु। नव ऐळु नाल्केरळ् हो स*दे।। कविसोन्नेनालक्कु बन्दन्कवय्भव। दवयव अनुलोम वरियर। ।१७॥ ४०२४७९९८०८३१६१०४३८३५७१५३२६२१०६४२४९९१६५७६५८५२०४११७४८६८५५७८२४००००००००००००इदु७१क्के ५४ अक्षरद् २६१=९ ॥११॥ ॥११॥ ||१४|| ॥१५॥ - 2034 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ॥१८॥ ||१९| ॥२०॥ ॥२१॥ ||२२ ॥२३॥ |॥२४॥ ॥२५॥ नवदन्कवाद ई अनुलोमविदरिन्द् । सविरसवेनुतिन्तु स क लम्।। सवेसलु भागदहार लब्धदि बन्द। भवभयहरणद अन्क गणितद हन्नेरळसोन्नेगळागलु। गण मूरोम्बत्तेरडोम् ल* ॥ मणि अय्देळु नाल्कोम्बत्तु नाल्कु। गण ओम्दोम्बत् आरुनाल्कु ४६९१४९४७५१२९३०००००००००००० इदु ६४ भागहारदिन्द बंदलब्ध ६+४=१० (इदे 'हक' दिन्दबंद '०' तावरे) चारित्रदन्कविन्तिवनेल्ल कूडिद । दारियोळ् बन्दिहुदम् भू*॥ सारतरात्मतत्वमनोडलेरळ्भाग । दारयके अरवत्तोम्दु रुदळिरतेयकम प्रतिलोमवदा । अदरन्कारवत्नाल त*न्दु ॥ अदरर्ध माडलु बरुव भन्गाक्षर । वदरकमवदिन्तिहुदु समनाहन्नोम्दु सोन्नेयनिटुमुन्दण ।। मदोळु ऐदेरिब ल* ॥ विमल आर्नोल्कारु ऐदेळु मूरेळु । सम नाल्केळयद्गालमूर् एरडु २३४५७४७३७५६४६५००००००००००० इदु५४ असारद समस्तभंगांक ६८=१४=५ करणसूत्रांक नवदन्कवनेरडम् परस्परदिन्दम् । तविसुव कालक म* दे । अवतरिसिद तप्प तप्पेनलागदु । सवियन्कदुपदेश मुन्दे ठाविन मन्गलप्रातदोळु बह । तावम् गमनिसलाग ॥ तावे ल* क्षणवागि इप्पत्ओम्बत्अन्क । धावल्यवदनु काणुविरि णोवदन्कदे बन्द तपितवेन्इल्ल । ओवियदुत्तरदन् क* || कोविद ओम्दन्कउतपत्तियातिल्लि।। नववय्दरिम् भागवायतु म्दनन बाणवु वक्रवदहुदु। सदरद हूविनगन्ध ।। म्दु ल* वदेन्तो अन्तु हरुदयहोक्कु । हदनागि भोगयोगवनु । दिनदिनदत्याशे ऐरलु बिडदिह । अनुपात योगाग्नियदनुम् ॥ * नेकोनेहोगिसि कर्मव केडिसलु । अनुपम पन्चाग्नि इदेको घनरतन ऐदु इन्द्रियवु ॥२८॥ मनुजत्वदनुभव लाभ ।।२९।। घनकर्मदास्रवविल्ल जिनमुद्रेह्रुदयहोकिहिदु ॥३१॥ अनुभवगम्यद द्रुष्टि ॥३२॥ जिननाथनोप्पिदभक्ति जिनमुनिगळ ज्ञनयोग ॥३४॥ विनुतान्तरन्गविजन ॥३५।। तनयरिगेल्ल सौभाग्य जिननाथनडियिट्ट मार्ग ॥३७॥ घनकर्मवळिव भूवलय ॥३८॥ जिनवर्धमान् साम्राज्य मनसिम्हदग्रद कमल ॥४०॥ बदसम्हननद आदियादिकाव्य । धरेयभव्यर भावदलि । क्रुणेयप्रतिम समुद्घातवनु तोरप् । गुरुगलयवर दिव्य चरण वनदोळु तपगेयदात्म योगदे तम्म । तनुवनु कशगेय्व् आ*ग ॥ जिननाथनन्दद सर्वासाधुगळन्क । दनुभव साधुसमाधि वनु सम्ख्यातदोळरिवम् ॥४३॥ वनु असम्ख्यातदोळरिव ॥४४॥ घन अनन्तान्कदोळरिव जिननाथनरिकेगे गमय ॥४६॥ तनुमनवचनातीत ॥४७॥ घन दुष्कर्मदावाग्नि ॥२६॥ ॥२७॥ ॥३०॥ ॥३३॥ |३६॥ ।।३९|| ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४५॥ ॥४८॥ 204 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ॥५१॥ ॥५४॥ ॥५६ ॥५७॥ ॥६०॥ ॥६३॥ ॥६६॥ ॥६९|| ॥७२॥ ॥७४|| वनु पडेदवनोब्ब योगी ॥४९॥ विनुत वय्भवशालि अजजा ॥५०॥ घन शिवसख्यव पडेव दिनदिन उन्नतिगडर्व ॥५२॥ वनगुहवेल्लव नरिव ॥५३॥ घनशुद्धोपयोगियवम् वनुसार्द कर्म भूवलय ॥५५॥ वमनवमाडीद कर्मदन्कगळषटु । विमलात्म गुणव् अदे मु*रुळि ॥ गमकद कलेयन्ते हेच्चुत् बरुवाग। तमगल्लि उपदेश शक्ति रसयुतवागि हेच्चुत बरला आत्म । होस आदियाद् जनवद। नि* शियोळु पर्डेदुदम् हगलु बन्देल्लगें । वशगोळिसुवव पाठकनु वशगोळिसुवनुपाध्यायम् । ॥५८॥ रसदूटा उणिसुवनार्य (चार्य) ५९॥ यशदे भूवलयवनलेव यशदोळिन्द्रियव जसिरुव ॥६१॥ होसबनागिरुव भूवलय ॥६२॥ हुसियनोडिसिदमहात्म असम मानवरग्रगण्य . ॥६४॥ होसेदु पेळुव द्वादशान्ग । ॥६५॥ असद्श् समतेय पेळ्व होसमार्दवार्जवरूप ॥६७॥ रुषि समुदायदोळग्र ॥६८॥ होसदादुपदेशदार्य । यशदौषधर्धिय देहि ॥७०॥ होस बुद्धिरिद्धिय सिद्ध ॥७१।। उसहसेनार्य वम्शजनु वृषभनाथन कालदरिव ॥७३॥ हसरमेल्लद दयापरनु गगनमारगदे पोपरन्ददे तीव्रत्व दगणितदाचार सदभि* || मिगिलागि पालिसुतदरन्त भव्यर । बगेय पालिसुवन् आचार्य न्वदन्कद्न्ते सम्पूर्ण पदार्थद । सविचारवेल्लवन रु*हि ॥ अवरवरिगे तक्क आचारसारद । सवियवयवव तोरिसुव धर्म साम्राज्यद सार्वभौमत्ववु निर्मल सद्धर्मव पा* || धर्म वय्भववदरन्कदष्टाचार । धर्मव पालिसुवार्य धारणितोळु दशधर्मद सारव । सारिद गुरुवु आचार्य ।। सारद सिद्धर नारयदु तोरुव । सारतरात्म आचार्य सारतरात्म भूवलय ॥७९॥ धीरन चरण भूवलय ॥८०॥ नेरद मार्ग भूवलय दारियोळ बंद भूवलय ॥८२॥ शूरर काव्य भूवलय ||८३॥ हारदरत्न भूवलय | सारात्म किरण भूवलय ।।८५॥ नेर सिद्धान्त भूवलय ॥८६॥ क्रूरकर्मारि भूवलय शूरर जन भूवलय ।।८८॥ सारात्म ज्योति भूवलय ।।८९।। नेरदध्यात्म भूवलय सार माणिक्य भूवलय ॥९१॥ वीर जिनेन्द्र भूवलय ॥९२॥ वीरन वचन भूवलय वीर महादेव वलय ।।९४॥ भूरि वय्भवयुत वलय ॥९५॥ ऐरिदनन्त आचार सारव सारिदाचार्य ॥९७॥ भूरि वय्भवद विरागि ॥९८॥ गेरिसुवेनु भक्तियनु ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७८॥ ।।८१॥ ||८४॥ ॥८७॥ ॥२०॥ ।।९३ ॥९६॥ ॥१९॥ 205 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१००॥ ॥१०॥ ॥१०२।। ॥१०३। ॥१०४॥ ।।१०७॥ ॥११०॥ ॥११३।। ॥११६॥ ॥११९॥ (सिरि भूवलय ससिद्धियागे दुोह सुवर्णद । वशवागुवन्तात्म निर त*॥ यशवळिसुव देहवजितनागुत । वशवागे मोक्षवु सिद्ध ईशनागुवनु लोकाग्रदे नेलसुव । राशियोळ् शुद्ध तानागि ॥ लेसा ती* रथवदम् सारे भव्यर । राशिराशिये कादिहिदु पतितनागिरे आत्मनु सम्सारद । व्यथेयनेल्लवम् समेदि * पा। क्षितिये श्रीसिद्धत्वदनुभवदादिय । हितवदनन्त काल मान मायवु लोभ्अ क्रोध् कषायद । ताणवेल्लव ईगळिदु ॥ ताण था*ण वनेल्ल काणुतलरियुत आनन्ददिहरेल्ल सिद्धर् णवकार मन्त्रद सारसर्वस्वरु । अवरिवरेन्नदे सर स* ॥ अवयववे आत्मन रूपवागिह । अवरु सिद्धरु एन्दरियय् नवदन्कसम्पूर्ण सिद्धर ॥१०५॥ अवरु वासिसुव भूवलय ॥१०६॥ नवकारमन्त्रद सिद्धर् अवरनन्तान्कद बद्धर ।।१०८॥ अवरनन्तद ज्ञानधररु ॥१०९।। नवकोटि मुनिगळ गुरुगळ् अवरन्ग निर्मल शुद्धर ।।१११।। अवयववळिदवयवरु ॥११२।। नवसद्श न मयरु । अवरु स अमर आदि ॥११४॥ अवरु तमिन्द जीविपरु ॥११५।। सवि सख्य सार् सर्वस्वर् अवतारवळिदु बाळ्ववरु ॥११७॥ अवरनन्तद वीर्ययुतरु ॥११८॥ अवरनन्तद सुखमयरु सविय अगुरुलघुगुणरु ।।१२०॥ नवसूममत्व ताळ्दवरु ॥१२१।। कवियवगाहदोळिहरु अवरव्याबाधधररु ॥१२३।। नवगे बेकवर सम्पदवु ॥१२४॥ अवररहन्तत्व तिळिदर् सुविशाल जगवनोळ्पवरु ।।१२६।। अवर पादके नमिसवेन ॥१२७॥ भववळिदवरा सिद्धर् ठवनेयोळ न्कदमरदन्कव स्थापिसि । दवयववो एम्बअव र* ॥ नवकेवललब्धि गोडेयरेन्देनुवरु । अवररहन्तर् इष्टात्मर् इष्टद देवरु घातिकर्मवगेल्दु। स्पष्टदोळ् भववनीगिद सद् ॥ व्रष्टियोल् भूवलयके धर्मव पेळद्। स्पष्ट ओम्कारवेळ्दवरु।१३० दनियोळु मूरुवेळेयोळु अनन्त । गणितदोळडगिसिदवरम् ॥ * नजनाभिय सोन्कदे निन्द देवरम् । जिनदेवरेन्दरियुवुदु संयुतवाद भूवलय सिद्धान्तद । रसवन्तर्मुहूर्तदि ती* थ । होसदेन्दु मूरुकालवनोम्देकालदि । होसदोम्दरोळु पेळिदभवर् ओम्कार ओम्दरोळुगिसिदरवत्नाल् । कम्कम ओम्दमर् ह ॥ अम्कवेअक्षर् अक्षर् अम्कवेम् । बकिय पेळ्दवरवरु मनुमथनुपटिलदोळु बाळ्व नररिगे । घनकर्मवळिदवस र्* व ॥अनुभववनु पेल्द अरहन्तरडिगळ । नेनेवल्लि ऐदन्क सिद्धि नखशिखेगळु समानदोळिर्प देहद। सकलान्ग परमनिगिरु तु*म् || सकलागमवु सर्वान्गम् ओम्दरिम् । प्रकटवादरहन्त् देव खचर व्यन्तर भवनामर कल्पद । सचर देवतेगळवरु नो* ॥ सचराचरवनेल्लव केळिदवरागि । अचल भक्तिय प्रकटिसिदर् र्सनेन्द्रियदाशेयळिद भव्यात्मरु । वशगोण्डु सकलान्क दु*दया । वशवादुदेमगेन्दु नमिसुत पोदरु । असद्रुश भूवलयक्ने ॥१२२॥ ॥१२५॥ ॥१२८॥ ॥१२९।। ॥१३१।। ॥१३२॥ ॥१३३॥ ॥२३४ ||१३५|| ॥१३६।। ॥१३७। 206 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ॥१३८।। ॥१३९ ऊनविल्लद ज्ञन ओम्दन्क हुटि । श्रीनिकेतननन्गदुप रि* । आनतवागिह मुक्कोडे पूमळे ॥ भानुमन्डलद भूवलय वशगोन्ड ‘अ’आदि मन्गल प्रात। रसद्अ अक्षरवदु ता* नु॥ यशद् आरुसाविरद ऐनूरर्वत् ओमदु । रसदेरडनेय अन्तरदोळु यशद् ऐदन्टेळेळ् अन्तरद ॥१४०॥ दिशेयधिकारदोळ बरप ॥१४१।। रसदनक गणनेयक्षरद यशदे कूडिदरे बाहन्क ॥१४३॥ रसदेन्टमूर् नाल्केरडु ओमदु ॥१४४॥ वशद साविर हन्ए अरेय दिशेयोळु बरुव चारित्र्य ॥१४६।। यशवदन्त् आगे 'आ' इदरोळ् ॥१४७॥ रसदन्तराधिकारदोळु रसदारद लेक्कगळ् ॥१४९।। कुसुमगळन्नु कूडिदरे ॥१५०॥ विष यशदनक काव्यद सिद्ध ॥१५२॥ रिषिवर्धमानर वाक्य । ॥१५३॥ रसदन्तरेन्ट्नाल्केन्ट् ऐळु ओम्दन्कवेप्प्तऐळ्एम्भत्ऐ । अम्मलु अन्तर न्* दरलि ॥ उमिदेन्ट्नाल्केन्टेळु बन्दन्क । सम्मतव् “आ” क्यभूवलय। आ(२) ६५६१+अन्तर् ७८४८=१४४०९ ॥१४२।। ॥१४५।। ॥१४८॥ ॥१५१॥ ॥१५४॥ . प्राकृत -सक्रमवर्ति आदिम सम्हणण जुदो समचउरस्सन्ग चारु सन्ठाणोम् । दिव्ववर गन्धधार ई पमाण ठ इद ओम नख ऊओ ॥ संस्कृत सक्रमवर्ति अविरलशब्दघनौघ् प्रकशापालित् सकलभूतलमलकलन्क्आ । मुनिभिरुपासिततिर्था सरस्वति हरुतुनो दुरितान् ॥२॥ .. अ६५६१+अनतर ७७८५ = १४३४६+आ६५६१+अनतर ७८४८=२८७५५=२७=९ अथवा अ १४३४६+आ १४४०९=२८७५५=२७-९ 207 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अध्याय -3 Chakra 1.3.1 41 57 7 53 181 293 1 7 1 353 54 52 43 1 1 1 1 56343 1 4329 1 1 54 53_42 47 56_45_54_54_51 1 1 3 7 4 53_52 56 39 3-3 1 55 3 27 53 52 1 1 1 1 10 18 4330 75345595660 154 516 28 53 4355 5359 1 1 50 55 3 52 59 45 18 3 43 3 1 1 1 7 57 48 3 1 1 30 1 16 29 1 52 47 48 (2) 1 13 43 1 47 5433 4 30 51 56 56 4 1 43 43 53_35 1347 1 56.1 52 1 48 (3) 2445 53 24 24_59 54 54 56 53 1 1 4355 1 1 54 24 1 1656453460 4 1 7 1 48 4534 18945 30 55 1 1 59 1 1 53 1 48 13 57 56 59 47 30 56 30 11735 29 53 51 1 53 56_45 30 15448 1 56 47 47 137 1 3 1 1 1 565335456 1 54 51 53347 43 453030 1 1 1 28 284756534356 563 4348 54 54 5333043 14 1533 34 13463 24 45 45351 47 47 59 1 13452 53 147 47 47 56_46 28 745_18 1 45 45 4 1 18 1 4 18452 53 (15) 3356 1 29 45 1 1 3 28 1 1 47 3 48 53 1 3 1 28_45563530304347 59 1597 747 455347 1 43 1 1 4 16305347 52 7 1 1 3 243 1 128 (16) 1 54 56 1 1 29 7 46 28 56 55_45 47 24 304654 4 5130_56 16 53 31 1 1656 1 59 55 30 52 57 45 1 30 33 1 5335 1 1 46 18 5428 47 46 1 43 55 47 41 1 1 4 54 451505946 1 156 134528 1824 14547 4 54473 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-་གི་ཤ་ཚོ་སྒ་སྒལ་ན་ཅི་ཆོད་ཇོ་འདི་ ཛྙཱ་ཉི་ལྷ་ཉིད་གླུ་ཆོ༡་༤ ༠༠༤ 46 1 46 47 55 1 45 16 4 48 1 7 1 (18) 45 43 54 57 45 45 24 1 1 1 1 56 (19) 53 30 56 46 30 4 28 7 43 ལྷ --་88་༅་ 53 47 45 53 3 24 56 53 24 7 45 53 4 45 43 54 11 56 3 56 47 43 1 45 24 47 48 30 7 1 28 24 16 7 3 30 56 1 1 1 1 47 54 50 3 1 55 28 47 43 4 56 4 གིག་8་སྣོ - « ༄ ུ 47 59 24 ིི་མཐུ་ལྷ8 8 ཀྑཱུ བྷུ་8་༄་གི-་ ཆ ** 47 28 47 54 1 54 16 55 47 45 43 48 1 16 30 52 47 30 1 16 3 24 45 30 3 1 1 1 60 43 4 47 56 7 55 1 47 18 1 1 (31) 54 1 85 1 1 7 57 1 57 54 7 43 53 30 45 1 1 4 1 4 30 47 1 46 3 56 56 1 30 54 55 1 1 59 30 4 (32) 30 51 7 24 60 16 4 .. 56 53 3 47 7 59 1 54 13 56 52 43 3 57 1 56 53 56 53 1 4 46 43 43 4 1 46 60 54 1 1 6 सिरि भूवलय 50 53 52 3 1 43 16 30 47 52 54 56 45 7 18 7 1 52 43 1 52 1 1 7 1 5882 35 53 28 30 47 53 3 1 54 4 1 1 54 44 47 1 1 1 52 43 1 52 52 56 43 1 53 55 1 51 43 4 1 43 16 42 42 56 1 1 1 4 3 1 1 59 45 1 ** 8དྲེཎྜཱཌ་སྐྱུར་གླུ་༄གྷ་གླ་ཚུུ གྷནབི་ 1 16 1 1 55 1 16 24 54 33 1 1 3 1 1 53 28 1 16 1 48 7 1 13 53 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(113) 5 (112) 4214 45 13 55 24 52 7 40 3 1 46 60 7 (114) 4 1 4 59 1 1 1 1 56 59 1 7 47 1 1 4 47 1 1 53 4 50 59 59 1 24 56 47 48 60 55 53 57 16 (107) . ܝ ܚ ܘ ܝ ܝ 4 47 60 3 1 1 4 7 45 13 60 7 1 11 5 ༦。བ་ ཧ བ ་ག་ 47 48 48 7 1 7 51 ~ 3 ོ་་་ཆེ༔ ལྷན ལྷ་སྐུ་ཛྫིག་རྒྱུ་ ལྡོལ།། ཧཤྩ ཀ ྴ ྴ སྒྲ ངྒ ྃ ༅་ཞི༤ ྴ རྒྱུ 8སྡེ 53 1 43 59 3 47 43 1 4 1 48 (109) 24 45 53 52 47 1 1 1 53 56 56 56 47 53 1 53 1 7 1 1 1 4 33 54 47 55 1 59 54 7 54 47 1 56 43 1 24 47 13 3 सिरि 3 +7 45 50 47 3 7 1 24 13 47 45 31 59 47 1 1 47 53 7 1 (104) 1 18 57 45 16 1 60 4 7 1 7 (108) भूवलय 53 3 53 56 4 53 56 45 60 (93) 52 47 53 4 1 55 7 3 - 8 w** - - WA - NW NW N གྷ་8་བི་གྷ -་སྤུ་ཆེ་ཆེན་ཟླ་8མ་རྒྱ་- ྤ- -gg g ཥུ ཆེ ཾ - སྐྱབ ཚེ ❁ ༦༤ ྴ བིས 。.。ཀྵུ£R 888 & 3 3 13 16 3 31 1 ༦༠༠ :༦ ཧྭ ྴ ོ་གླུ ུ - 8 : 8 ཕྱྭ ༅ ❁༤ - 47 24 1 57 47 43 4 60 24 42 28 4 28 1 59 46 30 7 48 55 55 56 1 3 1 4 1 43 28 24 1 3 24 59 7 42 45 1 7 24 53 7 1 54 47 7 2 2 52 18 54 43 1 54 60 52 59 54 47 1 18 43 52 30 1 56 7 1 60 59 24 59 50 47 4 213 3 54 4 53 7 28 1 56 30 47 54 ༤༠ཌ- “ — 1 25 -- 5+ 7 1 4 8 1 30 60 52 1 52 6 ༠- ༠ ྃ་ སྒབྷུ་ལྷ་༤ - 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It' tv w? w' ल ल ल ल ल ल tr tho ल ल for his in te 'लक' '5' wte 5 te ho tr ल ' r' how t अ अ इ ओगे ल् 市 ब् न् अ डी अ य् इ अ ग् द् अ अ आ व् ग् ध् डी म् द् अ ओगे भ् द् ज् ग् ज् थ् न् इ न स् न् इ न् ए ६ य् द् आ इ इ अ म् अ अ ए आ आ अ र् त् न् उ न् उ व् ध् आ न् ग् आ द् द् स् म् - न् आ अ य् क् उ अ अ अ इ अ 222 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय 1818 क् अ द् बू इ E-m ल ल ग् इ उ इ र इ इ ध् VE hoto 43 440 य ब 예 -trbe m mms FEtha अध्याय 1-3-6 द् य् आ र आ द् अ र ग् र एा अ न् ब् य व अ ए द् अ म् द् द् अ ळ् अ प् अ ए र द् इ अ य र य् र् द् य उ र अ इ अ च् अ अ ब् स् न् इ ड् अ र ह द् उ ड् न् य ग् अ म् न उ म् ह उ द उ इ द् स् अ त् र उ अ द् स् अ अ व् इ इ आ इ व् उ अ ह अ न् प् एा व ह अ न् प् इ अ त् द् ऑी ए र ळ् ल् आ स् स न न् न् उ क् उ व् उ इ ह अ न उ व अ प् न् इ अ म् व् अ उ त् भ् ए ल द् अ औी अ अ इ र् आ इ ल् म् अ इ र् अ न अ इ स ल य अ अ य अ इ स् त् अ द् उ अ ह आ च र इ अ ह उ न् ी ह इ र न् ल् अ ळ म् ड् आ स् अ अ भ् अ अ अ श ग् य औी स् न् उ इ अ न ल उ य अ अ अ य द् ल इ न ए इ अ द् आ इ इ अ ल अ उ उ अ न इ द् अ व ग् अ न् त् आ ग इ उ त् अ व् अ घ् अ अ न् इ म् ग् ल् ह अ अ ळ अ त् उ आ व अ न ध् य अ व आ य आ य य म् उ र एा ह क ल् न ह् ण् अ उ य आ न् अ य आ द् एा अ इ य् अ म् ध् उ त् ऑी व् आ म् अ व् अ व अ उ व न् अ ह त्म् ऑी अ उ ओ स् द् र् अ अ 여 Enter व् ळ व् गौ ळ् न् आ ग् उ आ ल ळ ल । व् ए अ आ श् न् त् आ अ न् आ अ आ घ् अ र ह ी र त् आ य म् एा र् क् ओ अ त् न् ब् अ आ उ स् र् न् ग् अ व् क इ द् ध् आ ग् द् अ स् ळ अ एा स् ब् उ उ क् स् उ न् अ अ ड् य अ ष् प् द् द् स् न् अ द् ग् अ ग् - च इ अ अ न् य् अ क् द् आ इ र उ अ म् न स् ग् उ ण् व र र् ओौ स् अ अ र प् डी अ र् म त् स् उ अ न् इ ल उ अ ष् न् अ न् अ अ क अ म् अ ए स् र् इ व् अ ओौ त् अ ए स् अ अ ग अ आ अ अ र् ए इ र अ भ् ए अ ओ इ न् इ स् श् अ अ न् श् ग ल व अ ओ ल् अ इ त् न् उ य् ओ व प ए त् द् उ प् न् उ र् न् 2444444 आ अ अ य अ श न् अ प् म् ओौ उ स् व् फ् अ कू ल इ ए ब् अ र् ए म् उ व् य र् आ द् प् उ न् त् आ म् न व न् न उ व ग इ ग् अ न् अ द् अ य इ अ sFF her's B अ न् उ र् र उ स् न् । अ इ । अ आ ग् ह। अ अ प आ न् इ द् ही न् अ ह न् अ 444-4-9- 244444444444444 अ ळ र 이 외 य - ए व् ल अ ध् ल ल mE Ether hero her 4 44 अ उ अ इ ड् अ उ द् अ अ अ ए व अ द् ध् द् म् अ व् न् ग व् अ अ आ ल् अ स् आ स् अ ह् अ ह ण् स् आ अ ऑी अ न् न् द् प् स् य उ अ 16 lor iro her'ल द् औी ड् अ her hou' अ द् 223 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय 여 अ द् A hearn 의 여여 외의 와 외 न् अ ट् उ द अ अ स् इ ल् र् न अ न् त् द् ट उ ५ र द् उ य अ आ इ स उ अ अ ए प् ह अ अ ए अध्याय 1-3-7 त् र् अ आ म् व् आ इ ब श म् उ न् च श व् अ अ उ अ प् आ श म आ इ व व अ क् अ ळ ओो इ ड् न् र् न् अ न् अ न अ य इ र् अ व् अ अ ण् त् इ अ E क इ स अ अ उ ख् उ श् अ अ इ क ल् न् अ न ध् ज् द् न् र न ऑी अ अ अ व् 4 4 444 कू य अ श आ ए व् न् अ स अ अ त् य ए अ प व् अ य व् अ अ ज् न् स् व उ अ म र आ अ ल् इ त् ग् अ व् स र अ इ अ अ भ् अ क अ स् क् आ अ DD Fr 외 외의 외 | ल् अ ए उ न् उ अ र् त् क् इ क ळ व् व न अ अ क FREFR लल लल लल Bom व् द् ब् ख् उ ल र अ स् व् अ अ न् इ ५ अ इ ह क आ अ व अ अ औ क क अ अ ए व द् द् आ ध् व् अ ह ल द् ल् अ ध् ल् व् अ र अ इ स ह त् अ ल् अ अ अ द् अ ए द् आ व् भ अ अ इ प ए क स ख ल ब द न स अ इ अ व आ अ द् इ अ उ अ स उ अ इ ल ड् अ अ स् ध् इ ल् द् ग् ळ अ डी ब् ळ उ ए ल् त् आ व व् अ न् अ अ त् ज् उ य क क इ आ म् अ अग अ अ ल इ अन अ अ अ ल न अत्ट् अ प् अ ल् उ न् र् ए व य अ ध् ल् अ व् द् न् ग् अ क र भ व् उ अ इ आ आ ग् र अ ग् अ द आ प आ अ ल् ज् उ आ क आ अ म अ अ इ अ अ भ् य एा उ न् र अ र् ध् त् व व ग स् द उ अ क य अ न य प अ इ अ अ अ व अ न् न् उ इ र उ अ इ अ ण् उ अ म् अ त् द ए द ग अ न इ त ल अ स त त ल उ ओ द् आ ओ प अ च् न् अ त् त् अ आ ल स् द् म् न य अ व इ ल ग उ न अ ग एा इ अ द् अ अ त् अ द् इ न प अ अ स् ऑी म् अ द् अ स् द् प् अ य उ अ द् य इ उ अ न् अ इ इ उ न अ स त् अ अ त् अ अ अ य व न न न य त इ अ य ज न ण व अ अ अ इ अ ए द र् ड् र व् द् इ उ ग व् अ व द् ह व् अ अ व् द् आ अ च् न् ओ अ र इ अ अ अ. न् प् ध् ष र ग ए अ य गो ब अ ज य न र् द् व न् अ न् ह अ र् ळ अ र् उ अ अ इ उ अ अ अ न् इ द् अ र् द् अ न् व् त् ल् श न् इ व प र 44444444444444 अ ल अ न् न श् य इ न ओो र् न् उ प न् अ ग् ण् उ ह व अ त् उ य ल अ 444444444444444 ल अ उ त् उ अ ह उ व अ व् स् अ उ द् अ इ ळ् अ द् य म भ अ ल य त् इ द् आ उ आ अ स् म् अ व् उ अ अ अ द् अ अ आ द् य भ् श उ र् औ अ इ र् अ प् अ ज् न ए स अ आ न् अ इ 4.4.40A व ल 224 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) र इ न् अ अ ळ क अ म् क अ क् ए ह अ र अ ० अ व न् आ य अ ग् ए उ अध्याय 1-3-8 अ उ र् अ व् कू क् आ भ् इ ड् र् अ इ अ प् ज् अ व उ अ त् अ र अ द् अ ब् अ प् र र् ह - अ क र् ल अ अ क स ए प क र अ अ न व आ उ क् अ न म् भ् व म् अ व् ग म् ग र उ अ ० र उ र इ इ उ ष आ ल म् अ व इ इ प अ अ . न् प् अ अ गी उ ण् व ५ त् उ द् उ ह र अ अ द् इ आ व उ अ अ व न् अ अ म् ग् स्व् ग इ अ अ अ प् उ ण् ष ए व व अ त् ल अ ण् अ न् स् अ ग् उ अ व ऑी द् अ न व् । अ अ ळ अ ए त् अ द् म् र एा द उ य ० स् ख् इ अ त् इ ण अ आ र् अ न आ य ए म् ए अ र श ए अ य . य ण् स् स् इ उ र् आ व् उ द् अ आ ज् र व ल क ध् उ आ क् र् ळ् इ ग् स् अ उ न् उ न् अ र , ग् आ ण् अ अ व स ब् र् अ अ य अ प् अ त् इ द् आ य अ इ स् अ अ अ ग न् ही र .. ए ब् आ क ह इ अ ध् र् द् ब् र अ अ व् अ व् अ स् अ अ न आ न् ए व इ र ध् उ म् द् इ अ र् अ अ म् र व् य म् द् - र् व त् उ म उ टु टु क इ अ ल अ एा म् ह इ स् डी अ अ अ अ भ् अ म् म् र् अ न् र् ध अ अ अ क् अ अ ह व ब् अ म् अ स् र Fr' उ द् व उ इ य व् अ अ अ य म् एा प् अ अ व् व अ अ द् य ख् ह अ ए म् ध् अ श एा ० उ ब् अ व् अ अ र् अ द् र् अ ग् र व इ अ य अ न् न न व् ल् अ प ग् द् उ ध् अ अ द् इ न् इ इ स् अ म् अ ह भ अ न इ र उ ही आ 44444Aw ०444444MAN अ म् अ र व् आ अ अ र् अ प् एा व ध् ए आ त् आ र द् र् अ अ य अ अ स् उ ळ् अ व अ अ व ए य आ व र ण् अ अ द् अ अ ग् र् इ उ र् आ द् अ अ ब् ड् अ न् र् इ य र् स् अ व र् आ अ अ स् अ ब अ उ श अ क अ अ इ म् द् इ ह व इ स् व् ग् इ न् य च् र् अ र् ल अ अ च् अ म आ र आ अ ध् इ ह अ अ श अ अ उ त् अ म् आ अ म् उ उ क म् अ अ अ र् इ च य् य अ अ र म् द् न उ ए म द् उ ग र उ ी र य म ए अ स स् इ त् क्त् अ न् य् ध् त् अ त म् द् व् इ म स ए व क् स् ण् अ अ अ र् आ इ व् ग् स् र् अ न इ अ य द् र ध आ आ ए स् व त् अ उ य न् द् आ आ ह त उ इ र ह त र उ अ ळ आ आ उ क अ द् ध ब् अ र र र इ अ ए य म इ ळ च अ अ आ अ त् ळ् च त् र अ त् न् उ व अ प् फू छ उ द् क म् अ ब ए इ आ व व द् र अ ल ल ल Fr Fr_he yhur her hot 225 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय arn ल ल ल लक 429444 Homwww ल F58 Name horosomकल E heatFEEPER कल E #Evenis room s FDESnny PFREE hos her hormed them HER 8ER lyre BROFEBRFrency ल"En VER Rom FREE 1818 ललललल ललल 44ARANA 4444444444 444444444444 44444444444444444444444444 8. Fm ल FREER 4444484884448 44444444 अध्याय 1-3-9 ण इ स् इ ण् आ ष् अ क्रू म् ल ह ऊ इ, ह त ह र न् उ य् न् अ ह अ र म स . अ न र प उ द् प् र् ल अ भ् अ आ इ र अ अ ग इ अ अ अ य उ अ र म अ अ अ आ इ अ अ अ स् स् ण न प अ ए र ग र म इ श र इ अ न व अ अ व र त् द् अ अ अ अ ळ उ ग ळ अ आ ही व ण अ अ र द आ अ वह अ अ अ पर आ रद् ग् ए टू ए उ अ ए व अ आ व ब आळ द व उ य क प र उ अ य द् अ इ उ न प र व र अ व व स . म स अउ उ अ आ अ अ अ य अ ग्० स् व ए आ इ अ ी स्य र अ अ उ गबर य एा आ य भ इ य ज ब इ द् द् न भ व् त र उ त अ द ग य उ ळ अ अ द अ क अर . ध उ ल अ व इ अ अ ० व य इ अ अ इ इ र ी एा लआ स् अ ब इ ग अ व ग क द् इ उ त् र अ इ अ ध अ आ अ ल स र व् स् अ अ अ अ इ इ उ ए ल अ न् ग् उ अ ग ण क द् य त् भ् उ इ म् भ् अ अ द् क् आ ध् ग् स् ल आ क् आ य् स् श अ अ न इ इ द् इ र ज् त् अ ष् य अ य छ है अ अ अ न न क व च इ य अ आ र र इ ध इ अ आ अ व प ए औी अ त य क त् अ अ उ अ उ इ र ल अ अ स् ळ श् ध् य य र आ म् श् आ क. व र अ व द स त् श अ अ ध य प अ अ आ द् ध् अ व क अ आ भ. उ म् अ व उ अ ए अ अ ळ इ इ इ य ग अ इ र स इ अ स अ अ इ इ अलि ग ल नळर व अद् ळ प्र अ उ ह स अ अउ द अ य य स 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अध्याय 1-3-10 स् इ द् ग् ए ळ ल ए आ अ क ब अ अ आ य् ग् अ र य इ इ न् ळ आ ळ य् च् न् क एा य् न् अ ड् ल औी द् अ आ इ म् त् उ त् इ स व् इ अ अ त् द् अ अ र् व् म् अ अ ण् इ आ उ क् न् न् इ ए र् द् अ अ ण् न् अ र् E'ल'ल' has ए अ व् अ य व आ क् द् आ अ क य इ न् अ व ळ्स् इ अ म् औी अ ब् , जू म क अ अ र् र् द् म् न् अ र ए उ व् उ टू अ ळ अ द् ल् आ न् अ अ -AAAAAAAAAAAw44. अ to the no obsFbm ळ् अ आ अ क् अ व् म व् य व अ व अ अ इ व् ल इ त् त र् आ स कू ए अ द् AAA व् त् ळ व आ इ. न् अ य इ अ अ न स अ उ स य र अ य ट् ट् अ ब अ द् द् य इ अ अ प अ य व् कू र् अ अ न् व आ त् र ो न् ल् अ ल अ न् आ व य य् अ ळ स् उ ल अ अ अ ळ इ इ ळ न ब् ओ घ् न् इ र म् उ इ अ अ अ द् अ ह उ र् ड् कू द् आ इ अ उ भ् स् इ औी अ ह द आ स् कू न अ न् अ क न् अ ए व ी व् स् स् क इ द् ज् र उ ह म् व् र ल अ क ल् र ह इ GAL आ व् अ इ अ व् अ ब आ अ क व अ ल अ अ द् इ आ अ व् अ ए य् अ ण् अ अ अ य ए य अ ग् स स् त् त र इ स आ त् एा इ क अ द् अ अ र् अ क् द् प् अ व अ क ए उ आ क् अ उ ह अ व आ म् न् त् ल ल क क अ द् आ इ आ क् आ स् आ व त् र आ आ व अ त् इ र् उ न् उ र ल म अ ब् अ त् अ र् अ त् अ ब् प् अ त् व् अ म् क न म् न् म् अ ग् त् उ अ ल अ स् अ व् ए त् अ ल् अ अ र् इ ए स् कू म् अ अ अ अ क ए ब ग् अ उ र् एा क् आ र अ व् द् ल् क म् न् इ इ र् कू अ म् द ल् आ व आ अ ल् य अ र् अ व् इ क इ अ व आ आ ट् म् ह न र् व इ अ अ स् य र् ण् इ अ अ जू अ ए य् व य य र् य ध् व य ग् ळ् व् ल अ अ न् न् उ एा य् अ अ अ ए त् ध् य अ न् व् ल अ अ य आ अ अ इ र ए र् र इ र त् र अ म् इ म् ल अ व् आ घ इ आ न् न् अ त् स् म् य अ ल व व अ म् अ इ क् आ ब् म् ल् अ इ त् अ र् द् अ आ व ए द् अ ल् क् अ ब् अ ब ल र व द् अ ळ् इ इ द् अ न् अ ल ए अ त् अ FF SE hary 14-14 अ WERE द् shots hors NAHANA ल FEB' 8 hr अ अ स् द् च न् 44 227 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ||५|| |॥८॥ ॥११॥ ॥१४॥ ॥१७॥ तृतीय 'आ' अध्यायः आदिदेवन आदियकालदि पेळ्द । साधनेयद् यात्म योग ।। दादिय अ* ज् आनवळिव धर्मध्यान । साधित काव्य भूवलय णेरदोळात्मनभ्युदय सवयव पोन्दे । दारियु दोरेताग अ ज्*ज ॥ सारात्मशिखियेरि बरुवाग योगद । सारवय्भववु मन्गलवु हितवादतिशय मन्गलप्राभुत । सततवु भद्र पर्याय ॥ जा तवज्ञातनत्वगळनेल्लव पेळ्व । ख्यातान्क शिव सख्य काव्य म्नवनु सिम्हपीठवनागिप काव्य । दनुभव जिनमार्गवागे ॥ न* नेकोनेवोगिसुवदध्यात्म योगद । घन सिद्धान्त लेक्कदलि अरिवुदे ज्ञान तन्नरिविनोळ नोळ्पुदे । सरुवज्ञदर्शन ति* एम्ब ॥ परमन काण्के इवेरडरोळ् बेरेवुदे । सरुव चारित्रदनन्त परमात्मनरिव अनन्त ॥६॥ करुणेयु बेरेद अनन्त ॥७॥ वरसिद्धगोष्ठियनन्त अरिवु तन्नात्म अनन्त ॥९॥ अरिदु नोडिदरिगनन्त ॥१०॥ दोरेवुदे मूरुरत्नान्क सरस सम्ख्यातदनन्त ॥१२॥ सरमगगियोळगसम्ख्यात ॥१३॥ बरुवद गुणिसलनन्त करगदनन्त सम्ख्यानक ॥१५॥ परिशुद्ध चारित्रदन्क ॥१६॥ विरचित गणनेयनन्त णव शुदधचारितरदतिशयदिनदलि । अ व नि य धरि सु व नव मि* ॥ सवरदे मेरुवग्रदे निल्व कुळितिप । नव योगशक्तियन्कवदु नवशुद्ध दर्शनयोग ॥१९॥ अवरु ध्यानिप शुद्धयोग ॥२०॥ अवनिय मरेव सुज्ञान नवमान्कदद्वय्तयोग ।।२२।। सविशाल परुथुवि धारणेय ।।२३।। अवसरदो बन्द योग सविद्वयत अध्यात्म योग नवदेवतेय काणब योग ॥२६॥ अवरु साधिप शक्ति योग नवमान्कदादिय योग ॥२८॥ न्मसिद्ध परमात्म एन्नुत मनदलि । ममकारवेन्नात्म रा*ग ॥ समनिसे द्रव्यागम बन्धदोळु कट्टि । दमलात्म योग चारित्र .. तेनम शुद्धात्मयोगायएननुत । आनत भाव स्वभाव ॥ ध्यानान न*ददे बाह्याभ्यन्तर । वेनिलल परभाववेनत हितयोगवताळ्दवसरदोळु योगि । अतिशय बहिरन्तरन्ग ॥ धा* त्रिय नेनहनेल्लव मरेदातनु । प्रीतियोळ् मेरुवनग्र म्थनिसिदध्यात्म योग वय्भवकेन्दु । सततदुद्योग पर ना*गि ॥ हितवेनगागे लोकारवेरुवेनेम्ब । मतियुतनागुत योगि हितदनुभवहोन्दिदाग ॥३३॥ अतिशय शिव भद्र सख्य ॥३४॥ सततदभ्यासद बुद्धि हितवीवचारित्र शुद्ध ॥३६॥ हतिसलु वीर्यान्तराय ॥३७॥ हतवु दर्शनमोहिनीय ॥२८॥ ॥२१॥ ॥२५॥ ॥२४॥ ॥२७॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३५॥ ॥३८॥ 228 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा उपशमवागे हितदे शुद्धात्मस्वरूप अतिशयसबल विराग सिरि भूवलय एारलु गुणस्थानदग्र दारिये सिद्धलोकाग्र दारिये शुद्धविशेष शूर अयोगिकेवलियु नुत क्षयोपशमनदिन्दे नुत शुद्ध सम्यक्त्वसार हितवदे तन्न स्वरूप ॥३९॥ ॥४२॥ ॥४५॥ ॥ ४८ ॥ अथवा स्वरूपाचरण गुरुगळाचरिसुव चारित्रसारद । परियन्ते देशचारित्र । दिरवि म्★ अप्रत्याख्यानदुपशम । बरलथवा क्षयोपशमम् रद यवागे देशचारित्रद । दारियु सकलचारित्र ॥ शूर ज्ञा* निगळ सोम्मागुव कालदे । मूरनेय क्रोधादि नाल हितवल्लदिरुव कषायगळुपशमम् । अथवा यदुपशम ना* ॥ सततोद्योगद फलदिन्द यवागे । क्षितिपूज्य महाव्रतबहुदु जुणुजुणुरेनुव दिव्यध्वनि सारद । गणनेय सकलचारित् रान् * ॥ क्षणक्षणकावत उज्वलवागुत । कुणियुत बहुदात्म योग त्नगे बन्द् आ ध्यानदनुभवदिन्दलि । घनवाद यथाख्यात ज★ निसे ॥ गुणस्थानवेरुव परमावधियागे । जिनर यथाख्यातवदु तोरदे तोरुत जारुत बरुतिरूप । चारित्रदन्तल्लव || शूर न* योगद दारियिन्द्ऐतन्द । चारित्र सार भूवलय ॥ ५४ ॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५८॥ ||५९|| ॥६२॥ ॥६२॥ ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६७॥ 119011 सारात्म चारित्र योग नेरकषायवियोग चारित्रवे यथाख्यात आरेन्टु गुणस्थानदग्र नेरदे देहवर्जितवु वैरिद बळिक सिद्धत्व 118011 अथवा यवागलात्म ॥४३॥ नुतस्वसम्वेद विराग ॥४६॥ हतरक्म लीनवात्मनोळु 229 भूरिवय् भवदात्म योग शूर कषायदभाव दूर पूर्णतेय अयोग गाराद सम्सार नाश ॥७१॥ सार प्रतर लोकपूर्ण विष पूर्णकुम्भदेम्भत्नालकु लाद । वशद औम्दम्रुत शरावे ।। यशवदरोळगे अन्धकनु आकाशदि । नेसेद चिन्तामणिरत्न शुभभद्रवागि बिद्दन्ते मानवदेह । अभवनागलु बिट्टुद ला* ॥ उभय भवार्थसाधनेय तटद्वय । शुभमन्गल लोकपूर्ण दर्शन ज्ञान चारित्रद मूरन्ग । स्पर्शमणि सोकलाग ।। मर्कट मानवनादन्ते मानव । सवर्मनवळिवुन् अर धरणियमेलिर्दु धरेयन्तरन्गद । परिपरियणुविन विष या * ।। वरिदु तन् आत्मन दर्शनवेरसिद | धरेयग्र लोकव होन्दे चामरवादतिशयवादवय्भव । आ महात्मरिगिल्लवागे || प्रेम चराचरवन्नेल्ल काणिप । कामिनि मोव होन्दि भामेयोळ् कोडुवनात्म 119911 प्रेमादिगळगेल्द कामि 119211 शरीमयसुखसिद्ध भद्र शूररध्यात्म स्वातन्त्र्य ॥६८॥ पूर्णदन्डदे कपाटकवु 118211 118811 118911 ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५७॥ ॥६०॥ ॥६३॥ ॥६६॥ ॥६९॥ ॥७२॥ ॥७३॥ 119811 ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७९॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय 112011 सीमेय गडिदान्टिदभव 112311 ॥८६॥ राम लक्ष्मण ह्रुदयाब्ज गोमटेश्वरनय्य व्रुषभ ॥८९॥ भूमिकालातीत समज्ञ ॥८१॥ 116811 ॥८७॥ ॥९०॥ आ महात्मनु भूमियळिद स्वामिये जगदादि गुरुवु कामसन्निभनल्लि बेरेद अ महिमनु श्री अनन्त रिद्धिवय्भवदलि ज्ञान साम्राज्यद । शुद्ध दर्शनदा अन् कु★ अ ॥ होदे चारित्रव देहद सेरेमने । इद्दरु बन्धवळिपुदु त्नुविद्दरेनवनमलात्म सम्पद । जिननन्ददे तान् अक् षुब्ध ॥ दनुभव होन्दुवध्यात्मदोळिरुवागं । घनतेय देहवळियुव तोरुव मुनिमार्गदारय्केहिदेह । तोरुतलात्मन बळिय ॥ सा रु* वनावाग काराग्रहदल्लि । सेरिरुवात्मन बिडि भयविनिसिल्लदे ध्यानदोळा योगि । नयमार्गवनु बिडदिरुव न् * ॥ नियतदोळात्मनोळ् बाळ्वाग वशवागलाध्यान तनुवु कायोत्सर्ग । दसमान पल्यन्क य मी * ॥ वशदेरडरोन्दासनदोळगि ध्यानाग्नि । लय माळ् पुदघवनेल्लवनु । रस परिपूर्णनागुवनु वशद मार्गवनु चिन्तिपनु हुसिमार्गवनु तोरेदिहनु होसदीेवडेदनन्तिहनु रससिद्धियनु बेडदिनु बसिरनु दन्डिसुतिहनु हुसिय प्रेमव तोरेदिहनु ॥९७॥ 1120011 ।। १०३ ।। स्वसमाधियोळगे निल्लुवनु बसिवनु अपराधगळनु यशदे लक्ष्यवनुसाधिपनु कुसुमकोदन्डदल्लण यशद चारित्रदोळिहनु ।।११२ ।। रिसिय रूपिन भद्रदेहि ॥१०६॥ ॥१०९ ॥ ।। ९८ ।। ।। १०१ ।। ॥ १०४ ॥ ॥१०७॥ ॥११०॥ ॥११३॥ 230 नेमदे चिर कालविरुव नाम रूपगळेल्लवळिद श्रीमहासूक्ष्म स्वरूप स्वामि अनन्तान्कवलया स्वासम्पूर्णनागुतलिवनु एसेवनु कर्म दन्डवनु होसदाद गुणदोळगवनु होसहोस परिय चिन्तिपनु येसेवनु परद्रव्यगळनु असम भूवलयदोळहनु यशद मन्गलदप्राभ्रतनु भयवेन्तेन्दु केळुव आ योगियु । जयिप परानुरागवनु ॥ नयद लि* चिन्तिप आकुलितेय बिट्टु । स्वयम् शुद्ध रूपानुचरण यशवदु शाश्वत सुखवेन्दरियुत । असमान शान्तभावदलि ॥ त* स स्थावर जीव हितवनु साधिप । हसवळिदेल्ल पौद्गलिक दलि बन्द सुखदुखगळलि आकुलितेय । बलवेष्टिहुदेन्द म्★ अवनु ॥ बळिसार्द व्याकुलवेल्लव केडिपनु । कलिलहन्तकनात्म शुद्ध नवपद धर्मद गणितव गुणीसुत । अवरोळगात्म गव्व एा । ल्लवनु साधिसुतिर्प कालदोळनुराग । दवयवविनिसिल्लदिनु जयजयवेन्नुत तन्न देहदोळि । स्वयम् शुद्ध आत्मन न* वनु । भयदिन्द बिडिसुत परद्रव्यदनुरागद् । जयवन्ने चिन्तिसुतिहनु णवपद योगवनदरोळु रतियिर्द । सवियादनु‌काकार सरित ।। नवमान्क गणितदोळ् स्वद्रव्यवरिव । भवभय नाशनकरनु ॥८२॥ ॥८५॥ ॥ ८८ ॥ ॥९१॥ ॥९२॥ ॥९३॥ ॥९४ ॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९९॥ ॥१०२॥ ॥१०५॥ ॥ १०८ ॥ ।।१११ ।। ।। ११४ ॥ ।।११५।। ॥ ११६ ॥ ॥ ११७ ॥ ॥ ११८ ॥ ।।११९ ।। ॥१२०॥ ।।१२१ ।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरणु बन्दवर पालिसुव परम सम् यज्ञान निधि अवतारविनिसिल्लदवनु सुविशाल धर्म साम्राज्य अवधरिसुव तत्वगळनु नवकार जपदोगिरुवम् दरुशनवमाडे परद्रव्यगळ् । बरुवदु कर्मद बन्ध । वर स्* म्युक्त्वव शुद्धवागिसदेन्दु । अरिवरु मूवरु गुरुगळ् रितेयोळात्मन सम्सारदिम् कित्तु । अरहन्त सिद्धरम् म* नके ॥ बरुवन्ते माडलु सिद्ध तानक्येम्ब । परम स्वरूपाचरणर् ॥ छोद्यवागिरुव चारित्र सारिद । रायर् आचार्य अवर य् अ । महवीरदेवन वाणियिम्बन्दिह । महिमेय भद्रसवख्यवु शु* री हरुष वर्धनवाद आ निराकुलितेय । सरमाले मन्गलवर शरी* अरहन्त देवर क्पेयु सरलान्क बुद्धिय रिद्धि साध्य असाध्यवेम्ब एरडनुतिळिदिह । आद्याचार्यरु हितवर् सहनेय धर्म निराकुलवेन्नुव । महिमेयन्कारवा करुणेय बेरेसिह गणितदे गुणितदि । बरुव दयापर धर्म बरुवदु समख्यात गुणित परिपरि यतिशय सिद्धि 1128011 ॥ १४३ ॥ ॥१४६॥ ।।१४९ ।। ।।१५१॥ ॥१२२॥ ।। १२५ ।। ।।१२८ ॥ ॥१३१॥ इळेयपालिप नव्य काव्य सुळिय बाळ्वेयदग्र काव्य एळेवेण्ण दनियन्क काव्य ॥१३९॥ ।।१४२ ।। ।। १४५ ।। ।।१४८।। सिरि भूवलय कविद कळ्तलेयनोडिपनु अवनु धर्मद बेट्टवेरि नववनु भागिपनेरडिम् नव स्वरगळनु कूडिसुवम् ।। १५८ ।। ॥१६१।। ॥१६४॥ ॥ हरुषदायकवाद वाक्य सरस साहित्यद गणित परम भाषेगळेल्लविरुव ॥ १२३॥ ॥१२६ ॥ ।।१२९॥ ॥१३२॥ अवनु निरन्जन पदनु कविकल्पनेगे सिक्कदिहनु भवसागरवनु गुणिपम् नव सिद्धकाव्य भूवलयम् वीर महादेव वाणिय सर्वस्व । शूर दिगम्बर मुनियु ॥ सारिद गुरुगळु दारियोऴ् बरुवाग । नेरदध्यात्म भूवलय रोषवळिद काव्य सिद्ध सम्पद काव्य । आशेयोळ् भव्य भावुक रु* ॥ लेसिनिम् भजिसुत बरुव निर्मल काव्य श्रीशन गुणितद काव्य अष्ट कर्मन्गळ निर्मूलव माळ्प । शिष्टरोरेद पूर् वे* काव्य ॥ द्रुष्टान्तदोळगेल्ल वस्तुव साधिप । अष्टमन्गलविह काव्य त्नु मन वचनव क्तकारित् अनुमोद । जिन भक्तियनुभव न्* वद ॥ गुणकारवेन्नुव गणकरिम् बन्दिह । अनुभव वय्भव काव्य थळतळिसुव दिव्यं कलेगळर्वत् नालकु । गेलुवन्कंद्नम न* द काव्य ॥ बळेसुत चारित्रव शुद्धगोळिसुत । बळिय सारिद दिव्य काव्य ।।१५९ ।। ॥१६२॥ घळिगे वट्टल दिव्य काव्य गिळिय कोगिलेदनि काव्य ॥ १६५ ॥ सुलिवल्ल सुलियद काव्य बेळेव सर्वोदयकाव्य तिळियाद सरसान्क काव्य इळेगादि मनसिज काव्य 231 परमवृक्षदर्धिय गणित गुरुगळाशिसुतिह सिद्धि परिपूर्ण भरतद सिरिय अरिवु एाळ्न्ऊर् हदिनेन्टु अरहन्तरोरेद भूवलय ।। १२४ ।। ।। १२७ ।। ॥१३०॥ ।।१३३॥ ॥ १३४ ॥ ॥१३५॥ ॥१३६॥ ॥१३७॥ ।।१३८ ।। ।।१४१ ।। ।। १४४ ।। ॥ १४७ ॥ ।। १५० ।। ।।१५२।। ॥१५३॥ ।। १५४ ।। ॥१५५॥ ॥१५६॥ ॥१५७॥ ॥१६०॥ ॥ १६३॥ ॥१६६॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ||१६९।। ॥१७१।। इळियकळ्तले हर काव्य ॥१६७॥ बळिय सेरलु व्रत काव्य ॥१६८॥ गेलवेरिद व्रत काव्य नलविन्ध यात्मद काव्य ॥१७०॥ सलुव दिगम्बर काव्य कर्नाटक मातिनिम्दलि बळेसिह । धर्म मूर्नूरर्वत्मूर म्* || निर्मलवेन्नुत बळिय सेरिप काव्य । निर्मल स्याद्वाद काव्य त्नगे बारद मातुगळनेल्ल कलिसुत । विनयदध्यात्मम् अ* चल।। घनदन्क गळुसाविरदिन्नूरतोम्बत्तु । एनलु अन्तरदलि बरुव तानल्लि हत्तूवरे साविररवत्ता । रानन्द वेरडम् वेरस् ह* अ । काणुवद् हदिनेन्टु साविरदोळनूर । काणद नलवत्नाल्कनक रोदनवेल्लव नळिसुव(ओडिप)सोहम् । आद् इ ओम्द् ओम्बत्तु बह अ*॥ साधिसि मूरुकाव्यवकूडिदक्मर । आदिजिनेन्दर भूवलयम् ॥१७२।। ॥१७३॥ ॥१७४॥ ।।२७५॥ ३ने आ७२९०+अनतर १०५६६=१७८५६%२७%९ अथव अ-आ२८७५५+३ने आ १७८५६=४६६११=१८९ 232 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय अध्याय -4 Chakra 1.4.1 542853 1 1451 7 52 7 1 54 152 28 43 1 56 53 1 6 45 1 1 1 1 13 4 46 54 56 35 7 10 1 1 56 1 56 451 56 54 1 542856 1 13 565656 1816 1487 1 47 7567 42 57 43 446591 53 47 57 1 54 1 7 49563 4 (12) (13) (14) 1 47 52 1 55 1 54_16_45 1 59 1 1 28 4 4 18 1 45 50_10_58 51 7 52 53 56 1654 45 1 60 1 3 1 47 1 3 57 1 453556 1 46 7 1 7 4 54 3475547 15054 1860 5054 1 47 1 56 533 13 53 45 47 5345459 59 7 4 1845 (1) 1 1 45 4 16 52 31 1 46 184 45 51 28 1 4 4 53 1 3 52 7 13 35 47 5456 1 1 43 30 43 160 1 5644 1 1 54 59 35 56 45 1 1 13 18 1 4 1357 (15) (2) 45 16 163 43 52 47 1 42 40 58 54 6 56 1 3 4 56 53 24 45543 40 28 52 55 4 137 5050 4 7 43 2454 56 59 38 4 1 52_45 7 1 55_53 53 54 48 43 1 1 (10) (11) 16 55 18 47 45_33_47 53 43 47 1 58 57 56 3 1 54_57 1 4 1 18 4 1 51 53 54 (3) 1 47 4 1 33 1 35 30 50 54 1 18 1 52 38 1 7 3 54 52 59 54_53 7 563 53 3 45 1 16 47 1 3 4 54 1 45 28 54_58 43_30_42 1 1 52 1 4 47 1 28 56 1 4 30 60 1 47 56 1 4 43 1 1 1 1 61 1 4 46 45 1 4643 1 51 1 42 56 59 24 16 47 4 1 43 55 16 4538 1 48 6038 59 45 4 48 45 53 45 1 53 1 1 145 (9) 54448 47 7 47 30 1 535659 1 58 15459 2458 1 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ཨྠ g॰ ེ བོ 8 ཆེ་སྐྱེ 7 (30) 1 (33) 1 1 1 43 56 45 16 7 (32) 46 3 1 (28) 8 58 45 55 3 7 3 16 47 43 1 - ུ ྴ-༤ གི་ལྷ ོ་ག་ 30 50 7 1 7 50 50 43 7 1 47 1 4 1 7 (34) ལྷུ་༅་ལྷ་ ག་ཉོ ༈༙ 8 ཉོ ༠88 --- ་ ་ 8 - 8 8 22 7 4 5 5. 28 54 1 30 54 16 47 47 7 1 47 54 1 53 50 1 1 43 3 ཤ་ཆེ་ཌ་བིན 16 45 43 7 30 1 60 16 56 16 1 47 1 ** 54 1 47 1 3 - གྷ ེ ེ་ཌ བི་བིན་ 8་。 ན སཎྜུ རྩྭ。 。⌘ས ོ ་བཻབེ་ “སྦེ 47 50 7 4 52 1 1 43 13 38 13 1 13 1 1 47 1 48 45 1 7 47 56 1 43 42 30 56 47 4 3 55 54 1 43 1 (29) ་ ན ི ་ ོ་ ི མ ུ་8་སྒྲ་ཚེ་བ༄ - ་ྲ✖༄8 -3་3བྷུ༅་ ཆེ གྷ་གྷ་ཡ་ཆེ་གྷ་འབབ་སྒ་“ གླུ࿐ ་ ⌘⌘8ཡཿ ཎྜཱ་ཡངྒིན་རྒྱན་ - -རྒྱན 1 (18) ཿ8༔ ༔ བླློ་ྒུས ཆེ 48 46 1 1 45 54 3 1 52 9 43 1 47 4 3 52 1 1 1 1 (17) 54 43 1 7 43 56 31 52 55 45 16 52 7 1 1 54 53 1 1 55 56 52 16 1 55 1 24 53 3 1 18 52 1 सिरि भूवलय 59 16 16 4 (20) 35 16 43 50 1 50 4 16 1 54 56 1 54 56 1 7 43 48 1 1 60 54 1 30 1 59 45 1 54 48 1 43 4 52 56 1 53 43 1 1 1 56 1 43 43 1 52 4 1 45 4 59 42 1 (27) 1 42 1 3 54 1 16 55 58 48 50 1 55 16 ཕུ ཤྩ གྷ ॰ 30 54 1 1 55 24 1 47 54 1 28 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-------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय Chakra 1.4.10 56 1 1 53 1 55 1 43 47 4 16 1346 57 1 16 52 3 523 3 1 47 4 51 52 45 56 28 1 13 55 47 47 1 24 54_23_45 53_45_54 1 60 45 43_56_56 13 54 1 1 1 4 47 551 161 14513454 16 1 1 307 15031 52 143306041 1 3048 56 13 1 56 51 1 59 55 56 50 54 54_4352 1 45 1 46 47 3 1 38 53 42 1 1 3 1 53 3 54 56 564 1 1 3 1 4343 42 4 45 45 3 1 45 2448 3 18 (175) 60 28 3056 28 17 9 54 54 28 52 7 1 1 3 54 57 4 5553 1 28 1 54 561 47 1316 5055 51 1 147 155 506044 143 1 1 30 745_53 54 56 59 54 28_45 16 16 55 58 56 1 1 1 52 4 5453_43 1 1 52 54 54_4 3 7 1 156 1 1 45 56 1 28 145 154 2459 1 3 18 34_45503930 53 47 4356 7 1 (185) 30 1406 14 143 56_1645 1 45 56 1 7 52 4 30 47 7 13 7 18 43 1 59 56_16_7_52 45_54 1 1 3 4 44 1 30 13 45 1 54 59 1 51 18 1 47 28_47 1 3 54 43 1 45 450 2843 5454 7 1 47 59 18 53 59 1 1356 47 7 7 45 47 52 (184) 43 1359 5652 47 5553330 561 1 1 59 1 13 24 1 47 5448 143 156 173 24 355 54 16 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-------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) run 'ल ल yon ल ल ल E wrtun F ललललल 44444444,04 । ल015 Embry 4 440404 ळ् ए इ व न् द् व श ल् अ र् य o 44444444444444444ANAMA 449-4144444444 NEGAAN ल ल heroEHRE 444444444444444444444 AN,44444444444 ARENA अध्याय 1-4-1 र् क य अ अ इ भ् उ म् उ अ र् अ म् क त् अ व् य अ ही द् अ अ अ अ इ ध् र् व् ज् उ ऋ अ अ व अ व द् अ व र अ र क व अ ळ व व व एा अ प उ अ न उ उ ण् श् त् इ ध् स् अ य् न् श् अ र् अ उ इ उ व् आ अ न् म् अ ल अ र ए द् अ स् अ अ क इ इ एा अ द् ब् ऋ ष् भ् उ म य ए र् द् अ ह अ आ अ न् अ य श् अ द् ज् व अ ध् उ अ उ उ र आ न् ल् अ ब र एा र ब र अ न आ व् य आ अ आ य् द् न् य् द् द् ऊ स उ इ एा अ अ द् इ ए म् ५ अ ध एा इ द् भ् क अ इ इ य अ आ म उ ळ ज न र अ अ त् ग् त् अ ह अ व इ इ अ अ र् स् ज् व द् अ अ ळ एा अ इ अ आ द् ए ए आ त् म् न् अ ण् ड् प् र डी व अ आ इ व य ऑी द् र् आ इ क म् इ फ् उ ब् ब् इ उ त् औो र् व् स् ट् इ अ म् द् उ अ ल य य र प् त् अ ए ल् एा न् द् च् न् य् त् न् अ ष् श् व् आ अ र् श् अ इ अ एा इ अ भ् य् अ न् इ अ च अ ज् ग् ब् र् अ एा अ म् ट् अ उ आ र् म् स् र् य उ व् आ आदि अ एनअ आ इ र अदक र प त ग ण अ अ म अ इन अ क व इ ग ह अ न् व अ इ त् अ अ अ अ. ० अ इ ध् द् अ ध् त् अ भ् अ ण् व औी ए न् इ अ त् ल् ए द् ट् अ प् ह ट् स् द् इ प् द् य् द् अ य अ अ अ र इ प न उ न ग अ य व स अ अ र स प अ अ र व अ व अ ण् अ ग् अ अ ल् अ इ ळ र् अ त् अ इ ट् अ अ अ आ इ क त् स् य् अ घ् अ त् र् अ न् त् ए अ ही इ म अ ष् न श औौ स् द् अ उ अ इ अ इ न् त् न् स् इ अ घ् द् ज् आ म् र् अ न् उ न् व् अ त् ल् त् त् व् अ व् य् औौ अ आ क म् इ अ उ इ इ इ म् र् य ए अ व व् उ स् इ अ ष् ळ् ए य इ य ए अ द् व् त् क य ग त् अ ए प न अ व स् म् स् इ क् पी ए इ व् भ् त् अ अ अ इ ए आ ल् आ म् अ । अ भ् अ ए आ इ र् क द् क र् अ अ न् स् न् भ् म् त् अ अ अ उ न र् घ् उ न् न् व् - आ न् अ इ द् न् ण् द् आ व य उ न् ग् द् द् अ इ म् अ न् अ अ अ ल् न् अ स् श् न् अ अ अ गौ अ अ क अ र् इ अ न् द् ए ब अ म् स् अ अ अ ज् ए इ इ म् ष् द् ग् अ न् अ न अ द् न् अ अ न् द् य ए आ ल म व अ न् ळ् द् उ क ब अ द् अ द् अ स् उ अ न् ल् अ इ ए ग् ह अ ज् उ त् आ इ गौ त् अ अ अ अ र् ए द् अ ELA 4.0,4,40,4444444 444 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आ ग द् य र ग् ए य अ क ध् अ उ स् उ अ क अ न् 247 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अध्याय 1-4-6 镑 3 외, 의외의, 의, 외씨 5 he has to tosh for: 可、可、可、、、 可、可、、、 可、可、雨、可、、、、、 E' for the the host E to her to tbh to to to to for t For the blob to for ''' 可、可、可、、、、、、、hoo、町、可、可、5、 to th to her to her bottle' to for thor to r hh her to to to to th W It's 16th b 5555bber E for her by the t 252525 to her to her b ́ ́ ́ to to 可、、、、、、、、 too he's tech to bolo to for both to th 여석, 여, 의, 의, 의, 외벽 외서, 의외의 여외에 새벽,외, 위, 외외서외에요 tomo Ibm bbm he +5 +5 +5 16 to to to to to to to to' Itoh bhort to to to to the 16 he、可、可、可、可、 ' 에 의해 해 허리 3 3 필 、、、、、、、、、、、, 、、、 ́ ́ ́ ́ I'm bhor to to to to t to tom tom to to to th 248 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-4-7 आ tot 18 to both 18 m लिलल ल ल ल to to' ल ल whole w to to to to 165155555 5 to try to m ल ल ल ल #555 to 156 to 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Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ||५|| - सिरि भूवलय चतुर्थ 'ई' अध्याय : इष्टोपदेशव नष्ट करमाम्शव । स्पष्टदोळ् अरहन्तरु श*री ॥ अष्ट्गुणान्वित सिद्धर समरिसिद । अष्टमजिन सिद्ध काव्य यशस्वतिदेविय करविडिदादिय । वृषभजिनेश्वरन काव्य ॥ अश री*र सिद्धत्व वड? बाळुव काव्य । ऋषवम्शदादि भूवलय मूरुवेळेयोळु सामायिकदेळुनिलव । वीरजिनेन्द्र दारियदम् ॥ सेरि प* पद्धतियतिशयदनुभव । सारभव्यर काव्य । लक्षणवरियुत स्वसमयवद सारी अमरदन्कदोळ् बेरे सि ॥ शिक्झयोऐदिन्द्रिय मत्तु मनवनु । लक्षणदिम् स्तब्धगोळिसि तनुवनु मरेयुत जिनरूपे नानेम्ब् । घन विद्येयनुभववागे ॥ म* नवे सिम्हासनवागिरलमलात्म । जिननन्ते कमलदासनदि घनवय्भवदिन्द कुळितु । ॥६॥ जिननन्ते कायोत्सर्गदलि ॥७॥ अनुदिनदभ्यासबलदि दिनदिनयोग हेचचुतिरे ॥९॥ इननन्ते तपिन ज्योति ॥१०॥ घनवागि बेळगुतिरलु तनगे ताने ब्रम्हनेनुव ॥१२॥ जिनधर्मदनुभव बरलु ॥१३॥ ऋणद देहव मरेतिहरु एणिकेगे बारदध्यात्म ।।१५।। घनप्रतिक रम तानागे ॥१६॥ चिनुमय मुद्रेयन्दोदगे घनरत्न मूरर बेळकु ||१८॥ तनगे ताने बन्दु बेळगे ॥१९॥ मनुमथनुपटळ करगे जिननाथनोरेद भुवलय ॥२१॥ तनुविनोळात्म भूवलय ॥२२॥ वेनुतिन्तु निलुव कुळिरुव तनुवदे स्वसमय सार न्वदन्कदन्ते स्वयम् परिपूरणद । अवयवददे शुद्ध गुणद ॥ अवतार स्थानद हदिनाल्करन्तद । चिनुमय सिद्ध सिद्धान्त तनुवनु परवेन्दरियुत आ पर । दनुरागवनु तोरेदाग ॥ जिन र सिद्धर रूपिननुभव हेच्चुत । तनु रुपिनन्तात्म रूप करगुवुदासर बरुव बन्धवदिल्ल । निराकुलितेय पद्म वे*ळु || सरमालेयन्ते तन्नेदेयलि काणबाग । अरुहन पददन्ग गुणित त्रतरवाद अद्भुतपरिणामद । सरस सम्पदवेल्ल अवन* ॥ हरुषवनेरिप समयद लब्धियु । बरुवाग आ अन्तरात्म बरुवाग अवनन्तरात्म ॥२९।। परिणाम लधियागुवुदु ॥३०॥ बरलरहन्त तानेनुव हरुषवर्धनकादि एनुव ॥३२॥ बरे बरुवाग तन्नात्म ॥३३॥ गुरुवादे जगके एन्देनुव अरहन्तरनु कन्डेनेनुव ॥३५॥ परिशुद्ध नाने एन्देनुव ॥३६॥ परमात्म पदवडनुव । गुरुपद दोरेयितेन्देनुव ॥३८॥ सिरियायतु ज्ञानवेन्देनुव ॥३९॥ परम मन्गल नाल्कु एनुव ||८|| ॥११॥ ॥१४॥ ॥१७॥ ||२०|| ॥२३॥ ||२४|| ॥२५॥ ॥२६॥ ||२७॥ ॥२८॥ ||३२॥ ॥३४॥ ॥३७॥ ॥४०॥ 253 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म चरण भूवलय शिवनव शाश्वत निर्मल नित्यनु । भववनेल्लव केडिसुव ह रिद्धियाशेय होद्ददिरुव चिन्मयनु । शुद्धत्ववेल्लवह श्* री वीतरागनु निरामयनु निर्माहियु । कातरविनतिल्लदिह ।। ख्यात तानु तन्नन्दव पडेव कार्यदोळि । आनन्द शाश्वत सुख म★ । तानु तन्निन्दले तनगागि पोन्दव । तानल्लदन्यरिगरिया ।। अविरल सुखसिद्धियवने महादेव । अवनादि मन्गल् भद्र ॥ बुद्धिर्धियाचार्य पाठक साधुवु । शुद्ध सम्यक्त्वदसार री* तियोळु बाळुव भव्यर्गाश्रय । फूत पुण्यनु शुभ सौख्य रौष तोषगळिल्ल क्रोध मोहगळिल्ल । आशेयनन्तानुबन्ध | प★ असरिसलेडेयिल्लदवननुभवकाव्य । श्रीशन सिद्ध भूवलय 118911 ॥५०॥ ॥५३॥ ॥५६॥ ॥५९॥ ॥६२॥ ॥६५॥ अवरव् यबाध गुणरु सवियनन्द जाञान धररु अवरनागत सुखधररु अवरु शाश्वतरु चिन्मयरु सिरि भूवलय ॥७५॥ 119211 ॥८१॥ घासि अप्रत्याख्यान रोषद सूक्ष्म सम्ज्वलन लेसिनिम् भावदोळ्मेरेये घासिय माडुतबहुदु आशय भेद विज्ञान श्रीशनन्दोळु योगदलि राशीय सिद्ध भूवलय श्रीशनाडिद दिव्यवाण मासुत प्रत्याख्यान आशाजलद सम्ज्वलन राशी कषाय भेदगळ मासदे बन्दु सेरुवदु माषद काळिनन्तात्म आ सिद्धालयद अनन्त इदरोळगिरुव षड्द्रव्यगळेल्लव |हुदुगिकोन्डिह पर* म ॥ पदप्राप्त जीवने पन्चास्तिकायदे । अदु मत्ते एाळु तत्वगळ न्वपदार्थगळेम्ब अवसर वस्तुव । नवयवदोळु तुम्बि म* रळि ।। अवनेल्लवनोम्दकूडिसी तिळियुव । अवुगळ लेक्कवे जीव दरुशन ज्ञानचारित्रव वशगोन्डु । सरमाले इवनेल्ल मुरु गु★ । सरद अम्बत् एाळु ऐदारु कूडलु । बरुवद्दिप्पत् एाळरन्क भूवलयद सिद्धान्तइप्पत्ळु । तावेल्लवनु होन्दिसिरु* व ।। श्रीवीरवाणियोऴ् बह 'ई' मन्गल काव्य । ई विश्वदूव लोकदली दिवगळग्रद तुत्त तुदियली बेळगुव । शिवलोक सलुव मान व् * अरु ।। धवल छत्राकारदग्रदगुरुलघु । सवियात्म गुणदोळगिहरु ॥७२॥ नवनवोदित सूक्ष्म घनरु 119311 अवरवगाहदोळिहरु ॥७६॥ ॥७९॥ ॥८२॥ नव सम्यक्त्व दरशनरु अवरतीतद ज्ञानधररु अवरावागलु नित्यर् 118211 ॥५१॥ 254 राशी कषायगळळिगुम् लेसिन जलरेखेयन्ते तासु तासिनोळगनन्त लेसिन जलरेखेयन्ते राशीमाळ्पुदु तुषगळनु श्री सिद्धालयवे अल्लिहुदु 114811 ॥५७॥ ||६०|| ॥६३॥ ॥६६॥ अवरनन्तानन्त बलरु सवि रूपिनशरीर घनरु अवर सुखवु बेकेन्देनुव ॥४१॥ ॥४२॥ 118311 118811 ।। ४५ ।। 118811 ॥४९॥ ॥५२॥ ॥५५॥ ॥५८॥ ॥६९॥ ॥६४॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ 119011 ॥७१॥ 119811 119911 112011 ॥८३॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय ||८४|| ||८५॥ ||८६॥ ||८७॥ ||८८॥ ||८९|| नव पद काव्य भूवलय विश्वदग्रके गमनवनि? योगीयु । विश्वेश्वर सिद्धवर वे* || दस्वरूपरध्यानिसुत भावदोळिर्प । विशवज्ञ काव्यदग्रविदु । प्रमाम्तकाव्य अरहन्त भाषित । गुरु परम्परेय्आदी प*दद । गुरु सिद्धपदप्राप्तियागबेकेम्बर्गे । सरसविद्यागम काव्य । पद्धतियोळु चकबन्ध हम्सद बन्ध । शुद्धाक्षरान्क र* क्षेयनु || होद्दिद अपुनरुक्तामर पद्मद । शुद्धद नवमानक बन्ध वर पद्म महापद्म द्वीप सागर बन्ध । परम पल्यद अम्बु बन्ध ॥ सरस शलाकय श्रेणियन्कदबन्ध । सरियागे लोकद बन्ध रोमकूपद बन्ध क्रौन्च मयूरद । सीमातीतद बन्ध । कामन प* दपद्म नख चक्र बन्धद । सीमातीतद लेक्क बन्ध नेमद किरणद बन्ध ॥९०॥ स्वामिय नियमद बन्ध ॥९१।। हेमरत्नद पद्मबन्ध हेम सिम्हासन बन्ध ॥९३॥ नेमनिष्ठेय व्रतबन्ध ॥९४॥ परेमरोषव गेलद बनध श्री महावीरन बन्ध ॥९६॥ ई महियतिशय बनध ॥९७॥ कामन गणीतद बन्ध आ महामहिमेय बन्ध ॥९९॥ स्वामिय तपद श्री बन्ध ॥१००। सामन्तभद्रन बन्ध श्री मन्त शिवकोटी बन्ध आ महिमन तपत बन्ध ॥१०३॥ कामितफलवीव बन्ध नेम शिवाचार्य बन्ध ॥१०५।। स्वामि शिवायन बन्ध ॥१०६। नेमनिष्ठेय चक बन्ध कामित बन्ध भूवलय उत्तम सम्हननद चक्रबन्ध म । त्तु ष्ट देहद रा*ग ॥ चित्तजनन्दद सम्स्थानबन्धदे । सुत्तुवरिद दिव्य बन्ध वरद सम्यग्दर्शनदादिय बन् ध । गुरु परम्परेयआ आ चाम्ल ॥ वर तपबन्धद सरमग्गिकोष्टक । विरुव अध्यात्मद बन्ध तपिसुत देहवु उपसर्गकेडेयागे । अपरिमितानन्दन् अव * आ ॥ सुपवित्र भावद सत्यवय्भव बन्ध । उपशममयादी बन्ध नव पद्मबन्धद कटिनोळ कट्टीद । अवर सच्चारित्र य* बन्ध ॥ अवतारविल्लद अपुनरावृत्तीय । नवमान्क बन्ध सुबन्ध तेरस गुणठाणदोळगात्मन कूडी । सार धर्मव राशी माडी ॥ वीर गु*णगळ अनन्तान्कदोळु कट्टी । सारवागिसिह भूवलय शूरवागिसिद भूवलय ॥११४॥ नूरारनन्त भूवलय ।।११५।। सारत्मरावास वलय धोरर चारित्र्य वलय ॥११७॥ दारीयोळपवर्ग निलय ॥११८॥ सेरुवध् यात् म निर्ममव कर कारी विलयद ॥१२०॥ दारिय तोर्वन्क निलय ॥१२१।। भूरी वय्भवद सद्वलय घोरोपसर्गद विलय ।।१२३॥ सारत्म शिखेयादि निलय ।।१२४॥ करकार्मणदेहविलय ॥९२।। ॥९५॥ ॥९८॥ ॥१०॥ ॥१०४॥ ॥१०७|| ॥१०८॥ ||१०२।। ॥१०९।। ॥११०॥ ।।१११।। ||११२॥ ॥११३।। ॥११६।। ||११९|| ॥१२२॥ ॥१२५॥ 255 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ॥१२८॥ ॥१२९॥ ॥१३०॥ ॥१३१॥ ॥१३२॥ ॥१३३॥ ॥१३६॥ चारित्र सार सदवलय ॥१२६।। सार ज्ञनामुतनिलय । ॥१२७॥ दारयकेयवरन्क वलय घोरत्ववळीद भूवलय करुणेय धर्मवर्धनवागे लोकदे। बरुव कष्टगळेल्ल कर* गी | गुरुविगे शिष्यने गुरुवागुवागल्ली । दोरेव समाधियोळ् मोक्ष त्नगे ताने सिद्धियागुव कालदी। जिन् धर्मदतिशय बेळगि ॥ घन वेद द्वादसदनुभववेरलु । जिनवर्धमानन धर्म तारुण्यव होंदी मन्गल प्रात। दारदन्ददे नवनम न* || वेरलु बन्दिह अध्यात्म वय्भव । शूर मुनिगळ दारी इह रोग शोकगळेल्ल करगुव योगद। सागर पल्य शलाके ॥ यागुव म*हिमेय नवमानक बन्धद । साघन कर्म सिद्धानत श्री गुरुपदद सिद्धान्त ॥१३४॥ नाग नरामर काव्य ॥१३५।। आग पेळिद योग काव्य • तागुवात्मध्यान काव्य ॥१३७॥ नाग सम्पगे पुष्प वय्दय ॥१३८॥ भोग योगद सिद्धी काव्य भोगद पतिय कळेव ॥१४०॥ श्री गुरु शिवकोट्याचार्य ॥१४१॥ आग बाळिद शिवायनन रोगव केडिसिद काव्य ॥१४३।। नागमल्लिगे कृष्ण पुष्प ।।१४४॥ तागलु स्वर्ण सिद्धान्त हेगेयु तप्पद योग ॥१४६।। नागार्जुन सिद्ध कावय ॥१४७॥ आगिर्द कापुटानक श्री गुरुवर सेनगदि ॥१४९।। राग्दि पेळ्द सिद्धानत ॥१५०॥ साधनवह स्वर्ण काव्य राग विराग भूवलय अष्ट महाप्रतिहार्य वय्भववनु । स्पष् टगोळिसिदादि वर ह । इष्टार्थवेल्लात्म सम्पदवेन्नुव । 'अष्टम जिन सिध्धद काव्य णुणुपाद गडुचाद धर्म कर्मद लोह । दनुभववदे स्वर्ण श्री*॥ अनुभवगम्यद समवरणद काव्य । घनसिद्धरस दिव्य काव्य तनुवनाकाशके हारिसि निलिसुव । घनवयमानिक दिव्य काव्य ॥ प* नसपुष्पद कावय् विश्वम्भर काव्य । जिनरूपिन भद्र काव्य न्नेकोनेवोगिसी भव्य जीवरनेल्ल । जिनरूपिगेदिप काव्य ॥ र* नकहळेय कूगनिल् लवागिप काव्य । दनुभव खेचर काव्य तेरनु एळेयुव दारियोळ् बरुवन्क । दास्यकेय मादलद ॥ सार मा* अववनु बेरेसि माडुव दिव्य । नूरारु रोग नाशकद । दारिय पुष्पायुर्वेद ।।१५८॥ मारनन्गय्य केदरीयं ॥१५९॥ सार हविन दिवय योग साराग्नि पुट दिव्य योग ॥१६१।। पादर पारि पुष्प ॥१६२॥ पारद जयदग् नियोग सारत्म शुद्धि पारदव ।।१६४॥ नूरारु सम्पुट योग ॥१६५॥ सारस्वतर वाहनद ऐरिसि तिळिव पारदद् ॥१६७।। श्रीरमे गिरियकर्तिकेय ।।१६८॥ सेरिसे बरुव हूवुगळ ॥१३९॥ ॥१४२।। ॥१४५|| ||१४८॥ ॥१५॥ ॥१५२॥ ॥१५३॥ ॥१५४॥ ॥१५५॥ ॥१५६॥ ॥१५७॥ ॥१६०॥ ॥१६३॥ ॥१६६॥ ॥१६९॥ 256 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय - ।।१७२।। ।।१७३॥ ||१७४॥ दारिय गुणवरुदधियनक ॥१७०॥ मूरर वरग शलाके ॥१७१॥ यारयके इरुव भूवलय शूरर कावय भूवलय सेरद मनवनु पारददोळ् कटि । नूरु साविर हूवुगळ।। सारव त्*न्दु माडुत रसमणियनु सेरिसे भुवलय सिद्धि । सरुवार्थसिद्धीयग्रद श्वेत (शिलेयद) छत्रव । बरेदनकमार्ग म्* बरलु ॥ अरुहादि ओम्बत्तम् बेरेसिह ताणदो (रियिरि सिद्धान्तवदम्) ळरिव सिद्धान्त भूवलय आगम मार्गद हदिमूरुकोटिय। तागिद (प्राणावाय) आयुर्वेदवनु ।। सागरवन् ने* रि (अपुनरुक्ताकषर) अपुनरुकतान्कद। सागर रत्न मन्जूष इरुवभूवलयदोळेळ्नूर हदिनेन्टु । सरस भाषेगळवतार ॥ न* ररिगे प्रथम सम्योगद बहुदेम्ब ।सिरियिह सिद्ध भूवलय । सिरियिह एरडने योग ॥१७८॥ सिरियिह मूरु सम्योग ॥१७९।। सिरियिह नाल्कु सम्योग परिबाह अरवत्तनाल्कुम् ॥१८१॥ परमातम् कलेयन्क भन्ग ॥१८२॥ परमाम् रुतद भूवलय रिद्धियादा मूरु आदि बन्गदतेर । होदिकोन्डिह अन्कगळ ।। म*द् दिनोळेळुसाविरदिन्नूरतोम्बत्तु । शुद्धान्कवागलु इ ल्लि याव अन्तर आरेरडोम्बत्ताहत्तु । ई वक् षरगळेल्लवाहह । पावनदन्कगळन्तर काव्यव । नोवदे (भावदे बरुवन् कवेल्ल) काव भूवलय इ ७२९०+अन्तर १०९२६=१८२१६ अथवा अ-इ-४६६११+१८२१६=६४८२७ ॥१७५॥ ॥१७६॥ ॥१७७॥ ॥१८०॥ ||१८३॥ ।।१८४॥ ॥१८५|| 257 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अध्याय -5 Chakra 1.5.1 16 3 1 56 4 1 28_52 28 1 56 47 3 30 1 1 56 1 1 1 1 4 35 1 54 1 24 59 13 3 53 47 1 1 4 16 11 1 53 45 47 54 1 55 28 28_56_30_56 53_43 13 54 13 147 47 54 56 56 1 1 48 45 116 47 1 1 1 1 3 1 16 16 24 1 1 1 (12) 1 4534 1 1356 52 1 4 53 54 56 1 47 56 52 54_53 53 1 58 53 56 56 59 47 (13) 359 56_47 3 1 56 3052 4 57 653 3 1 1 156 1 47 28 16 1 1 1 14 (16) 1 30 1350 47 24 7 1 45 1 4 16 56 47 52 56_24544 13 43 4 43 28 56 56 47 (10) (14) 41 7 1 47 456 1 52 5428 3 1 1 1 1152 1 1 59 47 47 13 1 1 13 (17) 59 56 55 7 55_47 56 1 38 52 45 52 30 56 52 13 1 1 1 4 1 3 24_59 53 3 45 3 55 56 55 7 57 56_24 1 1 54 3 1 59 1 56 47 1 30 47 55 45 59 30 28 1 40 (11) (15) 58 48 30 6 1 1 48 56 1 59 30 54 54 6 45 1 55 30 1 7 43 1 4 59 9 1 3 1 1 54 46 47 1 1 55_28 3 57 1 60 47 50 3 3 1 48 47 46 1 1 51 52 53 47 (8) 53 57 45 1 56 47 1 56_52 1 56 1 4 16 28 7 56 59 1 1 47 56 1 54 30 1 9 1 7 56 57 1 54 1 1 33 533045 28 1 47 1 1 56 55 1 54 56 1 35 47 54 47 (9) 576446 447 1 9 52 347 143 1 43 3 7 156 1 7 52 30 1 1 3 1 1 57 4556 1 47 59 1473 156_47 28 42 56 56 53 1 1 53 52 52 55287 (6) (2) 4 7 3 28 1 47 56 5452_47 30 1 1 1 7 7 3 52 55 53 52 43 54 1 1 13 4 52 59 47 56 1 1 1 1 54 56 55_4543 30541 1 3 1 1 3 4 4559 16 541 1 33 54 56 48 56 1 1 16 1 7 6 1 30 42 60 1 59 56 47 1 54 48 45645 (7) 28 452 1 1 48 4 58 16 52 1 30 56 3 54 54 57 30 1 1 28 52 1 53 52 1 56 43 56 1 1 47 7 56 47 24 30 3 47 53 1 1 1 54 54_5657 59 52 56 54 45 35 33 5647 16 55 7 76 3 5634 28 56 56 47 1 1 47 1 1 1 4 4 3 1 48 3 28 56 3 45 47 4356 3 53 47 2 59 13 3 28 56 3 54 1 43 47 59 42 56 52 39 47 1 28 47 1 47 1 30 1 45 1 3 53 7354156 28 443 285443 (5) 3 3 7 24 13 40 54_52 16 47 3 52_43 1 43 53 1 35 1 53 55 13 42 1 1 7 48 43 5660 1 47 1 1 53_42 143 155434045 13 161 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-------------------------------------------------------------------------- ________________ Chakra 1.5.5 13 54 56 3 1 46 7 4 55 43 1 30 45 4 47 54 54 59 -8ཡུ་ྒུ 9 7 4 52 1 58 57 1 43 4 (95) 1 52 56 54 48 7 54 1 ៦ 28 3 51 47 1 51 42 16 55 - 27 - 23 བོ་གྷ་བོ་གྷ་ཆེན་མིག་སྒ་་“ ཆེ 8 ཡ ཀྵུ 8 ཆེབ 8 8 - 。ཡུ⌘ ། ་རྒྱ པར རྒྱ་་ ཡཀྨ་བི སྐྱ བ བ བ སྨན 18 52 1 52 10-01 - 2 ིི ༠ “ ༠ - ྃ ཞུ་སྒ ོ 1 59 9 1 52 55 52 4 59 42 1 55 1 47 54 1 1 1 33 58 6 978-83-84 2 18 588 -- 46 1 1 60 1 56 47 1 45 1 1 7 1 3 1 48 45 58 1 48 28 7 18 24 45 58 1 45 3 18 57 45 59 54 3 28 52 1 38 44 52 30 1 38 4 54 50 43 7 4 1 1 51 16 (96) 45 4 38 16 1 4 52 1 1 57 1 55 -- - 3 47 1 1 43 54 7 57 1 1 1 1 3 4 45 54 18 56 45 48 54 54 28 1 3 54 4 54 54 52 54 54 43 1 1 - - - 9 8 - - 8 9 - - 16 56 55 16 1 30 51 52 57 28 - 28 60 1 54 56 48 1 1 47 59 43 56 1 59 4 18 5 8 - 3 1 ཤྩེར བ ཤྲུ རྞ ཤྩ - • 8ཚེ 54 56 57 1 1 1 1 28 1 4 28 38 59 45 1 4 56 1 4 54 56 54 35 59 52 8 505-2 83 -- 888-8 2-3 - - ྴ ུ གླུ ིི。 ིི 8 8 46 59 52 (94) 1 48 57 4 33 54 1 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52 56 42 4 48 43 513 54 30 1 60 51 4 9 1 47 1 56 52 1 4 1 1 4 1 3 18 3 4 4 4 7 33_42 1 30 1 45 56 51 38 7 9 1 1 52 28 42 42 55 1 56 (116) 45 56 57 55 52 53 1 4 54 4 28 1 18 1 38 13_43 47 56 2447 1 1 1 43 52 56 (119) (98) 1 1563 4 45 56 50 1 47 53 54 53 7 18 3 4 48 55 1 28 3056 47 24 1 1 54 3 1 48 1 18 52 55 54 1 1 4 48 13 52 53 4 1 45 47 1 7 3 55 28 47 4 28 1 4 53_45 796 345 1 1 1 1 4554555 3 2451 46 7 47 1 43 4 (120) 55 1 1 53 54 56 48 7 55 53 30 28 38 55 1 1 47 53 13 45 47 1 48 1 54 52 (117) (115) 56 5553 4 57 6 1 5343 16 47 3845556 27 1 1 4 1 54 7 54 1 1 16 1 28 60 4 4 47 4 549 58 1 1 13 1 9 59 56 51 59 54 1 1 56 53 56 47 53 (118) 54 7 40 3 53 4 56 4 30 1 4 1 1 56 13 1 1 1 51 1 1 563 28 1 53 38 (113) 53 3 28 28 54 3 55 3 1 55 30 45 1 18 54_30_53 59 55 56 1 45 47 56_29_47 7 55 7 1648 1 47 4 4 6 47 45 48 1 1 56 57 53 3 54 47 1 9 7 16 4 1 (114) 53 46 4 7 47 1 55_48 1 27 47 54_56_45 3 1 1 55 6 1 53 51 52 45 13 54 48 (111) 448 53 4 56_1453 44 7 7 18 28 53 4 1 59 50 1 1 1 1 1 55 1 56 4 47 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-------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भुवलय Chakra 1.5.7 28 1 1 45 1 59 57 561 46 43 45 56 47 56 56 47 45 1 54 1 1 3 52 4 16 52 (122) 43 56 1 47 11345 47 1 13 1 3 3 4 1 1 1 285528 1 5647 16 50 (128) (134) 353 1 285839 1 1 4360 59 46 28 28 4356-1 28_47 553 53 1 4455448 1 155 28 1 54_477 48 1 45 47 135745 47 4 16 564 56 59 47 1 4 1 (129) (135) (132) 53 1 1 13 1 1 47 1 52 4 1 28 52 4 1 2440 28 56 56 57 3 16 48 16 1 54 (130) 54 16 1 43 56 1 28 1 4 1 4056 56 52 28 47 47 56 1 56 51 1 4 58 53 1 1 28 30 43 345 56 59 42 43 76 43 4 53 1 345 3 1 56 54 3 59 56_43 54 47 7 48 1 59 1 3 56 47 47 1 3 56 56 1 1.147 47 7 1 513 14 153 (133) (131) 1 1 54 47 1 56 3 1 4 28 53 6 4 1 28 53 1 1 47 48 4 56 54 58 56_45 16 (130) 46 53 7 6 47 7 1 52 4 56 58 47 1 38 1 53 5528_43 40 4733330 38 54 1 1356435656 1 59 45347 43585444 47 1 1 1 515351 1 38 52 7 (121) 36 16347 59 1 56 55_1647 28 1 54 551 5651 57 1 56 153 1345 13 54 30 1 1 4 569 156 1 1 1 1153 54 1 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-------------------------------------------------------------------------- ________________ =( सिरि भूवलय Chakra 1.5.8 1 51 53 1 59 59 563052 1 59 43 28 1 52 504 147 59443 7 1 54 43 56 1 1 54_52 1 1 47 1 59_52 4 1 47 46 43_56_45 1 1 48 28 51 3 1 1 3 59 52 3 56 54 1 59 1 56 47 59 1 1 1 3 47 313042 24 52 56 56 52 28 18 3 3 (138) 43 4 7 59 52 541 4 58 31 45 52 46 7 1 6 1 52 1 54 7 1 45 43 33 54 54 56 59 52 3 1 59 35 28 7 6 6 18 59 51 54 3 1 4 4 57 51 1 7 18 1 48 53 56 43_58_52 6 3 47 1 60 1 4 1 1 44 47 60 45 1 43_60 54_43 53 52 1 56 1 1 28 4 5033 52 56 53 53 43 54_45_59 52 533 52 1 3 28 7 1 1 56 4 60 243 43 1 57 4 54 45 47 6 1 47 52 1 1 56 3 1 48 3 54 56 60 59_43 3 52 (143) 309 28_53 1 1 4 1 53 56 7 1 54 56 1 54_47 54 54_28 59 3 56 52 42 161 3 7 1 60 3 55 56 35 56 1 43 1 56 47 47 54 53 28 28 28 45 16 3 3 1 48 453 (139) 54343 1 447 45 45 52 33 3 1 3328554747 1 1 59 54 54 56 3 1 47 55 56 47 59 52 1 1 18 1 1 48 1 1 1 1 1 1 4 4 4 50 4 7 46 30 43 45 48 1 1 1 53_47 51 42_56 1 60 56_46 56 47 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क्षेत्रदळतेयोळी । अवरोळनन्तव स क * लान् ॥ कव नवदोळ् सवियागिसी पेळुव । नव सिरी इरुव भूवलय म्रुर्मद सम्यज् ञनवात्मनरूपु । निर्मलानन् तद्अ सकल ॥ धर्मव परसमयद वक्तम्यतेयली । निर् मलगोळिसिद ज् जन णाणावरणीय कर्मवळियलु । तानु केवलजानियागी ॥ आनन्द क* रनु आत्म स्वरूपव ताळ्व श्री निलयन्क ओम्बत्तु यावाग नोडिदरावाग अल्लिये ।। ठाविन पूर्णान्कवेनिसी ।। तावु का लु* ष्यव होन्दुवन्कगळनु । तीविकोन्डिरुवात्म नवम पावन परिशुद्ध नवम पावन सूच्यग्र नवम सावु बाळ्विकेयल्ल नवम श्री वीरनरिकेय नवम और विद्यासाधन नवम तावु ताविनोळेल्ल नवम नावुगळळेयुव नवम ई विश्व परिपूर्ण नवम श्री विश्वदादिय नवम सावु नोवगळल्ली नवम ॥१२॥ ॥१५॥ दावानल कर्म नवम पावनवागिप नवम ॥१८॥ ॥२१॥ श्री वीरसिद्धान्त नवम ॥२४॥ कावुतलिरुव भूवलय वरद हस्तद नवपदद निर्मलदन्क । गुरुगळय्वर ई * टदन्क ॥ सरस साहित्यद वर्णनेगादिय । वरद केवललब्धियन्क हारदग्रदरत्न नायक मणियन्क । मूरु मूरल औम्बत्र अन्क ॥ नूरु साविर लक्ष कोटियोऴ् ओम्दम् । दारिदेगेयलोम्बत्अन्क रिद्धि सिद्धिगळनु कूडिसि कोडुवन्क । होद्दि बरुव दिव्यव् विये ।। अध्यात्‌म सिद्धिय साधिसिकोडुवन्क । शुद्ध कर्नाटकदन्क यशस्वतियाडुव प्राक्त लिपियक । रसद समस्त ध्रव्यदन्क । असमान द्राविड आन्ध्र महाराष्ट्र । वशदलि मलेयाळ दन्क यशद कळिनगद अन्क वसनद हम्मारदन्क वशवा तेबतियादियन्क विषहर ब्राम्हियाद्यन्क रिसिय गुर्जर देशदन्क रसद काश्मीरान्गदन्क यश शौरसेनीयदन्क रसवेन्गि पळुविन अन्क ॥६॥ 11811 ॥३०॥ ॥३३॥ ॥३६॥ ॥३९॥ रससिद्ध अनुगद अन्क ऋषिय काम्भोजादियन्क रस वालियन्कदोम्बत्तु असमान वन्ग देशान्क 280 11911 साविर लक्षान्क नवम साविर कोटिगळ् नवम 112011 ॥१३॥ ॥१६॥ ॥१९॥ ||२२|| ॥२५॥ 113211 ॥३४॥ ॥३७॥ 118011 नावुगळरियद नवम ऋवागमवर्प नवम कावुदेल्लवनु ई नवम श्री वीरसेनर नवम ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥५॥ ॥८ ॥ ||११|| 113811 - ॥१७॥ 112011 ॥२३॥ ॥२६॥ 112911 ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३२॥ ३५|| ॥३८॥ ॥४१॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) ॥४४॥ ॥४७॥ ॥५०॥ ॥५३॥ ॥५६॥ ॥५९॥ ॥६ ॥ ॥६१॥ ॥६२॥ ॥६४॥ रस नेमी विजयादन्क ॥४२॥ व्यसनवळिप पद्मदन्क ॥४३॥ रससिद्धि वय्धर्भ यरन्क वशद वय्शालियाद्यन्क ॥४५॥ रसद सौदाद् यन्क ॥४६॥ यशद खरोष्ट्रिय अन्क वशद निरोष्ट्रद अन्क ॥४८॥ वश्दापभ्रशिकदन्क ॥४९॥ दिशेय पय्शाचिकरन्क यशद रक्ताक्षरदन्क ॥५१॥ वशवादरिष्ट देशादनक ॥५२॥ कुसुमाजियवर देशदनक रसिकरर सुमनाजियन्क ॥५४॥ रसदयन्द्रध्वजदन्क ॥५५॥ रस जलजद दलदनक वशद महा पद्मदनक ॥५७॥ रसदध मागधियन्क ।।५८॥ अरस पारस सारस्वतदन्कम् । बारसदेशदाद्यन्क । वीरव शद देशदारयके सेरिद । शूर मालव लाट गवुड इवुगळ नेरेनाड मागध देशान्क । अवराचेय विहारान्के ॥ नव म्* दारद उत्कल कन्याकुब्जान्क । सविय वराह नाडन्क रिद्धिय वयश्रमणर नाडिनन्कवु । शुद्ध वेदान्तदाय सर ॥ इद्दल्ले इरुव सन्दरभ्द नाडन्क । एदु बरुव चित्रकरद यडगय्य्अ नाडन्क वेन्देने बाहिय । एडगव्य नाड क*न् नडद ॥ मडुविनन्कदे बेरेसलु अय्दयदादनका एडबल सवन्दरियन्क ५४ रल्लि ओंदुकूडि-५५=१०(इदु सौंदरियान्क) पोडविय हदिनेन्टु लिपिय ॥६३॥ बिडिसलार् औम्बत्तरन्क गडिय मूरल मूररन्क ॥६५॥ सडगरदलि हदिनेन्टु ॥६६॥ नुडिगळनोडगूडिदनक कडेगे ऐवत्नाल्करन्क ॥६८॥ ओडगूडे त्रय हदिनेन्टु ॥६९॥ नडेय मूरर औम्बत्तन्क अडविय बनवासियनक ॥७१।। मडदिय त्यागिगळन्क ॥७२॥ इडिदु कूडिदर् औम्दे अन्क बिडिसि नोडिदरोम्दे अन्क ॥७४॥ गुडियोळाडुव ज्ञानदन्क ॥७५॥ नुडियु कर्नाटकद अन्क हिडिय मातुगळ भूवलय ॥७७॥ ओडगूडे कर्मदाद्यन्क ||७८॥ परमम् पेळिद हदिनेन्टु मातिन । सरसद लिपि ई नवम ॥ वर म्* न्गल पराभूतदोळु अन्कव । सरिगूडि बरुव भाषेगळम् रसवु मूलिकेगळ सारव पीर्वन्ते । होस कर्नाटक भाषे ॥ रस श्री नवमान्कवेल्लरोळ बेरेयुत । होसेदु बन्दिह ओम् ओमदनक मम्वादा ओम्कारदोळडगिद । सर्वञ् वाणियम् होसेये ॥ श् रे* यम् पोन्दुत गणित बन्धदोळ् कटि । धर्म साम्राज्यदन्कदोळु पदवागिसि पद पद्मवनागिसी । हदय पद्मा दलवेरी ॥ सदय * त्ववेनिसी मेदुळ होक्कु केळ्वर । ह्रुदयके कर्मदाटवनु रागव वयाग्यवनोम्दे बारिगे । तागिसे कर्णाटकद ॥ बागिल सा लिनिम् परितन्द कारण । श्री गुरु वर्धमानान्क । ॥६७॥ ||७०॥ ॥७३॥ ॥७६॥ ॥७९॥ ||८०॥ ॥८ ॥ ।।८ ।। ॥८३॥ 281 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय ॥८६॥ ॥८९॥ ।।९२॥ ॥९४॥ ॥९५॥ ||९६॥ 1९७॥ १९८॥ ।।९९।। ||२००॥ ९ x ६ x ५४ ईगद सम्ख्यातदन्क ॥८४॥ तागलसम्ख्यातदन्क ॥८५॥ वेगद सम्ख्यातदनक रागद मध्यमानन्त ।।८७॥ तागलु उत्कृष्टानन्त ॥८८॥ आगुवनन्तानन्तान्क श्री गुरु मध्यमानन्त ॥९०॥ ओम् गुरु उत्कृष्टानन्त ॥९१|| आगर रत्नत्रयान्क चागर शाश्वतानन्त ॥९३॥ जागरविरुव भूवलय गमनिसे “अथवा प्राक्त सम्स्कू त" । विमल मागध पिशाच' म्*भा ॥ सम ‘भाषाश्च शूरसेनी च'द । क् रमदे' षष्टोत्र' दभूरि दरुशिसे 'भेदो देशविशेष् आ द । वर' विशेषादपभ्रम्शह' ॥ परम पद्धतियिन्तिवरनु मूररिम् । परि गुणिसलु हदिनेन्टु । मळिसलथवा ‘कर्णाट मागध' वरे । बरलु' मालव लाट गौड' || व रि* यिरि 'गुर्जर प्रत्येक त्रयमित्य' । वरद ष्टादश महा भाषा' मरळि मरळी बेरे विधदिनद पेळव । गुरुवर सनघ भेदगळ ॥ वर काव्य सरणिय शयलियनतिरलीग । सरस सवनदरियरिदनक णवमानक गणनेयोळ् भुवलय सिद्धान्त । अवरनुलोमव र्*न्क ॥ नवमवु प्रतिलोमवागिसि बन्दन्क । सविय भूवलय सिद्धान्त साविरदेन्टु भाषेगळिरलवनेल्ल । पावन महावीर वाणि || काव धर्माव्कवु ओम्बत्तागिर्पाग । तावु एळनूर हदिनेन्टु ६ ४३ = १८, १८ x ३ = ५४ ॥१०१।। कावुदु हम्सद लिपियम् ॥१०१॥ नावरियद भूत लिपियु शरी वीर यक्षिय लिपियु ॥१०३॥ ठाविन राक्षसि लिपियु ॥१०४॥ तावल्लि ऊहिया लिपियु कावे यवनानिय लिपियु ॥१०६॥ कावद तुर्कीय लिपियु ॥१०७॥ पावक दरमिळर लिपिय पावेय सइन्धव लिपियु ।।१०९।। ताव मालवणीय लिपियु ॥११०॥ शरी विध कीरिय लिपिय पावन नाडिन लिपियु ॥११२॥ देव नागरियाद लिपियु ॥११३।। वविध्य लाडद लिपियु काविन पारशि लिपियु ॥११५॥ काव आमित्रिक लिपियु ॥११६।। भूवलयद चाणक्य देवि ब्राहियु मूलदेवि ॥११८॥ श्री वीरवाणि भूवलय ॥११९।। देवि सन्दरिय भूवलय पुट्टभाषेगळेळु नूरन्क मातिन । गट्टिय लिपिगळिल्दन् क* ॥ हुट्टदनक्मर भाषेय नरियुव । हुट्टलिल्द लिपियन्क वर 'सर्वभाषामई भाषा' एन्नुव। अरहन्त भाषितव् वाक्यम् ॥ वर' विश्व विद्यावभासिने' (एन्नुव) एन्देम्ब। परिपरि परिभाषेय अन्क वासवरेललराडुव दिव्य भाषेय । राशिय गणितदे कट्टि ॥ आशा ध* र् मात कुम्भदोळडगिह । श्रीशनेळ् नूरन्क भाषे इदरोळु हुदुगिह हदिनेन्टु भाषेय । पदगळ गुणिसुत बरुव * ॥ सदनव तोरेदु तोरेदु तपोवनवनु सेरे । हदयके शान्ति ईवन्क रिषिगळेल्लरु कूडि महिमेय लिपिगळ । वशगोन्डु भाषेय सर म* ॥ हसगोळिसुत हिन्दण ईगण हिन्दण मुन्दे । वशवप्प मातुगळन्क ॥१०२॥ ॥१०५॥ ||१०८॥ ॥१११॥ ॥११४॥ ॥११७॥ ॥१२०॥ ॥१२१॥ ॥१२२॥ ॥१२३॥ ॥१२४॥ ॥१२५॥ 282 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ॥२३७॥ ॥१४२॥ याव भाषेगळलि एष्टन्कवेन्नुव । ठाविन शन्केगे तावु ॥ तावु स* मन्वयगोळिसि समाधान । वीव सिद्धान्त भूवलय ॥१२६।। ई विश्वाळुव अन्क ॥१२७॥ श्री वीरवाणिय अन्क ॥१२८॥ साविरलक्षशन्केगळ ॥१२९॥ ठाविन उत्तरदन्क ॥१३०॥ पावन स्वसमयदन्क ॥१३१।। आविध काव्यद अन्क ॥१३२।। कावनाडुव मातिनन्क ॥१३३॥ ई विश्वदध् यात्मदन्क ॥१३४॥ तीविकोन्डिह दिव्य अन्क ॥१३५॥ सावनळिसुव चक्रान्कम् ॥१३६॥ धावल्य बिन्दुविनन्क । आ विश्वदन्क त्रिषष्टिहि चतुर्षष्टिः । पावनवागिह अन्क म्*॥ तीवि 'र्वा वर्णाह शुभमते मताह' द। काव 'पराक्रते सम्स्कू तेचा' ॥१३८॥ रा 'पिस्वयम् प्रोक्ताह स्वयम्भुवा' । आपद विरुवन्क्द्अ ब*न् ॥ धापद सम्योगदोळु अर्वत्नाल्कु । श्री पद पद्म सम् गुणिसे । ॥१३९॥ गुणुपाद ब्राहिय एडगय्योळन्कित । गुणनद सेरमाले ब् न्*ध ॥ दणुविनोळ आदीश बरेद खरोष्टिय । तनियाद वृषभान्कितवु ॥१४०॥ सरस सउन्दरिय बलद कयोळच्चोत्ति । दरवनाल्कु धर्मान्क ॥ सर मगियिम् बन्द लिपियनकवेननुव । सिरियन्क लिपियिह गणित ॥१४॥ रसयुतवा 'अकारादि हकारान्ताम्' । वश 'शुद्धाम् मुक्तावली' म् क* ॥ रस 'मिव स्वरव्यन्जन भेदेन द्वि'। वश 'धा भेद मुपय्यु णवर ‘षीम् अयोगवाह'द ‘पर्यन्ताम् सर्व' । विवर 'विद्या सु' म्*सन्ग नव 'ताम् अयोगाक्षर सम्भूतिम्'। सवि 'नयक ॥१४३॥ बीजाक् षरय्श् चि मनु ताम् समवादीदधत्ब्राम्ही मेधा। विन्यति सुन्दरी वरम् ॥ घन सुन्दरी गणितम् स्थानम्’ स क्रमव्हि'। घनवह 'सम्यगधास्यत्' ॥१४४।। कर 'ततो भगवतो वक्तानिहिहस्ता । क्षरावलीम्' सिद्धव *ह 'नमइ’॥ सर 'तिव्यक्त सुमन्गलाम् सिद्ध। गुरु ' माकाम्’ स भूवलय दरुशनमाडलन्याचार्य वान्ग्मय । परियलि ब्राहियु व य*दे || हिरियळादुदरिन्द मोदलिन लिपियन्क । एरडनेयदु युवनान्क मळिद दोष उपरिका मूरदु । वरटिका नाल्कने अन्क ॥ सरव जी* खरसापिका लिपि अइदन्क । वर प्रभारात्रिका आरुम् सर उच्चतारिका ऐळुम् ॥१४८॥ सर पुस् तिकाक्षर एन्टु ॥१४९॥ वरद भोगयवत्ता नवमा ॥१५॥ सर वेदनतिका हत्तु ॥१५१॥ सिरिनिन्हतिका होमदु ॥१५२॥ सरमाले अन्क हन्नेरडु ॥१५३।। परम गणित हदिमूरु ॥१५४॥ सर हदिनालकु गान्धर्व ॥१५५।। सरि हदिनयदु आदर्श वर माहेश्वरि हदिनारु ॥१५७॥ बरुव दामा हदिनेछु ॥१५८॥ गुरुव बोलिदि हदिनेन्टु इरुविवेल्वु अन्क लिपियु ॥१६०॥ तिरियन्च नारकररियद हदिनेन्टु । परिशुद्ध लिपियन्क व* वनु ॥ बरेयलु बहुदु हेळ केळलु बहुदव । सरसान्क आमरलिपियोळ् ।।१६१॥ ||१४५॥ ||१४६॥ ॥१४७॥ ||१५६॥ ॥१५९॥ 283 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय ॥१७९॥ रस भाव काव्य सन्दर्भदुचित नुडि । यशस्वती देवइ यम् म*गळ ॥ होसदाद रीति देसिकदरिकेयनेल्ल । हेसरिटु कलियलु बहुदु ॥१६२।। यशस्वतियम्मन तन्गि सुनन्देय । बसिरलि बन्द अन्गज न* ॥ यशद कामायुर्वेददोळ् त्यागव । रससिद्धियिम् काणबहुदु ॥१६३॥ णव मन्मथरोळगादिय मन्मथ । अवनादि केवलिनम्अ ह* ॥ सुविशाल कायद परमात्म रूपनु । अवनिन्द सन्दरि कन्डु ॥१६४॥ अवधरिसुत तन्गिर्दन्क ॥१६५।। छवियोळु काण्व सत्यान्क ॥१६६॥ नवमन् मथरादियन्क ॥१६७॥ भवभय हरण दिवयानक ॥१६८॥ अवरोळु प्रतिलोमदन्क ॥१६९॥ अवनु कूडलु ओम्बत्त् ओमदु ॥१७०॥ नवकार मन्त्रवु ओमदु .. ॥१७१॥ सवणर धर्मान्क औमदु ॥१७२॥ सवियागिसिरुव भूवलय ॥१७३॥ अनलोम-१-२-३-४-५-६-७-८-९ प्रतिलोम्-९-८-७-६-५-४-३-२-१ लब्धान्क-१-१-१-१-१-१-१-१-०ओम्बत् ओमदु णिजद हत्तनु ओम्बत्तागिसिदन्क।अदरनुलोमान्क पद प* |अदरलि बरुव सोन्नेय बिट्ट ओम्बत्तुापदगळ काव्य भूवलय ॥१७४॥ मिक्किह ऐळ्न्ऊरुनझर भाषेयम् । दक्किप द्रव्यागमर* ॥ तक्क ज्ञानव मुन्दकरियुव आशेय । चोक्क कन्नाड भूवलय ॥२७५॥ त्रुणनु दोर्बलियवरक्क ब्राहियु । किरिय सौन्दरि अरि ति* र्द ॥ अरवत्नाल्कनर नवमानक सोन्नेय । परियिह काव्य भूवलय ॥१७६॥ सरमगि कोष्टक काव्य ॥१७७॥ गुरुगळिम् परितन्द गणित ॥१७८॥ गुरुगळयवर गणितान्क अरहन्तरोरेदिह गणित ॥१८०॥ सिरिQभेश्वर गणित ॥१८१॥ गुरुवर अजित सिद्धगणित ॥१८२।। परमात्म शम् भव गणित ॥१८३॥ सुरपूज्य अभिनन्दनेश ॥१८४॥ सुर नर वन्द्य श्री सुमति ॥१८५॥ तिरियन्च गुरु पद्मकिरण ॥१८६॥ नरकर वन्द्य सुपाव ॥१८७॥ गुरुलिन्ग चन्द्रप्रभेश । सिरि पुष्पदन्त शीतलरु ॥१८९॥ गुरु शरीयाम्स जीनेन्द्र ॥१९०॥ सरुवञ् वासुपूज्येश । ॥१९॥ अरहन्त विमल अनन्त ॥१९२॥ हरुषद शरीरधर्म शान्ति ॥१९३॥ गुरु कुन्थु अर मल्लि देव सिरि मुनिसुव्रत देव ॥१९५॥ हरि विष्टर नमि नेमी ॥१९६॥ वर पाव व ॥१९७॥ गुरु माले इप्पत् नाल्कन्क ॥१९८॥ तरुण मन्मथनारु सोन्ने सोन्ने एरडु । सरियोम्बदु अन्तर भो*धासरस काव्यागमदरवत् नाल्कार। विरुव ई काव्यवु ऐदु ॥१९९।। शिरसिनन्तिह सिद्धराशि (भूवलय) ॥२००॥ म्नविडेओम्बत्ओम्दुसोन्नेयु एन्टु। जिनमार्गदतिशयध ॥ वेनुत स्वीकरिसलु नवपद सिद्धिया घन मर्म काव्य भूवलय ॥२०१॥ ५ ने ई ८०१९ अनुतर् १२००६=२००२५ अथवा अ-ई६४,४२७+ई २०,०२५=४८,४५,२ ॥१८८॥ ॥१९४॥ 284 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अध्याय -6 Chakra 1.6.1 1 53 1 1 55 1 13 44 740 1 79 1 531473 48 46 1 1 47 3 1 58. 42 59 52 30 52 2456 56 58 1 55 13 5330460 1638 52 1 59 1 1 48 59 2858 1 1 7 1 53 53 1 3 1 1 18 4 1 13 7 38 13 54 554 45 50 1 1 9 44 (5) (6) (8) 54 45 1 16 1 52 45 30 56 1 30 4 4 45 47 1 16 28 30 1 1 46 56 59 54_56 1 7 28 55 56 1 1 1 1 28 30 45 43 7 16 30 16 1 52 28_50 47 1 1 1 38 59 24 1 54 1 59 28 52 55 1 60 1 50 60 55 1 40 59 1 1 1 50 45_28_45 1 4 53 1 24_48 1 47 4 55 56 1 45 7 1 54 52 9 56 58 52 28 40 16 47 1 28 43 1 60 45 53453 56 1 1 50 1 43 1 18 1 28 7 4 1 1 55 1 1 28 1 3 52 1 1 7 1 52 1 52 52 7 28 7 46 59 59 156 56 54 52 1 28 55475453285346 6028 56 58 4 59 47 541 13 457 54 1 1 6 3 1 55 3 51 4 45 487 56 59 48 56 28 43 4 52 7 28 7 7 18 1 47 50 45 42 453 59 30 42 1 1 1 7 7 52 59 1 1 42 4 48 1 48 54 1 1 1 42 47 1 47 28 4 56 59 45 43 59 54_47 4 1 1 1 1 28 47 54 1 1 13_47 53 3 7 1 4 1 55 7 1 56 7 1 18 1 45 56 59 54 47 7 7 1 33 54 1 3 16 30_52 43_60 45 1 42 1 18 28_53_45_56 1 54 53_47 1 30 51 58 4 54 1 3 4 54 3 37 45 1 1 1 3 30 1 54 1 47 16 1 30 59 1 1 59 30 1 28 35 30 56 42 30 56 47 59 16 47 1 43 54 7 4 54_58 4 56 55 1 1 24 1 1 3 1 13 1 58 1 45 1 1 54 1 1 7 43 4 1645 56 53 51 30 47 42 1 453 48 1 54 1 1 1 50 53 56 45_50 1 54 4 1 55 37 55_60 1 35 54 24 56 1 1 18 45_51 404 16 1 13 3 60 4 7303 7 7 7 52 1 35 1 1 1 30 54 53_43 46 1 7 28_47 54_24_52 4 7 53 3 51 45 42 43 24 60 45 43 43_55 1 1 4 28_45 1 54 1 7 3 455430 1 28 53 1 1 1 7 16 4 3 16 28 1 54 59 46 7 4 3 7 (3) 56 13 1 1 1 3 45 4730_53_38 28 45 45 30 51 58 16 28_3059 45 52 59 43 30 1 13 45_53 28 53 4 1 1 54 3 60 47 1 40 7 51 58 4 3 1 4 4 1 1 3 53 59 (2) 7 4 4 4 59_55_53 1 18 1 28 38 1 38 3 3 45_52 44 13 59 60 54 43_56 4 28 30_59 48 4 1 3 46 13 54 1 1 13 47 60 7 1 54 48 1 1 4 1 28 45 30 24 54 1 4 30 56_30_47 1 60 40 1 24 16 1 55 50 1 9 54 53 13 56 53 1 6 55 3 50 55 79 1 473052 1385447 52 1 58 28 54 48 45 24 6 56 56 56456 1 4 285 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय Chakra 1.6.2 47 1 4530 48142850 13054342 18 1 1 5952 359 24 145 16561 447 1 45 5756 1 7 1 1 9 47 54 56 57 541 5628 16 281 158 1 28 54 4 45 54_28 4 42 38 54_13 47 1 1 7 1 1 57 53 52 454 42 56 3 7 1 1 1 -47 485443 747 1 1 545650 5456 28 1 4 1 13.59 16 1 515645_5956 1 - (32) 1 28 7 30 1652 47 1 47 1 1 555356 4 18 1858. 456 141 16 47 4 1 4 1 38 1 163845 535473 16 18 54 45 45 551 165559 38 45 47303 33 4347 4552 1 1 4 54 13475345 1 1 719 13 554347 43 51 45 54 167 1 53 57 54_48 1 1 164 1348 57 59_47 24 43 54_45_16_56 53 1 47 1 14545 1 7 14554 3 1343 1 7 544 1355_281 153147 28 1 301 (31) 1547533 1 1 1 47 47 1 30 1 3055 1 1 30475938 22 2438 58 56 (30) (29) 28 47 4 3 28 56_46_42 43 3 54_47 52 24 1 30 55 56 1 24 58 42 7 1 3 1 3 1 42 55_47 43 47 7 48 1 45 1 1 53 28 24 1 7 43 47 7 24_42 28 51 55 56 50 1 1 1 7 1 30 1 54 4 45_59 1 4 53 28 5428 1 54 52 48 1 1 1 54 1 1 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-------------------------------------------------------------------------- ________________ Chakra 1.6.3 1 3 3 550 - 1 56 16 30 54 4 1 55 53 43 45 43 58 43 4 (50) 45 1 1 52 28 28 16 7 1 52 ཤཱ g ར་ཆེ་ཆེ་。 གྷཌ བི་ཆེ་་་་ ི་ 59 1 1 47 1 53 51 59 1 (51) 1 43 35 56 51 1 53 45 1 7 56 56 1 47 47 16 56 1 16 1 3 56 4 45 56 58 47 31 47 43 1 28 51 16 7 1 གི་ང ས་ཆ་གསོ་ གྷུ་བ ོ་ ་དཆ་ཆ་བཞུབ་དྲ - - ༅་གླུ་གི-༡༅་༠ ལྷ་&་ཙཽགླུ་ - 8 ག ེ་རྩ མ ་ ག ༄༅ 20. ---8 - 18 5 ~ * 259 8་8་ ྴ་ ༢༡༢་ཚེ་ ཅི་ ན ༞ བ ང (43) 13 54 51 4 28 43 59 51 1 9 4 47 4 56 54 ** 45 1 54 55 1 16 43 9 4 9 7 30 50 60 18 1 3 9 1 56 46 45 1 1 1 28 1 47 4 8་བྷR་ལྷ་དྷྭཇསྒ་ཚ་སྒ་ད༞་ཙོང་ཞེ 7 56 7 60 30 56 47 28 1 55 3 24 28 1 35 47 56 16 3 47 45 45 42 45 47 56 1 (44) 47 43 47 30 45 16 46 1 47 54 30 13 1 4 47 9 16 55 7 3 1 56 47 24 40 47 1 13 38 7 31 9 55 52 1 7 4 1 56 1 24 55 47 47 45 54 1 48 52 19 1 24 1 (49) 28 18 1 54 1 60 ཚོགས 55 7 % 4 (45) 52 47 3 1 4 (46) 40 3 52 1 54 1 1 1 8 - - 1 (48) 35 47 47 48 54 4 47 56 1 54 3 28 1 54 46 ལྷ་བིནྡྷ་ཌ་བ་ 1 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ww? tw? bo" hem ल ' he wr to' ल ल le hur m b & 5 5 18 her to the hos to her has his 25 m 18 ́ ́ 1 आ व् द् इ न अ इ म् अ उ 1 ओ ओ उ अ न स ए अ श् द् उ बृ क fur he he m ''ल b mp has to m m wwe for boy in we shaher 약 आ य् ग् धृ आ व् भु आ सृ अ उ आ दृ आ न स् म् बृ कृ ए दृ toto to her he has to hos has her to his to for tom bb to her to to hemb to her he to 'I' ल ल le" m 51s' 'ल m. b5 to 5 b' ल ल 10 लिक' ल ल 1 ल हि' to' 'ल he tw» ht t3° It te? क ́ to? ৮''m too' ललिल by tur ho लल 5 to 5 hem tots tor to the l बु ए इ न अ ज ५ १ अ अ 전 म् द् अ कू ब् 我 2 उ ,,,,,,,,,,, A, AN, NA प् कृ अ न न मु कृ उ भ् म् उ 血 अ इ इ श् ओं ध् दृ अ भू उ इ गु दृ प् ६ अ ए क सु Ir' fur' for 'ल 15' लmbh ho ho ho m. ham दृ दृ त् र दृ न उ उ शु अ आ उ अ आ प् भू दृ स al, भयय, 49, 4,1,AAA, Aal या न आ दृ स् ए अ अ अ स् Sitt स् य अ ण् उ द् अ मु प 4 इ थु अ ओ इ म् ए hoto to 16 18 th 18m 1 to to to to to to th ल ल ल ल ल ल or tro tv ल ल hr" to to tr° ल5 15 16 18 to 5 wwwww he has to 5 w৮'ल 1m m 'ल' to trm im www ल ल ल her how to be how we te to how t’le? 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ल ल ल tur me ल to' to ww? te tr ́ 'ल ' why 'लक' ''m ल ल 150 w w 'ल' ल ल ल ल ल ' ' 'लल 5 to a ' ल ह ल हि' to ल to heto 55 to 55 55 55 55 25 15 to to to to to to ৮ल ल hour te" m r' बज लक' r' 8 '5' r' ल ल लm to to? 150 ल tr ́ 'लटि' ? b′ ? hote 55 ल ल ल ' क' ले कि' ल हि' to to b' Isem 'क' 'ल ' ' ' he' 'ल ल what' ल ल ल to te 'ल 156 'ल 'a' চ' 18 to or ' ल ल ल ल हि' ल ल हि' ल ' ' m ल ल 'क' कि' 'ल for by mhw? ' ' ल ल ल ल ल ल ल ' ' ' ' ल has to tom ल ल ल hur ल ' ल ल हिं' ht ल hobeto to to to to 18' 5 5 mm 15 h h h to to to to to for her to her to to to for 15 to to to 15 short to to न् अ अ आ ६ अ क् उ वृ ओ न इ इ न य् श् म् व् व् र् अ t य म् दृ आ क अ दृ स् न् इ ५ ए अ अ आ अ न उ ದಲ್ಲಿ उ अ उ वृ इ व् ध् क्रू अ म् ग् व् इ न वृ ए उ आ द अ डा उ न दृ आ इ कृ अ ५ य अ आ अ न् ६ इ इ दृ म् क् ओर न् य दृ द् दृ ग अ इ ए अ " स् दृ ए अ अ इ इ अ 3 अ न आ ग च् न् दृ अ इ क् अ ए अ न ५ आ ल " फु न् अ क् न् प स् र् ५ आ दृ ए म आ ए मृ ज् आ दृ अ द् बु म् ल न इ ओ ल दृ 'ल 'ल he in hy to' ल ल ल '5' ल ल ' ' ' 'ल'ल 18' 'ल हि 'ए' 'ल 18' 'ललई' ho ho to a trip ta' ल ल हि ल ल 14 web ho tr lo' 'लटि' ल ल ल ल ल চि" ल tus for ल m m w / ल ' for ha' r' 'ल ' 'a' how w' 'ल 55' ' ' ' ' ' ' ' ' ' ' ' 'लल who he tote to to to to to लललल tr to ल ल his ल क ल हि' ल ल le for hhh to be her her to mo bhs 5 1625 12 tus to m to ल the 'to ल ' ' 'ल ' ' to ' ' 'लht for ts' r' m 156 1 3 ल ल 18 18 to 5 ल ल ल ल 18 + b wp ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल 'लत' ' ' has tur 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किम्पुरुषरु । नरक तिर्यन्च पु*ळिन्द ॥ नररु देवतेगळनक्षर भाषेय । तिरुगिसि गणिसलु बहुदु गमकद कलेयोळु तोर्प वविध्यद । सम विषमान्कआग ण्*य ॥ विमलव समलव क्रम मूरमग्गिय । गमकदि तिळियलु बहुदु हकसेरलेन्टेन्टु समगळ् एरड कूडे । सकलवु विषम गळुव य* ॥ हकद बन्धद बन्ध पाहुड भेदव । सकलन्कसूक्माम्कदरिविम् प्रकटसलध्यात्म योगि ॥॥ सकल्द विसम्योग भन्ग ॥९॥ विकलान्क सम्योग भन्ग सकलवु अपुनरुक्तान्क ॥११॥ निखिल द्रव्यागमदन्ग ॥१२॥ ओकटि ओम्णु ओम् अन्क प्रकटित सर्व भाषान्क ॥१४॥ विकलवागिह सर्व बन्ध ॥१५॥ सकल नोसरव उतकरुषट अकलन्क अनुत्कष्ट बन्ध ॥१७॥ निखिल जघन्य अजघन्य ॥१८॥ सकलवु सादि अनादि सकलवु ध्रुव अधवान्क ॥२०॥ निखिलवु बन्ध स्वामित्व ॥२१॥ शकमय बन्धद काल प्रकट बन्धान्तर काल ॥२३॥ हक बन्धसन्निकर्षान्क शक भनगविचय विभाग सकल भागाभाग क्षेत्र ॥२६॥ निखिलद परिमाणद स्पर्श ॥२७॥ सकल कालान्तर भाव सकलान्क अल्पबहुत्व ॥२९॥ सकल बनधद नालक गणित ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ।।५।। ॥६॥ ॥७॥ ।१०॥ ॥१३॥ ॥१६॥ ||१९|| ॥२२॥ ॥२५॥ ॥२८॥ ॥३०॥ २२४४%D८८ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३४॥ वरद प्रकृति स्थिति अनुभाग सरणिय। परिय प्रदेशद् प्र ति। विरचित गुणकार एन्टेन्टु’ बन्दुदा मरळि अदम् ‘एन्ट रिन्द यशदिन्द गुणिसलु बरुवपळनूरर । वशदोळ्उन्आल्क र* कळेय ॥ यशस्वति देविय मगळरिदेळनूरु । पशु देव नारक भाषे णवदन्दद ई भाषेगळेल्लवु । अवतरिसिद कर्मदाट । सव का* येन्देन्नदे सवियागिसिकोन्ड । विवरद काव्य भूवलय मनुमथनरवत्त नाल्कुकलेय बल्ल । जिनधर् मदनुभवद् श्रधि । घन कर्नाटकदादियोळ् बहभाषे । विनयत्व वळवडिसिहुदु 1309 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ॥३७॥ ॥४०॥ ॥४३॥ ॥४६॥ ॥४९॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४|| ॥५५॥ ॥५६॥ सुनयदुर्नयवडगिहुदु ॥३५॥ जिनधर्मवदु मानवर ॥३६॥ तनुवनेल्लव होक्डबहुदु मनदोषवनु कोल्लुवदु ॥३८॥ घन भाषेगळ लेककबहुदु ॥३९॥ धनद सम्पदवेल्ल बहुदु मनुजर मोक्षकोय्युवदु ॥४१॥ तनियाद भाषेगळिहुदु ॥४२॥ कोनेगे मतगळकूडिपिदु जिनमार्गदणूव्रत बहुदु ॥४४॥ घनवादे नूहदिनेन्टु ॥४५॥ जिनवरीमान भाषेगळ ननेकोनेवोगिसुव भाव ॥४७॥ जिनर भूवलयदोळिहुदु ॥४८॥ घनकले अरवत्तनाल्कु तनगे ताने तन्नोळगे ॥५०॥ जनिसितुम्बिरुव भूवलय भूवलयद सिदधान्तद अन्कवनम् । तीविकोन्डा अक्षरद ॥ पाव करेलगे मूरारु मूरर । आ विश्वधर्मवेल्लवनु पशगान्डुद्वय्ताद्वयत (वनेललव) अनेकानत। रसदोळ ओमकारदम कम।। यशवादकारदोनदिगे बेसेदिह। होसदादनादिय गरनथ लव मात्रवादरू भेदवम तोके दवम् तोरदे । शिव विषण जिन बरमह भू पा* ॥ भवभय हरिसेम्ब रत्न मूरनकदे । नवकयलासवयकुन्ठ यशसत्यलोकवामूरन्कदग्रद । सुसौभाग्यदध्यात्मवन ॥ प*सरिप समवसरणदिन्द होर बन्दु । दिशेगळ्हत्तनु व्यापिसिरुव महावीरवाणि येम्बुदे तत्वमसियागि । महिमेय मन्गलवदु प्*रा।। हत्वव अणुविनोळ् तोरुव महिमेय। वहिसिहदिव्य प्राभूतद महसिद्धि काव्यवेनदेनिप ॥५७॥ सहनेयम् दयेयोडवेरेसि । ॥५८॥ महिमेय समतावाददलि सिहि समन्वयदोडवेरेसि ॥६०॥ कहियनकवनु कळेदिरिसि ।।६१।। महिय भूवलयदोळ् वहिसि सहनेय विद्येयोळ् कूडि ॥६३।। षहदन्कवदनेल्ल गुणिसि ॥६४॥ महिमेय भाग सम्ग्रहिसि इह परवेरडरोळ् कटि ॥६६।। रहमदनकव नेलेगोळिसि ॥६७॥ वहिसिद धरमदोळ इरिसि छह खन्डदागमविरिसि ॥६९।। णहदनक अपुनरक्त लिपि ॥७०॥ टहवद तिरुगिसि बिडिसि गहनद विषयव वहिसि ॥७२॥ इहदोळु मोक्षव वहिसि ॥७३॥ अहमिन्द्र पदविय सहिसि महावीर सिद्ध भूवलय ॥७५।। महिमेय त्रयत्न वयल दोषवु हदिनेन्टु राशियागिर्दाग । ईशरोळ भेद तोरुवद् ॥ राशि रत्नत् स्यदाशेय जनरिगे । दोषवळिव बुद्धि बहुदु । सहवास सम्सारवागिप काल । महिय कळतले तोरुवदु ।। मह णा*णावरणीय दोषवदळियलु । बहु सुखविह मोक्षवहुद् विष हरवागलु चय्तन्यवप्पन्ते । रससिद्धि अम्रुतद श* ति ॥ यशवागे एकान्त हटवदु कट्टोडे । वशवप्पनन्तु शुद्धात्म रतुनत्रयदे आदियद्वयत । द्वितीयवु द्वयत वेम्बन् क* ॥ युतीयदोळनेकान्तवेने द्वय्ताद्वय्तव । हितदि साधिसिद जयनान्क ॥५९॥ ॥६२॥ ॥६५॥ ॥६८॥ ॥७ ॥ ॥७४॥ ॥७५|| ॥७७॥ ७८॥ ॥७९॥ ।।८०॥ 1310 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय हिरियत्वविवु मूरु सर मणिमालेय । अरहन्त हारद रत्नम् * ॥ सरफणियन्ते मूरर मूर ओम्बत्त । परिपूर्ण मूरुमूरु यशदन्कवदरोळगोम्दम् कूडलु । वशदा सोन्नेगे ब्राम्ह इ* ।। वेसरिन लिपियक देवनागरियेम्ब । यशवदे ऋग्वेददन्क मनुजराडुव ऋक्कु दिविजराडुव ऋक् । दनुजराडुव ऋक्कुद* नद ।। विनयवु गोब्राम्हणेभ्यह शुभमस्तु । जिनधर्मसम सिद्धिरस्त एनुवन्क लिपिय अक्षाश सनुमत धर्मदय्क्यान्क कोनेयादि परिपूर्णदन्क मनुमथराद्यन्तदन्क घन कर्नाटक रिद्धियन्क कोनेयादि ब्राम्हि भूवलय सु विशाल गणनेय पूर्वानुपूर्विय । सविषयवागलावय्त * ।। सवियादियदु पश्चादानुपूर्वियदागे । नवदन्ते कोनेगे अद्वयत द्रुशन ज्ञान चारित्रव् मूररोळ् । परमात्मरूपडगिरला शा* ॥ सिरि मूर तदुभयवने यत्रतत्रानु । वर पूर्वे यप्पुद् अद्वय्त धर्मवदिन्तु समन्वयवागलु । निर्मलव् अ द्वय्त्अ शास्त्र । शर्मरिगा मूरु आन्पूर्विगे बन्दु । धर्मद् ऐक्यवनु साधिपुदु म्नदर्थियिन्द अनेकान्त जय्नर | जिननिरूपितवह शास् त्र । दनुभय द्वय्त कथन्चिदद्वय्तद । घनसिद्धियात्म भूवलय जिन सिद्धरात्म भूवलय घनद प्राक्त वदधिरस्तु एनुव समस्त शून्यान्क अनुदिन बाक्ळ्विकेयन्त्र मनु मुनिगळ ध्यानदन्क जिन रूप साधनेयन्क ॥८४॥ 112911 118011 ॥९३॥ ॥९६॥ जिनवर्धमानान् क नवम दनुज मनुजरय्क्यदन्क मनुजरेल्लर धर्मदन्क कनसिनोळ् शुभदादियन्क इननन्ते ज्योतियाद्यन्क तनुविन परिशुद्धदन्कम् ||१०५ || ॥ १०८ ॥ ॥ १११ ॥ सनुमत दिव्य सिद्धान्त धनधर्मदन्क भूवलय अणुमहान् काव्य भूवलय तनुविन अतनु भूवलय ।। ११४ ।। आदिगनादिय कालवे निन्नेयु ई दिन नोनु बाळुवदु । आदियवश र * त् नत् रयगळ साधिप । नादि अनन्तवे नाळे गमनिसलेलुर्गे सम्यक्तव रत्नद । क्रमदन्कवधुनाम् हु★ ट्टि || समतेय खड्गदिम् क्रोधमानवगेल्व । विमलान्‌कनाळेय दिवस मनद दोषके शास्तर तनुविन दोषके । घन हदिमूरु कोटियवश् अ * ॥ जिनर वय्यागम वचन दोषके शब्द । वेनुवन्क मूरु भूवलय मिदु मधुरतेयिन्द ह्रुदयवाळुवदिव्य । हदनाद मुदवीश्रीव* यण ।। ह्रुदयान्क पद्मददलवेरि नाळेय । हदन काणिसुव अद्वयत दिनविन्दु वर्तमानन निन्नेयतीतवु । घननाळे अनागतवा भू* ॥ तणवु द्वय्याद्वय्त जय्नव कूडिप । मनुज दिविज धर्मदन्क जनरिगनन्त भूवलय जिनरवाक्यार्थ भूवलय तनगात्मशुद्ध भूवलय ॥८५॥ 116611 ॥ ९१ ॥ ॥९४॥ 118911 ॥९९॥ 311 ॥ १०६ ॥ कोनेयादियन्क भूवलय नेनेदाग सिद्ध भूवलय ॥१०९ ॥ ।।११२ ।। मन शुद्धियात्म् भूवलय कनकद कमल भूवलय ।।११५ ।। ॥८६॥ ॥८९॥ ॥९२॥ ॥९५॥ 118611 ॥१००॥ 1120911 ॥११०॥ ॥११३॥ ॥ ११६ ॥ ॥८१॥ ॥८२॥ 116311 ॥१०१॥ ।। १०२ ।। ॥१०३॥ 1120811 ।।११७ ।। ।। ११८ ।। ।।११९ ॥ ।। १२० ।। ।। १२१ ।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवर्धमान धर्मान्क घननाळे इन्दु निन्नेगळ मनुजरिग् औम्दे सद्धरम अनुजरागिसुव सन्मन्तर तनयर सलहुव मन्तर सिरि भूवलय ।।१२२।। मनुजरेल्ल्गिोम्दे धर्म ।। १२५ ।। कोनेयादियन्क मूरारु ॥१२८॥ मनुजरिगोम्दे सूत्रान्क घन विरारूप सूत्रान्क घनबन्ध पुण्य सबन्ध घनसत्य भद्र भूवलय ।।१३१।। ।।१३४।। ॥१२३॥ तनुविनोळात्म सद्धर्म जिनधर्मदय्क्य सिद्धान्त ॥ १२६॥ ।। १२९ ।। ।। १३२ ।। ॥१३५॥ ।।१३७ ।। परिशुद्ध व्रतगळम् अणु महान् एन्नुव । हनुमन्त जिनव* ररन्क । मुनिसुव्रतर कालदे बन्द रामान्क | जिनधर्म वर्धमानान्क रिद्धियोल् श्री वालि मुनिगळ गिरियन्क । शुद्ध सम्यक्त्व ल क्षणद ।। बुद्धिर्धियोळगण यशद समन्वय । शुद्ध रामायणदन्क कविगे वाल्मिकिय रसदूट उणिसुव । सविये महाव्रतदन्‌क ।। य* वेय मुच्चुव कालदलि बहदोषव । नवशुद्धिगोळिप दिव्यान्क हिरिय दोषगळिगे अणु व्रतगळनित्तु । हिरियगे महाव्रत सिद्धि | धरेगे मन्गलदप्राभ्रुतद दर्शनदित्तु । परिशुद्धवागिसिदन्क यशस्वति देविय बसिरिन्द बन्दन्क । वशद ब्रम्हान्ड द् अक्षरद ।। रसवनन्गय्य मूलदलि सुरिसिदन्‌क । विषहर नीलकन्ठान्क मनुमथ दोर्बलियादिय तन्गिगे । घनद् नवमान्क दर्शनधा * ।। अनुभववन्नित्तु जिनरादि औम्बत्त । तनुजर्गे शून्यदोळ् तोरि जिनधर्मद ओम्बत्तम् सारि ॥१४४॥ जिनस्मार्त विष्णुगळन्क कोनेयलि 'सोन्ने' यागिसुत ॥ १४७ ॥ तनुदोष औम्दे एन्देनुत कोनेगे दुर्नयगळ केडिसि ॥ १५० ॥ सुनयद अतिशयवेरसि चिनुमयत्वव तनगिरिसि || १५३ || दनुजर हिम्सेयम् बिडि 312 शणसदे बाळ्व (सूत्रान्क) समयक्त्व जिन विष्णु शिवदिव्य ब्रम्ह विनय सद्धर्मद् अहिम्से ॥१४५॥ ।। १४८ ।। ॥ १५१ ॥ तनुविनोळात्मन तोरि सुन्य दुर्नयगळ तोरि कोनेगे अनेकान्तवेरसि ॥ १५४ ॥ जिनमोर्गे सुन्दरवेनिसि विनय धर्मान्क भूवलय तेरस गुणस्तथानद्तके बरुवाग । दारि समयक्त्ववेन्दे न्* ब ।। सार श्री जिन वाणियनुभव बन्दाग । नूरू सागर कर्म केडुगु णवपददादिय अरहन्त औदुम् । अवेरडरलि सिद्धम् त ।। नवदादि मूरनक आचार्य नाल्कर । विवर उपाद्याय ऐदु दुरितद दहनवे साधु समाधिय । सरुव साधुत्व आररलि || बरे ना* ळे सद्धर्म एाळनक आगम || परिशुद्ध जिनबिम्ब एन्टु कविद गोपुर द्वार शिखर मानस्तम्भ । दवनिय बिम्बालय म* ।। नवमवेन्देनुवरु आगम परिभाषे । विवरवे नव पददम्क हिरियाशे यिदरलि बयकेयद्वय्तव । वरमुदके द्वय्तधेनु ॥ सरियवरिगे मुक्तियुभयमुक्तिय लाभ । गुरु पदसिद्धि ईर्वरिगे ॥१४६॥ ।। १४९ ।। ।।१५२।। ॥१५५॥ ॥१५६॥ ।। १२४ ।। ॥१२७॥ ॥१३०॥ ।।१३३ ॥ ।। १३६ ।। ।। १३८ ॥ ।।१३९ ॥ ।।१४० ।। ।। १४१ ।। ।। १४२ ।। ।। १४३ ॥ ॥१५७॥ ।।१५८ ॥ ।। १५९ ।। ॥ १६० ॥ ॥१६१ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) यावाग दोरेवुदो आग अनेकान्त । ताविन नयमार्ग दोरेये ॥ नावा य*श होन्दे जयनत्व लाभद । सावकाशवे हदिनाल्कु ॥१६२॥ आ विध योगराहित्य ॥२६३।। श्री विश्वदग्रवय्कुन्ठ ॥१६४॥ कावदे कय्लास मुक्ति ॥१६५॥ श्री वीरवाणिय विद्ये ॥१६६।। नावु बेकेन्नुव सिद्धि ॥१६७॥ कावन्क सत्यद लोक ||१६८॥ पावन परिशुद्ध लोक ॥१६९।। सावु हुटुगळिल्लदिह श्री ॥१७०।। भाव अभाव राहित्य ||१७१।। नीवुगळाशिप मुक्ति ॥१७२॥ ई विश्व काव्य भूवलय ॥१७३।। हरि हर जिन धर्मदरितु मूरारमूरु । सरसिजदलदार म्* ओम् । बरुवन्क गणनेय मूरु कालदोळ् कूडे। परिदु बन्दिह काव्य सिद्धि ॥१७४।। वशवागे ओमबत्तु कामदम् जनरिगे । हसिवु बायारिके निद्र् अ* ॥ देसेगेटु हदिनेन्टु इत्यादि भवरोग । हेसरिल्लदन्ते होगुवदु ॥१७५॥ नवदन्क सिद्धिय करण सूत्रामर । दवयव सर्ववु व स्*य । सविय भाषेगळेन्टोम्देळर वस्य । अवुगळे मूरारुमूरु ॥१७६॥ तिरेयु कालगळु ई बरुव मूरुगळलि । हरिव भव्यर भवदभ य* ॥ सरुवार्थसिद्धि सम्पदद एरडु भव । परिशुद्ध जीव स्वभाव ॥१७७॥ परदुगेय्यलु बन्द लाभ ॥१७८॥ अरहन्त रूपिन लाभ ॥१७९॥ करुणेय मारिद लाभ ॥१८०॥ गुरु हम्सनाथ सन्मार्ग ॥१८१।। अरहन्तरडरिद मार्ग ॥१८२॥ चिरकालविरुव सौभाग्य ॥१८३।। सरुवराराधित धर्म ॥१८४।। गुरु परम्परेयादि लाभ ॥१८५।। धरसेन गुरुगळ अन्ग ॥१८६।। - हरुष वर्धनरादि भन्ग ॥१८७॥ मरण कालदे सिद्ध कवच ॥१८८॥ हरिहर सिद्ध सिद्धान्त ||१८९|| अरहन्तराशा भूवलय ॥१९०|| तत्वार्थसूत्र महार्थ प्रसन्गद । सत्यार्थदनुभव मू*रु ॥ रत्न प्रकाश वर्धन दिव्य ज्योतिय । तत्व पळार समन्वयद ॥१९॥ त्रितेय सान्गत्द रागदोळडगिसि । परितन्द विषयगळेल ल* ॥ अरहन्त मुखपद्मवेने सर्व अन्गदिम्। होरटु बन्दिह दिव्यध्वनिय ||१९२॥ चदुरिन अरी भूवलय सिद्धान्तदोळ् । हुदुगिसि पेळ्ददिव्यग्र | पद पदद्मरदन्क अन्कदरेखे । अदर झेतरगळ स्पर्शनव ।१९३॥ निकाल कालद अन्तर भावद । कोनेगल्पबहुत्व विन्तहर* || जिन धर्मवदु मानव जीवराशिय । घन धर्मवागिसिदनक ।१९४॥ मनुजरोळयक्य वप्पन्द ॥१९५॥ दिन दिनप्रेम वुध्यन्ग ॥१९६॥ घन दुष्कर्म विध्वम्स ॥१९७॥ जिनशास्त्र वेल्लगैम्बन्ग ॥१९८॥ विनयवेल्लरिगे समान्ग ॥१९९।। जनपद नाडिन सन्ग । ।।२००॥ जनरिगयदने काल (भन्ग) दन्ग ॥२०१।। कोनेगालगाररोळु इल्लदन्गे ॥२०२।। एनुवन्गधर ज्ञानरन्ग ||२०३॥ जनरिगे (बहअरी) वशवाद धर्म ॥२०४॥ 313 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय थ्ण थण थण वेम्ब द्वय्त अद्वय्तद । कोनेगे जय्नर म न्* त्सेरि ॥ जिनरेन्टु नालकेळु एन्टु काव्याक्षर । घनब्राम्हि सव्न्दरियन्क आगमविदर 'अरी' भागदे बन्दन्क। राग विराग साम्राज्य ।। आगु थ* एन्टेन्टु ओम्बत्तु औम्दोम्दु । तागुवरद भूवलयम् ई ८७४८ + अन्तर ११९८८ =२०, ७३६ = १८ =९ अथवा अ - झी ८४८५२+२०, ७३६= १०,५५,८८ 314 ॥२०५॥ ||२०६ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय अध्याय -7 Chakra 1.7.1 1 47 1 52 52 47 54 1 4 55 54 55 1 564 4 60 56 33 28 1 1 24 1 52 53 1 (16) 4 56 1 1 1 4 59 47 53 52 4 56 52 5948 1 9 1 1 55 53 47 55 1 1 3045 (15) 45 485460 457 15654 47 16 1 3 9 54 51 1 3 1 1 6 4 56 553 54 55 (9) 7 1 1 4 56454 4 1 45 48 46 54 1 3 54 52 1 55 54 1 4 1 55 1 1 48 1 48 137 3 54 13 59 547 45 1 3 57 1 4 46 7 57 54 57 56 1 59 16 1 4 (5) (10) 9 30 54 56 1 1 1 4 45 4 1 52 3 48 59 45 54_60 1 1 1 53 1 42 53_47 1 1 7760305347 1 54 485454 1 1 1 7 4 59 30 55 16 54 7 45 4 4560 (6) (11) (12) 3054 1 7 1 15515647153435348304 1 50 5443 54 4 46 4 147 (7) (8) (13) 7 52 33 551 1 43 7 4543 1 7 1 473 54 47 1 1 4 1 59 48 55 53 1 1 5615241501 1 1 4552 1 607 164 5528 156 1 4 1 1 30 54 1 (18) 484347 16 1 45 4546434 42 4 1 5343 1 24 1 7 48 48 59 29 1 1 5346 (17) 3 15453 16145 1 1 1 1357 5347 49 55 48 54 1 9 1 7 5348 1 3054 (19) 53 1505454455535424 1 13 1 1 7 1 54 54 42 1 1 52 551 753 50 1 1 3 59 1 45 1 1 45 5442 59 45 43 1 9 53 54 56 55 1 1 47 4 1 1 45 45_50 1 56 7 46 55 1 3 3 1 1 1 28 48 16 3 4 48 54_56 18 47 55 528 24 1539579 156 156455428241343 48 52 7 1 3 59 1 52 43 48 45 445145156 1 54 7 45 431 55 1 1 1 1 1 53 57 1 47 1 34 354 54 1 54 1 54 543 54 59 1 1 1 45 1 48 53 28 1 3 54 4 54 47 54 45 7 16 443 54 43301301 283144313507 45 7 42 1 7 7 7 47 54 4354 (3) 28 16 1 56454 301 434730 1 1 1 453 13 59 50 48 4 1 1 1 3 9 1 56 47 45 1 45 24_57 1 1 1 56 56 54 1 56 24_43 1 9 1 54 59 56 31 48 24 4 43 3 533 53 1 45 57 1 1 595530 1 53 3 52 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________________ Chakra 1.7.4 54 56 47 43 1 1 3 1 1 གརྒྱུར་གྲཱ་པ་སྒྲུབ་པ་8 ⌘བབ 8བེསྐྱེ་⌘ ⌘ཚེ ་ བེ་ཆེ་བ་་་བབེ8 སྐྱེ་་ ཎྜུ བ་བ་ཆེ་ཆེ ༞ 1 43 1 56 13 16 3 43 1 47 1 30 7 47 7 47 16 1 54 45 28 11 56 56 3 47 47 54 3 (68) £= གཱ བ ཿ⌘ ཆེ 8 ཌ་ཆེ བྷུ⌘--༥༞་ཆུ་。。✖‧ སྐུ་༤བྷུ་88་ཆ འབྲུ་ཚིག་ཇི་ཉི:༅་ཡ༷་བཅོn ༠ :- ༠ - - རྒྱR - - 8 ༠ ལྷ 56 47 4 35 1 43 7 9 16 1 (69) 54 47 56 3 43 4 1 47 13 59 1 48 1 56 42 7 1 4 56 47 1 30 43 4 56 47 18 43 35 47 59 42 52 1 4 1 28 47 56 54 1 47 3 4 1 52 56 48 47 28 47 52 56 52 7 16 55 1 53 1 51 35 47 24 3 51 45 47 54 1 1882 52 3 43 35 47 1 2 28 7 (63) 54 47 4 3 55 30 1 28 1 43 51 47 47 ྷ 1 55 45 45 16 3 2 1 +28+ -* 5 24 -Ê ༤་ ཊཿ་ རྒྱུ༠༡༤ 2 2 2 2 3 2 2 5 - 8 4 56 1 ཅྀ 28 52 55 3 (66) 47 1 18 28 1 1 47 1 54 45 47 1 4 47 3 30 50 40 47 45 3 30 1 1 56 56 56 59 1 4 1 56 1 52 55 47 47 1 1 7 55 2 ~ - - - ~ - 82-2 བྷ ་ 8 སྒ་གྷུ 1 43 1 45 43 56 1 (71) “ཆེ་ 1 56 56 54 54 45 1 43 59 31 47 1 བ བ བ བརྞསྐྱེ 28 46 55 1 7 47 43 59 1 52 45 1 ཡུ་རྒྱ་ཤ་བླར་ཆ་88 བ་བསྐྱ་་ཤ་ཚེ་བོ་ཆེར་ཆེ་ 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(171) (193) 1754 47 52 1 3 7 45 403 3 1 1 46 43 145 1 1 145 145 1 11 (183) 47 447 16 42 48 52 1 60 16 54 48 59 45148 1 7 1 35 1 30 52 7 56 54 56 47 16454 52 1 354 1 489 3 1 1 4 486056 47 54 1 24 1 1 1 5953 547455 1 4 1 59 56 153 60 4347 30 1 1 45 1 1 1 47 54 7 148 (182) (178) (175) 54305549 3847 1 18 1 1 1 45733 54 45 56 53 5330 16 1 453041 7 759 1 153457 450 1 4557 483 15655 6 2447 557 47 4553 45 49 16059 54 1656 47 52 43 7 79 5148 9 1 16 53 1 54 56 1 74347 (179) (176) 45 52 3 3 45 1 2853 15647 5476 51 5328 1 48 24 145 45 433 1 1 44360 47 42 7 1 54 1 1 6045541 48 1 54 7 43 48457 245348539 1471 56604858 59 1 7 57539 7340536 15653 1 455654 16 (177) 54_52 30 1 4 1 7 1 54 4 16 1 54 45_51 3 4 50 24 7 35 28 1 4 1 30 54 (180) (174) 4 1 43 45 454 28 48 1 30 55 1 760 48 43 443 54 1 47 54_28 30 4 57.43 (181) =324 324 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय Chakra 1.7.11 .. 1 1 1 28 54 52 45 1 7 54 59 45 7 1 1 1 30 1 53 24 1 1645 3 52 52 54 53 28 56 1 54 7 1 1 16 47 1 1 1 43 1 48 43 1 3052 1 43 52 54 1 45 56 51 51 28 1 45 1 3 1 45 517 24 3 30_53 1 59 48 54 1 16 54 4 1 56303 48 52 54 1 3 58 43 1 1 57 1 28 4 1 7 3028 52 4 18 53_50 4 47 24 56 30 4 52 38 45 1 4 57 24_38 60 40 45 3 3 7 1 3 7 55 56 54_47 28 48 60 6 43 (212) 1 1 13 1 44 55 1 48 56 24_53 47 1 50 1 59 47 54 7 28 1 28 55 59 52 1 7 7 1 18 28 47 47 47 43 3 60 1 1 1 54 54 57 54_45 1 1 4 1 28 42 4 1 1 (210) 28 1 24 1 1 1 13 30 53 1 1 24 55 28 56 1 (211) 58 43 45 56 56 1 47 3 13 51 53 1 47 59_59 1 33 35 43 54 16 1 24_52 46 4 47 1 56 1 57 54 1 45 45 54 1 1 28 1 4560 1 47 4 153 1 4352 47 54 755285652 509 53 7 16 1 5554 53 1 4 24 1 30 56 52 1 3 1 1 30 13 3 1 4 7 52 51 1 38 30 43 24 9 24 48 46 55 28 1 1 1 1 1 5652 7 1 47 55 7 3 54 1 55 47 3 47 45 52 52 7 (196) 45 1 13 40 54 59 54 5955 1 56 43 7 55_4560 48 1 1 161 1 1 7 24 45 53 59 24 1 1 1 1 53 1 4 1 1 43 16 52 1 53 47 451653 55 58 45 54_285656 53 1 53 40 45 3 28 59 1 56 5647 24 52 54 1 1 52 16 1 7 52 9 7 3 3 47 (197) (194) 5156 47 1 28 1 1 434 1 1 7 1 3 1 46 7 1 6054 24_52 7 54 53 47 55 1 24 56 1 54 59 1 55 1 40 5538 60 50_47 56 54 7 53 13 7 13 4 1 243 1 (209) (195) 43_57 19 53 3 60 57 1 58 4 1 30 1 1 28 9 24_45 352 1 59 52 54 16 (213) 52 53 52 1 47 30 1 1 56 1 53 1 28 3 45 54 7 1 4 1 4 1 1 52 3 4 3 4 3 56_52 47 51 46 1 1 56_16-55 1 4 3 60 53 54_33_35_56 1 1 54 56_45 45 549 1 1 1 45 47 544530 3 46 59 43 1 29 1 3 1 1 56 54 48 1 1 4 1 (206) 51 54 1 44 4 1 1 3 50 47 45 1 1 56 27 46 28 54 47 4 1 1 28 55 57 56 51 (207) 3 5447 59 53 44 47 1 1 4 1 56 1 59 45 1 1 1 56 55 457 1 7 48 1 1 _(202) (199) (200) (201) 30 1 1 1 1 1 56 53 28 4352 45 1 4 56 42 43 59 1 43 56 30 43 1 54 28 1 (208). 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A24NANASAMA-A-4-44-4 외석 여 외여석의 이 되4 의 여 ms-15 ललललललल Brmoob vb 의 Drivn Enterturns eu उ अ 이 외의 외 B654 MEMBEsymms B NA244444444 4444444 외에 이 외의 와 4-4NHANNELAENAE4A444444 444444444494MANNERAL FDF VERB FM अध्याय 1-7-5 य् अ ल् स् अ य आ अ आ र् ल् अ प् द् कू औी म् प् ल् थ् अ ळ् त् ५ अ र् क व् अ ए क व् क् र् क व् आ म् प् य् भ् व् र अ जू आ ट् एा अ अ ण् आ उ आ र बउआ उ अ अ अ अ रइ व अ र अद् अन जू कद् अ कर थ् न् म् त् म् र् क क ल य ल य आ अ जू क इ प् त् इ अ न् उ द् ल ल र अ क त अ आ अ न अ र म अ क य प अ स प त न अ अ म् न् आ म् डी अ अ र ही थ् अ व कू उ त् अ अ ज् त् इ इ न् अ ण अ अ अ .न् ही त् र् स् अ क् र द ल म ब त् ब अ र इ इ इ द ग क ल प् त् अ अ अ ल य ल म् अ भ अ म अ म र अ व ए ' अ उ अ इ न अ आ स् द् द् र अ इ आ र प अ श ी अ ी अ ल य क व क ल अ अ व प अ अ अ अ द उ न अ इ अ अ न अ व आ न क अ द् श् उ अ व त् त् आ प् न् कू द् अ ब य अ अ ल अ ल ण अ म स इ अ क व ष् अ म् अ र अ र ल श आ आ स् अ त्म् ल् द् प् इ अ हउ द् उर्व र आ न त् अ अ क द ही ए न र उ ए द् अ प अ उ द ह त् म् र व उ अ ए आ अ अ इ उ न र अ श ए अ अ अ आ जू उ र र ण क अ उ उ अ अ. र ड् द् अ द् श् अ श् एा ग ह क अ अ त् ऊ एा उ अ द् र क ड र ए अ अ य त अ अ अ त आ र न त म ब त म ण ग ब न अ अ त् व म्र अ ल व द् न् व अ अ अ ी य् अ. ए अ उ म अ स म म र त अ क ही ग आ ी आ अ अ र च र न्अ द् द् क र इ द ए अ ी द् म् त् त् अ उ ल् ड् म् त् इ - 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अ इ अ ए व इ अ आ अ अ द् ए अ क क अ ल् इ इ अ अ व् अ क् म् स् व् न् ी त् अ क त् ल अ स् उ ल ट क ह क श न अ इ अ र ग अ र एा इ ऑी न अ र् ळ् आ अ अ न आ र् व् ग् ल् उ उ प् स् ब् व् त् अ त् आ ओ म् ल् द् आ न इ अ आ अ ग् इ आ त् य् 244444444,04-844 's rror buuhr her turn to RE-Enhan HD र आ ल म र् र ल अ ल FREEnEPTE'' 예의 외의 KINA044444 haring द्र आ अ अ आ द् ड द् अ स ग त द् आ अ अ प ग् व उ स् 4444 " । ल 18 와 332 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1-7-8 उ अ प् द् सु 5 h to to 18 her to hehehe 18 +55 156 m. for hew b ́ ́ हि हि ल ल ल ल hurt लhe ल b 15 Et 5 5 to to the 18 to ho ho he bhm 5' to ' ৮ir hor 'ल 18' ' 'ल' ''लह' Em ल ल ल ल horo 18 to 18 to hos to her how to' to' to' to' mus to by ल ल ल ' ' heल ल ल 18 he ल ल 15 m w’tr? लt Elem 18 ल ल हिलm to ल tr? 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'ल tr ́ to toल' कि' कि' हि' ल ल ल ल 'ल 'ल tur ल ho tr" हिल '5' 18 लwlow to bp 18 ल° from 18 mm ho ten the le bbbbb to the 5' tom tomto 16. 5 to 16 to both m 5 to 15 hr tomb & bobo 5 bo to to to to to to 16 16 blo ́b/tr° to hr ल ल ल ल by former how to b '' 'लललललल ' ' 'लक' to ल ल ल ल to __wtr° tr°°° ° 16 mल' ' ' ' ' ' ' ' ' to bomb '''''b' toho 156 m. 18 mm bo' her to her he has has her to her for 15 m ́ ́ ́ ल् सु अ इ ५ न इ आ क अ ओर अ इ म् ६ आ अ अ र 1 ओ र् धु उ व् स् ५. आ र् आ अ ग् उ इ इ अ स् प अ डी स् श् अ अ अ ६ णु व् 柒 अ य उ अ आ अ श् उ इ ए इ प स् ल अ अ आ अ दृ अ उ अ उ आ अ अ बु आ ए श् इ ६ अ ड दृ न् ण् in म् स् इ उ लू उ उ इ र् न न ल क् स् अ उ न अ न " आ ए व् उ य् अ इ अ अ ५. और ल अ म् अ मु दृ आ उ ध् al,1,9/19w,,,,,,,, अ ग् ε र आ द् द् अ अ इ त् इ इ अ ए प् अ अ ल म् न Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अध्याय 1-7-9 म् ओ प् 1' 'ल ल ल ৮° लte' tr" ht' to tल www t tल he has tr " ल 18 ल ल ৮' 'क' to 15 = लhy ल ho te he' 5 'ल ৮' ल ल ल ' t to' ल ' bur bi b ́ ́wwbr15 3 5 heल ल ल ल the tot ho ho ho ho 18b55555 te' to b' t "ल hy for a hos to ह ल ल 5 o' ' ' to have to ल ल ल ल 'E' ho tus te" "ल for "ल ल - ल ल ल two to 'ल 1 ल 18 or ल ल ' ' ''hur hus to 'लं 'क' ल 18 156 ल Ir" he w’18' 'ल5 ho to her humblr 18 by to why w' ल hs ल क to to to to the web to mm 1 155 ' ल ल te he to 'लक' m 3 mm ल ल ' ' ' 'ल 18 लल hur he he has mm लल mo to ' 18' to to to to her to 't '' &. 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अ अ द अ अ अ न र उ न् ध् अ द् म् व् न् न् म् ल् अ भ् म् 18y अ ड् अ अ अ अ म अ थ स अ म न ह 1810 क tal ल ल म य क ल ल -24 ऊ र ल ल ' र भ आ ग ह ऊ 'व् र न 4444444444 अ ल ohn on 16-1 ल । अ ल न अ -44-4AA र otato 16.htm MAN 429-04 इ प अ अ अ | 336 == Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सिरि भूवलय ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥७॥ ॥१०॥ उ सप्तम् अध्याय उपपाद शाय्येय मारणान्तिकवाद । सफलद त्रस लोकदन् क* ॥ दुपरिम लोक पूरणदळतेयोळिह । उपमेय त्रस नालियन्क वरद समुद्घातदोळु लोकपूरण। सरिदोरि बरलात्म रूपु। दो र* एताग अ इ उ ऋ ए ऐ ओ औ स् वर। बरेयलागद उ भूवलय वाद वय्खरियोळु साधिसिदात्मन । साधनेयडगिदयोग ॥ मोदव ता* गुव स्याद्वाद सिद्धिय । आदिगनादिय योग दरुशनशक्ति ज्ञानद शक्ति चारित्र । वेरसिद रत्नत्वर* व ॥ बरेयबारद बरेदरु औदबारद । सिरिय सिद्धत्वद भूवलय परिशुद्धरात्म भूवलय (निर्मलद) ॥५॥ अरहन्त रूपळिदिरुव ॥६॥ गुरुवु सद्गुरुवाद नियम हरि विरन्चिगळ सद्वलय ॥८॥ निरुपमवागिह उपमा ॥९॥ सिरि सिद्धरूपिन परम अरहन्तराशा भूवलय ॥११॥ परमाम्रत सिद्ध निलय ॥१२॥ पुरुदेवनोलिद श्री निलय हर शिव मन्गल वलय ।।१४।। बरेयलागद चित्र सरल ॥१५॥ करुणेय फलसिद्धि निलय परिपूरण सुखदादि वलय ॥१७॥ गुरुपरम् परेयाशा वलय ॥२८॥ धरसेन गुरुविन निलय परमात्मरूपिन निलय ॥२०॥ बरुव कालद शान् ति निलय ॥२१॥ इरुव वस्तुवनोळ् प बुद्ध मरणवागद जीव वरद ॥२३॥ परमात्म सिद्ध भूवलय । मान मायवु लोभ क्रोध कषायगळ् । तानवप्अ हदिनारु बन्गह* ॥ तानल्लि बिट्टोडे निजरपदोळात्म । आनन्द रूपनागुवुदम् रत्न मूरर रूप धरिसिद आ शुद्ध । नूत्नान्तरन्गद वरश्री ॥ यत्नदिम् बन्दसद्धर्म साम्राज्यद । नित्यात्म रूपवी लोक णवदन्क परिपूर्णवागिसिदरहन्त । अवनिगे सिद्धत्व रीति ॥ अवतारदादिये लोकाग्र मुक्तिय । नवमान्क प्राप्तिये लोक ननु लोकद रूपपर्याय होन्दलु । हरि हर जिनरेम्ब सर स* ॥ तिरेयग्र लोकाग्र मुक्तिय साम्राज्य । हरुषद लोकपूरणवु तिरेयु रूपनु होन्दिदात्मन पर्याय । विरुवाग हदिनाल्कु सर्*व ॥ वर साधु पाठक आचार्य ई मूरु । गुरुगळन्कवु नवपदवु यशदग्र सर्वस्ववा समुद्घात । दिशेयग्रवेनिसिद सर्व* ॥ यशवेल्ल ओम्दाद मूर्तिये जिनबिम्ब । हसनाद बिम्बदालयवु वशवाद सद्धर्म लोक ॥३१॥ यशद दिव्यद्वनि शास्त्र ॥३२॥ रस सिद्धि नवकारदर्थ विषहर सौख्यानक नवम ॥३४॥ असमान सिद्ध सिद्धान्क ॥३५॥ कुसुमायुधन गेल्दन्क यशश्वतिदेविय पतिय ॥३७॥ यशद सुनन्देय पतिय . ॥३८॥ रसऋषि वृषभनाथान्क ॥१३॥ ॥१६॥ ॥१९॥ ॥२२॥ ॥२४॥ ||२५|| ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३३॥ ॥३६॥ ॥३९॥ 337 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ॥५५॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ वशवादतनिभान्क ॥४०॥ असदरुश अजित नाथानक ॥४१॥ वशद शम्भवर दिव्यान्क ॥४२।। रस अभिनन्दन सुमति ॥४३॥ वश पद्मप्रभ विमल ॥४४॥ स सुपार्श्व चन्द्रप्रभान्क ॥४५।। वश पुष्पदन्त शीतलर ॥४६॥ सश्रेयाम्स वासुपूज्यानक ॥४७॥ ऋषि विमलानन्त धर्म ॥४८॥ वश शान्ति कुन्थु श्री अरह ॥४९॥ यश मल्लि मुनिसुव्रतान्क ॥५०॥ यश नम नेमि सुपारशव ॥५१॥ रसऋषि वर्धमानानक ॥५२॥ यशविन्तु वर्तमानान्नक ॥५३॥ यशदिप्पत्नाल्कु मत्पुनह ॥४४॥ विशहर काव्यदोळ् बहुदु पद भूतकालद् इप्पत्नाल्वरन्क । पद श्री शान्ति सर्वज्ञ ॥ मुद इप्पत्मूरु अतिक्रान्तश्रीभद्र । विदरन्कवेप्पत् एरडु रिषि इप्पत्ओम्दु श्री शुद्धमतिदेव । रस ज्ञानमति सुज्ञ* देव विश्द इप्पत् अन्कक्ष्ण हत्ओम्बत्म् । यशोधर हदिनेन्टरन्क णवपद्म विमलानक हदिनाळु परमेश । अव हदिनार् एम्ब देवा ॥ नव मत्तु अरन्क जिनह ज्ञानेश्वर । नव ऐदु उत्साहरन्क दनवर वन्दित शिवगण हदिम्ऊरु । घन उसुमान्जलि देवा* ॥ जिनरु हन्एरडन्क सिन्धुवु हन्ओमदु । जिनरु सन्मतियु हत्अन्क जिनरु अन्गीर ओम्बत्तु ॥६०॥ जिनरु उद्धररु एन्ट्न्क ॥६१॥ जिन अमलप्रभरेळु ॥६२॥ घन सुदत् अन्कवु आरु ॥६३॥ जिन श्रीधरान्कवु ऐदु ॥६४॥ जिनरु विमलप्रभ नाल्कु ॥६५॥ जिनदेव साधु मूरन्क ॥६६। घन सागर एरडन्क ॥६७॥ जिनरु निर्वाण ओम्दन्क ॥८॥ अनुगालविनिताद अन्क ॥६९॥ जिन भूत वर्तमानान्क ॥७०॥ एनुवाग बन्द भूवलय तनुवळिदतनुव गेल्दन्कविन्तागे । तनुवळिववरन्कम्स् व नव ॥ एनुविपत्नाल्वरनागत तीर्थक । जिनसिद्ध नाम सवरवप सवण महापद्म मोदलागे सुरदेव । जिन एरडे सुसुपार्श्व ॥ त*नि मूरु स्वयम्प्रभ नाल्कु सर्वात्मभू । तनुजिन ऐदवरन्क लोकयकर् देवपुत्राख्य आरन्कवु । आ कुलपुत्र सेरुवदु* ॥ श्रीकर गळु महोदन्क एन्टागे । श्रीकर नवम प्रोष्ठिलरु यश जयकीर्ति हत्ता मुनिसुव्रत । ऋषिहन्ओ मदु एन्दुक् अ ॥ यश अर द्वादश पुष्पदन्तेशरु । वशवागे हदिमूररन्क रस चतुर्दश निष्कषाय ॥७६॥ यश हदिनयदु श्री विपुल ॥७७॥ वश हदिनारु निर्मलरु ॥७८॥ रिषि चित्रगुप्त सप्तदश ॥७९॥ यशहदिनेन्टु समाधि ||८०॥ वशगुप्तश्रीजिनरन्क। ॥८ ॥ रस्वयम्भू हत्ओम्बत् अन्क ॥८२॥ यशअनिवृत्त इप्पत्तु ।।८३॥ रस विजयरु इप्पत्ओ मदु ||८५॥ यशद विमल इप्पत्एरडु __८५॥ वश इप्पत्मूर् देवपाल ॥८६॥ असमान महानन्तवीर् य ॥८७॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ 338 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय ॥९०॥ ॥९६।। ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ ॥१०॥ ॥१०१।। रस अनागत इप्पत्नाल्कु ॥८८॥ कुसुमकोदन्डदल्लणर ॥८९॥ रसदेप्पत्रडन्क नवम दिशेयन्कओम्बत्तु काव्य ॥९१॥ रस मारु काल तीर्थकरन्क ॥१२॥ यशदन्क काव्य भूवलय ॥९३॥ वश मूरु मूरलोम्बत्तम् ॥९४॥ बेसेदक काव्य भूवलय . ॥१५॥ पूर्वापाराजित कर्मव केडिसिद । पूर्वदिप्पत्नाल्कु इनित* ॥ निर्मलदीगण इप्त्नाल्झन्कद । धर्म मुन्दण इप्पत्नाल्कु रसदे ई मूरु कालद तीर्थनाथर । रसकूटदलि एरडेळु । बेसर* त्नत्रय मूरु मूरल ओम्बत्तु । वशवदे मूरु कालान्क २४४३=७२ णेरद ई मूरु गुणाकारदिम्बन्द । हारदमणियन्गवद ॥ सारग्रन्थद हदिनाल्कु गुणस्थान । दारदगुणकारदिन्द ३ x ३९ । णवपद प्राप्तिय गुणकार मग्गियिम् । सवि हदिनाल्कन्कर* रसदिम्।। सवनिसेसाविरदेन्टुदलद पद्म। दवतारदमरदन्क७२ x१४=१००८ गमनिसि साविरदेन्टु दलगळुळ्ळ । कमलगळ् एरड्उ कालन्- नूरु ॥ कमपाद ओम्दरिम् गुणिसे सोन्नेयु 'आ' । विमल सोन्ने एन्ट् आरेरडेरड्ड (१००८ x २२५=२२६८००.) दोष विनाशनवाद ओम्दे पाद । दाशक्तियतिशय पुण्य ॥ राशिय थ*रतर गणितदोळात्मन । आ सिद्धरसव माडुवुदु आशयनेल्ल कूडिपुदुम् ॥१०२॥ राशिकर्मव कळेयुवदु ॥१०३।। श्रीशन माडुत बहुदु ।।१०४॥ लेसनु साधिसलहुदु ॥१०५।। राशि ज्ञानव होरडिपुदु ॥१०६।। श्री सिद्ध पदवसाधिपुदु ॥१०७॥ राशियनोमदुगूडिपुदु ॥१०८॥ ईशत्ववदनु साधिपुदु ॥१०९॥ ईषत्पाग्भारकेदिपुदु ॥११०॥ राशिसूक्ष्मत्व साधिपुदु ॥१११।। आशेयव्याबाधवहुदु ॥११२॥ नाशत्वेल्लगेल्वुदु ॥११३॥ ओषधरूपवागिपुदु ॥११४॥ औषधवम्तवागिपुदु ॥११५।।. राशियवगाहवागिपुदु ॥११६।। लेसिनगुरुलघुवहुदु ॥११७॥ लेसनेल्लरिगे तोरुवुदु ॥११८॥ आशक्तियनुभव काव्य श्रीशक्तियाद्यन्क वलय ॥२०॥ भूषणकाव्य भूवलय ॥१२॥ केळुव भव्यर नालगेयग्रद । सालिनिम् परितन्दुदनु ॥ कालक लापद अरवत्तु साविर । लीलेयशन्केगुत्तरवम् वरदवागिसि अतिसरलवनागिसि । गुरु गौतमरिन्द हरिसि ॥ सर्* वान्कद् अरवत्नाल्क् अक्षरदिन्द । सरिश्लोक आरु लक्षगळोळ् लिपियु कर्नाटकवागलेबेकेम्ब । सुपवित्र दारियतोरि ॥ मपता*ळलयगूडिद् आरुसविर सूत्र । दुपसम्हार सूत्रदलि णोआगमद्रव्य शास्त्रवागिसिदन्क । ई आगमद्रव्य वर* द ॥ ऊ आगमद दिव्याझर स्वरदोळु । श्री आगमद भूवलय ॥११९।। ॥१२॥ ॥१२३॥ ||१२४॥ ||१२५॥ - 339 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ||१३९।। ।।१४०॥ ||१४१।। ।।१४२॥ ॥१४३।। ॥२४४|| ता आगतद सिद्धान्त ॥१२६।। को आगमवेनलेके ॥१२७॥ णो आगमभाव काल ।।१२८॥ णोआगमद (अनन्त) अन्तरवु ॥१२९।। णोआगमतद्वयतिरिक्त ।।१३०॥ श्री आगमक्क्षेत्र स्पर्श ।।१३।। णोआगमाल्पबहुत्व ॥१३२।। श्री आगतद सिद्धान्त ।।१३३।। गो आगम बन्ध द्रव्य ।।१३४॥ आ आगमद अबन्ध ॥१३५।। श्री आगम सम्ख्य दन्क ॥१३६|| श्री आगतदि बन्दिरुव ||१३७॥ ई आगमद भूवलय ।।१३८॥ अष्टमहापातिहार्यवय्भववे । अष्ट महा पाडिहेरा ॥ उस ह* जिनेन्द्रादिगळिगे केवलज्ञान । वेसेद अशोकबूझगळ वरद नामगळोळु न्यग्रोधवु ओमदु । वर सप्तपर्णान्कग*ळु || एरडागे शाल सरल प्रियन्गु प्रियन्गुम् । बरलु मूर्नाल्कय्दारु नाग । वरुन अकाव धलियवण* || वरुन पलाश एनटोमबतत हतअनक । लकषिसे हननोमदरमक मळि पाटलवु नेरिल दधिपर्णवु । वर नन्दि हन्एरड्अ ध र || सरणि हदिमूर् हदिनाल्कूहदिनयदु । बरलु तिलक हदिनारु बिळिमावु कन्केलि सम्पगे बकुल । बळिहन्गळ् हदिनेन्टु।। सळर* स विहत्तोम्बत्इप्पत्तु मेषशुन्ग। अळिमलेयोळग् इप्पत्ओम्दु यश धूलियु धव शालविन्तिवुगळ । वशडप्पत्एरडदु वरदे* || रसद् इप्पत्मूरिप्पत्नाल्कू एनुवन्क । रससिद्धिगादि अशोक यशद मालेगळ तोरणदि ॥१४५।। असमान घंटेय सरदिम ।।१४६।। वश मन मोहकवेनिप ॥१४७॥ असमान रमनीयवेनिसि ।।१४८॥ यशदन्ग राग पल्लवदि ॥१४९॥ यशवेत्त पुष्प सम्कुलदि ||१५०॥ वशवप्प रससिद्ध हूवु ।।१५१|| रसमणिगादिय हूवु ।।१५२॥ यशस्वति देविय मुडिपु ॥१५३।। कुसुम कोदन्डनम्बेच्चु ॥१५४॥ असद्श कामित फलद ॥१५५।। यशदं बळिगळ हुट्टन्ग ।।१५६॥ विषहरवाद अम्तवु ॥१५७॥ कुसुमाजि मुडिदलन्कार ॥१५८॥ रस घट्टगादिय भन्ग ।।१५९।। यशद कोम्बेगळ भूवलय | ।।१६०।। सवणत्वसिद्धियशोकवादिय दिव्य । नवव्म जातीयव् वा* द ।। अवुगळु तमगिन्त हन्एरडष्टुद्द । नवरत्न वर्णशोभेगळु व्रणनवेके देवेन्दरनुद्यानदि । निर्वाहवागद्अगिडदे । हर्षवनीवुदेन्देनलेके साकदु । निर्मल तीर्थमन्गलव वरद हस्तद तेरनाद छत्रत्रय। अरहन्त शिरदलिर् प्* आग ।। हरुषद चन्द्र मन्डल मुक्ताफल ज्योति । वेरसि निन्दिहुदु शोभेयलि जयद सिम्हासन नाल्मोगदिन्दिह । नयद निर्मलमार्गदि र* विम्।। जय रत्न स्फटिकगळ् केत्तिरुवन्कदे। नयप्रमाणगळु ओआगे गोपुरदा हिन्दे इरुव सिम्हासन । रूपळिदिह ई गणित ।। श्रीप ति* यडियु सोन्किद दिव्य मन्गल । श्रीपाहुडद शोभेयलि ॥१६॥ ॥१६२।। ।।१६३।। ॥१६४॥ ।।१६५॥ 340 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) ॥१८३।। ॥१८४॥ ॥१८५॥ कोपवळिद सिम्ह मुखगळ् ॥१६६।। तापप्रतापद्अहिम्से ॥१६७।। रूपदोळ् शौर्य प्रसिद्धि ।।१६८॥ व्यापित भव्याब्जहदय ॥१६९॥ भूपरनेरगिप शक्ति ॥१७०॥ श्री पद्धतिय पाहुडवु ।।१७१।। आ पाहुडवे प्रातवु ॥१७२॥ रूपस्थ वीररासनवु ॥१७३॥ श्री पद्धतियादि भन्ग ॥१७४॥ रूपनेल्लरिगे तोरुवदु ॥१७५॥ श्री पददन्ग तोरुवदु ॥१७६॥ दीपद ज्योतियाद्यन्क ।।२७७॥ यापनीयर ॥१७८॥ कापाडुवदु शान्तियनु ॥१७९।। रूपावागिबहुदु भारतिगे ।।१८०॥ श्री पदवलय भूवलय ॥१८१।। रूप्यके बहुदु भारतदि ॥१८२॥ हषद स्फटिकद सिम्हासन प्रतिहार्य । सरि मुन्दे देवर ग*णवु ॥ निरुतवु कयमुगिदिह पपुल्लित मुख । सरसिजदिन्द सुत्निहरु ओडुत बन्निरिदर्शनमान्नुअ । हाडो इदेम्ब दुन्दुभिण* ॥ पाडिन गम्भीर नादविहुदु मुन्दे । नाडिन हूगळ मळेयु दिवदिन्द बीवुदु वर सूर्यशोभेय । सविय भामन्डल बन् ध* ॥ नव पूर्णचन्द्र अथवा शन्खदन्तिह । सविय् अरत्नाल् चामरवु नवसवर ह्रस्वदीर्घप्लुत ॥१८६॥ अवर वर्णगळ् इप्पत्ऐदु ॥१८७॥ सवियह वेन्टु व्यन्जनवु ॥१८८।। सव्अम् अह क्ह पह योगवाह ॥१८९।। विवरवदेन्तेम्ब शन्के ॥१९०॥ अवतारदुत्तरविन्तु । ॥१९॥ नवस्वरवर्णव्यन्जनद ॥१९२॥ विवरद् योगवाहगळिम् ॥१९३।। सविय्ीमदु अक्षचामरवुम् ॥१९४।। अवुगळु अरवत्नालुकु ॥१९५।। अवनेल्ल कूडलु ओमदु ॥१९६।। इवु अष्ट महापातिहार्य ॥१९७।। नवम बन्धद मन्गलद ॥१९८॥ विवर मन्गलद प्रातवु ।।१९९।। कविगे मन्गलद् आदि वस्तु ॥२००।। शिव चन्द्रप्रभ जिनरन्क ॥२०१॥ नवमान्क सिद्ध सिद्धान्त ॥२०२॥ अवतार कामदवहुदु ॥२०३।। शिव सख्य रससिद्ध काव्य ॥२०४।। सवणर्गे अवत्तनाल्कु ।।२०५॥ नवकारमनगल ग्रन्थ ॥२०६॥ भवहर सिद्ध भूवलय ॥२०७।। नव मन्मथरादियन्क ॥२०८॥ नव ब्राम्हि लिपिय भूवलय ॥२०९।। तस लोकनालियोळडगिह भव्यर । वशगोन्ड सम्यक्तवद र स || यशकाय कल्पद रससिद्धि हुगळ । कुसुम मन्गलद पर्याय समतेयोळकरदन्कव तोरुव । गमकद शुभ भद्अ वरदे* ॥ क्रमव सक्रमगेयद चन्द्रप्रभ जिन । नमिसुव भक्तर पोरेयो णाशवागदलिह अक्षरान्कवनित्तु । आ सिद्ध पदविगेरिसु वा* || राशियन्कवनु ओमबत्तरोळ् कट्टि । दाशेय पाहुड ग्रन्थ लीलान्क ओम्बत्उ ओमदु सोन्ने एन्टागे। मालेयल्अन्तरह *रुष।।दोलेयोळ्ओमदु मूरोमदु मूरोमदुमाबाळु 'उ' काव्यभू(मिरय)वलय उ ८०१९+अन्तर १३१३१=२११५०=९ अथवा अ-उ १०,५५,८८+२११५०=१,२६,७३८ ।।२१०।। ॥२११।। ||२१२।। ॥२१३।। 341 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ) अध्याय -8 Chakra 1.8.1 38 57 50 599 59 56_45 28 22 45_60 59 60 56 52 2 1 4 47 1 1 52 54 47 4 4 45 7 1 603 1 52 1 3 1 1 152 1 1 33 60_56 1 48-55 1 18 59 59 4359 54 56 52 1 38 24 45 47 1 54 45 4 60 46 1 52_60 43 4 55_35 54 59 603 47 56 6 4 1 9 1 1 343 1 4 59 56 54 47 4 1 4 11-7 53 34 35 3 3 54 59_56 28 30 60 46 42 54 35 1 7 1 1 59 54 60 22 54 47 4 60 45 1 47 7 1 24 5238352 45 16 1 1 1 5456 60 1 1 52 56 184559 50 47 47 24 133356 1 4 38 4 4 28 33 56_45 1 1 3 45_56 4 43 47 1 7 4 1 1 1 22 52 1 52 1 47 59 59 47 33 7 1 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རྒྱུ 1 11 1 52 1 313 ་ཎྷཉྫུ་གླུ་ཥུ་སྐྱ་རྡུ⌘ཤྩ་ཌ་བྷྲ ོ་མ་ 1 56 (79) 1 8 གྷ 7 ཀྵུ ⌘་ 847 1 60 46 55 11 1 52 59 59 60 45 45 16 45 16 - : 2 2 2 2 2 - 8 - 16 60 1 28 1 1 1 -ཧྨ་ 47 1 51 ལྕེར 59 1 28 1 42 1 56 53 47 60 7 30 52 1 1 1 7 54 28 54 1 38 9: 52 52 48 1 59 52 54 52 40 52 57 1 58 1 - 56 60 55 59 1 -12 3 25 2 2 2 -8 8་ཋ་རྒྱུ་༄༦༠ལྷ ོ ྴ་ཧྭ ོ་- ནྟཱི ོ - a༤་ 2 - .2 5 5 8 - - - - 2 - 8 58 2 - 54 1 1 (80) 60 3 64-6 865 ** 28 47 55 - 22 - - - 1 (84) 33 28 30 1 (81) 59 1 16 1 28 1 1 1 1 4 3 47 52 1 1 1 51 45 47 54 54 1 45 1 28 59 60 1 47 45 56 56 57 54 47 59 54 54 47 53 59 28 52 45 52 60 1 40 59 52 1 59 52 52 56 1 1 → ន ធនៈ → x 8 - 45 56 55 52 1 4 1 1 1 54 52 1 28 1 1 1 1 1 1 28 3 1 4 54 47 55 54 52 45 28 1 40 54 1 47 24 1 3 52 3 55 43 1 52 4 52 1 41 30 9 28 42 1 45 56 1 1 3 56 58 47 1 1 (87) 1 51 30 57 52 28 59 56 1 47 1 -་གི་ཆ- གི་ལྷ་ཆུ་སྒྲ་8ན་8་- 8 ཉ་ -- ༠ དྷྭ་སོ་ ༄ (77) 51 45 56 1 45 1 1 55 28 59 48 1 1 (89) 44 52 3 60 57 6 1 सिरि भूवलय 55 52 1 3 56 1 45 56 4 54 6 30 54 55 60 1 ༢ - ཆེ 60 1 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क् म् 식 व् 362 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय र् ज् अ र् 44444. 4 44 in tum ho to hos - H व 4444 hts o अ अ उ र व डी व् अ अ र् त् ह न् है व क त् अ अ द् क् य अ अ ग ण् द् उ ज् अध्याय 1-8-10 अ स अ र अ अ द् व् एा अ य व न एा इ इ त् त र ग् अ व् न् अ ष् क अ ळ उ न् ए य अ आ त् अ व अ य् अ व न् व् क् अ य् इ र इ य् इ ए ग् अ ल् ही अ ओ द् र उ अ आ एा क इ ह अ ही र व् अ ए र् द् उ ल ल य य य ह अ उ ए अ र अ अ उ उ ही म् य अ अ अ द् र च ल आ ज् आ द् 44444444 र् व उ इ व इ क् र क अ धो आ र अ प अ अ ए क ग् अ अ व् अ र उ य 16-18 व् उ व् अ ए व उ न ज एा उ अ अ इ इ अ प् अ आ त् व न् र् अ व् श य आ द उ अ व् ब् उ न त् म ल ी कू अ प व् आ अ य अ ग अ य अ त् त् अ अ द् इ भ व अ एा द् द् अ य ह न इ त् अ त् क् र् फ् ट् अ र ए डी अ बू य व् ज र इ अ द् अ ए अ अ इ त् क आ ओ व स् क र ट् अ उ न् अ स् र र् ह द् स य आ व् व ळ उ ड आआ य उ स् इ आ न् अ स् अ स् इ her to व् व् त्.आ इ ट् ग् अ अ व् ण् अ अ ल् उ व त् अ अ उ ए त् द् अ इ अ अ ण इ र अ ष उ न इ व ट् व अ व् ग् आ ी उ उ 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________________ अध्याय 18-11 प् ल ल ल ल ल ल ल ल ल ल blotco to wr हि ल ल हि ल ल ल ल ल ल www. tm 's to the obha whom हि ल 'ल' to my host ल ल ल ल 5 to thus 5' 'लल to be blo ́ 'लक' ' ल ल ल ल ho to top E for tw» te" "ल ms to be a ho rhe how far? ड् उ स् ल् र् व् म् अ उ अ लू य् अ इ र य् इ अ ग् ओ स् इ उ य इ य् अ आ इ झा ण् म् उ अ स् अ श् द् इ प् र अ व त् स् दृ ड र त् ध् र इ उ अ इ ध् ण T * श् म् आ उ इ द् व् आ न् उ अ श् त् इ श् डी प् अ व् र भू Et tot 5 16.5 form for 25 to 25 15° for 15" to 165 to her to bo to 15" to to to to to to 15' I' अ अ अ उ प् अ म् र् उ अ व् ऊ bay to for ta' to te 'ल' he is to to' ल ' to m 16 5 ल ज ल for to ओंगे अ अ इ ५ IT 15' 1 18 5 1 18' to to to to to to to to 18 hr 16 to to to ल ल to to hur hor ल ल ल tur to tr ल ल ल to hur ल कु आ क १ ए उ ध् ध् इ डी ए अ इ य् अ आ ओंगे आ सिरि भूवलय ho ho ho hota he 18 ल ल www ल ल www www www I'm b' to tot 5 5 5 18 mm Im! ल ल ल ल ल ल ल m to www. लह 16 ल ल ल क ' ' ' ' ' ल सृ इ दृ य न थ अ उ उ म् उ धु अ उ अ र् ए ल् औ ए अ प् ए य् 1 आ उ ५ आ व् 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। तानदु जिननेरिद गल् ॥ ते* नम वेम्बाग मूरने प्रतिहार्य । दानम्म बळकेयन्कगळम् णववु अष्टम सप्त षष्टम पन्चम । दवनु चतुर्थ त्रये षा*म् ॥ सवण द्वितीयवु एकान्कशून्यद । नवकार सिम्हासनद पदसिद्धियागलु बरुवषटु शन्केगे । ओदगे उत्तर काव्य म्*गळलि ॥ मुदवीव ओम्दने शन्केय पेळुव । पद पूर्वपन सिद्धान्त माटद सिम्हासन शब्द ओम्द्अरोळ् । कूटद सिम्ह आसनम् व* ॥ कूटव बिट्आग ओम्दने सिम्हद । कूट सिद्धान्तद शन्के णरस बेचचव जीव सहितट सिमहवो । गत वरधमान वाहन च*आ ॥ मरद सिमहवो जीव रहितद सिमहवो । अरहनतनेरिद सिमह। मनुजरेरुव सिम्हासनदि बन्दिह सिम्ह। घन जाति सिम्हवो ना* ना।। वनदोळु चलिप सिम्हवो अल्लवो एम्ब। घन सन्केयागे भूवलय मुनिगळ शन्केगुत्तर ॥७॥ तनगे बनद् आरु शन्केगळ ॥८॥ घनवादुत्तर सिद्धविन्तु ॥९॥ तनि शन्केगे जीवरहित ॥१०॥ एनुव शब्ददे काण्ब द्रुष्ट ॥११॥ घन प्रातिहार्य मूरन्क ॥१२॥ घन सिम्हवदु शुद्ध स्फटिक ॥१३॥ मणियिन्द रचितवागिहुदु ॥१४॥ चिनुमयनेरिद सिम्ह ॥१५॥ कोनेगे कर्नाटक सिम्ह ॥१६।। जिन मुनियन्ते सुशान्त ॥१७॥ घन मुनिगळ शूर वृत्ति ॥१८॥ अनुभवदाटद सिम्ह ॥१९॥ कोनेय भवान्तर सिम्ह ॥२०॥ घनद पुराक्त सिम्ह ॥२१॥ जिनवर्धमानरू सिम्ह ॥२२॥ घनद सिम्हासन वलय ॥२३॥ दवनिय निज सिम्ह नाल्मोगवागिह । नव सिम्हमुख उद्दवनु* ॥ अवधरिसलु आदिनाथ जिनेन्द्रर । नव देहदष्टिह अळते न्व पादपद्मद केळगिह सिम्हद । विविधदुत्सेधवदनुम् सा* ॥ अवरवरेने आदिनाथरिगऐनूरु । नवधनुवष्टिह अळते ड्णडणरेन्नुव जयघन्टे नादद । घन शब्ददनुभववस र* || जिननन्ग अजितनाथरिगेनाल्करे नूरु । एनुव धनुविनषटु सिम्ह आद आ मेले शम्भवरिगे नालन्ऊरु । मोदद अभिनन्दनर ॥ आद मा* टदसिम्ह मूरुनूरयवत्तु । नाध सुमतिगे मूरनूरु ऐदने जिनगइन्नूररेयु ॥२८॥ मोद सुपार्श्व इन्नूरु ॥२९॥ मोददेन्टके नूरयवत्अम् ॥३०॥ आद ओम्बत्तके नूरु ॥३१॥ मोद शीतलर्गे तोम्बत्तु ॥३२॥ आद श्रेयाम्स एम्बत्तु ॥३३॥ श्रीद हन्एरडे इप्पत्तु ॥३४॥ मोद विमल अरवत्तु ॥३५॥ आदि अनन्त ऐवत्तु ॥३६॥ आदि धर्मवु नलवत्ऐदु ॥३७॥ श्रीदिव्य शान्ति नल्वत्तु ॥३८॥ आद कुन्थुवु मूवत्ऐदु ॥३९।। ॥२४॥ ।।२५।। ॥२६॥ ॥२७॥ 366 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदाग अर वु मूवत्तु मोदद नमि हदिनय्दु आद्यन्क वीरान्क ऐळु 118011 ॥४३॥ ॥४६॥ महदादि गान्गेय पूज्य इहलोकदादिय गिरिय वहिसिदणुव्रत नन्दि महनीय गुरुगण भरत गहगहिसुव नगुभरित महिय कळ्वप्पु कोवळला सिरि भूवलय ॥५६॥ ॥५९॥ ॥६२॥ ॥६५॥ ॥६८॥ ॥७१॥ श्रीद मल्लियु इप्पत्ऐदु आदि नेमिय अन्क हत्तु आदि इप्पत्एरळ् धनुष मोददन्तिमगळु मोळाऊ कोष्टक बन्धान्कदोळु कूडिदक्षर । दाशमिक क्रम गणित । साष्टम निर्मल स्फटिकद बण्णद । भीष्टद सिम्ह वर्णगळ डिगद्अन्क गणितदोळ तेगेयलादी एन्टु । भगवन्त पुष्पदन्ताद्य ॥ सोगसिन कुन्दपुष्पदबण्ण एरडके । मिगिलाद सिम्हशरीर तिरेयेल्लिहरितवर्णपार्श्वसुपार्श्व | हरवर्ण नील य् सुव्रत । बरुवुदिदे नेमि पद्मप्रभ मत्तु । वरवसुपूज्यर्गे केम्पु यशदेन्टु सिम्ह बण्ण बिळिदु हळदि । वशनील केम्पु इन्त् आगे ॥ ऋषि हदिनारर सिम्हगळ् चिन्नद । रसद स्फटिकद वगळु म्हवीरदेवन सिम्हासन चिन्न । महद् आदि व्रुषभ जिनम्चा * ।। मिह सिम्हवदनोडे चिन्नद नाडाद । इहके नन्दिय लोक पूज्य महति महावीर नन्दि महनीय महाव्रत भरत महवीर नन्दद कुलवु सुहुमान्क गणितद बेट्ट सहनेय गुरुगळ बेट्ट महिय गन्गरसर गणित अहमिन्द्र स्वर्गवी भरत महवीर तलेकाच गन्ग 118211 118811 118911 ॥४९॥ 367 आदि इप्पत्तु श्रीधव पार्श्व ओम्बत्तु नेद अन्व्हगळेल्ल इनितु साधित सिम्ह भूवलय ॥५७॥ ||६०|| ॥६३॥ ॥६६॥ ॥६९॥ ॥७२॥ सहचर मूरारु मूरु गहन विद्येगळाळ गिरियु इह कल्पवाद भरत महदादि शिव भद्र भरत महिमेय मन्ग भूवलय एाळु कमल मुन्देळु कमल हिन्दे । सालु मूवत्एरड् अन्क | पाल * कूडिसल् एरडु कालूनूरु । श्री लालित्यद कमल क्णेय्अ धवलवर्णद्ध पादगळिह । परमात्म पादव य* दे ।। सिरविह नाल्कन्क वेरसि सिम्हद मुख । भरतखन्डद शुभ चिन्हे कविदिह मुरुग पक्षि मानव वर्गव । अवधरिसुत शान्तद श्री ।। अवतारवो इदु वीरश्री एन्देम्ब । सुविवेकि भरत चक्ान्क वीर जिनेन्द्रन वाहनवी सिम्ह । मूरने पडिहारवदु । सार श्री* वीरश्री सारस्वत धीर । रारय्केवदनद सिम्ह समचतुरस्र सम्स्थान सम्हननद । विमल वय्भवविह कुन्द ।। श्रमहर वर्णद धवल मन्गल भद्र । गमकद शिव मुद्रे सिम्ह 112011 अमलात्म हर शम्भु सिम्ह ॥८१॥ नमिसे सौभाग्यद सिम्ह क्रमदन्कवेरडन्क सिम्ह ॥४२॥ ||४५|| 118211 ॥५०॥ ॥ ५८ ॥ ॥६९॥ ॥६४॥ ॥६७॥ 119011 ॥७३॥ 119811 ॥८२॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ 114811 ॥५५॥ ॥७५॥ ॥७६॥ 119911 119211 ॥७९॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ||९७॥ ॥९८॥ ॥९९|| ॥१००॥ ॥१०१।। . समवसरणदग्र सिम्ह ॥८३॥ क्रम नाल्कु चरण एन्टन्क ॥८४॥ गमक केसर सिम्ह नाल्कु ॥८५॥ विमल सिम्हद प्रातिहार्य ॥८६॥ सम विषमान्कदे शून्य ॥८७॥ गमक लक्षणद अहिम्से ||८८॥ श्रम हर पाहुड ग्रन्थ ॥८९।। समद नाल्मोगदादि सिम्ह ॥९०॥ क्रमद महाव्रत सिम्ह ॥९॥ क्रम सिम्हक्रीडित तपन ॥९२॥ श्रमहर गजदग्र क्रीडे ॥९३॥ नमिसिदर्गणुव्रत शुद्धि ॥९४॥ श्रमद महाव्रत शुद्धि ॥९५॥ विमलान्क काव्य भूवलय ॥९६॥ लक्षण जारदे सिम्हगळ बाळुव । तक्षणवेने आगाग ॥ लक्षान् क मीरिद वरुषगळेष्टन्क । वीक्षितियोळगे बाळुवुवु डिमेयायुविन श्री महावीरदेव । नडिय सिम्हासनदल्लि ।। ओद* गिद सिम्हदायुपु हत्तु वरुषवु । बिडदे समवसरणदलि खातिकेयग्रदि पार्श्व जिनेन्द्रर । ख्यातिय सिम्हद आयु ॥ पूत कु*शल वर्षगळ् अरवत्ओम्बत्तु । नूतन मासगळ् एन्टु णभदिह नेमि स्वामिय सिम्हदायुवु। शुभवर्ष एळनूरक्के न्*दे ॥ शुभद ऐवत् आरु दिनगळु कडिमेयु । विभुविन सिम्ह बाळुवुदु म्रळि श्रीनमि देवर सिम्हदायुवु । एरडूवरे साविरके ।। बरद* ओम्बत्तु वर्षगळन्क कडिमेयु । सिरि सुव्रतर सिम्हदायु परिदेळूवरे सावितु ॥१०२॥ सिरि मल्लि जिन सिम्हदायु ॥१०३।। बरे ऐनालकेन्ट्सोन्ने सोन्ने ॥१०४।। अर विसोन्ने नवेन्टनाल्कु ॥१०५।। सिरिकुन्थेरळ मूरेळु मूरुनाल्कु ॥१०६।। वर शान्तेरळ नाल्नवेन्ट्नाल्कु ॥१०७।। धर्म नववनाल्कु नाल्केरडु ॥१०८।। धर्मरन्कवु बिडियारु । ॥१०९।। सिरिअनन्तवेन्टोम्बत्तोम्बत्तु ॥११०।। वरुष मुन्दे नव नाल्केळु ॥१११।। गुरु विमलवेळोम्बत्तुगक् ॥११२।। बरे नालकनकवुनालक ओमद् ॥११३।। वर वासुपूज्यरयदु नव ॥११४।। बरे मूरु ऐदन्क वरुष ॥११५।। सिरि श्रेयाम्सेन्टु नवगळ् ॥११६।। बरे नाल्कन्कवु सोन्ने एरडु ॥११७॥ सिरि शीतल पूर्व अन्ग ॥११८।। बरलोम्बत्तुगळयद् मूरेन्टु ॥११९।। वर वेळु नववु नाल्कुगळु ॥१२०।। बरे मुन्दे मूरेन्टु वरुष ॥१२१॥ गुरु पुष्पदन्तरु पूर्व ॥१२२॥ वरुष ओमबत्तुगळ् ऐदु ॥१२३॥ गुरुववरन्क पूर्वान्ग ॥१२४॥ अरुहोम्देळ्नव मूर् मूरेन्टु ॥१२५।। वरुषवार् नवनाल् मूरेन्टु ॥१२६।। वर चन्दरप्रभरोम्बत्तुगळु ॥१२७॥ सरि पूर्वेगळु मुन्दन्ग ॥१२८॥ सरि पळु बिडियन्कयदारु ॥१२९।। बरे मूर् ओम्त्तु मूरेन्टु । ॥१३०॥ वरुषव अय्दोम्बत्तुगळ ॥१३१।। बरेवुदे मूरु मत्तेन्टम् ॥१३२॥ सरि मास मुक्कालु वरुष ॥१३३॥ विरुवदु आ सिम्हदायु ॥१३४।। वरद सुपार्शव पूर्वेगळ ॥१३५।। बरुवुवु नवदन्क ऐदु ॥१३६॥ अरिमुन्दे पूर्वान्ग एळम् ॥१३७।। 368 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सिरि भूवलय ॥१४०॥ बरे नव एळु मूरोम्बत् बरे ओमदु नाल्नव मूरेन्टु बरे ओम्बत्तुगळनयदु सल बरुवुदेम्भत्नाल्कु ला अरि पूर्वान्गद बिडि पळ अरि वर्ष बिडियन्क एगळ सर अभिनन्दन पूर्वे वरुषादि एरडेन्ट्ओ म्बत्तु वर पूर्वगळ मुन्दे अन्ग वरुषवेम्भत्नाल्कु लक्स सरियाद् ओम्बत्तुगळ् ऐदु वरुषगळेम्भत्नाल् लम सिरियोमदु ऊनवादक इरुव सिम्हगळ्आयुविनितु सिरियु पश्चादानु पूर्वी बरुवन्क सिम्हलान्छनवु ॥१३८॥ सरि मूरु एन्टुगळन्क ॥१४१।। वरुषगळन्कवष्टिहुदु ॥१४४॥ इरे इन्तु पूर्वान्ग दन्क ॥१४७॥ दिरविनोळोदून वरुष ॥१५०।। बरे आद्यन्तवेम्बत्तुमूर ॥१५३।। गुरु सोन्ने एन्टोम्बत्तु नवव ॥१५६।। बरुव पूर्वेगळ् ओम्बत्ऐदु ॥१५९॥ बरे तोम्बत् ओम्बत्मरेन्टु ॥१६२।। , बरलादुदेम्भत्नाल्ला । ॥१६५॥ दिरविगे हदिनाल्कु ऊन । ॥१६८॥ वर अन्गवेम्भत्नाल् लम ॥१७१।। दिरविनोळून हन्एरडु ॥१७४॥ वरुषवेम्भत्नाल्कु लम ॥१७७॥ भरत खन्डद सिम्हदायु ॥१८०।। इरुवष्ट महापातिहार्य ॥१८३।। गुरु वीरनाथ भूवलय वर सिम्हदुपदेशवेरडु ॥१३९॥ बरि अन्गविन्इतागे बरुव ॥१४२॥ गुरु पद्मप्रभर पूर्वेगळ ॥१४५|| मुरेन्टु मूरोम्बत्तु मूरेन्टु ॥१४८॥ वर सुमति वन वयपूर्व ॥१५१॥ सरिमध्ये नव नव नवव ॥१५४॥ अरि मत्ते नव मूरु एन्टम् ॥१५७॥ अरि अन्ग नाल्नव मूरु एन्टु ॥१६०॥ वर शम्भव नववयदु ॥१६३॥ दिरविनोळ् ऐदन्क ऊन ॥१६६॥ एरडने अजितर पूर्व । ॥१६९॥ दरविनोळेरडन्क ऊन । ॥१७२॥ पुरुदेव पूर्व लक्षगळ्गे ॥१७५॥ दिरविनोळ साविर ऊन ॥१७८॥ भरतद सिम्हगळायु ॥१८१॥ दिरविनोळ् पडिहार मूरु ॥१८४॥ गुरु मुनिसुव्रत नमिय ॥१८६।। परम्परे सिम्ह भूवलय ॥१४३॥ ||१४६॥ ॥१४९।। ॥१५२॥ ॥१५५।। ॥१५८॥ ||१६१॥ ॥१६४॥ ।।१६७॥ ।।१७०॥ ॥१७३॥ ॥१७६॥ ॥१७९।। ।।१८२॥ ॥१८५॥ ॥१८७॥ (पश्चादानु पूविय महावीरर वाहन सिम्ह मत्तु सिम्हासनवेम्ब मूरने प्रातिहार्यद सिम्हद जीवित वरुष (हत्तु) १०,) (पार्श्वनाथर ३ने प्रातिहार्यद सिम्हद आयु वरुष ६९ तिंगळु ८. हीगेये मुन्दे लेक्क तेगेयबेकु.) वासव निर्मित समवसरण बाळ्व । लेसिन कालदन्कगळम् ॥ आ* सरेयष्टिह भरत खन्डद सिम्ह । दाशेय प्रातिहाऱ्यान्क सम नाल्कु पादगळादरु एन्टिह । क्रम सिम्हव कायवकव चा* ॥ विमल ज्ञानद वृषभादि तीर्थकया। रमल यक्षियर रक्षितवु ।।१८८।। ॥१८९।। | 369 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ट्णटणवाद्य गोवदन चक्रेश्वरि । घन महायक्षरोहिणि र् आ ।। मणित्रिमुखनु प्रज् ज्ञाप्ति यक्षेश्वर । जिन यक्षि वज्रश्रुन्खलेयु टद तुम्बुर वज्रान्कुश राग । मुद मातन्ग यवान्क । सदय् अ नातन पत्नि अप्रति चक्रेशि । ठिद विजय पुरुषदत्ते न्व अजित मनोवेगे ब्रम्हनु काळि । सवण ब्रम्हेश्वरर् आद ।। नव ज्वालामालिनि देवियु हत्तन्क । छ कुमार महाकाळि चरितेय षण्मुख गउरि हन्नेरडन्क । नव पातालरवर द्या ॥ अवन गान्धारियु किन्नर इरोटि । नव किम्पुरुष सोलसेयु सव गारुड मानसि देवि हदिनारु | नव गन्धर्व येश ।। नव या * माहा मानसि देवि हदिनेछु । सवण कुबेर देवि जया हरुषद वरुणनु विजया देवी । सिरि भ्रुकुटि अपराजितेयु ॥ वरम् * हा गोमेध बहुरूपिणि देवि । सिरि पार्श्व कूष्माण्ड सरळ मातन्ग पद्मावति देवियु । वर गुह्यक सिद्धायिनियु || नारक तिर्यन्च गतिगे सल्लद इवर् । सार भव्यर जीव देवर् साविरदेन्टु दलगळ तावरेयनु । कावुत तलेयोळु होत्त ।। तावु ई * नाल्मोग सिम्हरूपव काय्व । पावन यक्ष यक्षियरु देवन यक्ष यक्षियरु ई विश्व रसव काय्दवरु तावु बेट्टिगळ तावरेय ईविध मूरु तावरेय कावरु हूवेप्पत्तेरडम् कावरु महाव्रतिगळनु काकावरहिम्हिसेय बलदि श्री वीरवाणि सेवकरु कावरु औदारिकर नोवुगळळलनिल्लिपरु श्री वीरगणितव काय्द || १९८ ।। || २०१ ॥ || २०४ || बेविन हूवनित्तवरु जीवकोटिगळ काय्दवरु ईवरु नेलद तावरेय ।।२०७ ।। काविनोळ् रसमणि सिद्धि || २१० ।। तावु सिम्हगळ लेक्कदलि श्री वीर विक्रम बलरु || २१३ || ।।२१६ ।। ।। २९९ ।। तावु दर्शनिकरागिरुत तावरेदलगळोळिहरु ||२२२|| देव देवियर तिवरु || २२५ || श्री वीरदेव पूजकरु ।।२२८ ।। देव देवियर भूवलयम् ।।१९९ ।। तावरे हूविन रस 370 कावरु अणुव्रतगळनु श्री वीर जलद तावरेय गीवरु हूविन वरव ॥ २०२॥ || २०५ || ॥ २०८ ॥ ।।२११ ।। कावरु भरतार्य भुविय ।।२१४ ।। ॥२२०॥ जीवं हिम्सेयनु निल्लिपरु ।।२१७ ॥ कावरु व्रतिकादि नेलेय देव वयक्रियकर्धि धररु पावन धर्म होत्तवरु तावु सिद्धरनु सेविसलि ॥२२९|| श्री वीर सिद्ध भूवलय ॥२२३॥ ॥२२६॥ इरुव श्री समवसरण नाल्मोग सिम्ह । अरुहन पाद कमल श्री । । सरद नालिय होत्तु तिरुगुत बरुतिप । सिरिय देवागम पुष्प गिडवु अशोकवु पोडविय भव्यर । सडगरवनु वर्धिसिरे श्री * ॥ जडद देहद रोग आतन्क वार्धिक्य । गडिय सावुगळनु केडिसि 1120011 ॥२०३॥ ॥ २०६ ॥ ॥ २०९ ॥ ।।२१२ ।। ॥२१५। ।।२१८ ।। ॥२२१॥ ॥ २२४ ॥ ॥२२७॥ ॥२३० ॥ ॥ १९० ॥ ।।१९१ ।। ।।१९२।। ।।१९३।। ।।१९४ ।। ।।१९५ ।। ॥१९६॥ ॥१९७॥ ॥२३१॥ ॥२३३॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सिरि भूवलय ॥२३३॥ दानगळननेल ज्ञानदोळडगिसि । आनन्दवनेल्ल तरिसि ॥ शाने पुण्यवनीव पुष्पवृष्टियनीडु । वा नम्र प्रातिहाऱ्यान्क लक्षणवाद चामर अरवत्नाल्कु । अक्सर अरवत्नाल्कु ॥ * इक्नेयमरदनक नवम दिव्यध्वनि । रक्षिपुदु ओम् ओम्बत्तुगळ ।।२३४|| ॥२३७॥ ॥२४०॥ तक्षण कर्म विनाश घकटवादेरडु काल्नूरु रमेयद्वादश गणवे लक्षिप प्रातिहाऱ्याष्ट श्रीक्षण मन्ग प्रातवु अक्षय पद प्रातिहार्य ॥२३५|| सिक्षिप हन्नेरडन्ग ॥२३८॥ ईक्षिप भामन्डलान्क ॥२४१।। अमरदन्क हन्नेरडु ॥२४४।। अमरदष्टु मन्गलवु ॥२४७॥ अमरदन्क सान्गत्य ॥२५०।। सिक्क्षण लब्धान्क शून्य ॥२३६।। हदेळु मूवत् एरडम् ॥२३९॥ लक्ष्यद दुन्दुभि नाद ॥२४२॥ अक्षर वेद हननेरडु ॥२४५।। शिक्षण काव्यान् क वलय ।।२४८।। कुक्षि मोक्षद सिद्ध बन्ध ॥२५१॥ अक्करदन्क भूवलय शिक्षणग्रन्थ भूवलय ॥२४३।। ॥२४६॥ ॥२४९।। ॥२५२॥ ॥२५३॥ ॥२५४॥ ||२५५|| दुरितव हरिसुव अष्ट मन्गल द्रव्य । वेरसि प्रात प* दवदनु । परमात्म पादद्वयद एन्टमर । बरेदिह पाहुड ग्रन्थ तिरेय जम्बूद्वीपद् एरडु चन्दरादित्य। रिरुवष्ट रूपद* अमल।। सरसिजावर काव्य गुरुगळ् ऐवर दिव्य । करयुग दानान्क ग्रन्थ भारत देशदमोघवर्षनराज्य । सारस्वतवेम्बन्ग ।। सारा न्*क गणितदोळझर सक्कद । नूरु साविर लक्म कोटि याहातिराप्नसहासि एन्टु (अष्टम)मुक्काल । साविरकेरडे ऊन ।। स्त* र अन्तर हदिनेछु साविगळ्गे । सार(नेर)नाल्वत्नालकुम् ऊनम् ८ने ऊ ८७४८+अन्तर १६९५६=२५७०४=१८९ अथवा आ दिन्द 'ऊ' वरेगे १,२६,७३८+ऊ २५७०४=१,५२,४४२ ||२५६॥ ॥२५७॥ 371 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय - अनुबंध पत्रिकाओं में उल्लेख १. प्रभात २५-७-१९५० अंकाक्षर विज्ञान बंगलोर विश्वैश्वर सर्कल श्री एम. वाय. धर्मपाल एंड ब्रदर के सर्वार्थ सिध्दि कंपनी ने अपने प्रचारक सम्मानीय पंडित यल्लप्पाशास्त्री जी को अंकाक्षर विज्ञान के प्रचार के लिए भरतखंड के नाना प्रांतों में भेज रहे हैं । शास्त्री जी पिछले १९४२ फरवरी में लगभग १५० यात्रिओं को लेकर अपने अंकाक्षर विज्ञान के साहित्य प्रचार के लिए स्पेशल रेल्वे में ८१ दिनों तक भरत खंड का संचार कर अपने प्रवास में सैकडों सभाओं का अयोजन किया है। इसके लिये अर्ध लाख रूपये व्यय हुए और हजारों भारतीय को इस विज्ञान के मर्म को समझने में सहायता की है। वहाँ से आने के बाद इस वर्ष ३३वाँ कन्नड साहित्य सम्मेलन कोल्हापुर में आयोजित होने पर अपने प्रवास को आधार बना कर अपने भाषण के द्वारा १० हजार महारष्ट्रियनों और कन्नडिगाओं को तृप्ति प्रदान की है। इससे प्रसन्न होकर प्रसिध्द वीरशैव के प्रधान श्रीमंत स्वागत समीति के कार्याध्यक्ष श्री सी. एम. वारद, महिला शाखा की अध्यक्षिणी श्रीमती आर. सी. जयदेवी, माता लिगाडे, ने अनेक पत्रों को भारत सरकार के केन्द्र तथा राज्य सरकारों को भेजा । इससे प्रोत्साहित होकर कंपनी ने सोलापुर, मीरज, जयसिंगपुर, गळतिगे, कोल्हापुर, बेळगाम, धारवाड हुब्बळ्ळि इत्यादि प्रदेशों में अपने प्रदर्शन भाषणों से एक लाख लोगो को ज्ञान दान किया है। इस विषय को महाराष्ट्र के सतार प्रकाश, सोलापुर के सुदर्शन, सोलापुर समाचार, कोल्हापुर का सत्यवादि, बम्बई की लोकसत्ता, नवभारत, हुब्बळ्ळि का नवयुग, संयुक्त कर्नाटका, मंगलूर का विवेकाभ्युदय, सूरत का हिन्दी जैन मित्र, बंगलोर का ताई नाडु, विश्वकर्नाटका इत्यादि महा पत्रिकाओं ने विशेष शीर्षक देकर कॉलमों को ध्यान में रखे बिना प्रकाशित कर लगभग १० लाख लोगो में इस विज्ञान को प्रसारित किया है। श्री शास्त्री जी अपने प्रदर्शन भाषण में लगभग १० बढे नक्शों के समीप लोगो को ले जाकर प्रत्येक नक्शे की महिमा का वर्णन कर, अपने द्वारा रचित सुलभ शैली की सांगत्य को बताते हए प्राथमिक तथा विश्वविद्यालयों को लाभांवित करने वाले इस अंकाक्षर विज्ञान की जानकारी देते हैं। =372 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय २. प्रजामत २५-५-१९५२ “भूवलय सिध्दांत ग्रंथ परिचय” नाम के इस ग्रंथ को पंडित यल्लप्पा शास्त्री विवरित करते हुए इस महाग्रंथ की रचना में गणित को क्यों आधारित बनाया गया है, विवरित करते हैं ३. प्रजामत १-६-१९५२ _ “सर्वमतों का समन्वय ही भूवलय सिध्दांत का ऐकैक लक्ष्य है” तथा “कन्नड भाषा में इस महा ग्रंथ की रचना का क्या कारण है" इस शीर्षक के अंतर्गत लिखे गए लेखन में सर्वमत का समन्वय ही इस महाकृति का लक्ष्य है, कहा गया है। ४. जिनवाणि ५-९-१९५२ भूवलय सिध्दांत इसकी विशेषाध्यनादि की आवश्यकता यह ग्रंथ इस बात का प्रतिपादन करता है कि, इसमें प्रतिपादन करने के विषय ही नहीं आने के कारण, “यदिहास्ततदन्यत यन्नेहास्तन तत्क्वचित” इस महाभारत की युक्ति को कहना ही पडेगा। जो इसमें कहा गया है वह चर्वितचर्वण रूप से दूसरे स्थान में भी विवरित हुआ है और जो इसमें नहीं है वह किसी और स्थान पर होना असंभव है अर्थात इसमें वैज्ञानिक रूप का इस २०वींसदी के मानव विनाशकारी बम की प्रतिक्रिया के साथ सकल अध्यात्म शास्त्र समाहित है ऐसा घंटाधोष के साथ कह सकते हैं परन्तु इन सभी को केवल संख्या प्रमाण से ही निर्धारित करना है अर्थात संख्या समुदाय के द्वारा बंधे हुए चक्रादि बंधों से किसी भी शास्त्र को किसी भी भाषा को पाया जा सकता है। ५. प्रजावाणि २६-५-१९५३ ___पंडितो को अपने चमत्कार से दंग कर जिज्ञासा को उत्तपन्न करने वाला सिरि भूवलय हमें ज्ञात कुछ भाषाओं के नाम नीचे दिए हैं Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय प्राकृत-अट्विह कम्मवियला नोट्टिया कज्ञापराट्य संसारदिट्ट नयलथ सारासिद्धा सिद्धिंममरि संतु संस्कृत - ओंकार बिन्दु संयुक्त नित्यं ध्यायंति योगिनः कामदं मोक्षदं च इवं ओंकाराय नमो नमः बंगाली - रिसहा दीणं च्चेणं गोनधि गयतुरगर्नारा कोकं सवुदुं नंदानत्तं तेलगु - सकल भूवलयमुनुकु प्रभूषणप्रभुवुण्डु मनसु दणाणावरण मनि नेनु नमस्कारंबु चेसि तमिल-अघर मुदल एळुत्तेल्लां आदिभगवन उलुगुक्कु मोदल कुरुळु काव्यतिल इस प्रकार प्राकृत, संस्कृत, द्राविड, आंध्रा, महाराष्ट्र, आदि ७१८ भाषाओं को इस कन्नड ग्रंथ में बांधा गया है ऐसा कहा गया है । जिनवाणि ५-८-१९५३ इस पत्रिका के संपादकीय में “सिरिभूवलय सिध्दांत” शीर्षक के अंतर्गत लिखे गए लेखन में सिरि भवलय वैसे तो देखने में एक कन्नड ग्रंथ है परन्तु उसमें दुनिया का सर्वांश समाहित है । जो उसमें है वह कहीं भी नही है और जो उसमें नहीं है ऐसी कोई बात नहीं है, ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा, ऐसी उसकी महिमा है। इस ग्रंथ में हमारी दृष्टि को प्राकृत संस्कृत अर्धमागधी कन्नड आदि काव्य समाहित दिखाई पड़ते हैं । ग्रंथ के आदि में दिये गए चक्र बंध के अनुसार इन श्लोकों को रचा गया है । इस काव्य में ७१८ भाषाएं समाहित ऐसा विमर्शकों का अभिप्राय है। हमें सभी भाषाओं का परिचय होने पर ही हम इसे विमर्शित कर सकते हैं। यह ग्रंथ नाना विषयों को भी समाहित किए हुए है साथ ही तर्क, व्याकरण, छंद, अलंकार, नाटक, गणित, ज्योतिष्य, आदि समस्त शास्त्र भी इसमें एकत्रीभूत हैं, ऐसा कहा गया है । यह भूवलय सिध्दांत कन्नड काव्य होने पर भी सभी भाषाओं के लिए मूल स्तंभ बना हुआ है । 374 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय ७. सत्य २७-८-१९५३ जगत की अद्भुत कृति सिरिभूवलय ऋगवेद ऋगवेद की प्राचीनता में कोई संदेह नहीं है । यह मानव के उत्कर्ष का प्रथम सोपान है तथा अत्यंत प्राचीन साहित्य है और चार वेदों में प्रथम वेद अत्यंत प्राचीन वेदो का अनेक ऋषियों ने संपादित (प्राप्त) किया है ऐसा कहा जाता है उनमें शाकल, बाषक्ल, तथा कात्यायन प्रमुख है। वर्तमान में शाकल ऋषि के द्वारा प्राप्त वेद प्रचलन में है। परन्तु शेष ऋषियों द्वारा संपादित वेदों के विषय में हमें कुछ अनिर्दिश्ट चिन्ह ही ज्ञात है, कोई स्पषट आधार प्राप्त नहीं है । शाकल ऋषि के निरुत्तपंथी, ऐतिहासिक पंथी के विषय में कोई विस्तृत इतिहास प्राप्त नहीं है । __शाकल ऋषि के द्वारा संपादित ऋगवेद “अग्निमीळे” मंत्र से प्रारंभ होता है । सिरि भूवलय में मूल ऋगवेद को ही लिया गया है ऐसा कवि जानकारी देते हैं। इस के अनुसार ऋगवेद “ॐतत्सवितुःवरेण्यं" गायत्री मंत्र से प्रारंभ होता है, कहा गया है । और अधिक मंत्र अथवा इससे संबंधित विषय अभी तक ज्ञात न होने के कारण उनके ज्ञात होने तक हमें इंतजार करना होगा । ऋग वेद का प्रथम मंत्र “अग्निमीळे” नहीं वरन “ॐतत्सवितुः वरेण्यं" है कहने मात्र से कोई प्रमाद (दोष) उत्पन्न नहीं होता है । परन्तु जैनों को नास्तिक कहकर वैदिकों के संबोधित करने पर भी, वेद ही सिरिभूवलय का वृहद रूप हैं । वेद माता स्वरूप है, उसे मैं यहाँ उद्धृत करता हूं, ऐसा कहने वाले जैनाचार्य का कथन, अब ही सही हम वेद पंथी नहीं है, कहने वाले कुछ जैनों और जैनों को नास्तिक कह कर निंदा करने वाले वैदिकों की आँखें खोलने में सहायक होगा। पूर्ण रूप से सिरिभूवलय को समझ न पाने का कारण हमारी ही समझ का स्तर कुछ कम होगा ऐसा मानना उचित होगा । इसमे कोई अर्थ नहीं है ऐसा कहकर निंदा करने में कोई अर्थ नहीं है। वस्तु का ज्ञान प्राप्त होने पर 375 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ही उसकी उपयोगिता या अनुपयोगिता का निर्धारण किया जा सकता है। कुछ भी हो सिरि भूवलय कन्नड भाषा का एक अमूल्य रत्न है कथन का कोई अनादर नहीं कर सकता । “सिरि भूवलय में केवल रचनावैचित्य है और कुछ भी नहीं है” ऐसा महनीय जन उद्गार दे सकते हैं। ठीक है, खुशी की बात है ! पर क्या यही एक इसकी श्रेष्ठता का साक्षी नहीं है ? सभी कुछ उसमें समाहित है ऐसा कोई कह नहीं सकता। हमारे अभिप्रायानुसार भारतीय प्राचीन साहित्य का बह्वंश समाहित है । भारत एक समय में अत्युच्छ्राय (अति उच्च) स्थित पर अनेक अमूल्य ज्ञान साहित्य से संपन था । आज प्राचीन समय के कई साहित्य ग्रंथ उपलब्ध ही नहीं है सभी लुप्तप्राय हो गए हैं। इस प्रकार लुप्त ग्रंथों में कुछ ग्रंथ तो सिरिभूवल्य में समाहित हैं यदि ऐसे ग्रंथ सिरि भूवलय के फलस्वरूप प्रकाश में आए तो किसे नहीं चाहिए?, यही हमारे तर्क का आधार है। सिरि भूवलय ग्रंथ को कष्ट होने पर भी कम-से- -कम एक बार ही सही जड सहित अध्ययन कर अपना निर्णय दें ऐसा हम विद्वानों से आग्रह करते हैं। ऐसा न हो - बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः अबोदोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितं ऐसी भृतहरी की व्यंग्योक्ति सिरि भूवलय के विषय में चरितार्थ न हो ऐसी हम आशा करते हैं। ८. राष्ट्र मत १८-११-१९५५ सिरि भूवलय – कुमुदेन्दु मुनि विरचित - शीर्षक के अंतर्गत लेख में सिरि भूवलय के ग्रंथ कर्त्ता कुमुदेन्दु मुनि वेद शास्त्र पुराणों के सारांश को इस ग्रंथ में ताना-बाना के समान बुनकर उस के मध्य में अति सूक्ष्म रूप से संजीविनि विद्या, स्वर्ण विद्या रहस्यों को बांधा है। इस कारण इस ग्रंथ का महत्व अद्वितीय है । इन सभी को सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो पाश्चात्य देशों में विरचित 376 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय नवीन काल के “एनसैक्लोपीडिया” का भारत वर्ष में हजारों वर्ष पहले ही तैयार हुए थे ऐसा इस ग्रंथ स व्यक्त होता है । यह सर्वशास्त्रसंग्रहग्रंथ सत्य में ही सभी समय काल के लिए भारतवर्ष का गौरवान्वित ग्रंथ के रूप में सुरक्षित रहने में कोई संशय नहीं है । ९. संयुक्त कर्नाटका २८-७-१९५६ सिरि भूवलय ग्रंथ की माइक्रो फिल्म ___७१८ भाषा, ६४ कलाएँ ३६३ मत, से संग्रहित कहे जाने वाले कन्नडग्रंथ सिरि भूवलय के विषय में महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने विशेष आस्था दिखा कर इसे राष्ट्रीय संपत्ति मान कर भारत के राष्ट्रीय प्राच्य संग्रहालय में प्रथम खंड की माइक्रो फिल्म बनावाई ऐसी जानकारी मिलती है । _____ सन् ७८० में मैसूर राज्य के नंदीदुर्ग के समीप यलवळ्ळि के कुमुदेन्दु मुनि ने इस ग्रंथ की रचना की है कहा जाता है । १०. प्रजावाणि १४-६-१९६४ कर्लमंगलं श्रीकंठैय्या सिरि भूवलय विश्व का आठवें आश्चर्य के रूप में प्रसिध्द कन्नड ग्रंथ है ___१. विश्व के समस्त भाषा-साहित्य, ज्ञान-विज्ञान को एक साथ एक ही समय में जान पाना संभव है क्या? है. इसके लिये निर्देशन है, कन्नड का प्राचीन ग्रंथ “सिरिभूवलय” २. विश्व के समस्त भाषाओं, ज्ञान-विज्ञान को कन्नड में समाहित कर कन्नड के मूल को नवमांक गणित अंकाक्षर के क्रम में रूपित कर इस असदृश विश्व काव्य को रचने वाले कवि-कुमुदेन्दु आठवीं सदी के हैं। ___३. जग के सभी समय के समस्त को प्रतिबिम्बित करने वाला यह भूवलय रूप का, कन्नड-कन्नडी (आईना) का परिचय इस लेख से मिलता है। विश्व का आठवें आश्चर्य के रूप में ख्यातित, दि. डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, महर्षि देवरात, डॉ. सुनीत कुमार चटर्जी, डॉ.एस. श्रीकंठ शास्त्री जी आदि विद्वानों द्वारा =377 377 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय "भारत का अद्वितीय ज्ञान भंडार-विश्वकोष” कह कर मुक्त कंठ से प्रशंसित “विश्व काव्य सिरि भूवलय” कन्नड की प्राचीन कृति है। ___ सिरि भूवलय विश्व काव्य को रचने वाले कवि मुनि कुमुदेन्दु हैं। कन्नड में प्रसिध्द होने वाले इस नाम के कोई भी कवि इस ग्रंथ के रचायिता नहीं है यह याद रखने की बात है । मुनि कुमुदेन्दु ने इस ग्रंथ में अपने माता-पिता तथा किसी भी अपने बुजुर्गों का नाम नहीं लिया है। कुमुदेन्दु पुरातन जैन परंपरा के अनुसार ‘यापनीयमत” संप्रदाय के हैं। यापनी संप्रदाय के मानने वाले जिन हरिहर ब्रह्मादि देवताओं को तीर्थंकर कह कर और उनके उपदेशों को तीर्थ मान कर पालन करते थे। यापनीयमत को तीव्र रूप से निंदित करने वाले श्रुत सागर मुनि अपने षट्राभृत टीका में “सर्वसमताभाव” क खंडन किया है कन्नड प्रदेश में कदंब, चालुक्य, राष्ट्रकूट, संप्रदाय के अनेक स्वामियों और उनके मंडल, यापनीयमत के गुरूओं को दान दिया करते थे। ___ कुमुदेन्दु के कहेनुसार उनका वृषभसेनान्वय सेनगण –सद्धर्मगोत्र-द्रव्यांग शाखा, ज्ञातवंश,-वृषभ सूत्र-इक्ष्वाकुवंश है । कुमुदेन्दु के कहेनुसार और ग्रंथ में कहेनुसार भी आप जैन ब्राह्मण थे। गुरु शिष्य परंपरा कुंद कुंद -समंत भद्र पूज्यपादादि ऐतिहासिक व्यक्ति कुमुदेन्दु नाम धारित प्रसिध्द व्यक्ति हैं। इनके समकालीन दीक्षागुरु वृषभ सेनान्वय के वीरसेन-जिनसेन हैं। इनको कुमुदेन्दु “शिवविष्णुवंतह मुनि वीर-जिनसेन गुरु' कहकर प्रशंसित करते इतिहास में समय-समय पर वीरसेन-जिनसेन नाम के महाव्यक्ति नाना गणगच्छों वाले हुए हैं । __इनके शिष्यों में नवकाम-शिष्ट प्रिय” उपाधी धारित शिवमार नाम के तलकाड के गंगाराज मान्य खेट के राजा अमोघ दंति दुर्ग प्रसिध्दि को प्राप्त हुए हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार प्रथम नवकाम शिवमार ईसाबाद ६७९-७१३ तक -378 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय शासनाध्यक्ष थे, जानकारी मिलती है। इस कारण भी और भी अनेक कारणों से कवि का काल ईसाबाद लगभग ६८० रहा होगा कह सकते हैं। मूल प्रति ___कवि बंगलोर के समीप लगभग ३० कि.मी. की दूरी उत्तर में स्थित नंदीदुर्ग में तपस्या कर सिध्द हुए, ऐसी जानकारी स्वयं देते हैं। इनके जन्मस्थली “यलव" अथवा “यलवळ्ळि" नंदीदुर्ग पहाड की उँचाई पर ही स्थित है । इनका जन्म कन्नड कुल में हुआ है और उन्होंने अपने ग्रंथ को कन्नड में ही रचा हैं । इस पुस्तक में कोई भी भाषा लिपि नहीं है । केवल अंक ही हैं। हमें प्राप्त प्रति बहुत ही प्राचीन हाथ से बने कागज पर लिखी हुई है । इसको प्रतिलिपि बनवा कर कितने वर्ष बीत गए हैं इसका कोई अंदाज नहीं लगा सकते हैं । कुमुदेन्दु ने अपने ग्रंथ को ताड पत्र पर लिखा - सिव पारवतीशन गणितद श्री कंठ। दवनिय ताळेयोलेगळ सुविशाल पत्रदक्षरद भूवलयके। सविस्तार काव्यकेन्न नमक ऐसा कहते हैं। इसका पता हमें नहीं है। आगे मुद्रित सांचा सिरि भूवलय के प्रथम पृष्ठ का है। इस प्रकार के १२९३ चौकोर खानों को एक रीति से पढ चुका हूँ। चक्र इस प्रकार से हैं ___ इस चौकोरो में बाँयें से दायें २७ खाने, इसी प्रकार उपर से नीचे २७ खाने । कुल इस एक चक्र में ७२९ चौकोर । इन एक-एक खानों मे एकएक अंक लिखा गया है । यह अंक १ से लेकर ६४ तक हैं। ६४ से अधिक अंक किसी भी चक्र में नहीं है। इसमे कोई भी अक्षर नहीं है । यहाँ एक-एक खानों में स्थित १ से लेकर ६४ तक लिखे गए अंक संकेतों का परिशीलन करने के लिए पाणिनि वीरसेन का शिक्षाधवल टीका, जयधवल टीका, राजवार्तिका, वार्तिकालंकार शब्दानुशासनादि ग्रंथ, शैव-शाक्तेय तंत्र ग्रंथ, बौध्द ग्रंथ आदि का परिशीलन कर एक निर्णय लिया गया । आखिर में -379 379 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय कन्नडिगा भट्टाकळंक मुनि के “शब्दानुशासन" से सिरि भूवलय पढने में बहुत सहायता मिली । इन सभी साधनों की सहायता लेने पर भी सिरि भूवलय को पढ़ने में पूर्ण सहायता नहीं मिली। परन्तु यह ठीक न लगने पर भी इस प्रकार के ग्रंथों के अध्ययन के परिणाम से हम अपनी मर्जी से कुछ भी निर्णय ले सकने में समर्थ हुए। इन चक्रो के विषय में मेरा निर्णय इस प्रकार है । कन्नड भाषा में कुल ६४ ध्वनि है। दुनिया की समस्त संख्याएँ केवल नौ ही हैं। इनमें से १ गणित में न आने के कारण बाकि शेष २ से लेकर ९ तक ८ संख्याएँ गणितांक हैं । मूल गणितांक ८ का वर्ग ६४ ही है। “ सिरि भूवलय" मे गणित सम्मत ६४ संख्याएँ हैं। इन एक-एक संख्या को ध्वनि संकेत की भाति समझना है । इन ध्वनियों में स्वर, वर्गीय, अवर्गीय, योगवाह, इस प्रकार चार समूह हैं । इनमें स्वर-९, वर्गीय-२५, अवर्गीय-८, और योगवाह -४ रूप ६४ ध्वनियाँ स्वर अ, इ, उ, ऋ, ळ, ए, ऐ, ओ, औ, इस प्रकार ह्रस्व रूप । इसी प्रकार दीर्घ और प्लुत नाम के तीन रूप के साथ २७ स्वर जैसे १-अ, २-आ, ३-आ (आ अर्थात आ में ही आ की मात्रा) इसी प्रकार ४-इ, ५-ई, ६-ही, क्रमशः (ही अर्थात इ में ही ई की मात्रा) ७,८,९,- उ ऊ ऊ ,( कू अर्थात ऊ में ऊ की मात्रा) १०,११,१२,- ऋ, ऋ, ऋा, १३,१४,१५- ळ, लू ळू,* १६,१७,१८ - ए, ए, एा, (ए तथा एा अर्थात ए में ही क्रमशः १ बार ए की मात्रा तथा २ बार ए की मात्रा) १९,२०,२१- ऐ गे, गो, ([ तथा गा, अर्थात ऐ ही में क्रमशः १ बार ऐ की मात्रा तथा २ बार ऐ की मात्रा) -380 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय २२,२३,२४,- ओ ओ, औौ, (ो तथा औी अर्थात क्रमशः ओ ही में १ बार ओ की मात्रा तथा २ बार ओ की मात्रा) २५,२६,२७-औ, औ, औौ (औ तथा अर्थात क्रमशः औ ही में १ बार औ की मात्रा तथा २ बार औ की मात्रा) *विशेष यह अक्षर संस्कृत, प्राकृत तथा हिन्दी में प्रचलन में नहीं है परन्तु कन्नड और मराठी भाषा में आज भी प्रचलन में है इसका उच्चारण स्थान जिह्वा से तालू का स्पर्श है ।। २. वर्गीय- क,च,त,ट,प, वर्ग के २५ अर्धाक्षर (अर्थात २८-क् , २९-ख, ३० ग् क्रमेण) ३. अवर्गीय –य र ल ,व, श, ष, स, ह वर्ग के आठ अर्धाक्षर (अर्थात ५३ य,५४-र् क्रमेण) ४. योगवाह-बिन्दु-०, विसर्ग-:, उपध्मानीय-. (इक)* तथा जिह्वामूलीय-::(फ़क) सिरि भूवलय के चक्रों के खानों में जो भी संख्या हो उसे उसी प्रकार से बिना हेर-फेर के उच्चारित करना है । संस्कृत प्राकृतादि भाषाओं मे न प्रचलित वरन कन्नाड भाषा में प्रचलित “ळ” (प्राचीन कन्नड) भी यहाँ स्वर समूह के पाँचवें खाने के ध्वनि का अक्षर है जो १३, १४, १५, खानों में रखा गया है । कन्नड भाषा के शिला लेखों में और ग्रंथों में प्रयुक्त किए गए “रळकुळ" रूपों को भी प्रप्रथम बार इस प्रकार के अंक काव्य से प्रारंभ हुए ऐसा सोच कर निर्णय लेने का कारण है। पढने का क्रम सिरि भूवलय के चक्रों को पढने की रीति को समझना अत्यंत कठिन है। सिरि भूवलय के चक्र एक-एक परिक्रमा के द्वारा आगे बढ़ते हैं। सिरि भूवलय के नाना गतियों और बंधों के नाम कहे जा चुके हैं। प्रत्येक प्रकार के गति और बंधों को पढने का प्रयत्न जारी नहीं है। 381 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय श्रेणी गति और नवमांक गति के द्वारा पढ़ कर एक रीति से इस ग्रंथ को कन्नड भाषा रूप में तैयार किया गया है । सिरि भूवलय “बरेयबारद, बरेदरु ओदबारद" ( लिखा न जाने वाला, तो पढा न जाने वाला) पुस्तक है ऐसा कवि दरुशन शक्ति ज्ञानद शक्ति चारित्र । वेरेसिद रत्न त्रयद ॥ बरेय बारद बरेयदरु ओदबारद । सिरिय सिद्धत्व भूवलय ॥ यारेष्टु जपिसिदरेष्टु सत्वलवनीव । सारतरात्मकग्रंथ ॥ नूरू साविर लक्ष्य कोटिय श्लोकांक । सारवागिसिद भूवलय ।। लिखा गया अर्थात जितना जप करे, मनन करे, उतना फल प्राप्त होगा यह १००,००० ०००,०००,०००,०००,००० (सौ, हजार, लाख, करोड ) श्लोकों के अर्थ के बराबर है, कहते हैं । ग्रंथ परंपरा जैनमतानुसार प्रथम तीर्थंकर, वैष्णव मतानुसार नारायण का आठवाँ अवतार स्वरूप वृषभ, वैराग्य धारण कर तपस्या में जाने से पूर्व अपने समस्त राज्य को अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को और पौदनापुर नाम के छोटे राज्य को अपने दूसरे पुत्र गोम्मट को प्रदान करते हैं । अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सौन्दरी को अक्षर अंक का ज्ञान देकर, यह अंकाक्षर विज्ञान ही प्रत्येक समय, प्रत्येक विषयों तथा भाषाओं का समिष्ट ज्ञान है कहकर परिचय करवाते हैं । ब्राह्मी सौन्दरी को वृषभ के कहे ६४ अक्षर और सौन्दरी को कहे शून्य के साथ ९ संख्याएँ, इनके गणित सम्मिलन से संसार के समस्त काल के सर्व साहित्य प्रकट होने के विवरण को गोम्मट देव ने उनसे ही जाना । यही आदि धर्म चक्र है। इस धर्म चक्र के अक्षर ५,१०,३०,००० हैं, इसके क्रमगति गणना से भूत वर्तमान भविष्यत काल, समस्त भाषा साहित्य प्रकट होगा ऐसा कवि विवरित करते हैं इस चक्र के आदि निर्माता कन्नड ऋषि आदिजिन हैं । उन्होनें कन्नड की सिरि भाषा में निर्माण किया है। इस विषय को कुमुदेन्दु इस प्रकार कहते हैं 382 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय यशस्वतिदेविय मगळाद ब्राह्मीगे । असमान काटकद।। रिसिय नित्यवु अरवनाल्क्षर । होसेदु अंगैय भूवलय।। करुणेयिं बहिरंगसाम्राज्यलक्ष्मिय । अरुहन कर्माटकद सिरिमात यत्नदे ओंदरिं पेळिद । अरवलाल्कंक भूवलय ॥ जयख्यान भारत ; मूल भग्वद गीता आदिजिन ने इस सकल भाषामय धर्मचक्रोपदेश का वृषभ सेन नाम के गणधर को बोध कराया। इसी क्रम का सभी तीर्थंकरों ने पालन किया। अंत में नरोत्तम महावीर ने इसे अपने गणधर गौतम को बोध कराया और फिर गौतम ने इसे श्रेणिकराज को, ऐसा इस ग्रंथ में कहा गया है। इस बीच इस धर्मचक्रोपदेश की जानकारी रखने वाले २२वें तीर्थंकर नेमी अपने श्वसन त्याग के समय श्री कृष्ण को दिया, इस सर्व भाषामयी धर्मचक्रोपदेश को श्री कृष्ण ने महाभारत के युध्द के समय में विमुख हुए अर्जुन को उपदेशित किया इसे कृष्ण के गणधर सदृश व्यास श्री ने अपने “जय” अथवा “जयभारत" के १०,३६८ श्लोको में समाहित किया, यहाँ कृष्णोपदेश गीता ही १६२ श्लोक है कहा गया है । कृष्ण तीर्थंकर से प्रारंभ होकर यह धर्मचक्रोपदेश को ही स्वयं अपने शिष्य गंगराज, नवकाम, शिवमारन, राष्ट्रकूट अमोघ(दंतिदुर्ग), को भी उपदेशित किया (इसी लेख में सिरि भूवलय की कोरी कागज़ (हाथ से बना हुआ कागज़) का प्रथम पृष्ठ का सांचामुद्रित हुआ है)। सिरि भूवलय ६०,०००प्रश्नों का उत्तर बन, ६,००० सूत्र प्रमाण से, ६,००,००० श्लोक प्रमाण से प्रथम संयोग का २के वर्ग का ६४ के गणित का २० पृथक अंकों में आता है यहीं जानकारी देते हैं (अ.७.१२२४) भाषा छंद सिरि भूवलय किसी भी एक भाषा का ग्रंथ नहीं है। यह जिनमत के शास्त्रों की जानकारी अनुसार सर्वभाषामयी भाषा साहित्य है। इसका एक और नाम “परमागम"। छंदों के अनुसार सिरि भूवलय का कन्नड रूप पुरातन कन्नड शासन में रहे अनुसार शब्द गण में आते हैं। सांगत्य में हैं। कन्नड ही प्राकृत, शूरसेनी, -383 383 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय महाराष्ट्र, संस्कृत, मागधि, अपभ्रंश, तेलगु, तमिल, रूप में है। प्रकटित सभी भाषाएँ उन भाषाओं के पुरातन छंद में ही है । सिरि भूवलय मे कुल ७१८ भाषाएँ हैं जिनमें १८ बडी भाषा और ७०० अन्य भाषाएँ हैं, ऐसा कुमुदेन्द जानकारी देते हैं। कवि का व्यक्तित्व ___सभी उत्सर्पिणि और अपसर्पिणि समय में भी २४ जिनतीर्थंकर होंगें, अभी हुण्डावसर्पिणि काल होने के कारण इस काल में श्रीकृष्ण के साथ स्वयं कुमुदेन्द को भी मिलाकर २६ जिन हैं, कुमुदेन्द स्वयं को भी तीर्थंकर मानते हुए इस प्रकार कहते हैं - अ, सि, आ, उ, सा मंत्र दोरेत सिंहद जन्म। दिसेयों सम्यक्त्वं सेरि। रिसिवीर सिद्धत्वडते श्री कृष्ण । रिसि कुमदेन्दुवंतिमरु।। रिसिगळिप्पत्तुनाल्कु अपसर्पिणियोळगागे विषमांक हुट्टिद हुण्डा । वसर्पिणि कालदोषदोळु श्री कृष्णन । दिसे यंते कुमदेन्दु गुरुवु।। इदुवे हुण्डावसर्पिणिय महत्यवु। अदरिन्दा इप्पत्तारंक ॥ एदिरिगे बंदितल्लदे अवसर्पिणि । योळगेल्लवु इप्पनाल्के। (उपरोक्त गद्य ही इस · श्लोक का अर्थ है)। इस कथन के अनुकूल ही कमदेन्द ने भी सकल तीर्थंकरोपदेश के अनुसार सर्वभाषामयी बनाकर सर्वधर्मसमन्व बनाकर अपने ग्रंथ को रचा है। धार्मिक दृष्टि ___कवि को सहन शक्ति ही अत्युच्चधर्म है। दुनिया के सभी मतों को आदर से देखना है, यह मत सभी समय में ३६३ हैं इन्हें बिना किसी भेदभाव के एक साथ मिलाकर जीना है कहते हुए ऐसा कहते हैं महावीरदेवन वाणीयिं बंदिह। महिमेय भद्रसाकल्य श्री। सहनेय धर्म निराकुलवेन्नुव । महिमेयंकाक्षर वाणि।। कर्माटका मातिनिंदलि बळसिह। धर्म मूनूररवत्मूरं निर्मलवेन्नुत बळिय सेरिप काव्य। निर्मल साद्वादकाव्य। 384 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय स्वसमय परसमयगळ्नोद्दिदते । स्वसमय दंते रक्षिव ॥ विषद मत्तेरिद हाविनंतेल्लर रसगब्ब विज्ञानधररु || अदु श्रेष्ठविदु श्रेष्ठ ज्येष्ठ कनिष्ठद । विधियनारिसि समन्वयद || चदुरिनंकद धर्म हिरिदेल्ला मतकेंदु । विदुर नीतियोळ कंड जनरू।। कुमुदेन्द शिव, विष्णु, ब्रह्म, जिनादि सकल दैव- व्यक्ति - शक्तियों को, उनके आधारों को अत्यंत आदर भाव से देखते हैं । कैलास वैकुंठ सभी का वर्णन करते हैं । कुमुदेन्द द्वैत-अद्वैत, अनेकांत मतों को श्रेष्ठ मत के रूप में मानते हुए यह तीनों अरहंत के रत्न के हार हैं ऐसा कहते हुए इनके ३६३ भेद हैं कहते हैं। ग्रंथ की ख्याति आदिजिन से अर्जुन तक आए गीता की ख्याति को कहते हैं : उसह जिनेंद्रादि नेमिय परियंत । बेसेदु बंदिरुवंक ख्याति ।। यश “सिरिकृष्णन” भाविकालद ख्याति । हितदोळगैदंक सिद्धि ।। नररूपिनुद्धार कुरुक्षेत्रदोळगेंब । हरियंक गणित II ।। अरिहंतविंतागे अरहंताविंतागे । गुरुनेमि “अर्जुन” ख्याति।। कुमुदेन्द अपने शिष्यों को बोध कराए इस भूवलय गीता के विषय में कहते ऋषिगळेल्लरु एरगुव तेरदलि । ऋषिरूपधर कुमदेन्दु । हसनाद मनदिंदमोघवर्षांकगे । हेसरिट्टु पेळद श्री गीते । । राजर्षि ब्रह्मर्षि व्यासर्षिगोरेदंते । श्री जिननेमियंकगळं नैजस्वरूपदिं केळिद सैगो । राजर्षि कुमदेन्दु गुरुविं ॥ कुमुदेन्द आदिजिन के "ऋग्धवल" परंपरा को गौतम से ग्रंथस्थ कर श्रुतकेवली द्वारा आगे चलकर स्वयं को जिनवाणी संयोग प्रवाहित हुई, वही यह सिरि भूवलय हैं कहते हैं निम्न लिखित श्लोक का यही भावार्थ है 385 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय || परमात्मनादि ऋग्धवल्दोळुसुरिद । अरहंत भाष गुरु गौतमरिन्दा ग्रंथस्थवागिर्प । परियनु श्रुतकेवलि ॥ मनद पर्यायादि गणित सम्यकज्ञान । दनुभवकंठस्थवागि ॥ जिनवाणिसंयोग प्रवहिसि तंदित्त । कोनेय भवाग्र भूवलय इस “मंगल प्राभृत" को समाप्त करते हुए अंत में एक अध्याय को ही मंगलाशीष के रूप में कहते हैं । उस के एक दो पद्यों को उदाहरण के रूप में देकर इस लेख को समाप्त करता हूँ । मेरुव बलकिं तिरुगुत नेलेसिर्प । सारद बेळक बीरुव चंद्र नीलांबरदोळु होळेयुवा नक्षत्र । मालिन्यवागदवरेगे ॥ शीलव्रतंगळोळु बाळ्दु जनरेल्ल । कालन जयिसलेनीसलि ॥ ११. प्रजावाणी २१-६-१९६४ कलमंगलं श्री कंठय्या नवमांक गणित अंकाक्षर विज्ञान इस प्रकार गणित के प्रथम संख्याओं के वर्गपूर्ण रूप ६४ अक्षरों को आदि जिन ने ब्राह्मी को, शून्य के साथ उस से उत्पन्न होने वाले ९ अंकों को सौन्दरी को दान में दिया। इस अंकाक्षर संयोग पद्धति के गणित क्रम से संसार के सकल काल के समस्त भाषा शब्द, समस्त भाषा साहित्य, प्रकट होंगे ऐसा कवि कहते हैं । इस कथन को जिनसेन मुनि अपने आदि पुराण संग्रह में भी सूचित करते हैं । भूरि वैभवयुतराद ॥ सूर्यरु । धारूणियोळ तोर्प वरे ॥ गणितांक के प्रथम २ को गणित संख्याओं के एक और वर्ग ६४ बार सामान्य रीति से गुणा करे तो २० पृथक अंक मिलते हैं । वे इस प्रकार से मिलते हैं 2 x 2 = 4 x 2 - 8 x 2 = 16 x 2 32 x 2 = 386 64 इस प्रकार ६४ बार गुणा करे तो आने वाले कुल २० पृथक अंक इस प्रकार हैं Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय 184, 46, 74, 40, 73, 70, 65, 51, 613 + 88 = अथवा गणितांक का मूल २ को ७ बार प्रस्तार क्रम के अनुसार गुण वृद्धि करे तो भी यही अंक प्राप्त होंगे। इन संख्याओं मे १ को घटा कर, उसे जैन प्रक्रिया के अनुसार अंगबाह्य के लिए अलग कर के, इस संख्या गणित को कुमदेन्दु इस प्रकार कहते हैं मितहितवैदोन्दारोंदैदैद । मतवादोंभथनोरेळ ॥ सतत मूरेळु सोन्नेयु नाल्नाल्केळु । हितवारु नाल्नाल्केंटोंदु ॥ यशकाव्य वि कदोळगोंदं कूडलु । रसदरवनाल्कंक भंग । एसेवक्षर्गळोळगंगभाह्यके ओन्दु। कुसियिसे सर्वभूवलय ॥ सप्त भंग __ इनको ह-क भंग कहकर ,इस हकवु ह -६०, क-२८ मिलकर, उपरोक्त कहेनुसार २० अंको को आडे में जोडने से ८७+१=८८ कह, सकल वर्ग मूलाक्षर में सात भंग है ऐसा कुमुदेन्दु कहते हैं। यहाँ पर उनका कथन इस प्रकार है हकवु द्विसंयोगदोळगे इप्पतेन्टु। प्रकटदोळरवत्तं कूडे ॥ सकलांक दोळु बिट्ट सोन्नेय एंटेन्टु । सकलागम ऐळु भंग 0 | ४६ ५५+ ६४ +१ 0 ४७ + 0 + له سه + १० १९ २८ .. ३७ ११ २० २९ ३८ १२ २१ ३० ३९ १३ २२ ३१ ४० १४ २३ - ३२ ४१ १५ २४३३ ४२ १६ २५ ३४ ४३ १७ २६ ३५ ४४ १८ २७ ३६ ४५ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ +५ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ mo 1 ५६+ ५७+ ५८+ ५९+ ६०+ ६१+ ६२+ ६३+ +६ +७ +८ +९ 387 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय इस प्रकार सात भंग रूपों को ध्यान में रख कर पहले कहेनुसार २० पृथक अंकों को सातवीं बार वृद्धि करें तो ३९ पृथक अंको में १ को घटा कर उसको प्रतिलोम बनाकर इसको अनुलोम बना कर घटाया जाए तो उसके शेषसंख्याएँ ही ऋगवेद भारत गीता गाथासूत्र बनेंगे, इसके क्रम को सूक्ष्म रूप से इस प्रकार कहते हैं : परमांकदोळगोंदंकवनु कळेदूडे । बरुवंकदोळु सोन्नेयळिये ॥ सरुवांकदोळगोंबत्तनु कळेयलु । बरुवुदे स्याद्वाददंक ।। उत्तम्वादोन्देरळ मूरू नाल्कैदं । मत्तारेळेन्टोम्बत्तरोळु इत्तेरडडियोळु पश्चादनुपूर्वि । युत्तमांखगळन्निरिसि ।। मत्तद कूडलोम्बतोन्दु बरुवंक । दत्तण सोन्नेय बिडलु ओम्बत्तरंकव कूडलोम्बत्तंक । हत्तुवुदखिल मार्गणेय ॥ मनसिनोळगेदच्चरियिन्दा नोडलु । कोनेयंक कळेये ऋगवेद ॥ मनु जिन भारत गीते गाथासूत्र सर्वभूवलय । सरमग्गी (गुणन सूची, पहाडा) इनके “टवणे” (जोड) का मूल रूप इस प्रकार से होगा । १ १ १ १ १ १ १ १ ०+९ गणित क्रमानुसार, ९तक पहाडे का कोष्टक कुल इस प्रकार होगा 388 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय ) ३ ४ ५ ६ ७ ___ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ ४ ६ ८ १० १२ १४ १६ १८ ६ ९ १२ १५ १८ २१ २४ २७ ८ १२ १६ २० २४ २८ ३२ ३६ १० १५ २० २५ ३० ३५ ४० ४५ १२ १८ २४ ३० ३६ ४२ ४८ ५४ १४ २१ २८ ३५ ४२ ४९ ५६ ६३ १६ २४ ३२ ४० ४८ ५६ ६४ ७२ १८. २७ ३६ ४५ ५४ ६३ ७२ ८१ ४५ ९० १३५ १८० २२५ २७० ३१५ ३६० ४०५ इस पहाडा को क के पहाडों के गुणांक को आडे में जोड कर एकांक रूप में लाए तो १ से लेकर ९ तक पहाडों के सभी अंक इस रूप को प्राप्त होंगें १२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ or or ०G WOm "worm worm wo 9 morw movw m or ~ ww x Fm G or or or ४५ ४५ ५४ ४५ ४५ ५४ ४५ ४५ ८१....+९ 389 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय) इस प्रकार कुमुदेन्दु गणित शास्त्र के मूल बीज, संख्या शास्त्र का निरूपण, सिरि भूवलय में विस्तार पूर्वक करते हैं। सकलागमांक चक्र सिरिभूवलय अनुलोम क्रमानुसार १ से लेकर ६४ तक , प्रतिलोम क्रमानुसार ६४ से लेकर १ तक है। अनुलोम प्रतिलोम क्रमानुसार इस संख्याओं का गुणवृद्धि करे तो वे १*२*३*४*५*६.......*६४९२ पृथक अंक ६४*६३*६२*६१*६०.....*१=९२ पृथक- अंक इसमें इन अंकों को प्रतिलोम क्रमानुसार, प्रारंभ करे तो प्रथम चक्र में आने वाले ६४ ध्वनियाँ “एकध्वनि” शब्द बनेंगें । इन ६४ ध्वनियों को दुनिया के किसी भी भाषा में प्रयुक्त किया जाए तो भी इतने ही रह कर बाहर कुछ भी शेष नहीं बचेगा । इस क्रमानुसार विश्व के किसी भी भाषा में, उस एकध्वनि ६४ शब्दों के अतिरिक्त उससे अधिक होने की संभावना ही नहीं है ऐसा कवि कहते इस क्रमानुसार दो ध्वनिसंयोग से बनने वाले शब्द केवल ६४*६३=४०३२ मात्र होंगें । इस स्तर पर अर्धाक्षर अथवा ध्वनि स्वर के साथ मिलकर पूर्ण अक्षर बनेगें । स्वर-स्वरों, स्वर-व्यंजनों, स्वर -योगवाहों, व्यंजनों-व्यंजन, व्यंजन-ध्वनियों, व्यंजन-स्वर-योगवाह संयोग की ध्वनियाँ इसी प्रकार से अनेक रीतियों के , मनुष्यों का ही नहीं, पक्षियों का भी, द्विसंयोग भंग की ध्वनियाँ बनेंगी। इन द्विसंयोग भंग की ध्वनियों के शब्द केवल ४०३२ मात्र ही होंगें । इससे अधिक एक न अधिक होगा न कम। इस क्रमानुसार शब्द राशी को इस प्रकार गुणित करके समझा जा सकता है । जिनागम सदृश ग्रंथों में प्रकारों को “शब्दागम-शब्दविद्या” कहा गया है । इस क्रमानुसार विश्व की शब्द राशी - प्रथम संयोग......................६४=... .......................६४ द्वितीय संयोग..................६४+६३=..................४०३२ तृतीय संयोग..............६४+६३+६२ =.......२४९९८४ चतुर्थ संयोग.............६४+६३+६२+६१=......१५२४९०२४ =390 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय शब्द बन कर आगे बढते हुए अंत में ६२ पृथक अंकों के बराबर शब्द राशी उत्पन्न होगी । दो ध्वनि संयोग में, एक पुनरुक्त के अंत में ६३ पुनरुक्त हो कर छोडे बिना इस राशी को अपुनरुक्त कह कर स्पष्ट रूप से कहा गया है । इस क्रमानुसार जग के समस्त शब्द राशी उत्तपन्न होती हैं इसे कुमदेन्दु गिरिनंददोळरवत्नाल्कु “ अनुलोम” । दारिय “प्रतिलोम " क्रमद । हारव अंशद, भंगदिं गुणिसलु । नेर लब्दांश प्रमाण । मरळि अरवलाल्कं अरवत्मरिं गुण । बरलेरळ मूर सोन्ने नाकु ॥ विरचिसे ओंदेरळ मूरू एंदेने आरु । सरभागहारदिं वसु ॥ इस प्रकार विवरित करते हैं। 1 इस चक्रक्रम में ६६ अर ( पहिये की नाभि और नेमि के बीच की आडी लकडी या तीली (जिससे अनेक शब्द समूह बनेगे ) तक शब्दराशी को गिन कर गुणित कर रखा गया है । सिरि भूवलय में इस चक्र को नारायणास्त्रचक्र, सुदर्शन चक्र, शब्दागम चक्र आदि नाम से संबोधित किया गया है। इस चक्र प्रमाण को सिरि भूवलय में ५,१०,३०००० चौकोर खाने हैं कहा गया है । इस चक्र के प्रमाण को कवि इस प्रकार कहते हैं धर्मध्वजदरोळु केत्तिद चक्र । निर्मलदष्ट हुवुगळं ॥ स्वर्मन दळगळैवतोन्दु सोन्नेयु । धर्मद कालुलक्षगळे ॥ आपाटियंकदोळैदु साविर कूडे । श्री पादपद्मांगदल । रूपि अरूपियादोण्दरोळ पेळुव । श्री पद्धतिय भूवलय ।। सिरि भूवलय भी ८६ पृथक अंकों के प्रतिलोम बन कर ७१ पृथक अंकों के अनुलोम बन कर क्रमसमीचीन के अनुसार घट कर आए हुए शेषराशी है इसी मे से सैकड़ों हजार ग्रंथ प्रकट होने के प्रतिलोम अनुलोम संख्या निरूपण को कहा गया है और यहीं पर रेखागम - वर्णागम में भी इसको बराबर समझने की पद्धति का विवरण किया गया है। प्रतिलोम क्रमानुसार संख्या का प्रारंभ नौ को इसी से गुणा कर बढे तो “गर " (शतरंज मे पासा ऐंकने पर आने वाली संख्या) ५१ आने पर “ ह - क" भंग ही 391 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय कष्ण है इस के आगे “ह-ख" की संख्या संवाद ही भगवद गीता है ऐसी मार्मिक जानकारी देते हैं। पूर्णांक नौ और प्रतिलोम क्रमानुसार इसके आगे ८ को पहाडा क्रमानुसार क्रम से अपने एक-एक दोष को घटाते हुए ८-७-६-५-४-३-२-१ बन कर अंत में यही पूर्ण नौ के बनने को दिखाते हुए “अद्वैततत्त्व” में लीन होने को रीति को पहाडाक्रमानुसार विवरण देते हैं। नारायाणास्त्र चक्र सिरि भूवलय में कहे गए इस नारायाणास्त्र चक्र को फिरकी की भाँति घुमा कर देखे तो उसके ५,१०,३०,००० सभी अरे के घूमने पर संसार मे भूतकाल में या वर्तमान में या फिर भविष्यत काल सभी समय काल में शुद्ध-अशुद्ध सभी साहित्य वह लिखित हो चाहे अलिखित हो क्रम से प्रकटित होगा कुछ भी शेष नहीं रहेगा इसी को कुमदेन्दु अथवा प्राकत संस्कृत मागध पिशाच भाषाश्च शूरसेनी च। षष्टोत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥ इस प्रकार देश -विदेश की भाषा को कहते हैं । और कन्नड मागध मालव लाट गौड गुर्जर आदि छह भाषायें तीन-तीन रूप में अट्ठारह भाषाओं को कहते अथवा कर्णाट, मागध मालव लाट गौड गुर्जर प्रत्येक त्रयमित्यष्टादशमहाभाषः ॥ इस प्रकार अठारह भाषाओं का परिचय देते हैं । और फिर शेष ७०० भाषाओं को पहचाने, पढने, के लिए अनेक गणित क्रमों को विस्तृत रूप से जानकारी देते हैं । इस प्रकार तीर्थंकर के वाक्यानुसार सिरि भूवलय में ७१८ भाषाओं को एक साथ स्वयं ही कहा है ऐसी जानकारी देते हैं। १. हंस भूत, यक्ष, राक्षस, ऊहिया, यवनानि, तुर्की, द्रमिळ, सैंदव, मालवणीय, कीरिय, देवनागरी, लाड, पारसि, आमिश्रक, चाणक्य, ब्राह्मी, मूल्देवि Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -( सिरि भूवलय ) २. ब्राह्मो, उवनानि, उपरिका, वराटिका, खरसापिका, प्रभारात्रिका, उच्चवारिका, पुस्तिका, भोगयवत्ता, वेदनरिका, निन्हरिका, अंक, गणित, गांधर्व, आदर्श, महेश्वरी, दामा, बोलिदि (५-१४६-६०) सर्वज्ञ सूत्र इन अंक लिपियों के नाम श्वेतांबर अंगग्रंथ सूत्रकृतांग,समवाय पन्नवन्न आदि में थोडा पाठ भेद के साथ उपलब्ध है । इतना ही नहीं सिरि भूवलय में यह ___प्राकृत, संस्कृत, द्राविड, आन्ध्रा, मलेयाळ, गुर्जर आदि अनेक भाषाएँ में भी है ऐसा यहीं कहा गया है। इसमें सिरि भूवलय के नाना गतियों को बंधों को बताया गया है साथ ही उनको पढने का प्रयत्न करना चाहिए ऐसा खुल कर कहा गया है । तीर्थंकर के वचनानुसार सर्वभाषामयी भाषा को पूर्ण रूप से समझने के लिए निम्न लिखित चार बुद्धियों की आवश्यकता है ऐसा जिनागम का विचार १. कोष्ट बुद्धिः- संख्याबीज १ से लेकर ९ तक गुणवृद्धि- ह्रास क्रमानुसार सकल पर्यायों को जान कर ९२ पृथक अंकों तक, गणित गुणित भागलब्ध प्रमाण के सही उत्तर को तुरंत जान लेने की समझ २. बीज बद्धि:- अनेक संख्यांकों के बीज संख्या को त्तक्षण पहचान कर उससे प्रकट होने वाले अनेकानेक साहित्य विषयों को समझने की समझ ३. पदानुसारिणी बुद्धि:- ग्रंथ के एक पदसंख्या को जान कर उससे उस ग्रंथ के प्रकटनों को सही रीति से समझ कर व्यक्त करना ४. संभिन्न श्रोतृ बुद्धि:- अनेक भाषा-भाषियों के व्यवहार के अनेक विषयों को, पशु-पक्षी आदि जीवों के एक काल में उच्चारित अक्षरात्मक-अनाक्षरात्मक शब्द-वाक्यों को अलग-अलग समझ कर विवरण करना । इस प्रकार की समझ स्वयं को तीर्थंकर समझनेवाले, इसे जो केवली (केवल ज्ञान अर्थात सर्वज्ञत्व) हैं वे पूर्ण समझ कर भक्त जनों के लिए से विवरित करते थे ऐसी कुमुदेन्दु भी अचानक, चाणक्य, जानकारी देते हैं । इसे गणित क्रमानुसार समझने की रीति को विवरित करते हैं । 393 - Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय इस प्रकार के साधना में प्रयत्नशील श्री जार्जगामोव जी ने “वन,ट्र, थ्री इनफिनिटि” नाम के ग्रंथ में प्रायोगिक रूप से कुछ चित्रों को दिया है। उसमें अपने प्रयत्न को विफल हुआ भी लिखते हैं परन्तु श्री जार्ज गामोव अपनी जो भी विफलता को स्वीकारते हैं उसे सिरि भूवलय गणित क्रमानुसार सफल कर, उसकी साध्यता को मनद१ (मन को छूने वाला, समझने वाला) कर देता है। प्रजावाणि २८-६-१९६४ . कर्ल मंगलं श्रीकंठैय्या आदि जिनों का प्रदेश कन्नडप्रदेश । उनकी भाषा कन्नड । उनको कन्नड ऋषि कह कर अपने धर्मोपदेश को कन्नड सिरि मातु (कन्नड भाषा) में दिया ऐसा कहते हैं आदि भूवलय के कर्ता गोम्मटदेव ने उसे कन्नड-संस्कृत-प्राकृत भाषारूप में इन तीन भाषाओं का प्रयोग कर रचा है ऐसा कवि संपहि अइ भूवलय कत्तारोवइट्ट ॥ सिरिगोम्मडदेव विरइय कम्मड-सक्कद-पाहुडगीदा । विदिय महाधियारांतरिय सत्तम हकभंग ऐत्तेव रासीण परूवनटं उत्तरसुत्तं भणिस्सामो कहते हैं । और फिर इसी प्रकार से स्वयं इन तीन भाषाओं को मिलाकर, इसे पद्धति ग्रंथ रूप में रचा है कहकर ऐसा कहते हैं करुणेय गुरुगळेवर पदभक्तियिं । बरुवक्षरांककाव्यवनु ॥ विरचिस प्राकृत-संस्कृत-कन्नड । वेरसि पद्धतिग्रंथ दया ॥ इस ग्रंथ को कुमुदेन्दु ने एक अंतर्मुहूर्त मे ही रच दिया । एक अंतर्मुहूर्त का अर्थ जैनों की भाषानुसार ३७५३ उच्छस्वास का समय कहा जा सकता है । इतना समय भी न लेते हुए, अपने ग्रंथ को गणित रूप में रच कर समाप्त कर दिया, ऐसा कवि कहते हैं । गणधर रूपी गौतम को वीरोपदेश को ग्रंथस्थ करते समय दिन रात का समय लगा ऐसा पुराणों में कहा गया है । यह गणधर श्रुत केवली थे। कुमुदेन्दु 394 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय भी स्वयं को तीर्थंकर मान कर केवली ज्ञानी मानने के कारण उनकी दिव्य ज्ञान शक्ति के लिए शायद यह कार्य करना संभव हुआ होगा। सिरि भूवलय में सभी ज्ञान-विज्ञान रथ को खींचते हुए आगे बढाने वाले गणित है । यह गणित पद्धति आज की “दशवर्ग" पद्धति न होकर नवमांक पद्धति है । दशक पद्धति में भिन्नांश गणना सौ में आधे से कम हासिल को छोड देते हैं आधे से थोडा अधिक आए तो उसमें अदृश्य पूर्णत्व को मिला कर गणना की पद्धति है । इससे विज्ञान साधना के फलितांश में फेर-बदल होते हैं यह ज्ञातव्य ही है । नवमांक गणित पद्धति २००० वर्षों से पहले भारत में मौजूद पद्धति ही है । सिरि भूवलय में कुमुदेन्दु नवमांक गणित पद्धति को विस्तृत रूप से कहने के साथ साथ अपने नवमांक गणित में ही अंकमयी ग्रंथ की रचना भी करते है । इस पद्धति के अनुसार सौ में आधे से कम हासिल को छोड़ कर, आधे से थोडा अधिक आए तो उसमें व्यर्थ का मूल्य देकर पूर्ण रूप मानने का अक्रम कोई भी नहीं है। सिरि भूवलय में दिए गए गणित प्रक्रिया को समझने का प्रयत्न करना होगा । रसविज्ञान सिरि भूवलय में रसपादप्रक्रिया, दांपत्यविज्ञान, लोहविज्ञान, अणुविज्ञान, परमाणुविज्ञान, आकाश विज्ञान, जलविज्ञान, आदि अनेक विषयों को गणितक्रमानुसार समाहित कर निरूपित किया गया है। इस दिशा में वैद्यविज्ञान को अतिशय रीति से वर्णित किया गया है । वैद्य विषय इस प्रकार से हैं रसमणि:- सिरि भूवलय में प्रारंभ में रसमणि निर्माण की विधि को बताया गया है । उसके अनुसार १००८ पँखुडियों वाले सात "जल पद्म" सोलह “स्थल पद्म’ तथा सात पर्वत पद्म आदि को पीस कर, पारे के मणि पर, तैयार कल्क, (पीसकर तैयार पेस्ट) को आठ बार मुलम्मा ( परत दर परत आठ बार ) चढा कर ध्यानाग्नि ( ध्यान से प्रदीप्त अग्नि से अग्नि जलाकर) पुट (अंगारो से आच्छादित या चारो तरफ अगारो को रख कर बीच मे उस मणि को रखकर दग्ध करना) रखें तो रस मणि बनकर तैयार होगा। जिसकी सहायता से समस्त इष्टार्थ को प्राप्त किया जा सकता है । 395 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय स्वर्णवादः - इस प्रकार यदि रस सिद्धि हो तो इस रस संयोग से दुलह स्वर्ण रूप में परिवर्तित होगा ऐसा २४ तीर्थंकरों ने रससिद्धि के लिए ही अलगअलग २४ वृक्षों के नीचे बैठ कर तपस्या कर सिद्ध बने, उन तीर्थंकरों के द्वारा बैठ कर तपस्या किए गए वृक्षों का विवरण करते हैं । इन वृक्षों के पुष्पों, पत्तियों और फलों के रस ही रससिद्धि के कारण हैं ऐसा कहते हुए और भी कुछ प्रकार के रससिद्धि वस्तुओं का विवरण देते हैं । रसवृक्षः तीर्थंकरों के नाम तथा उनके तपस्या किए गए वृक्षों का क्रम इस प्रकार १) वृषभ - वट २) अजित - सप्तवर्ण ( कोंपल पत्तो वाला केले का पेड), ३) शंभव-शाल्मलि, ४) अभिनंदन-सरल, ५) सुमति - प्रियंगु, ६ ) पद्मप्रभ - कुटकि, ७) सुपार्श्वशिरीष, ८) चंद्रप्रभ नाग, ९) पुष्पदंत - नागफण (अक्ष), १०) शीतल - बेल्लवत्त (धूलि), ११) श्रेयांस-मुत्तुग(तुंबुर), १२) वासुपूज्य- पाटलि, १३) विमल-नेरिळे, १४)अनंतअश्वत्थ(अरळी,पीपल) १५) धर्म-दधिपर्ण, १६) शांति - नंदि, १७) कुंथु - तिलक, १८) आर - बिळिमावु (सफेद आम) १९) मल्लि-कंकेलि, २०) सुवर्त - चंपक, २१) नमि - वकुळ, २२) नेमि - मेषश्रुंग, २३) पार्श्व - दारु, २४) महावीर - शालि । इन वृक्षों को सिद्धप्रद वृक्ष कहते हैं । इन जिनवृक्षों के अतिरिक्त केदगे, पादरि, गिरिकर्णिके, मादल (अनार) आदि के पुष्परस - फलों से रस बंध रसमर्दन, रसाग्निजय, आदि विवरणों की जानकारी देते हैं । सिरि भूवलय में वैद्य पद्धति को आठ रीति से कहा गया है :- १) रामौषदर्धि, २) क्ष्वेळौषदर्धि, ३) झल्लौषदर्धि, ४) मलौषदर्धि, ५) विष्टौषदर्धि, ६) सर्वौषदर्धि, ७) आस्याविषर्धि, ८) दृष्टिविषर्धि आदि आठ प्रकार हैं। 396 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय रसभस्म पादरस (पारा) को भस्म बनाय जाए तो, उसे फूलों से बरसाया जाए तो अनेक छिदूरप बनेंगें वे छिद्र २१२,५२८०,०२५४,४०००,००० के बराबर अनुरूप में भागित होंगें, इनमें एक अणु के बराबर समस्त रोगों के लिए औषधी के रूप में उपयोगी होगा ऐसा कहते हुए कवि औषध को चित्रवल्लि आदि जडों से सिद्ध(तैयार) करने की विधि का विवरण करते हैं यशवागि ओन्दरोळोन्दक्के बरेयदे। होसपुटदोळु भस्मवागी।। कुसुमायुर्वेदद महिमेय सरुव । असदृश्यकाव्य भूवलय ॥ नित्ययौवनवित्तु वीर्यरक्षणेमाळ्व । अक्षरांकद सिद्धरसद ॥ रक्षणे भेषजम दौषधरिद्धि । यक्षय प्राणरक्षणेयल। रसपक्ववागलु पुष्टदरसदिन्दा । होससिद्धरसवादंते।। होसवैद्यदानद फलदिंदात्मगे । होसदेह प्राप्तवागुवुदु ॥ इस प्रकार कहते हुए पक्व हुए पादरस की धूल से समस्त व्याधियों का परिहार करने की विधि को कहते हैं । जिनवृक्षों के अतिरिक्त अतिशय कारण के , मूल्ले, गंधमाधव पुष्प, नवगंध माधव बळ्ळि (बेल,लता) चित्रवल्लि संपिगे, गंधराज, कमल की जातियाँ, काम कस्तूरी गंजिलु, मालति, मुडिवाळ, पगडे, वंदूक, ताळे, पादरि, आदि वस्तुओं के सम्मिलन से प्राप्त होने के प्रकारों का विवरण करते हैं । आगे कहते हुए कनकव धवलगेयंक (१०-११२) थणथणवेने श्वेतस्वर्ण(१०११६) कहते हुए सोने को सफेद (प्लैटिन) करने की प्रक्रिया की जानकारी देते चित्रविचित्रवादौषधर्धिगळंटु । हत्रके बंदु सारिरुव ॥ चित्र वल्लिये मोदलाद मूलिकेगळिं । सूत्रिसि ग्रंथके तनु तां ॥ तत्क्षण हदिनेंट साविर श्लोकद । सूत्र वैद्यांकद क्रमदि ॥ चित्रिसि हदिनेंटु साविर जातिय । उत्तम हूविनिं रसगी॥ 397 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय) रसवनु हूविनिं मर्दिसि पुटुवुदु । होस रस घुटिकेयु कट्टि ॥ रससिद्धियागे सिद्धांतरसायन । होस कल्पसूत्र वैद्यवद ॥ इस प्रकार विस्तृत रूप से रसपाद प्रक्रिया को निरूपित करते हैं । आकाशगमन आकाश गमन की साधन मानस्तंभ को १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ० इस रीति से पहचान कर उनके लाभों को घणे, गरुड, गज, मकर, वर्धमान, वज्र, सिंह, कलश, अश्व, जिनभवन आदि है, इनको क्रम से चैत्यवृक्ष, अश्वत्थ, सप्तच्छद, बूरुग, जंबु, हब्बे, कडवु, नेळलु, शिरीष, पलाश, राजद्रम आदि नामों से विवरित करते हैं । और फिर नीलोत्पल रस से पक्व (पका) पादरस के लेप से जलगमन साधन विद्या का विवरण करते हैं तथा पनसपुष्प-रस के संयोग से आकाश गमन के साधन का विवरण करते हैं । तनुवनाकाशके हारिसि निलिसुव। घनवैमानिक दिव्यकाव्य ॥ पनसपुष्पद काव्य विश्वंभर काव्य । जिनरूपिन भद्रकाव्य ॥ नेनेकोनेवोगिसि भव्य जीवरनेल्ल । जिनरूपिगैदिप काव्य ॥ रणकहळेय कूग निल्लवागिप काव्य। धनुभव खेचर काव्य ॥ इस प्रकार यह काव्य युद्धनिरोधि काव्य है ऐसा कहते हैं । अन्य भारतीय वैद्य ग्रंथों में रोग का कारण वायु, पित्त, श्लेष्म आदि को माना जाता है । परन्तु यहाँ रोग का कारण अणु-परमाणु का अणक ही कारण है ऐसा आधुनिक संशोधन के क्रम से सम्मत हो कर गुणवृद्धियागुव गणितवनरियदे । अणुपरमाणु जीव गळ ॥ अणकदिं पुटुव विपरीत रोगद । एणिकेयनरियलशक्य ॥ ऐसा कहा गया है । संपूर्ण पुस्तक में विस्तृत रूप से कहे गए वैद्य विषयों की चर्चा करना असंभव कार्य है । कुमुदेन्दु सिरि भूवलय में लौह और धातु के भस्म से तैयार कर लोकोपकार का कार्य करने की बात कहते हैं । रस-विष-गंधकादि को शुद्ध कर जितना उपलब्ध 398 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय है उतना ही भस्म तैयार कर उससे उपचार को प्रचलित करने को कहते हैं । अपने काव्य में कवि के द्वारा ही विस्तार पूर्वक निरूपित किए कुछ वाक्य निम्न लिखित है मणि स्वर्ण रजत पारद गंधादि । क्षणदोळु भस्मवागिरुवा ॥ गणनेय हूविनायुर्वेदविद्येगे । मणिनव जलद पंख || रस विष गंध वज्रादियु लोह गळ । वशवागदोडे लोकहानि ।। रसवादिगळ शुद्धाहिंसेय काव्य I यशद कर्माटक भूवलय ॥ वणगिस देहव गुणिसुत कर्मव । गणकरिं बरेयिप गणित । देणिकेयोळोन्नु तप्पदे पेळुव । विनयांगभूषण ग्रंथ 11 रसवादिशयवैद्य भूवलयके । हसरुमूलिकेयंकगणित विषवस्तुगळनणुरूपदिन्दीयलु । विषहर नीलकंठांक 11 वशवर्तयागला रोगविण्णाणवु । रस विश गंध वज्र वश || रुषिगळु विण्णाण बरदिदे नहिमे । यल्ला समान गुणहानि काण्व || मणिशिले तुत्थवु मंडूर किट्टव गुणहानियागदे अमृत || दणुवागबेकागिह गणितौषध । गणितवल्लदे बरदरिय 11 मैय रक्षिपुदेन्दु मैयने कोल्लुव । अय्यन वैद्यशास्त्रदोळु ॥ मैय रक्तव बिट्टु सय्यववर्दक । रय्यकौषधिय कोळ्ळुवुदु ॥ मूरु रत्नगळात्मनिरुव चिरंजीव ॥ सारखदे रत्नत्रयद || भूरियौषधवदु रस- गंधक-लौह । सेरलसाध्यारोगरह ।। इस प्रकार विवरित करते जाते हैं । प्राणवायु पूर्वे अपने द्वारा निरूपित यह वैद्य शास्त्र आदि जिन से प्रारंभ होकर अंतिम जिन नरोत्तम महावीर स्वामी जी तक परंपरागत रूप से चला आया, इसे महावीर जी 399 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय के गणधर बने गौतम ने जान कर गणित में ग्रंथस्थ कर रखा था और आगे श्रुतकेवली लोगों ने ही पूर्वजों से लेकर स्वयं तक आया है ऐसा यह वैद्य शास्त्र चौदह पूर्वो में से एक प्राणावायु पूर्वे में, तेरह करोड विस्तार से है ऐसा जानकारी देते हैं । एक पद अर्थात जैन परंपरानुसार १६३४८८०७८८८ ध्वनियाँ बनती हैं। इतने विस्तृत वैद्य शास्त्र को विस्तार से भी संक्षिप्त में भी दोनों रीतियों से अपने गणित क्रम में समाहित किया है ऐसी जानकारी देते हैं । प्रजावाणी ५-७-१९६४ कर्लमंगलं श्री कंठैय्या रणकहळेय कूगनिल्लवागिप काव्य (युद्ध निरोधी काव्य) गणित पद्धति के द्वारा परमाणु युद्ध को रोका जा सकता है । सिरि भूवलय में कहेनुसार प्रथम भूवलय युद्धांत के समय प्रकटित हुआ। आदि जिन के ज्येष्ठ पुत्र भरत अन्याय से छोटे भाई गोमट्ट को युद्ध के लिए ललकारतें हैं परन्तु इस युद्ध में भरत की हार होती है। हार कर मरने की स्थिति में अपने बड़े भाई को देख कर गोम्मट करुणा भरित हो प्राणरक्षा देकर अपने राज्य को भी भाई को ही दे कर स्वयं दिगंबर मुनि बन जाते हैं। युद्ध रंग में ही समस्त त्याग करने वाले गोम्मट को देख कर भरत शर्मसार होते हैं । उस समय भरत मुनि बने गोम्मट से धर्मोपदेश का आग्रह करते हैं । गोम्मट अपनी छोटी-बड़ी बहन ब्राह्मी-सौन्दरी को पिता द्वारा ज्ञात अंकाक्षरविज्ञान की सहायता से अपने मानसपटल पर रचित अंकाक्षरदकट्ट (अंकाक्षरचक्रबंधन) भरत को शास्त्र दान के रूप में प्रदान करते हैं । इस घटना को कुमदेन्दु बयसिदंकाक्षरचक्रद कट्टनु । जयिसे षट्कंडव आग। जयिनत्वलाभांकसद्धर्म ओन्देरळ । बयकेय धर्मगीते यनु ॥५॥ अदरोळ गिडिद सारवनेल्ल तुंबिद । पदपद्धतिया अदनु॥ मुददि निंदायुद्धरंगदोळिवुदें । दूदगि केळलु कोट्टप्रीति ॥ -400 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय ईधि व्याधिगळेल्ल संहारवागुव । अदिय चक्रबंधगळ साधिप जयसिद्धि भरत भारत युद्ध । दादिय काव्य भूवलय ॥७॥ ___मू. भू, अ. १७ इस प्रकार कहते हुए मूल भूवलय का उपदेश ही युद्धावसर में प्रथम भूवलय है कहते हैं । आदि जिन के पहले ही केवली बने गोम्मट को जिनमतानुयायी प्रथम पूजित करते हैं यहाँ यशद हिंसेय युद्धदोळगित्तनदु बंदु । हसनागि नेमिय तम्म ॥ श्वसनत्यागदि कुरुक्षेत्रदि कृष्णन । वशकीये भगवदगीता ॥ ऐसा कहते हैं । इसके आगे तीर्थंकर बने श्रीकृष्ण ने युद्ध विमुख हुए अर्जुन को बोध कराया ऐसा कहते हैं ऐदिदवर कायददवर कोल्दव । सादिय भरतदनादि ॥ ओदिद उपनिषद्गीतेय कृष्णनु । सादिसु अर्जुन एनुत ॥ ईग आगलु बेग राग विरागद । श्री गुरु सारस्वतर ॥ बेगेय हरिसुव नवम बंधाक्षर । श्री गुरु कृष्ण भूवलय ॥ रूपिसि तंदित्तु कृष्ण तीर्थंकर । ना परंपरेयादिकाव्य । श्री पदपद्मवनंदु मेट्टिद कृष्ण । श्री पादगळ्गनागतद ॥ आगलु ओन्दन्ग द्वादशवादंते । ईगदु नाल्काद वेद ॥ सागिद गीतेय सर्वभाषांकवे । ईगिन सर्वधमांक ॥ आ अंद कटिद गांहीवविज्ञान । स अवागि बरूवंकतिद्धि ॥ नववागि सर्वभाषांकवेल्लव कृष्ण । नवमपार्थनिगित्तु ॐ न ॥ __इस प्रकार गोम्मट से आदिभूवलय युद्धांत में प्रकट हुआ यही परंपरागत रूप से स्वयं तक आया ऐसा कवि कहते हैं । इस प्रकार भूवलय प्रथम, मध्य युद्धसंदर्भ में प्रकटित होने वाला ज्ञान का भंडार है । -401 401 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय समर भावना मानव चाहे जितना भी प्रयत्न करें , युद्ध, मार-काट, आदि , आदि काल से ही मानव का स्वभाव बना हुआ है । इस मानव स्वभाव को कोई भी, किसी भी समय काल में नष्ट नहीं कर सका है इतिहास इस बात का गवाह है । ___परन्तु आज मानव जाति के पास उपलब्ध युद्ध साधन अति विनाशकारी है इस बात की चर्चा दुनिया भर में है। यदि आज युद्ध की स्थिति उत्पन्न होती. है या फिर तीसरा महा युद्ध छिडने की संभावना होती है तो संपूर्ण मानव जाति का ही नाश हो जाएगा, यह सर्वविदित है। किन्तु क्या इसका कोई प्रतिकार नहीं है? या फिर युद्ध साधनों को निष्क्रिय नहीं किया जा सकता है? इस रीति के युद्ध साधन आखिर क्या है? प्रथम इस बात पर विचार करना चाहिए । इनमें सबसे पहले अणु विस्फोटक एटम बम का नाम लिया जा सकता है । उन एटम बमों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से ले जाने वाले युद्ध विमान दूसरे स्थान पर हैं । यही दो साधन आज के युग में अत्यंत विनाशकारी कहे जा सकते हैं । आधुनिक समर साधन अभी तक, स्फोटक आयुधों को “अल्युमिनियं” धूल का प्रयोग करके, गंधक, तथा कुछ प्रकारों के लवणों का प्रयोग करके स्फोटित किया जाता था । इस अल्युमिनियं लोह का अणु “२७” जलकण में रहने वाले संयुक्त भार में रह कर उतनी ही शक्ति के बराबर है, यह सर्व विदित विषय है। साथ ही यूरेनियम लौह जलकण के २३६ के बराबर भार के अणु रूप में है यह भी सर्वविदित विषय एक प्रमाण के बराबर अल्युमिनियं धूल से तैयार बम में जितनी शक्ति समाहित होगी, यूरेनियं लौह के धूल से तैयार बम २३६ भागित २७ के बराबर ही होगी, इससे कम या ज्यादा शक्ति संपन्न होना असंभव होगा ऐसा गणित शास्त्र के द्वारा ज्ञात होता है । इसकी शक्ति तथा व्याप्ति पुराने बमों की शक्ति तथा व्याप्ति की अपेक्षा साढे आठ के बराबर या फिर उससे थोडी अधिक होगी इससे अधिक नहीं हो सकती 402 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय सत्यदूर संगति संसार में लोहा आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था । यूरेनियं लौह उपलब्ध नहीं था । इसे प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर था । जितना उपलब्ध था उसे बम निर्माण के लिए उपयोग करने पर भी उसका प्रमाण अत्यल्प ही था । अधिक शक्ति संपन्न बम के कारण संपूर्ण विश्व का ही नाश होगा ऐसा मानना गलत होगा । करोडों की धन राशी व्यय कर तैयार किए गए बम कुछ नगरों के कुछ भागों को तो नाश कर सकते हैं परन्तु संपूर्ण विश्व में करोडों की तादाद में फैले ग्रामों को नाश नहीं कर सकते । I इसमें एक और विषय को कहा जाता है कि जब ये एटम बम विस्फोट होंगें तब इसके साथ जल कर राख हो कर फैलने वाला ऐसोटोप नाम का विष हवा में घुल कर एक विशाल क्षेत्र को विषमय बना देगा जिसके कारण इसके व्याप्ति क्षेत्र जीव शून्य हो जाएगा, ऐसी जानकारी दी गई है परन्तु यह जानकारी अनुभव के विरुद्ध जाती है। कुछ समय पहले अमेरिका की सरकार ने युद्धांतर जपान से वश में किए गए अनेक नौकाओं को समुद्र में खडा कर उसमें अनेकों पशुओं को जैसे सुअर, कुत्ते गाय-भैंस आदि को जीवंत रख कर इन नौकाओं के समीप ही एटम बम का विस्फोट किया, इससे समुद्र की लहरों की तेज उफान से कुछ नौकाओं को क्षति पहुँची परन्तु शेष बचे नौकाओं में पशुओं को कोई हानि नहीं हुई । ऐसोटोप नाम के विषकण से उस बम विस्फोट के समीप ही स्थित अन्य नौकाओं में पशु क्यों नहीं मरें ? अमेरिका और रूस की सरकारें जब-तब बिकिनि द्वीप और साइबेरिया में परीक्षार्थ बम विस्फोट करते ही रहते हैं ऐसे समाचार मिलते ही रहतें हैं । अफ्रीका के जंगलों में भी ऐसे प्रयोग होते ही रहते हैं। इससे दुनिया के किसी और भाग को कोई क्षति नहीं हुई है और न ही कोई भाग जीव शून्य हुआ है केवल बम विस्फोट के व्याप्ति प्रदेश में ही हानि हुई है । प्रकृति की निरोधक शक्ति प्रकृति अपने नियमित वस्तु परिणामों से विनाशी गुणों को लिए हुए भी स्वयं को एक परिमिति में बांध कर रखती है । वह अपने व्याप्ति प्रदेश की सीमा 403 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय) को लाँधे बिना विनाशी वस्तुओं को शोधित कर अहित न होने की भाति व्यवस्था करती रहती है । एटम बम के विस्फोट होने पर उसकी तीव्र ज्वाला से फैलने वाला विद्युत प्रवाह संपूर्ण विश्व में फैल कर अपनी तीव्रता से अनर्थ परिणामों को उत्पन्न करता है ऐसा कहा जाता है। अभी तक विदेशियों के द्वारा विस्फोट किए गए एटम बम के परिणाम स्वरूप फैलने वाले रेडियो एक्टिव दुनिया में कहाँ-कहाँ और किस तरह के परिणामों को उत्पन्न किया है इस विषय पर किसी ने न जाने क्यों कुछ भी विस्तार से नहीं कहा है यह रेडियो एक्टिव बम के विस्फोट होने पर उत्पन्न होने वाला ऐसोटोप विष को संपूर्ण संसार में फैलाता है इसका कोई साक्ष्याधार नहीं है । आज के प्रबल मारकास्त्र अणु विस्फोटक आज तक तैयार हुए आयुध साधनों में अत्यंत बलशालो है ऐसा बेझिझक माना जा सकता है । इन मारकास्त्र के विस्फोट को समाप्त करने के लिए क्या कोई उपाय है इस विषय पर सोचना आवश्यक है । रेडार शक्ति व्याप्ति इन अणुबमों को बडे-बडे बांबर विमान लेकर आते हैं । इन बांबर विमानों की आने की दिशा, उडने की ऊँचाई और उनकी गति को इन रेडार यंत्र साधनों से पता लगाया जाता है। इनके पता लगाने की त्रिज्यामितीय कम-ज्यादा को पहचान कर, गणित की सहायता से ऊपर के निर्णयों (गति, ऊँचाई, दिशा आदि) को लिया जाता है । जब ये विमान एटम बमों को उड़ते हैं तब इन विमानों को विमान निरोधक फिरंगी(तोप) से गोली मार कर धाराशायी किया जाता है। विमान निरोधक फिरंगियों(तोप) से मारी जाने वाली गोली की गति को गणित की सहायता से जान कर चलाया जाता है। विमान की गति को, फिरंगी(तोप) गोली चलने की गति को जान कर ऊँचाई का अंदाज लगा कर त्रिज्यामितीय प्रमाण के क्रमानुसार आने वाला विमान कितनी दूर आगे आने के समय पर फिरंगी की गोली पहुँचने के समय का हिसाब लगा कर ठीक लगने वाले त्रिज्यामितीय प्रमाण का अनुसरण -404 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय कर गोली दागी जाती है। यह अभी ज्ञात तथा प्रचलन में जारी विमान निरोधक मार्ग में मान्य रीति है । अभी समझ की शिखर पर पहुँचे रेडार उपकरण हैं विमान निरोधक फिरंगी(तोप) है। इनके उपयोग का कौशल भी है फिर भी इन मारकास्त्रों के कारण हम डरें हुए क्यों हैं? निखर (स्पष्ट) गणित का अभाव यह तथ्य सही है कि आज विमान निरोधक साधन प्रमाणिक है परन्तु उनको योग्य रीति से उपयोग करने की समझ और कौशल हमें ज्ञात है कहना शायद गलत होगा। यदि यह बात गलत नहीं है तो रेडार उपकरणों के द्वारा विमानों की गति का अनुसरण कर हमारे हिसाब-किताब के द्वारा दागी गई गोली विमानों को क्यों नहीं धाराशायी करती है? इसके कारणों का पता लगाना आवश्यक है। आज जो हम दशक गणित पद्धति के गणित का प्रयोग कर रहे हैं उसमें हिसाब करते समय शतक भिन्नांश आने की संभावना रहती है । यह अंश १०० में ५१ भिन्नांश आए तो उसमें न रहने वाले ४९ भिन्नांश हिसाब में जोड कर उसको पूर्ण रूप से गिनती करते हैं यदि यह भिन्नांश ४९ आए तो जो आधे से भी कम होने के कारण उसे छोड कर हिसाब (गिनती) कर स्थूल रूप से लगभग गिनती में लेने के कारण “निर्दुष्ट गणित रीति” का क्रम भंग होता है । इस गणित क्रमदोष के कारण विमानों के चलन का स्थान निर्देश करने में गलती होती है । उसी प्रकार तोपों से दागी जानी वाली गोली का भी विमान को लगने में भी स्थान निर्देश गलत हो जाता है और निशाना चूक जाता है । इस गलत हिसाब के कारण दागी गई गोली गम्य स्थान तक पहुँचने तक विमान का उस स्थान तक पहुँने में विलंब हो सकता है या फिर विमान उस स्थान से गुजर चुका होता है। सौ बार निशान लगाने पर शायद एक बार निशाना सही बैठ सकता है इस कारण यह साधन इच्छानुसार फल नहीं दे रहे हैं यही वास्तव वस्तु स्थिति है । -405 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय ) भूवलय की निखरता (स्पष्टता) सिरि भूवलय के गणित क्रम में लगभग के बराबर कुछ भी नहीं है जो कुछ भी है वह स्पष्ट और पूर्ण है। यदि ऐसा नहीं होता तो सिरि भूवलय के गणितांक, उनके ध्वनिसंकेत विश्व के समस्त भाषा शब्द साहित्य के लिए पर्याप्त होना संभव नहीं होता । इस गणित क्रम में चिल्लर कुछ भी नहीं है । सिरि भूवलय के अनुसार सभी अंक शून्य से उत्पन्न होते हैं । इसमें दशवर्ग पद्धति ही नहीं है । इस पद्धति के अनुसार, आज की दशक पद्धति के अनुसार आज की पद्धति का नौ रूप, प्रमाण इस प्रकार होगा। १०, १००, १०००, १०,००० = १ ९, ८१, ७२९, ६५६१, = ९ यह नवमांक पद्धति अनुसार, सभी समय काल के लिए ९ पूर्णांक प्रतिलोम गणित क्रमानुसार, यह-९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, १, ०, अनुलोम गणित क्रमानुसार यह ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, १, ० । इनमें १ गणितांक न होकर केवल संख्या है । इस में वृद्धि नहीं होती है शेष बची आठ संख्याएँ ही गणितांक हैं। इन आठ संख्याओं का वर्ग ही ८*८=६४, सिरि भूवलय के मूल चक्रों में भी इतने ही अंक हैं । विश्व में कितने भी पृथक अंक हों, उनका प्रमाण चाहे एक हो, दो हो, बीस हो, या चाहे बीस हजार हो वे सभी इन नौ संख्याओं के स्पय रूप के विविध स्थान भेद ही हैं । इन स्थान भेदों को पहचान कर इन संख्याओं को मूल संख्याओं के स्थान के लिए अनुसरित कर एक राशी के बराबर बना कर, पहले आए हुए गणित निर्देशानुसार २ को ६४ गुणा करने पर जितना आए उसे स्थान भेदानुसार द्वराशी बना कर सभी संख्याओं के राशी निर्देश को बनाना चाहिए । १ से लेकर ९ तक सभी बीज संख्याओं के स्थान निर्देश बना कर गुण वृद्धि पद्धतिनुसार, २ से ९ तक व्यूह समुदाय की तालिका को रखना चाहिए। २का ६ व्यूह संख्या राशी । १/२=४, ४/२=६५, ५३६ २/२=१६; ५/२=४५९४९, ६७, २९६ ३/२=२५६ ६/२=१८४,४६,७४,४०,७३,७०,९५,५१,६१६ -406 - Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय नवमांक निश्येष (शेष रहित) गणित पद्धति इन अंतिम बीस पृथक अंकों को दोषरहित रूप से, एक ही मूल रूप से ६/२ इस प्रकार पहचाना जा सकता है । इन मूल रूपों में स्थूल मान है ही नहीं इस प्रकार ९ संख्या तक स्थोल्ल राशी को संक्षिप्त कर इन बीच के अंकों को द्वराशी एक राशी रूप में बराबर-बराबर पकड कर, त्रयराशी-पंचराशी क्रमानुसार निश्येष गणित पद्धति के अनुसार संख्याओं को गुणन- गणन करने की आवश्यकता है ऐसा सिरि भूवलय विस्तार पूर्वक निरूपित करने के साथ-साथ उदाहरणों के द्वारा समर्थन भी करता है । सिरि भूवलय में विस्तार से, प्रामाणिकता से दिखाए गए नवमांक गणित पद्धतिनुसार गणित को निश्येष गणित तालिका में समाहित कर. उस के अनुसार रेडार यंत्र-विमान निरोधक तोपों का उपयोग करें तो प्रत्येक बार सफलता प्राप्त हो सकती है तब बांबर विमानों का उपयोग भी बस-लॉरी से भी अधिक स्थान को अलंकृत करेंगें । । ग्रंथ प्रकटण : कर्मकथा संपूर्ण सिरि भूवलय में बताए गए सभी गणित परंपरा को मैंने नहीं समझा है यह पुस्तक केवल देख-पढ कर समझने वाली पुस्तक नहीं है। ____धन की चाह रखने वाले प्रकाशक इसे प्रकाशित करने का साहस नहीं कर सकते। उन प्रकाशकों के लायक इस पुस्तक को बनाने की प्रवृति और शक्ति दोनों मुझमें नहीं है। बेंगलोर में कन्नड साहित्य परिषद से इस पुस्तक के विषय में अनुकूल या प्रतिकूल कुछ भी प्रतिक्रिया या अभिप्राय देने का आग्रह अनेक बार करने पर भी दस वर्षों तक उस संस्था ने मौन साधे रखा ।। मैसूर विश्व विद्यालय के उपकुलपति श्री कुवेम्पु जी ने अपने अधिकार काल में सिरि भूवलय की प्रशंसा की है ऐसा व्यक्त किया । इस के लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार कर्त्तव्य निभाने की बात भी कही परन्तु उनकी कही बात अंत तक बात ही रही । - 407 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय तत्पश्चात मैसूर विश्व विद्यालय के उपकुलपति श्री एन. ए. निक्कं जी ने इस पुस्तक को विश्वविद्यालय के प्रकटण शाखा के द्वारा प्रकाशित करने का प्रयास किया । इस से सिरि भूवलय का जनता संस्करण की हस्त प्रति ने विश्व विद्यालय के भव्य इमारत के भीतर दो वर्षों तक सुख चैन की नींद ली और कुछ नहीं किया । इसी संदर्भ में मैसूर विश्वविद्यालय के कन्नड पुस्तक प्रकटण सलाह मंडली ने डॉ. के.वी.पुटप्पा जी के अध्यक्षता में सभा में सर्वानुमति से सिरि भवलय विश्व विद्यालय से प्रकाशित होने की अर्हता नहीं रखता, ऐसा निर्णय दिया । इस ग्रंथ के लिए देश के विद्वानों के द्वारा मौन साधना और उपेक्षा करना, इस संदर्भ में आज के कन्नडिगाओं को ही कुछ कहना होगा । इस दुखदायी विषय को लिखते हुए मुझे भी दुख हो रहा है परन्तु कन्नडिगाओं को वास्तवांश की जानकारी देने के कर्त्तव्य से ही मैं ग्रंथ प्रकटण की कर्म कथा का विवरण कर रहा हूँ। विनती कर रहा हूँ। इस पुस्तक के लिए मुद्रण के घर का मार्ग और दरवाजा बहुत दूर है। मार्ग भी अति दुर्गम और पथरीला है । फिर भी इस दुर्गम और कष्ट कर मार्ग पर चलने के लिए आगे बढने के लिए कन्नडमाता का आशीर्वाद प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना करता हूँ। भारद्वाज मई १९७५ सं दे. वे. कृष्ण मूर्ति ___ कन्नड का कामधेनु नाम से वर्णित सर्वभाषामयी सिरि भूवलय में समस्त वेद शास्त्र पुराण स्तोत्र पाठादि पुष्पायुर्वेद शिल्प ज्योतिष्य यंत्र शास्त्रादि रस सिद्धि तथा अणु विज्ञान आदि प्राचीन वर्तमान भविष्य समस्त विषय लाखों करोंडों श्लोकों में समाहित है ऐसा वर्णित है । प्रजावाणि ६-२-१९८३ के. आर. शंकर नारायण राव सिरि भूवलय -१९५० से १९६४ तक केवल कर्नाटक में ही नहीं बाह्य प्रदेशों में भी कुतुहल उत्पन्न करने वाली कृति है । तात्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र 408 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय) प्रसाद जी की आसक्ति को भी इस कृति ने जागृत किया । यल्लप्पा शास्त्री जी के द्वारा प्रसारित इस काव्य के कुछ भाग प्रकटित हुए । कर्लमंगलं श्रीकंठैय्या जी इस प्रकटण के कारण बनें उनके निधन के पश्चात इस कृति के विषय में उतनी चर्चा नहीं हुई । अभी तो इस विषय पर बातचीत करने वाला तक कोई नहीं है ऐसा क्यों हुआ? सिरि भूवल्य को एक विश्व काव्य कहा जाता है । यह ग्रंथ किसी भी भाषा लिपि में नहीं है। केवल अंक हैं । दाएँ से बाएँ २७ खाने और ऊपर सेनीचे २७खाने इस प्रकार एक चक्र में ७२९ खानों के अनेक चक्रों से यह ग्रंथ रचित है। इन एक-एक चक्रों में केवल १ से लेकर ६४ अंक ही दिखाए देते हैं ६४ से अधिक अंक किसी भी खाने में नहीं होते । भट्टाकळंक मुनि द्वारा रचित संस्कृत भाषा का कन्नड व्याकरण ग्रंथ शब्दानुशासन के अनुसार कन्नड में ६४ अक्षर है। इस सूत्र का अनुसरण कर के ही इन चक्रों में लिखे गए अंकों को अक्षरों में परिवर्तित कर के एक रीति से पढा जाए तो कन्नड भाषा के सांगत्य छंद में साहित्य की उत्पत्ति होती है । ग्रंथ में कहेनुसार इन चक्रों को अनेक गतियों में अनेक बंधों में पढ़ा जा सकता है । इस प्रकार पढा जाए तो सिरि भूवलय के चक्र एक-एक अध्याय में एक-एक खाने में घूमते हुए नवीन नवीन साहित्य प्रकट होते हुए आगे बढ़ता है । इस प्रकार चक्रों के अंकों को अक्षरों में परिवर्तित कर पढने पर उत्पन्न हुए कन्नड सांगत्य पद्यों को लिख कर, प्रति पद के मात्र प्रथम अक्षर को मिलाकर पढते जाए तो प्राकृत भाषा के शुद्ध साहित्य का, उसी प्रकार प्रति पद के मध्याक्षर को मिलाकर पढते जाए तो संस्कृत भाषा साहित्य की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार अनेक रीति के अक्षर संयोग से अनेक भाषा साहित्य की उत्पत्ति होती है। कन्नड ,प्राकृत, संस्कृत के अलावा तनिल, तेलगु, शूरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्धमागधी, अपभ्रंश, आदि भाषा साहित्य को इस ग्रंथ में पढा जा चुका है । ग्रंथ का कोई भी भाग यदि नष्ट हो जाता है तो अन्य अध्याय के चक्रों की सहायता से नष्ट हुए अध्याय को फिर से रचा जा सकता है । ग्रंथ पूर्णतः गणित पर आधारित होने के कारण एक चक्र से उसके पहले के चक्र को प्राप्त करना संभव है ऐसा ग्रंथ कर्ता का ही कहना है। आकाश विज्ञान, लौह विज्ञान, -409 - 409 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय अणुविज्ञान, परमाणुविज्ञान, रसपाद प्रक्रिया, प्राणवायुपूर्वा नाम का वेद्य विज्ञान, आदि समस्त शास्त्र इसमें है कहा गया है। यह ग्रंथ नवमांक पद्धति में रचा गया है। आज के दशमान्पद्धति में स्ष्ट करना संभव नहीं है क्योंकि दशमांश पाँच से अधिक को एक समझ कर, दशमांश पाँच से कम को शून्य समझ कर हम गणना करते हैं। परन्तु नौ अंकों के गणित में नवमांक पद्धति में कुछ भी छोडा नहीं जा सकता है और न ही जोडा जा सकता है इस प्रकार पूर्ण स्पष्टता प्राप्त होने के कारण यह ग्रंथ एक स्पष्ट गणित पद्धति में रचित कन्नड का ६४ ध्वन्याक्षर से मिला हुआ सर्वभाषामयी, सर्वशास्त्रमयी ग्रंथ है कवि के कहेनुसार दरुशनशक्ति ज्ञानद शक्ति । चारित्रवेरसिद रनत्रयव ॥ बरेय बारद बरेदरु ओदबारद । सिरिय सिद्धत्व भूवलय ॥ यारेष्ट जपिसिदरष्टु सत्फलविव । सारतरात्मक ग्रंथ ॥ नूरु साविर लक्ष्य कोटिया श्लोकांक सारवागिसिद भूवलय ॥ यशस्वीदेविय मगळाद । ब्राह्मीगे असमान काटकद ॥ सिरिय नित्यवु अरवनाल्कक्षर । होसेद अंगैय भूवलय करुणेयं बहिरंग साम्राज्य । लक्षमिय अरुहनु काटकद ॥ सिरिमाता यत्नद ओन्दरिं पेळिद । अरवनाल्कंक भूवलय ॥ सिरि भूवलय में कुल ७१८ भाषाएँ है जिसमें १८ मुख्य या बडी भाषा और ७०० अन्य भाषाएँ हैं ऐसी जानकारी दी गई है। केवल कन्नड भाषा में ही मात्र ६४ अक्षर हैं अन्य भाषाओं में उससे कम अक्षर होने के कारण केवल कन्नड बंध में श्रीकर्लमंगलं श्री कंठैय्या जी ने इसको लिखा । ग्रंथ के परिशोधक और संपादक रहे श्री कर्लमंगलं श्रीकंठैय्या जी का निधन ११ मार्च १९६५ को हुआ । उनके निधन के पश्चात इस ग्रंथ के विषय में जानकारी देने वाला कोई नहीं रह गया था । श्रीकंठैय्या जी के द्वारा लिखी गई सिरि भूवलय की जनता प्रकाशित संस्करण की हस्त प्रति उपलब्ध है । १९५३ में प्रकटित सिरि भूवलय के दो भागों की मुद्रित प्रति उपलब्ध है परन्तु इस मुद्रित प्रति को पढ कर समझ पाना अति कष्टकर है । उपलब्ध सामाग्री की सहायता से ग्रंथ की रचना रीति तथा व्याप्ति 410 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -( सिरि भूवलय - के अर्थ को कह पाने का सामर्थ्य को जुटाना होगा । भाषाओं को समाहित करना संभव है और इसी संभवता के कारण काव्य रचना की है ऐसा कवि कहते हैं। गणित की स्पष्टता के कारण गणित प्रक्रिया के द्वारा ही यह संभव हुआ है । श्री कृष्ण गीतोपदेश देने की रीति में ही , इस भाषा में अर्जुन को उपदेश दिया ऐसा कवि कहते हैं । भगवद गीता के मूल श्लोकों को इस ग्रंथ राशी से बाहर निकाल कर पढ पाना संभव है कहा गया है। महावीर जी ने भी अपने शिष्य गौतम गण्धर को इसी रीति से बोध ज्ञान कराया ऐसा कवि कहते हैं । कवि के कहेनुसार सर्वज्ञ देवनु सर्वांगदिं पेळ्द । सर्वस्य भाषेय सरणि ॥ सकलव कर्माटदणुरूप होम्दुत । प्रकटद ओन्दरोळ अडगि ॥ हदिनेंटु भाषेय महाभाषेयागलु । बदिय भाषेगळेळुनूरु ॥ हृदय दोळडगिसि कर्माट लिपियागि। हुदुगिदंक भूवलय ॥ परभाषेगळेल्ल संयोगवागलु । सरसशब्दागम हुट्टि ॥ सरवदु मालेयादतिशय हारद । सरस्वति कोरळ आभरण ॥ इस प्रकार केवल कन्नड के रहने पर ही यह माला बनती है कन्नड के बिना यह माला नहीं बन सकती ऐसा कवि कहते हैं । इस ग्रंथ का एक और नाम परमागम भी है ग्रंथ कर्ता उस नाम को ही सूचित करते हुए सिरि भूवलय को विलोम क्रम में पढते हुए यलवभू रिसि कहते हैं । इनका एक और नाम सिरि कुमुदेन्दु भी है । इनका ऐलाचार्य नाम भी है । कन्नड साहित्य क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त कुमुदेन्दुओं से इन का कोई संबंध नहीं है । आप अपने शिष्यों में प्रमुख नवकाम, शिष्टप्रिय आदि उपाधि प्राप्त प्रथम शिवमार नाम के गंगराज, मान्य खेट के राजा राष्ट्र कूट अमोघ दंदिदुर्ग का नाम लेते हैं । इस ऐतिहासिक प्रमाण के अनुसार कवि का काल लगभग ईसा के उत्तरार्ध ६८० होगा क्योंकि प्रथम नवकाम शिवमार का शासन काल सन् ६७९से लेकर ७१३ तक तथा दंति दुर्ग मोघ का शासन समय सन् ६७० से लेकर ६८० तक है यह ज्ञात ही है । यह कवि बंगलोर के समीप नंदिदुर्ग में तपस्या कर सिद्धि को प्राप्त हुए । इनका जन्म स्थान यलव अथवा यलवळ्ळि नंदिदुर्ग की उपत्यका(घाटी) में है इनका जन्म कुल Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय कन्नड है अपने संपूर्ण ग्रंथ की रचना में कन्नड की गौरव गाथा को कहते हैं। आप पुरातन जैन परंपरा धर्म आज विलुप्त प्रायः मत यापनीय मत से संबंधित है । वृषभसेनान्वय, सेनगण, सद्धर्मगोत्र, द्रव्यांग शाखा - ज्ञातवंश - वृषभ सूत्र इक्ष्वाकुवंश के जैन ब्राह्मण हैं ऐसा आप स्वयं कहते हैं। बंगलोर सर्वार्थ सिद्धि संघ के स्थापक, आयुर्वेद वैद्य दिवंगत यल्लप्पा शास्त्री जी की धर्म पत्नी की ओर से इस ग्रंथ की कोरी कागज़ (हाथ से बना हुआ मोटा और खुरदुरा कागज) प्रति वंशपरंपरा के फलस्वरूप प्राप्त हुआ । इसके पहले यह ग्रंथ यल्लप्पा शास्त्री जी की पत्नी ज्वालामालिनी के पिता श्री धरणेन्द्र पंडित जी के पास दोड्डबेले में था । इस ग्रंथ को कर्लमंगलं श्री कंठैय्या जी ने अपने जीवन को दाँव पर लगा कर परिशोधित किया । इस प्रयत्न के फलस्वरूप ग्रंथ का कुछ भाग १९५३ में प्रकाशित हुआ । महर्षि देवरात के द्वारा राष्ट्राध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को इस ग्रंथ में आसक्ति जागृत होकर, आप ने भारत सरकार के प्राच्यपत्रागार में ( National Archives) १९५६ में ही ग्रंथ की हस्त प्रति को माइक्रोफिल्म बनवा कर रखवा दिया । सुनीत कुमार चटर्जी, महर्षि दैवरात, मंजेश्वर गोविन्द पै, डॉ. एस. श्रीकंठैय्या, डॉ. ए. आर. कृष्ण शास्त्री डॉ. ए. वेंकटसुबैय्या, चीमहळ्ळि रघुनाथाचार्य, कलकत्ता के डॉ. सूर्यदेव शर्मा, डी. वी. गुण्डप्पा आदि अनेक विद्वानों इस ग्रंथ की प्रशंसा की थी । इस ग्रंथ के विषय में विस्तार से प्रजावाणी साप्ताहिक में चार रविवार १४-६-१९६४ से ५-७- १९६४ तक लेखों का प्रकाशन हुआ । विक्रम ११ - ५ - १९९७ विश्व का अद्भुत साहित्य सिरि भूवल्य का प्रकाशन प्रचार का आह्ववान दसवीं सदी के पहले कर्नाटक के मुनि कुमुदेन्दु कृत्त सिरि भूवलय अंकभाषा ग्रंथ विश्व के आश्चर्यों में से एक था ऐसा निःसंकोच कहा जा सकता है । केवल से लेकर ६४ तक के अंकों को २७ गुणा २७ के चौकोर खानों के ७२९ खानों में जमा कर एक चक्र की रचना की गई है। ऐसे १२७० चक्र ही इस ग्रंथ की साहित्य राशी है । अंकों के आधार पर ध्वनि से भाषा का रूप उभर 412 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =( सिरि भूवलय - कर दुनिया के ७१८ भाषाएँ इस में समाहित हैं । इस साहित्य में ३६३ तात्विक विधान, ६४ कलाएँ समाहित है ऐसा इस ग्रंथ के परिचय में कहा गया है । डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपने राष्ट्राध्यक्ष के समय काल में इस ग्रंथ के परिचय को जान कर इसे सरकारी प्रोत्साहन से जन सामान्य को इस ग्रंथ का लाभ प्राप्त हो ऐसा आशय व्यक्त किया था । अनेक ख्यात विद्वानों ने भी इसी आशय को व्यक्त किया था । आज तक इस दिशा में कोई भी सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया है ऐसा अप्रेल २३ को बंगलोर के गोखले सार्वजनिक संस्था भवन में अनंतरंग प्रतिष्ठान के द्वारा आयोजित सिरि भूवल्य जयख्यान भारत भगवद गीता अंग्रेजी पुस्तक के विमोचन के अवसर पर कृति के विषय पर बोलते हुए साहित्यकारों, संशोधकों, पत्रकारों आदि ने कहा । इस अद्भुत कन्नड ग्रंथ को जन सामान्य तक पहुँचाने के लिए तथा उसको पढने के विधान को समझाने के लिए प्रयत्न करना अति आवश्यक है भी कहा गया । गोखले संस्था के अध्यक्ष श्री निटूर श्री श्रीनिवास जी ने सभा की अध्यक्षता की । छह लाख पदों के साथ यह कन्नड ग्रंथ अनेक शास्त्रों के सार को समाहित किए हुए हैं ऐसा संशोधक साहिति प्रो.टी.केशव भट्ट जी ने कहा । दुनिया के किसी भी भाषा में नहीं है ऐसी एक श्रेष्ठ कृति सिरि भूवलय है उन्होंने ऐसा वर्णन किया इस में समाहित ज्ञान का भंडार जन सामान्य के लिए लभ्य हो तो भारत संपूर्ण मानव लोक के लिए ऐतिहासिक उपकार करेगा । __ इस अद्भुत ग्रंथ के प्रति, आसक्ति रखने वालों ने जो रहस्मय चुप्पी साध रखी है उसे भेद कर, इसके लाभ को जन सामान्य तक पहुँचाने का प्रयत्न करने के लिए कन्नड साहित्य परिषद को आगे आना चाहिए ऐसा पत्रकार श्री वैकुंठराजु ने जोर दिया । भाषातज्ञ, विद्वान, तथा संशोधक के ध्यान देने की अनेक बातें इस ग्रंथ में छुपी है । दिल्ली में जो हस्त प्रति है उसे मँगवाना होगा । यल्लप्पा शास्त्री जी के बच्चों के पास इस ग्रंथ की जो मुद्रित प्रति है उसे प्राप्त कर उसकी रहस्यमयता को खोलना होगा और उसमें समाहित अमूल्य ज्ञान को सार्वजनिकों तक पहुँचाना होगा इस कार्य को किसी अर्हर संस्था को हाथ में लेना होगा ऐसा प्रो.अश्वत्थ नारायण जी ने कहा । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय विमोचित सिरि भूवलय पुस्तक के कर्त्ता श्री कट्टे नगराज जी ने यह ग्रंथ हमारे पूर्वजों के द्वारा जीवन के विविध क्षेत्रों में किए गए कार्य साधना को सांकेतिक भाषा में व्यक्त करती है । यह अपूर्व ज्ञानं भंडार को जन सामान्य क पहुँच कर यदि वे इसे पढने में सक्षम हों तो दुनिया भर के लोगों के लिए अपार ज्ञान भंडार का खजाना खुल जाएगा । सरकार तथा साहित्य संशोधक इस कार्य को अपने हाथ में लें ऐसा कहा । सिरि भूवलय के विषय में एक परिचय प्रकटण में दिवगंत पंडित एम. यल्लप्पा शास्त्री जी के पुत्र एम. वाय. धर्मपाल जी ने इस संदर्भ में विद्वानों के ध्यान को खींचा। सिरि भूवलय के विषय में दिवंगत यल्लप्पा शास्त्री जी दिवंगत कलमंगलं श्री कंठैय्या जी संशोधन में प्रमुख रूप से कार्यरत रहे । 17. Free Press Journal 30-11-1951 700 Languages: One Script A manuscript claimed to be so written as to be capable of being read in over 700 languages was produced here today before members of the Delhi Karnataka Sangha by Pandit Ellappa Shastri of Mysore, The Manuscript written in parchment and believed to be about 900 years old, is stated to have been composed in verse form by a Jain Scholar. According to the Pandit the book embodies an encyclopadic knowledge of ancient Hindu arts, civilisation, medicine, mathematics and other sciences. 18. Hindustan Standard 16-12-1951 Discourse on Ancient Indian Manuscript. A discourse on the manuscript coloumnes - BHUVALAYA SIDHANTA written 1000 years ago, was given by Sri Yellappa Shastri. The Speaker said that it contained useful knowledge given in a nutshell. It contained prescriptions for the preparations of platinum & other materials badly needed by India. If full use of the book was made much of our poverty would vanish, he observed. There are solutions of many mathematical intricacies in it, he remarked. While Western mathematics had no knowledge beyond zero, our mathematics began from zero onwards, he said. 414 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय 19. Hindustan Standard 19-12-1951 A Rare Kannada Manuscript The book could be read from top to bottom like the Chinese Language and dealt with various branches of Science such as arithmatic, ayurvedic, astronomy, chemistry and architecture. 20. Organiser 4-2-1952 The Tenth Wonder The "Tenth Wonder" is a Jain Scripture in 6,00,000 verses in Kannada Script expounding the Karma Philosophy of Jainism. 21. Deccan Herald 29-8-1955 Treatise on Ancient Arts and Sciences The 1270 - page book "Siri Bhuvalaya" believed to have been written in the ninth century A.D. by Kumudendu, is to be micro-filmed shortly by Mysore University and a copy supplied to the Union Ministry of Education, it is learned here. श्री कुमुदेन्दु मुनि विरचित सिरि भूवलय एक विशिष्ट अंक काव्य है। इस अंक काव्य के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से जब हमने गहराई में जा कर अध्ययन किया तो हमें कुछ बहुत पुराने अर्थात १९५१-५३ में लिखे गए कुछ कागज़ात और कुछ पत्र-पत्रिकाओं में इस ग्रंथ का उल्लेख प्राप्त हुआ । श्री यल्लप्पा शास्त्री जी ने इस ग्रंथ का उल्लेख तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी के सम्मुख किया था तब राष्ट्रपति जी ने इस की एक प्रति राष्ट्रीय प्राच्य कोषागार में (पुरातत्व विभाग) में ग्रंथ की माइक्रो फिल्म बनवा कर रखवाने की व्यवस्था की थी। अनेकानेक प्रयत्नों के बावजूद इस ग्रंथ का प्रकाशन नहीं हो पाया । २००२ में बंगलोर के पुस्तक शक्ति प्रकाशन के प्रयत्नों के फलस्वरूप यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ । इस ग्रंथ के विषय में कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख इस प्रकार हैं -415 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय - नवभारत टाइम्स (दिल्ली, ६ दिसम्बर १९५१) भूवलय ग्रंथ रत्न विश्व का ९ वां आश्चर्य दिल्ली, बुधवार कल रात्री के आठ बजे भा.दि. जैन महासभा कार्यालय मारवाडी कटरा नई सडक दिल्ली में श्री यल्लप्पा शास्त्री जी द्वारा बंगलोर से लाए गए भूवलय सिद्धांत ग्रंथ के आधार पर किए गए अनुसंधान रूप ३१ मानचित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन श्री राघवन जी एस. एस. आर. कामर्स एंड इंडस्ट्रीज़ द्वारा हुआ। श्री राघवन ने कहा कि यह ग्रंथ बहुत ही आश्चर्य जनक है संसार में नौ आश्चर्य माने गए हैं उन सब से भिन्न यह रिसर्च दसवां आश्चर्य है । यह केवल कर्नाटक अथवा जैन लोगों की चीज़ नहीं है यह तो सारे भारत और विश्व की हितैषी वस्तु है । यह ऐसा ग्रंथ है जो तमिल. कन्नड संस्कृत आदि में मैंने नहीं देखा । व्यास जी का महाभारत एक लाख श्लोक प्रमाण का है किन्तु उससे भी उन्नतशील उससे भी ज्यादा यह ग्रंथ छः लाख श्लोक प्रमाण का है। इस ग्रंथ में पाणिनी जैसे छः हजार ब्रह्म सूत्र हैं टीका छः लाख श्लोक प्रमाण हैं। इस ग्रंथ के आधार पर १८ महा भाषा और ७०० क्षुल्लक (लघु) भाषा हैं इस प्रकार ७१८ भाषाएं हैं भाषा अन्वेषकों को इसकी खोज करनी चाहिए। इस निधि को दुनिया को बताना चाहिए मैंने इसे यूनीस को बताया उन्होंने वायदा किया कि आप मूल प्रति मंगओ हम फोटो लेकर विश्व में इसका प्रचार करेंगे और इस निधि को विश्व को बताएगें । ऐसा यूनेस्को को चीफ़ लाइब्रेरियन श्री रंगनाथन ने मुझसे वायदा किया है। अनेक व्यक्तियों के द्वारा ग्रंथ का अवलोकन भा.दि. जैन महा सभा के कार्यालय में भूवलय सिद्धांत के रिसर्च की प्रदर्शनी को देखने के लिए दिन भर सैकडों आदमियों की भीड लगी रही । आने वालों में अनेक पत्रकार और प्रोफेसर थे। =416 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय हिन्दुस्तान (दिल्ली, ६ दिसम्बर १९५१) दिल्ली, बुधवार कल रात्री के आठ बजे भा.दि. जैन महासभा कार्यालय मारवाडी कटरा नई सडक दिल्ली में श्री यल्लप्पा शास्त्री जी द्वारा बंगलोर से लाए गए भूवलय सिद्धांत ग्रंथ के आधार पर किए गए अनुसंधान रूप ३१ मानचित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन श्री राघवन जी एस. एस. आर. कामर्स एंड इंडस्ट्रीज़ द्वारा हुआ। नवभारत टाइम्स (दिल्ली ९ दिसम्बर १९५१) सर्व ज्ञान भंडार भूवलय सोमसुन्दरं द्वारा लिखित विश्व भर के ज्ञान विज्ञान की कोई शाखा ऐसी नहीं जिस पर भूवलय और विजय धवल नाम के इन ग्रंथों में विस्तृत प्रकाश नहीं डाला गया हो साथ ही मानव जाति की कुल ७१८ भाषाओं में से प्रत्येक भाषा में ये ग्रंथ पढे जा सकते हैं यदि उनमें निर्धारित फार्मूले (युक्ति) के अनुसार उनका अध्ययन किया जाए इस भूमिका के साथ बंगलूर के जैन पंडित श्री यल्लप्पा शास्त्री जी ने उपरोक्त दोंनों ग्रंथों के बारे में मेरे प्रश्नों का उत्तर देना आरंभ किया तो मैं अविश्वास पूर्ण मुस्कुराहट के साथ सुनने लगा परन्तु जब शास्त्री जी ने मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर दे चुके तो तब मेरा अविश्वास विस्मयपूर्ण श्रद्धा में परिवर्तित हो गया । ज्ञान- विज्ञान का भंडार शास्त्री जी का कहना है कि ज्ञान-विज्ञान का कोइ विषय ऐसा नहीं है जिसका विश्व विवेचन इस ग्रंथ में न किया गया हो । जीव विज्ञान से लेकर परमाणु वाद तक (ऐटोमिक थियरी) आयुर्वेद से लेकर लोह विज्ञान तक और आकाश विज्ञान से लेकर ज्योतिष्य शास्त्र तक सभी विज्ञानों का यह आगार है। मध्य कालीन भारत की अकर्मण्यता को देखते हुए शास्त्री जी के इस दावे पर विश्वास करना कठिन प्रतीत होता है कि आइन्सटाइन सिद्धांत जैसे नवीनतम पाश्चात्य सिद्धांत से हमारे मध्य कालोन पूर्वज परिचित ही नहीं थे अपितु उसका विशद 4417 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय विवेचन तक कर चुके थे । इस पर भी विश्वास करना कठिन है कि क्षय और महोदर जैसे रोगों की प्रभाव शाली चिकित्सा विधि हमारे पूर्वजों को ज्ञात थी। परन्तु जब हम अंग्रेजी बिल्कुल न जानने वाले शास्त्री जी के मुहं से कुछ ऐसी बातें सुनते हैं जो नवीनतम वैज्ञानिक सिद्धांत से मिलती-जुलती हैं तो आश्चर्य होता है कि उनके दावे पर अविश्वास कैसे किया जाए। उदाहरणतः अजीव विज्ञान भौतिक जगत का विवेचन करते हुए कहता है कि परमाणु उसका लघुतम अंश है और चूंकि परमाणु शून्य ज्योति कणों से बना है जिनका कोई वास्तविक परिमाण नहीं है इस कारण वृहत से वृहत का भी वास्तविक परिमाण नहीं हो सकता । यह सिद्धांत जहां दर्शन के क्षेत्र में शंकराचार्य के माया वाद से मिलता है वहां भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में नवीनतम परमाणु वाद से मिलता है । प्रोफेसर जेम्स जीन्स का यह कथन कि सारा विश्व एक गणित भूत महा मस्तिष्क की कल्पना मात्र है भूवलय में प्रतिपादित उपरोक्त सिद्धांत का ही विकास प्रतीत होता है है न? शास्त्रीजी कहते हैं कि यदि विभिन्न भाषाओं और विज्ञानों में पारंगत लोग उपरोक्त दोनों ग्रंथों के अनुसंधान और प्रकाशन में उनकी सहायता करें तो भारत को एवं विश्व को एक अमूल्य निधि प्राप्त हो सकती है। भारत सरकार का शिक्षा-सचिवालय एवं भारत के विश्वविद्यालय इस बात पर सहानुभूति पूर्वक विचार करें तो निश्चय ही देश का हित हो सकता है, यह मेरा विश्वास है । __कुछ मराठी के समाचार पत्रों में भी इस ग्रंथ के विषय में लेख प्रकाशित हुए जैसे प्रगति आणि जिनविजय (बेलगांव सोमवार तारीख ७ जनवरी १९५२ जैन ज्योति १६ जनवरी १९५२ दैनिक सुदर्शन कोल्हापूर तारीख ३ फरवरी १९५२ सकळ-पुणे सनिवार तारीख ९ फरवरी १९५२ प्रगति आणि जिनविजय सोमवार तारीख २५ फरवरी १९५२ =418 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय भूवलय या ऋगवेद लेखक सु. न. भास्करपन्त आर्यसमाज भूवलय एक अद्भुत और रहस्यमय ग्रंथ है। बड़े आश्चर्य की बात है कि इधर कुछ समय तक इस विलक्षण ग्रंथ का पता भी मानव संसार को नहीं लगा था । न किसी विद्वान ने अपनी कृतियों में इसका उल्लेख किया था और न इसमें से कोई उद्धरण ही दिया था । अब कर्नाटक के मान्य विद्वान श्रीयुत श्री कंठैय्या जी और यल्लप्पा शास्त्री जी बडे परिश्रम से इसका प्रतिपादन कर रहें भूवलय के रचयिता महामुनि आचार्य कुमुदेन्दु हैं ये जैन ब्राह्मण थे । भूवलय के संपादक कर्नाटक के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान श्री कंठैय्या जी ने बड़े अन्वेषण के बाद कई प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि कुमुदेन्दु मुनि ईसा की सातवीं सदी के उत्तरार्ध में जीवित थे। भूवलय में प्रसंगवश जो कुछ ऐतिहासिक सामाग्रियाँ मिली हैं वह सत्य प्रमाणित हुई हैं । असाधरण विद्वता, अद्भूत रचना कौशल, बहुभाषाभिज्ञता का नमूना देखना हो तो भूवलय को पढना चाहिए। जिन विद्वानों ने इसका अवलोकन किया है उनका कहना है कि भूवलय की बराबरी करने वाला दुसरा ग्रंथ मानव पुस्तकालय में आज तक उपलब्ध नहीं हुआ है । संसार में ऐसा विषय नहीं है जिसे कुमुदेन्दु ने स्पर्श नहीं किया हो । कुमुदेन्दु ने गणित, खगोल, रसायन, भौतिक, संगीत, भाषा विज्ञान, के साथ साथ रामायण, वेद पुराण, जयख्यान( ग्रंथकार ने कहीं भी भारत या महाभारत शब्दों का प्रयोग नहीं किया है)। गीता (भगवद् गीता नहीं लिखा है केवल गीता लिखा है) आदि प्रायः सभी विषयों पर प्रकाश डालने की प्रतिज्ञा की है । अब तक इस महा ग्रंथ का जितना भी भाग पढा जा सका है उससे यह आशा की जा सकती है कि भारत वर्ष के जो प्राचीन ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं और उपलब्ध होने वाले ग्रंथों में भी प्रक्षेपों के कारण जो अपना असली स्वरूप खो बैठे हैं वे असली रूप में फिर मिलेंगें ।। ग्रंथ कर्नाटक भाषा में सांगत्य छंद में लिखा गया है । हर पन्ने को नियमानुसार पढने पर कई भाषाओं के छंद बनते जाते हैं । कुमुदेन्दु लिखते हैं कि ७१८ =419 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय भाषाओं में भूवलय की रचना की गई है और जो जिस भाषा में चाहते हैं इसमें पढ़ सकते हैं । इसीलिए ग्रंथकार ने अपनी भाषा को सर्वमयी भाषा कहा है। कुमुदेन्दु ने कई भाषाओं का उल्लेख करके भूवलय में उन्हें पढने का नियम भी बताया है । कुमुदेन्दु लिखते हैं कि संसार में १८ प्रधान भाषाएँ और ७०० विकृत भाषाएँ हैं और सभी भाषाओं के छंद भूवलय में ओत-प्रोत हैं । ग्रंथकार के इस कथन पर सहसा विश्वास करना असंभव होता है पर गणित पध्दति से संसार भर की भाषाओं की शब्दराशि की उत्पत्ति का जो क्रम कुमुदेन्दु ने बताया है उसे पढकर हमें यह बात मानने को विवश होना पडता है । कुछ भी हो यह ग्रंथ प्राचीन भारत की असाधारण प्रतिभा का जीता-जागता उदाहरण है । जैन मित्र अजितकुमार शास्त्री अक्षर और अंक द्वारा पठन-पाठन अभ्यास कब से, किस प्रकार प्रचलित हुआ ? तथा अक्षरों का लिखना दाहिनी ओर तथा अंकों का लिखना बायीं ओर क्यों रखा गया ? इन प्रश्नों का समाधान श्री पं. यल्लप्पा शास्त्री के कथनानुसार भूवलय सिद्धांत ग्रंथ में निम्न प्रकार से विद्यमान है कर्म भूमि की आदि में (तीसरे काल के अंतिम समय ) भगवान ऋषभ देव का जन्म हुआ । जब वह युवा हुए उस समय कल्पवृक्षों के द्वारा जीवन निर्वाह योग्य सामाग्री, वस्त्र, भोजानादि का मिलना बंद हो गया । इस कारण तत्कालीन जनता बहुत दुखी हुइ और समस्त जन एकत्र होकर उस जमाने के सबसे अधिक ज्ञानी अविधज्ञानधारक भगवान ऋषभ देव के पास आए और अपनी कठिनाई समाधान पूछा भगवान ने अपने अविधज्ञान से कर्मभूमि वाले विदेह क्षेत्र की व्यवस्था जान करके लोगों को खेती-बाडी, वस्त्र बनाना, पशु-पालन व्यापार आदि कार्य सिखलाए । जनता को उनकी जन्मजात योग्यतानुसार क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ग में व्यवस्थित कर दिया । इसके सिवाय भगवान ने अपने १०१ पुत्रों को भी राजनीति मल्लविद्या काम कला शस्त्र संचालन आदि कलाएं सिखलाई । 420 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय भगवान की दो पुत्रियों ने पिता से आग्रह किया कि उन्हें भी कुछ विद्या सिखाएं । भगवान ने उनसे पूछा कि वे क्या विद्याएं सीखना चाहती हैं। उनकी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सौन्दरी ने कहा कि उन्हें अविनश्वर विद्या सिखलाए। तब भगवान ने उत्तर दिया कि मैं तुम दोनों को अक्षर (अविनश्वर) विद्या ही सिखाता हूँ। ब्राह्मी उनकी गोद में बांयी ओर बैठी थी उससे कहा कि अपना हाथ आगे निकालो ब्राह्मी ने अपना बांया हाथ आगे किया तब भगवान ने अपनी अमृतांगुलि से याने अंगूठे से (शिशु तीर्थंकर के अंगूठे में इंद्र अमृत रख जाता है जिससे वे चूसते ही रहते हैं तथा प्रायः सभी छोटे बच्चे अंगूठा चूसते हैं इसीलिए उसे अमृतांगुलि कहा जाता है) ब्राह्मी के बाएं हाथ पर भगवान ने चौंसठ अक्षर लिख कर भाषाओं के उद्गम रूप अक्षर विद्या को सिखाया । ब्राह्मी के नाम पर ही उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि पडा । ब्राह्मी लिपि सबसे प्राचीन है ऋषभदेव द्वारा बतलाए गए उन चौंसठ अक्षरों से संसार के सभी भाषाओं का लिखना पढना हो जाता है। भगवान ने दाहिने के हाथ के अंगूठे से ब्राह्मी के बाएं हाथ पर अक्षर लिख कर बताए थे अतः उनका लेखन क्रम बांयी ओर से दाहिने ओर हुआ । सौंन्दरी दांयी ओर गोद में बैठी थी इस कारण से भगवान ने अपने बाएं हाथ के अंगूठे से दाहिने हाथ पर १ २ ३ ४ ५ आदि अंक लिख कर उसको समस्त संकलन (जोड) विकलन ( बाकी) गुणा भाग आदि गणित विद्या सिखाई । भगवान के बाएं हाथ का अंगूठा दाहिनी ओर से बांयी ओर चला इस कारण अंक क्रम लिखने में अक्षर क्रम से उल्टा लिखा गया । इसी कारण अंकों का लिखना इकाई, दहाई, सैकडा आदि के रूप में बांयी ओर प्रचलित हुआ वही पद्धति आज तक प्रचलित है । भूवलय सिद्धांत ग्रंथ का उक्त समाधान बहुत सुन्दर और बहुत ठीक बैठता है । अंकानां वामतो गतिः याने अंकों की चाल बांयी ओर होती है । ऐसी पद्धति क्यों प्रचलित हुई अंक बाएं ओर तथा अक्षर दाएं ओर क्यों लिखे जाते हैं इन सब प्रश्नों का युक्तियुक्त उत्तर भूवलय सिद्धांत ग्रंथ के उक्त कथन से बिल्कुल ठीक व संतोषजनक मिलता है । 421 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय इसी प्रकार सत्य पत्रिका के संपादक वर्ग में श्रीनिवास मूर्ति जी ने एक पुस्तक के बराबर लेखों की माला बनाई । सेवक पत्रिका के श्री अनंत सुब्बराव जी ने मैसूर में प्रतिदिन इस ग्रंथ का प्रचार किया । ताईनाडु, वीरकेसरि, जनवाणि, प्रजामत, प्रजावाणि, पी.टी.ऐन प्रचारसार, दिल्ली का सार्वदेशिक, जैनगेजेट, नवजीवन, अर्जुन, अजमीरिन, आर्यमार्तंड, सूरत का जैनमित्र, कोल्हापुर का पुढारि, सत्यवादि, भावनगर का जैन, कलकत्ता का सन्मार्ग, मैसूर का सर्वज्ञ संदेश, जिन वाणि तथा वैश्य पत्रिका, मंगलूर का नवभारत तथा विवेकाभ्युदय, काशी का श्रमण, धारवाड का कर्नाटक, हुबळ्ळ का कर्मवीर, इस प्रकार लिखते जाए तो अनेक पत्रिकाएँ स्मरण में आते हुए हम ही डूब जाए ऐसे इतने पृष्ठों के लेखों में उपरोक्त बातों को सिद्ध किया है । 422 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ St सिरि भूवलय प्रस्तावना सिरि भूवलय यह जैन ग्रंथ, विश्वमें एक अति प्राचीन. अदभूत और महत्वपूर्ण माना जा सकता है। यह ग्रंथ आदिवृषभदेवजी ने सौंदरी को उपहार के तौर पर दिया हुआ था। ॐ , १. यह ग्रंथ संख्याओं से लिखा हुआ है। ये संख्याएं ही 64 ध्वनियां होकर ब्राम्हि लिपि के रूप में है। अतः उस समय से इसे महत्वपूर्ण बताया गया है। विश्व की समस्त भाषाएं कला, साहित्य, गणित, विज्ञान, वैद्यकीय, ज्योतिष्य, अणुशास्त्र आदि इस विषय के लिए आवश्यक विषय और इन विषयों में अप्राप्त और नष्ट हुए अनेक मौलिक ग्रंथ भी सिरिभूवलय ग्रंथ में समायें हुए है। २. इस महान साहित्य में अपने आप उत्पन्न अनेक साहित्य की पहचान से वेदांत वैध, गणित, रसायनशास्त्र, ज्योतिष अणुशास्त्र, खनिजशास्त्र, जीवशास्त्र, ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, भगवदगीता, तत्वार्थसूत्र, ऋषिमंडल, और संस्कृत प्राकुत और अनेक भाषाओं के अपूर्व श्लोक समायें हुए है । ३. जैनचार्थ कुमुदेंदु आचार्य ने क्रि. ग. 689 समीप सिरिभूवलय ग्रंथ का सिर्फ अंकों के व्दारा ही प्रचार किया। कुमुदेंदु आचार्य का प्रदेश नंदिदुर्ग के पास यलवल्ली नाम से जाना जाता था। इसे 'यलवभू' कहकर उसे पीछे से पढकर 'भूवलय' हो सकता है। ऐसी प्रतीति मिली है कि इस प्रदेश में आचार्य ने 1500 शिष्यों को इकट्टा करके उन्ही से यह शास्त्र लिखवाया गया था । सिरि को पीछे से पढने से रिसि याने मुनि मतलब होता है । ४. कुमुदेंदु आचार्य के अनुसार आदि वृषभदेवजी ने अपने पुत्र भरत और बाहुबली को लौकिक साम्राज्य और परमार्थिक ज्ञान देने के पश्चात शेष ज्ञान साधन के रूप में जो अंक और अक्षर विधा है, उसे सौदरी और ब्रम्ही नामक दो लडकियों को दे दिया। यह शेष विधा ही अब बचा हुआ अंकाक्षर का ज्ञानवाहिनी 'सिरिभूवलय' है । ५. कुमुदेंदु आचार्यजी ने इस ग्रंथ की रचना नवमांक प्रणाली (To the Base 9) के आधार पर की है। विश्व में हम दशमांक प्रणाली इस्तेमाल करते है। यह नवमांक एणाली अंक संख्या 'Base 9' को अपनाकर आई है। आज की गणक यंत्र की दुनिया मे "Base 2" अपनाया है (01) [open gate (0) Close gate ( 1 ) ]. उदाहरण के लिए : 110 102 101 100 = = 1 1 0 =110 इस अंकों को नवमांक पधदति में इस प्रकार अपनाना चाहिये 92 91 9 3 81 1 90 1 2 फ्र Base 9 converted back to Base 10 = 1x81 + 3x9+2+1=110 इस तरह यह ग्रंथ भी उस काल में गणक यंत्र (Computer coded all written in multiples of nine). नवमांक पध्दति में लिखा soft ware इसि पद्धति को इस्तेमाल कर के अत्याधुनिक गणक यंत्र काम करता है। इसमे Base 2 का उपयोग किया है। उदाहरण के लिए : 26 25 24 23 22 21 20 64 32 16 8 4 2 1 = ( 110 1110) = Total base 2 11010 H = (1101110), 423 110 इस नवमांक पध्दति को सिरिभूवलय में उपयोग किया है। कुमुदेंदु आचार्यजी ने इस भूवलय को चक्रबंध पहेली (Cross word puzzle) के रूप में 27x 27 चौकोर मकान में रचा है। इसे अपने शिष्यों द्वारा 1270 पृष्ठों में लिखवाया है, ऐसा ज्ञात होता है। हर चौकोर मकान 1 से 64 अंको से भरा है। इस अंको ध्वनि रुप में परिवर्तन करने से अनेक ढंग से पढ सकते हैं। यह 1 से 64 ध्वनियो का विन्यास इस प्रकार है । : .. ६. 27. स्वर (हस्व, दीर्घ और लुपृ), 25 व्यंजन, 8 अवर्गीय और 4 अयोगवाह (0 बिंदु, विसर्ग, उपधमानीय और :: जिव्हामूलिय ) हस तरह पढने से कन्नड भाषा में श्लोक आयेंगा। आचार्य आचार्य कुमुदेंदुजी बताया है कि अगर इन श्लोकों को अनेक दंग से पढने से सभी (718 भाषा) भाषाओं का दिव्य साहित्य का ज्ञान हो जायेंगा। ७. इस ग्रंथ का साहित्य 6,000 सूत्रों में, 12,000 चकोमें 6 लाख श्लोकों से परिपूर्ण 9 खंडो में पूर्ण लिखा गया है। 1953 में स्वर्गीय पंडित यल्लप्पा शास्त्रीजी ने 33 अधयाय प्रथम और दितीय भागों में कन्नड भाषा में मुर्दित करके प्रकाशन लिया। भारत के कन्नड राष्ट्रधियक्ष डॉ. बाबू राजेंद्र प्रसादजी ने यह ग्रंथ दुनिया के आचार्य जनक वास्तुओं में दसवां है। उनके आदेशानुसार इसे न्याशनल आरकैवसू (National Archives) में मैको फिल्म (Microfilm) के द्वारा शास्वत रूप में रखा गया है। भारत के अनेक अनेक विध्यानों ने इस ग्रंथ के बार में अपने अनमोल अभिप्राय व्यक्त किये है। ८. क्या दुनिया के सभी भाषाएं 'कर्नाटक से उत्पन्न हुए ? इस बात को सिरि भूवलय में उल्लेखित लिया हे कर्ण कान अटतीतिः अटक कान से सुनने के लिये कोई भाषा मधुर हो, वह 'कर्नाटक' इस तरह धोषित किया गया है। " गोलाकार, मुलायम, लिपि ही कर्नाटक " एक शून्य को भंग करके चारों तरफ धूमाकर निर्माण किया हुआ यह काव्य 'सिरिभूवलय' । इस ग्रंथ में सिर्फ एक शून्य में समस्त विश्व समा गया है। 'सिरिभूवलय' में प्रसारित सब धर्मों का सार शून्य - Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रारंभ होकर शून्य मे ही अंत होता है। "0" शून्य क्या है ? इस बात को सिरिभूवलय में गणित, वैज्ञानिक, खगोलशास्त्र, पारमार्थिक दृष्टि आदि अर्थ की उनकी शक्ति भक्ति और शान के अनुसार प्रसारित हुआ है। आधुनिक खगोल शस से प्रचारित विश्व (Universe) का जन्म (Big Bang theory of origin of Universe), दो शून्यों के बीच टकराव से उदभूत विधुत वेग में फैलता जाता है। इस पर हम विश्वास रखेंगें तो यह बात सिरिभूवलय में हजारों साल पहले ही कही हुई है। ९. सिरिभूवलय में बताया है लिख भी सकेंगें पढ़ाकर सुना भी सकेंगें। दशामिक अक्षर लिपि - फिर भी उसे ही लिख नही पायेंगे, लिखने पर पढ़ नहीं सकेंगें पहने पर भी सिध्द सिध्दांत भूवलय... इस लिपि को देव, मानव और पशु पक्षीयों की एक भाषा है। इस प्रकार नीचे दिये गये पंक्तियों में कहा गया है। कुमुदेंदु आचार्यजी का आशीर्वचन है- "दिविजराडुव रुक्कु धनुजराडुव रुक्कु दनद गोब्रामणेभ्यः शुभमस्तु” १०. भूवलय में आनेवाले आंक से तसम 64 ध्वनियों को अक्षर बनाकर एकेक चौकोर को विशिष्ट रीति से पढने से कन्नड पध काव्य उत्पन्न होता है । इसी पंक्ति के प्रथम अक्षरों को ऊपर से नीचे तक पढने से स्तंभ काव्य में प्राकृत है पांक्ति के मध्य अक्षर को (27 वां अक्षर) ऊपर नीचे तक पढने से स्तंभ काव्य में संस्कृत आता है। प्रथम अध्याय में तीन भाषाएं कन्नड, प्राक्रत और संस्कृत आती है। उसी तरह पृष्ठ संख्या 82 में द्वितीय खंड शैतावतार में सब पाक्तयां कन्नड पथ है और इसमे स्तंभ काव्य में प्रथम अक्षर के नीचे प्राकृत 9 वे अक्षर के नीचे संस्कृत, 27 वे अक्षर के नीचे तेलुगु और अंत के अक्षर के नीचे तामिल (तिरुक्कुरळ) मिलाकर पांच भाषाएं आती है। सिरिभूवलय काव्य के पथ्य रूप में कुछ ." इस प्रकार के चिन्ह है । इस चिन्ह के अंदर से अक्षर पढने से गध हो जाता है। आयुर्वेद, विज्ञान, ज्योतिष, अणुशास्त्र कामशास्त्र विषय इस गध्य रूप में आते है। भूवलय अध्याय के अंत तक अंतर पध्य को देख सकते है । इस अंतर पध्य का प्रथामक्षर, अंतिमक्षर और अंतिम अक्षर पिछले अक्षरों को कुछ सक्रमवर्ति से पढेंगे कुछ अक्रमवर्ति से पढेंगे तो रामायण, महाभारत के काव्यो को पा सकते है। भूवलय में और भी विशीष्ट है। ऐसे पुरातन ग्रंथ जो अब तक उपलब्ध नहीं है, उन्हें स्वर्गीय पंडित गप्पा शास्त्री जी ने खोज कर दिखाया है। सिरिभूवलय यह एकैक्य ग्रंथ है, क्योंकि इस ग्रंथ कि तुलना, सारे विश्व में किसी और ग्रंथ के साथ नहीं की जा सकती। इस ग्रंथ के प्रथम और द्वितीय भाग स्वर्गीय पंडित यल्लप्पाजी ने 1953 में प्रकाशित किया। अब तृतीय भाग की छपाई होनी चाहिये। ग्रंथ के प्रथम और दितीय भाग की कुछ प्रतिया मेरे पास है । अगर आमजनता चाहे तो 1.2, और 3 भाग एक साथ सरल और सुबोध रूप से मुद्रित कर सकता हूं, यह मेरा अटल विश्वास है । जैसी जनता की इच्छा हो ऐसा लिया जा सकता है। "सिरि भूवलय के बारे में एक विज्ञापन" सिरि भूवलय जैनों का विश्वकोश है। यह सारे विश्व को आश्चर्य चकित करनेवाला सर्वभाषापूर्ण सर्वधर्मपूर्ण और सर्वकालिन अपूर्व ग्रंथ है । यह सब ग्रंथों के सार सच्चों को अपने आप में समाकर, अनेक श्रेणीयों में बंधे गणित और गतियों में मिलकर 18 मुख्य भाषायों, 700 उपभाषाएँ अपने अंकाक्षर माध्यम से बंधा हुआ एक महान और अपूर्व ग्रंथ है। इस ग्रंथ से चुने हुए भागों को देखने से अनेक भाषाएं, धर्म, कला, आयुर्वेद, गणित विज्ञान, साहित्य इत्यादि अपने आप में ही एक वैशिष्ट को प्रदार्शित करते है। इन सब को इकठ्ठा करके आमजनता के सामने रखने का कार्य हमारा है। आगे के अनुसंधान कार्य को बहुत समय, कार्य और धन की आवश्यकता है। यह कार्य पिछले 40 वर्षो से स्तगित है। अगर आगे भी इसी तरह स्थगित रह गया तो यह अनमोल ग्रंथ काल में विलिन हो जायेगा। विध्वानों का अभिप्राय है, कि इस ग्रंथ की संपूर्ण सुरक्षा और अनुसंधान अति अवश्यक है। अब मेरे स्वर्गीय पिनाजी का 1940 में संपादिता, अहिंसायुर्वेद संध का रिपोर्ट है। इसके सिवा, कई आदरणीय व्याक्तियों की ध्वनिमुद्रित सिरिभूवलय के बारेमें अभिप्रित टेप है। स्वर्गीय पंडित एवप्पाजी के हस्तलिखित 60 बड़े चौकार, प्रदर्शन के मानचित्र (नक्शा, रूप रेखा) दिलि के (National Archives) न्याशनल आरकैक्स में रखे हुए (Microfilm) मैक्रोफिल्म के (Positives) पासिटिव और अब तक मुद्रि किया गया सिरिभूवलय का तीसरा भाग, मेरे पास है, और प्राकृत ग्रंथों का कन्नड अनुवादित हस्तलिपित पन्ने प्रकृत ग्रंथ मेरे पास है। इन सब को एक निर्णयित रूप में लाना ही हमारा अगला कार्य है । १. अब मुद्रण के लिये सिध्द हुआ 1,2 और तृतीय भागों का प्रति एक ग्रंथ का मूल्य 1,000/- इस धनराशि को (advance) के रूप में स्वीकार लिया जा सकता है। D. D. अथवा रोकड के रुप में श्री. एस. वायू. धर्मपाल के नाम पर भेज सकते है । २. इस विश्व विरव्यान ग्रंथ को 10,000 रू और उसके ऊपर दात या चंदा देने वालों का फोटो, पंडित एल्लप्पा शस्त्री के जीवन परिचय में उनका फोटो छपवाया जायेंगा। Translated by Smt. Usha Tukol Ph.D. ➖➖➖ 424 एम. वाय. धर्मपाल (दि. पंडित यल्लप्प शास्त्री के पुत्र) Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय = विद्वानों के विचार १. ब्रह्मर्षि देवरात वेदों के काल से ही चार गुप्त भाषाएँ हैं आर उन भाषाओं को आज तक किसी ने नहीं देखा है और किसी को नहीं दिखाया गया है ऐसा कहा जाता है। उन भाषाओं के प्रयोग को, मैंने भी कहीं नहीं देखा है। सिरि भूवलय का परिचय कराने वाले पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी का मैं चिर ऋणी रहूँगा क्योंकि पुरातन काल से ही किसी के भी न देखे या न दिखाए गए गुप्त भाषाओं का अनुभव उन्होंने मुझे कराया साथ ही वेदों में कहे गए बिन्दु, शून्य, रेखा, गणित विज्ञान तथा ऐसे ही कई अनेक विषयों ने मुझे आकर्षित किया है, यह मेरे लिए संतोष की बात है। सिरि भूवलय ग्रंथ में आने वाले अंकों से अक्षर और शब्द उन्हीं शब्दों से अर्थज्ञान और अक्षरों से शब्द, उन्हीं अंकों से गणित, गणित से तत्व ज्ञान, आदि वस्तु सिद्ध हैं । यह अंश वेदों में कहा गया वैशिष्ट ही है वरन इन्हें किसी ने भी देखा और दिखाया नहीं है। श्री पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी ने मुझे, इस अंकाक्षर स्वरूप के सिरि भूवलय में शून्य से नौ तथा शून्य अंक से १ से लेकर ६४ अक्षरों के योग से सिद्ध, वैदिक, तथा लौकिक शब्दार्थ तत्वों से परिचय कराया है । तपस्वी और प्राचीन ऋषियों के वेद मंत्र स्वतःसिद्धत्व ज्ञान से दिव्य भाव को प्राप्त किया था । इस प्रकार हजारों वर्षों के पूर्व ही श्री कुमुदेन्दु मुनि ने दिव्य ज्ञान से केवल अंक तथा रेखाओं से ही इस ग्रंथ को प्रकट किया था और यह उस काल से आज तक गुप्त ही था। श्री यल्लप्पा शास्त्री जी के ३० वर्षों का अविश्रांत परिश्रम सफल हो ऐसी कामना करता हूँ। स्याद्वाद भिष*मणि एम. यल्लप्पा शास्त्री श्री भगवत् कुमुदेन्दु मुनि - दिगबर जैनसमाज, उसमें भी दक्षिण देश के इस समाज में उसमें भी कर्नाटक जनपद में विश्व विख्यात अनेक दिगबर जैन मुनि आये-गए । उनके जाने के बाद भी उनके अद्वितीय, अनुपम, अमूल्य, अन्यत्र तथा अलभ्य साक्षात जिनवाणी-दिव्य वाणि को, परंपरा से हम अपने वारिसों के लिए घर- संपत्ति के छोडने की भाँति इस ज्ञान सागर =425 = Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय को केवल जैनों के लिए ही नहीं समस्त जीव राशी के लिए अथवा ३६३ ऐकांत मतों के लिए, छोड गए हैं । ऐसे लोग गिनती में अनेक होने पर भी वर्तमान में तीन कम नौ करोड हैं। आप भगवन की वाणि को कन्नड लिपि, अंक, रेखा, वर्ण, आदि साधनों को द्रव्य, क्षेत्र, तथा भाव आदि गणित शास्त्र से पता लगा कर अर्थात ६४ अक्षरों में अथवा उसी को शून्य में समाहित कर सुरक्षित रूप से रखा है। हुण्डावसर्पिणि नाम के कठिनतम काल दोष के कारण पवित्र जैन धर्म सीधे-सीधे जिनवाणि के संबंध को खो कर ज्ञान से वंचित हो, केवल दर्शन और इतिहास के द्वारा धर्म को रक्षित करते आए । फिर भी श्री गौतम आदि श्रुत केवलियों तक आए इस श्रुत ज्ञान को एक साथ गणित शास्त्र के अनुसार ६४ अक्षरों को घुमा कर तीनों काल तथा तीनों लोक के समस्त विषयों को, ९२ पृथक अंकों का घुमाते हुए आने के कारण से ही अंग तथा अंगबाह्य श्रुत को मिलाने वाले महात्मष्ट के उस मिलाकर रखे गए क्रम को सुलझाने और सुलझा खोल कर समझने के मर्म को नहीं लिख रखा अथवा लिख के नहीं रखा जा सका अथवा उन्होंने स्पष्ट रूप से लिख भी होगा तो हम समझ नहीं सके। इस कारण से कालक्रमेण में विद्वानों के द्वारा अक्रमवर्ति भगवद् वाणि को क्रमवर्ति मानने जैसे शोचनीय स्थिति आ गई । महा तपस्या के फल के कारण, शुद्ध चरित्र के फल स्वरूप, आत्म साक्षात्कार प्राप्त पाँच सम्यग ज्ञान सिद्धि प्राप्त उन सभी आचार्यों ने शोचनीय स्थिति में रहे जैनों के लिए केवलशास्त्र के, केवल ऐकदेश को अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग लिख रखा। इस कारण से मूल विषय, दिव्य ध्वनि का मूल कथन विस्मरित हो गया । इसे झूठ मानने के लिए जनता भी तैयार हो गई । बडे-बडे वैदिक संप्रदाय के महात्मा (श्री भट्टपादाचार्य ही) आदि ने इस कथन का खंडन ही किया । इस खंडन पर महातपस्वी दिगबंर मुनि श्री अकलंकचार्यजी के प्रतिखंडन को अनुमानादि परोक्ष तथा अपरोक्ष प्रमाणों से भी सिद्ध नहीं किया जा सका। इन्हीं कारणों से दिव्य ध्वनि अनादर की पात्र हुई। ___ एक बार यदि जैन गुरुओं ने विरोध किया तो, इस क्रिया से गुरुजी मेरे ऊपर नाराज हुए हैं ऐसा मान कर श्री भट्टपादाचार्य जी ने एक गड्ढे में गर्दन तक भूसा भरवा कर केवल सिर बाहर रख आग जला ली तब श्री शंकराचार्य जी ने उन्हें रोका। फिर भी उन्होंने अपने प्रायश्चित विधि को नहीं छोड़ा। इस बात से दिव्य ध्वनि को न मानने वाले यदि उन्होंने सिरि भूवलय को देखा होता तो उसी दिन से जैन तथा वैदिक मतों के प्रेम वृद्धि के हेतु प्रयत्न करते तुषाग्नि (भूसे के ढेर में आग लगा कर जल जाने का प्रायश्चित) से प्राण त्याग नहीं करते । लोक में सार्वत्रिक तथा सार्वकालिक स्वरूप से एक समय में =426 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय जन्म लेकर लोकोपकार में चित्त यह अनादिसिद्धांत उनके समय में ही इस हद तक अवहेलना झेल चुका था इस बात को स्मरण करें तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। सिरि भूवलय गंग राज चक्रवर्ती प्रथम शिवमार के समय काल में श्री कुमुदेन्दु गुरु के द्वारा, नंदी दुर्ग में उस पार लिखे जा रहे समय, इस पार अर्थात सिंहन गुहुगे अथवा श्रृंगगिरि में के पास-पास एक महात्मा के तुषाग्नि प्रवेष जैसे घोर हिंसात्मक घटना का घटना हुण्डा सर्पिणि काल दोष के कारण ही, ऐसा समाधान आज हम कर भी लें तो भी उस कराल काल के धार्मिक विप्लव को कैसे भूल सकते हैं। इसी कारण महर्षियों ने कालाय तस्मै नमः कहा होगा। इसी समय श्री गुरु मंडन मिश्र के निवास स्थान के आगे पिजरें में पालित तोता वेदों का पाठ करता था। वह कैसे संभव है? पूछा जाय तो सिरिभूवलय के द्वारा संभव है । दिव्य ध्वनि केवल नौ अंकों में लिखी गई है अभी हाल ही में अर्थात श्रवण बेळगोळ में आयोजित क्रिस्ताब्द १९५३ के गोम्मटेश्वर स्वामी जी के दिव्य विग्रह के महामस्तकाभिषेक के समय एक प्रदर्शन कर्त्ता तोते लाया था जिसमें से कुछ तोते १ से लेकर ९९ तक के किसी भी अंक को संकेत से कहे तो जोड कर अथवा घटा कर मिलने वाले लब्धांक को चोंच से मारकर दिखाते थे। इस पद्धति को मंडन मिश्र जानते थे। सिरिभूवलय कहे तो भी नौ अंकों के द्वारा ही बांधा (रचा)गया है। मंडन मिश्र इस नवमांक गणित पद्धति के क्रम को गणन गुणन पद्धति से वेदों को अंकों में नवमांक पद्धति से बाँधने (रचित) को गुरु कुमदेन्दु से अथवा अंतहर ग्रंथ से सीखा होगा ऐसा हम सोच सकते हैं । इसी कारण से तुषाग्नि के प्रभाव से ग्रसित श्री भट्टपादाचार्य जी ने श्री शंकराचार्य जी को संदेह निवारण के लिए नवमांक ग्रंथ को जानने वाले अपने सहपाठी श्री मंडन मिश्र जी के घर भेजा होगा । इतना ही नहीं श्रवनबेळगोळ में पहुंचे तोते ५ या ६ अक्षरों के अंग्रेजी लिपि के शब्दों को जोड कर देते थे कहने के पश्चात महामेधावी श्री मंडन मिश्र जैसे शिक्षकों से शिक्षण प्राप्त वे तोते संपूर्ण अंक नौ से गणनगुणन कर ९९ तक पृथक अंक बना कर देने के योग्य न भी हो तो, केवल ऋककु के १०३६८ मंत्रों को गुणन-गणन कर कहने में क्या बाधा है । जैनागम में समस्त पशुपक्षी भी दिव्य ध्वनि के द्वारा प्रकटित संवादों को सुन कर समझ कर श्री भद्रबाहु चंद्र गुप्त की भाँति समाधि मरण रूप सल्लेखन (निर्जल उपवास द्वारा प्राण त्यागना )को प्राप्त कर आत्म कल्याण को प्राप्त हुए, ऐसे अनेकों उदाहरण हैं । गुरु कुमुदेन्दु मुनि ने तोते को सिरिभूवलय सिखाया ऐसे कथन के लिए अनेक वाक्य मिलें है गोम्मटेश्वर स्वामी के बड़े भाई को भी पशु रूप में ही तो धर्म का ज्ञान हुआ था । सिद्धांत शास्त्र के कर्म -427 427 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय वर्गीकरण को वर्गित संवर्गित के द्वारा गणन-गुणन समस्त वेदों में परिवर्तित करने की महिमा मयी विद्या को क्षयोपशम रखने वाले कोई भी सामान्य जीव आज भी प्राप्त कर सकता है। दिव्य ध्वनि में आने की भाँति ही समस्त शास्त्रों को सिरिभूवलय के चक्रों के अंकों से निकाल सकने के क्रम को विश्वविद्यालय के विद्वान भारत के ग्रामों से लेकर दिल्ली तक, ग्रामवासी से लेकर राष्ट्रपति तक, सत्य सिद्ध में सिरि कुमुदेन्दु मुनि विख्यात हुए हैं। इतना ही नहीं इस अभिनंदन ग्रंथ के सम्मान को प्राप्त करने वाले स्वस्ति श्री नेमि सागर वर्णिजयवर से लेकर आचार्य आदिसागर, आचार्य शांति सागर, आदि ने गुरु कुमुदेन्दु मुनि की, उनके काव्य सिरि भूवलय की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । इतना ही नहीं आचार्य शांति सागर महाराज ने ताम्र पत्र पर लिखे प्रति की यथानुकूल मुद्रित एक हजार रूपयों की कीमत के बराबर श्री धवळ सिद्धांत, को सिरि भूवलय से मिलतेजुलते पाठ भेद का, समिति को जानकारी देने की आज्ञा देकर सर्वार्थ सिद्धि संघ को शास्त्र दान किया । स्वस्ति श्री नेमि सागर वर्णिजय होने पर भी, श्री अनंत सुब्बराव जी से विचार विमर्श कर सिरि भूवलय के विषय में जानकारी प्राप्त कर संघ के सदस्यों को आशीर्वाद दिया है ऐसा इसी ग्रंथ के एक और लेख में वर्णित है । उस समय में पूज्य दिवगंत श्री मंजय्या जी के द्वारा प्राप्त प्रोत्साहन आज भी अनंत सुब्बाराव जी के लिए अविस्मरणीय है। गुरु वीरसेनाचार्य तथा उनके शिष्य गुरु कुमुदेन्द गुरु । __षट्टखंडागम का टीका श्री धवल सिद्धांत के व्याख्यानकार श्री वीरसेनाचार्य इस कुमुदेन्दु गुरु को दिव्यज्ञानी कह कर अंतिम प्रशस्ति में श्री कुमुदेन्दु मुनि के सहोद्योगी भगवज्जिन्सेनाचार्य जी ने अपने हरिवंश पुराण में इनके दिव्य ध्वनि को मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। इतना ही नहीं आज के श्री कुमुदेन्दु गुरु के रचित गीत अति मधुर है, जिसकी पंपा आदि महाकवियों ने भी प्रशंसा की है । परन्तु, बनवासी देश के अर्थात हमारी रीति के कन्नड सांगत्य, भगवन के दिव्य वाणि को अपने में समाहित करने की शक्ति रखते हैं इस कथन को पुराण कवियों ने व्यक्त किया है । स्वयं कुमुदेन्दु गुरु भी, पादरस(पारा) जडों के रस को खींचने (सोखने) के भाँति, कन्नड भाषा के सांगत्य, भगवन के दिव्य वाणि के ७१८ भाषाओं को एक साथ संग्रहित कर पकडने में अथवा अपने गर्भ में समाहित कर लेने की अर्हता रखते हैं, कहते हैं । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय साधारण तौर पर जैन - वैदिक संप्रदाय के वेद संस्कृत अथवा प्राकृत में होने पर भी उस भाषा के वेद तथा पुराणादि को कन्नड लिपि में ही कन्नडिगाओं ने लिख रखा है यह ध्यान देने योग्य तथ्य है। बारह वर्षीय वीरक्षाम उत्तर देश आने पर अपने महाव्रत कोन होने से बचाने के लिए सम्राट चंद्रगुप्त के साथ १२००० संघ के साथ समृद्ध सूर देश के कळ्वप्पु -श्रवणबेळगोळ में पहुँच कर सल्लेखन (जैनों में मृत्यु प्राप्त होने नक निर्जल व्रत विधि) विधि से शरीर त्याग करने वाले अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के समय से लेकर श्री कुमुदेन्दु मुनि के समय तक सभी दिगबंर जैन सिद्धांत ग्रंथ अधिकतर कन्नड लिपि में ही उपलब्ध है उपरोक्त कथन के लिए यही साक्षाधार है। कन्नड भाषा के न होने पर सर्वभाषा मयी भाषा ग्रंथ को लिखना मुमकिन नहीं होता ऐसा स्वयं कुमुदेन्दु मुनि कहते हैं । इतना ही नहीं २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी जी को केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात ६६ दिनों तक दिव्य ध्वनि लहरी को प्रवाहित किए बिना मौन क्यों साधा ऐसा एक संदेह उत्पन्न होता है इसके लिए कन्नड को जानने वाले लोग समवसरण (केवलज्ञानी होने के पश्चात तीर्थंकर को ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुबेर द्वारा रचित मंडप) नहीं थे उसी कारण से स्वयं देवेन्द्र कन्नड देश में पधार कर उपायांतर (उपाय) से ऋगवेदादि चतुर्वेद में चतुर महर्षि गौतम को ले जाकर गणधर पदवी देने के पश्चात ही तो दिव्य ध्वनि चालित हुई थी । ऐसा क्यों हुआ ??? क्योंकि गौतम गणधर को कन्नड का ज्ञान था यही उत्तर होगा। इस बात के लिए महा पुराण में श्री जिनसेनाचार्य कहे हुए सांगत्य वाक्य ही साक्षी है। सेन गण के महामेधावी सभी आचार्य कृतयुग से, श्री वृषभ सेनगण से लेकर आज के कोल्हापुर, जिनकंचि तथा मधुगिरि इन तीनों पीठाधिकारी तक आया है। दिल्ली का सेनगण पीठ किसी कारणवश न होने पर भी, लाल किले के आगे लालमंदिर का सोने का मंदिर दिगबंर जैन मंदिर सेनगणों के कीर्ति स्तंभ की भाँति भीमाकार रूप से खड़ा है। इस गुम हुए मठ को पुनः स्थापित करना इन तीनों मठाधिपतियों का कर्त्तव्य बनता है । गृहस्थ जीवन में १६ संस्कारों को स्थिर कर शिक्षारक्षा के द्वारा जैन धर्म को शाश्वत रूप से स्थिर करने के लिए यह भट्टार (जैन संस्यासी) अवश्य होने चाहिए । श्री कुमुदेन्दु गुरु इसी सेन गण के आचार्य बन पीठासीन होने पर ( सिंह पीठ) उस समय के राजा शिवमारने गंगवंशके कीर्ति स्तंभ कहे जाने के समान अखंड भारत जय कर चक्रवर्ती बन हिमालया में कन्नड पिंछ ध्वज को फहराया। यह पिंछ ध्वज आज का मैसूर राज्य के महामहिम की जंबू सवारी ( दशहरा के समय आज 429 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय भी महामहिम राजा जी की हाथी सवारी को जंबू सवारी कहा जाता है) में देखा जा सकता है। श्री कृष्ण के काल से चले आ रहे दिगबंर मुनि के अत्युत्तम चिन्ह यह ध्वज एक बार कर्नाटक चक्रवर्तित्व का चिन्ह भी बना था। इस प्रकार गुरु कुमुदेन्दु ने अपने अद्भुत ज्ञानोपदेश के द्वारा कन्नडिगाओं को गौतम महर्षि के समान ही महोन्नत दशा को प्राप्त कराया। दिव्य ध्वनि विश्व के समस्त अक्रमवर्ति व्यवहार-चलन-वलन परस्पर विरोधी होने पर भी अंतरंगदृष्टि से देखें तो सभी सक्रमवर्ति रूप से ही दृष्टिगोचर होते हैं ऐसा स्पष्ट होता है। हमारी दृष्टि को अक्रमवर्ति दिखाई देने वाले उस पदार्थ की सक्रमता को कुमुदेन्दु ने प्रप्रथम अपने दिव्यज्ञान से देख-जान लिया । इस प्रकार देखे गए को तद्नुसार लिख रखने के समय जग के समस्त वस्तुओं को पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, सप्ततत्व, तथा नवपदाथों में सभी को मिलाया जाए तो ३वर्ग अर्थात ३४३=९५३=२७४३=८१४३=२४३४३=७२९ इस प्रकार वर्गीकरण करते हुए संयोग भंग के गणित पद्धति का प्रयोग कर अंतरंग में समा कर देखा । तब संक्षिप्त करते समय वे सभी एक में एक और मिलने पर संग्रहनय के द्वारा एक जीव और दूसरा अजीव। इस प्रकार कन्नड का एक+एक(१+१) मिलाकर समस्त विश्व की वस्तुओं को एक शून्य में समाहित कर दिया । अर्थात पूरी दुनिया को अपने अंतरात्मा में देख लिया। उस को पुनः खंडित कर वर्गित-संवर्गित करते हुए ६१७ पृथक अंकों को तीन (३) बार कह वर्गित संवर्गित राशी बना कर, उस राशी के प्रत्येक विश्व के ज्ञान को जान कर गणित पद्धति से ही अनंत राशी को प्राप्त कर एक एक अणु को एकएक शब्द के अनुसार चौंसठ(६४) ध्वनि में विंगिड (बाँट)कर प्रत्येक एक-एक ध्वनि में अति अल्प भवग्रहण में देखा ।इन सभी को एक माप में समाहित कर तीन लोक तथा तीन काल के जीवाणु तथा पुदगलाणु (अति सूक्ष्म, जैन मत के पाँच अजीव तत्व में एक) का हिसाब कर ७१८ भाषाओं में ३६३ मतों में ६४ कलाओं में बाँट कर, उन सभी को पुनः नवमांक पद्धति में अर्थात अरहंत ही आदि बन जिन बिम्ब के पर्यंत नवदेवताओं में संस्थापित कर दिव्य ध्वनि का अष्टमहाप्रातिहार्य रूपों में कर्माटक-कर्माषटक अर्थात आठ(८) कर्मों को कहने वाले समस्त भाषाओं में बाहर लाए। अनेक जैनाचार्य दिव्य ध्वनि के विषय में विस्तृत रूप से व्याख्यान करने पर भी उसे सार्वजनिकों के द्वारा स्वीकृत करने के भाँति स्वीकृत कर सत्य मान कर भक्ति के स्तर पर तर्कबद्ध रूप से सिद्ध नहीं ===430 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय किया। उस एक कमी को कुमुदेन्दु गुरु ने दूर किया । दिव्य ध्वनि सत्य है, यह भगवन के सर्वांग से, शंखनाद, समुद्र घोष, बादल गरजने बिजली चमकने की ध्वनि, आदि ध्वनि के भाँति निरिच्छापूर्वक सुनने वालों की अपेक्षा को पूर्ण करने के रूप में गूंजित होती है। तीनों लोक तथा तीनों काल समय के लिए समस्त को केवल अंतर्मूहूर्त अर्थात केवल सैंतालिस (४७) मिनटों में कहा गया है। इतने विशाल विषय को इतने कम समय में किस प्रकार कहना संभव है? ऐसा एक प्रश्न उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न का कुमुदेन्दु मुनि इस प्रकार उत्तर देते हैं कि आ इ उ और ए, की मात्राओं का संयोग किए बिना ही केवल एक अंक में एक और अंक को मिलाने के कारण ही अर्थात चौंसठ (६४) अक्षरों को नौ (९) अंकों से घुमाने के कारण ही ऐसा संभव हुआ है ऐसा अपने साथ १५०० दिगबंर विद्वान मुनियों को मार्ग में चलते-चलते उपदेशित करते थे। उदाहरण स्वरूप ५४x५४x३१/२ + १६२ = १०३६८ इतना कहने के साथ ही एक शिष्य ने, अभी मुद्रित किए गए संस्कृत भाषा के दिगबंर जैन संप्रदाय के निर्वाण कांड के साथ भगवद गीता में अक्षरों को परिवर्तित कर उन अक्षरों को अंकों से पहचान कर चक्रों में भर कर १६२ श्लोकों को गुरु के सम्मुख प्रस्तुत किया । इसी प्रकार एक और मुनि ने कुमुदेन्दु मुनि को १६२x६४ = १०३६८को दिया । इसे उन्होंनें पृथक कर दस (१०) मंडलों में, प्रथम मंडल में आठ में एक भाग का १०३६८ ऋगवेद के सूत्रों को निकाल, चक्रों में भर गुरु के सम्मुख प्रस्तुत किया । इसी प्रकार अलग-अलग अकों को मिलाने के फलस्वरूप १५०० शिष्य मुनियों ने गंधहस्तिमहाभाष्य, तत्वार्थसूत्र, ऐसे ही चौदह (१४) पूर्वों को बारह (१२) अंगों को सभी को अलग-अलग पृथक कर चक्रों में भर गुरु को अर्पित किया। इस प्रकार अपने शिष्यों से प्राप्त अंकों के समस्त वेदसाहित्य को विज्ञान तथा गणित में समाहित कर, ऊपर कहेनुसार एक अंतर्मूहूर्त में एक साथ एक ही समय में मिलाकर आज मुद्रित एक ही चक्र में अर्थात सात सौ उन्नतीस (७२९) खानों में भरा। इसे कैसे भरा होगा? वह गणित कौन सा है ? हम स्पष्ट रूप से न भी व्यक्त कर सकें तो भी हमने चौंसठ (६४) अक्षरों को उतने ही बार संयोग भंग करने के कारण बियानबे (९२) पृथक अंक का मिलना सही है या नहीं इसे तुलना कर लगभग एक वर्ष तक ६४ पृष्ठों को लिख कर तैयार किया है। यह अनेक अंकों के साथ एक चित्र कला के रूप में प्रतीत होता है। बारह (१२) अंग वेद, चौदह (१४) पूर्व, ऋगवेदादि समस्त सभी वेद के साथ समस्त विषयों को हम अल्पज्ञ समझने में समर्थ न भी हों तो, उन सभी को जड सहित पकड कर आखिरी 431 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय स्तर दिव्य ध्वनि में रहने वाले अंक केवल इतने ही हैं । इतने में ही समस्त को समाहित कर सकते हैं अथवा कोई महामेधावी बालक जन्म लेकर केवल साढे आठ वर्ष की आयु में इन सभी को अक्षर रूप में परिवर्तित कर दिव्य ध्वनि के प्रत्यक्ष रूप को कुमुदेन्दु की भाँति ही देख कर जग का उद्धार करें ऐसी महान आशा के साथ संघ के सदस्यों ने एक वर्ष तक अविश्रांतश्रम का वहन किया है। यह जग के लिए उपयोगी सिद्ध हो तो, हम धन्य होंगें। पंडित माडि चीमनहळ्ळि रघुनाथचार्य __ अ) हमारे इस संक्षिप्त परिचयात्मक लेखन में जितना हो सके उतना जनता को समझाने का प्रयत्न किया जा चुका है । इस ग्रंथ का अभ्यास करते जाए तो सभी प्रकार की जनता को अर्थात कवियों को, मुनियों को, ज्ञानियों को, तथा अनेक कलाविद्याभ्यासियों को अत्यंत गहन, गहरा, गंभीर, अपूर्व तथा काल चक्र में न हुए सभी विद्याओं के संपूर्ण विचार, संपूर्ण ऋगवेद, आयुर्वेद, ज्योतिष्य, आदि सभी इस ग्रंथ के द्वारा लभ्य हैं, ऐसा जान सकते हैं। वेदों के लिए तीन अर्थ, भारत के लिए दस अर्थ, विष्णु सहस्रनाम के लिए सौ अर्थ हैं यह प्राचीन है। इस प्रकार यह सभी आज की दुनिया में अनजान कारणों से अपूर्ण, अस्प तथा काल गर्भ में लुप्तप्राय से होकर इनको पहचानने या फिर कहने वाले न के बराबर हो गए हैं ऐसे में सिरि भूवलय ग्रंथ को संशोधित कर कन्नड की जनता के सम्मुख रखने वाले दिवंगत पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी का आमरणांत अविश्रांत परिश्रम श्लाघनीय और अभिनंदित है। और सर्वार्थ सिद्धि संघ के सदस्यों के द्वारा हाथ में लिया गया कार्य सफल हो तथा श्री के. अनंतसुब्बाराव जी का नेतृत्व श्लाघनीय है। आ) अत्यद्भुत सप्तशत (७००) भाषामय ग्रंथ त्रयोर्थाः सर्ववेदेषु दशार्धाः सर्वभारते। विष्णोः सहस्रनामापि निरंतर शतार्थक।। अर्थात सर्वभाषामय यह ग्रंथ, सर्व वेद तथा सर्व भारत के सार को समाहित किए हुए विष्णु सहस्र नाम के भाँति निरंतर भावों से भरित है। 432 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय वेदों के लिए तीन अर्थ, भारत के लिए दस अर्थ विष्णु सहस्र नाम के लिए सौ अर्थ हैं ऐसा प्राचीन प्रवाद (किंवदंति, जनश्रुति) है। संस्कृतवाङ्मय में सभंग, अभंग, श्लेषभेद के द्वारा नानार्थक नळचंपु, हर्षचरिते, कादंबरी, वासवदत्ता, रुकमणिविजय, आदि अनेक काव्य उपलब्ध हैं। तीन-चार अर्थों वाले अनेक श्लोकों को तीर्थप्रबंध, रुक्मणीशविजय, माघ काव्यों में भी देखा जा सकता है। नैषध काव्य का पंचनळी नाम से प्रख्यात तेरहवें सर्ग में पाँच अर्थों से भरित श्लोक भी उपलब्ध होते हैं। उन एकएक पद के लिए विविधार्थ व्यक्त करने के भाँति रचे गए हैं। परन्तु एक ग्रंथ, भिन्न- भिन्न क्रमानुसार अलग अलग रीति से पढे तो अनेक भाषात्मक रूप से अलग-अलग अर्थ का बोध कराते हैं ऐसा हमने कभी सुना ही नहीं है तो फिर देखने का सवाल ही उत्पन्न नहीं होता किन्तु हमारी भारत भूमाता लोकोत्तर प्रभाव से भरित महामेधावी, बहुज्ञान शक्ति बुद्धि शक्ति से परिपूर्ण, उस आश्चर्यकर उत्तम पुरुष रत्न को जन्म दिया होगा ! अभी उस प्रकार का आज तक अदृष्ट श्रुतपूर्वक विस्मय को प्रमोद (आनंद) का अनुभव कराने वाला ग्रंथ रत्न, भारत देश में प्राप्त होने का समाचार सुन कर हर भारतीय संतोष का अनुभव करेगा ! मैसूर नगर वासी पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी दिल्ली नगर के कर्नाटक संघ में इस अद्भुत ताळ पत्र (पत्र, लिखित काव्य ) ग्रंथ को दिखाया, वह ग्रंथ लगभग ९०० वर्ष पूर्व ही जैन विद्वान द्वारा लिखित, उसमें भारतीय कला, नागरिकता, वैद्य, गणित, आदि विविध विषय हैं, यह ग्रंथ सप्तशत भाषाओं के द्वारा पढा जा सकता है, बाँयीं तरफ़ से पढ़ा जाए तो कर्नाटक भाषा की कविता बनेगी, प्रतिपक्ति के प्रथम अक्षर को पढे तो प्राकृत भाषा की कविता, मध्याक्षरों को ही मिलाकर पढा जाए तो संस्कृत श्लोकों को स्पष्ट रूप से पढा जा सकता है, ऐसा उल्लेखित है, ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है । आहा ! इस ग्रंथ कर्त्ता का वैदुष्य (विद्वत) कितना अगाध और अपूर्व होगा क्या कहें ? ग्रंथ निर्माण शैली अनुपम ! आश्चर्य! सैकडों भाषाओं को जान कर उनके अभिप्राय को श्लोक रूप में काव्य रीति में ग्रंथ को रच कर अलग-अलग भाषाओं में उस एक ही ग्रंथ को, श्लोक को, पँक्ति को पढने की रीति में रचना करना, रचनाकार कवि की प्रतिभा प्रभाव अत्यंत श्रेष्ठ ही होगी न ? इस अपूर्व अद्भुत ग्रंथ को श्रीमान यल्लप्पा शास्त्री जी महाशय जितना हो सके उतनी क्षिप्रता (शीघ्रता) से प्रकाश में लाकर प्रचार कर भारत की कीर्ति को अधिक से अधिक प्रकाशित करें ऐसी आशा करता हूँ । सर्व भाषाभिमानी, श्रीमंत (धनी) और बुद्धिमान 433 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय जन, इस पंडित तथा इस ग्रंथ के विषय को जान कर इस अन्यादृश्य(असाधरण) काव्य को प्रकाश में लाएँ यह उनका आद्य (प्रथम) कर्त्तव्य है । इ) सिरि भूवलय (श्री कुमुदेन्दु गुरु विरचित) श्री वीरसेनाचार्यवर्योपदि श्री कुमुदेन्दु विरचित सर्वभाषामयी काव्य, यह कवि लगभग सन् ८०० में रहे, इसे अंकों में गणित पद्धति में गणन-गुणन कर अंकों में ही लिखा, इस अंक जाल को अक्षर बनाकर प्राप्त अक्षरों से ७१८ भाषाएँ, ३६३ मत, ६४ कलाएँ, ९ अंकों का समन्वय किया है ऐसा विवरण किया गया है। यह विश्व का दसवाँ आश्चर्य है ऐसा विश्व के वृत्तपत्रों, तथा कलाकारों का मत है। ७१८ भाषाओं को कन्नडकाव्य में समाहित करने के लिए कवि कुछ बंधो का प्रयोग करते हैं । चक्रबंध, हंसबंध, पद्मशुद्ध, नवमांक बंध, परपद्म, महापद्म, द्वीप, सागर, पल्या, अंबु बंध, कामन पदपद्म, नख, चक्र, सीमातीत, लेक्क(गणीत) बंध, आदि से इस काव्य को बाँधा गया है, श्रेणी बंध में बंधे कन्नड काव्य के प्रथम अक्षर को ऊपर से नीचे की ओर पढे तो प्राकृत काव्य की उत्पत्ति होती है। मध्याक्षर अर्थात २७वें अक्षर में संस्कृत काव्य की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार बंधों को अलग-अलग रीतियों में देखते जाए तो विविध बंधों में बहुविध भाषाओं की उत्पत्ति होगी ऐसा कवि कथन को सम्पादक श्रीमान शास्त्रीजी साहस व धैर्य से, भूगर्भ में खानों में पत्थरों के बीच दबे-छिपे आश्म(पत्थर) सत्व कहे जाने वाले स्वर्ण को भेदित-शोधित कर शुद्ध कर उत्तम स्वर्ण को जनता के सम्मुख प्रस्तुत करने की भाँति आसक्त साहित्यकारों के सम्मुख रख महोपकार किया है। भविष्य में आने वाले ग्रंथों में विशेष विवरणों को दिया जाएगा ऐसी आशा अति श्लाघनीय है । महाकवि कुमुदेन्दु के बाँधे गए कन्नड भूवलय में प्रयोग किए गए भाषाओं में प्राकृत, संस्कृत, द्रविड, आंध्र, महाराष्ट्र, मलेयाळ, गुर्जर, अंग, मंग, कलिंग, काश्मीर, कंभोज, हम्मीर, शूरसेनी, पाली, तेबति, वेंगि, ब्राह्मी, विजयार्ध, पद्म, वैदर्य, वैशाली, सौराष्ट्र, खरोष्ट्रि, निरोष्ट्रि, अपभ्रंश, पैशाचिक, रकाक्षर, अरि , अर्धमागधि, और अरस, पारस, सारस्वत, बारस, दश, मालव, लाट, गौड, मागध, विहार, उत्कल, कन्याकुब्ज, वराह, वैश्रमण, व्दांत, चित्रहर, यक्षि, राक्षसी, हंस, भूत, ऊहिया, यवनानि, तुर्कि, दमिळ, सैंधव, मालमणीय, कीरिय, देवनागरी, लाड, पारसी, अमित्रिक, चाणक्य, मूलदेवी, आदि विविध भाषा और लिपियों को नवमांक सरमग्गि (पहाडा, गुणन सूची) कोष्टक बंधनांक प्रकार में समाहित कर रखा है ऐसा संपादक ने अपने सविस्तार संपादकीय में उदाहरण सहित अच्छी तरह से प्रतिपादित कर 434 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय पाठकों का उपकार किया है। कवि काल, प्रयोग किए गए भाषा, छंद, काव्य धार्मिक दृष्टि, ग्रंथ के मूल विषय का विवरण, का भी निरूपण किया है। आदि तीर्थंकर वृषभ देव की पुत्रियाँ ब्राह्मी के ६४ अक्षरों के वर्णमाला में समस्त भाषाएँ हैं, सौन्दरी के अंकों को ही वर्गपद्धतिनुसार मिलाते हुए विश्व के सकल अणुपरमाणु की गणना के लिए पर्याप्त है, ब्राह्मी के अक्षर ही सौन्दरी के अंक और सौन्दरी के अंक ही ब्राह्मी के अक्षर हैं ऐसा दिखाते हुए, इस पद्धति को ही समस्त शब्द समूहों के लिए, प्रत्येक ध्वनियों के लिए, प्रतिध्वनि को अक्षर संकेत रूप में परिवर्तित कर अंकाक्षरों को चक्रबंध रूप में प्रप्रथम गोम्मट के द्वारा समस्त शब्दागम शास्त्र के रूप में रचित हुआ उसका ही अनुकरण करते हुए कुमुदेन्दु ने अपने ग्रंथ की रचना की ऐसी जानकारी प्राप्त होती है। जैन कवि कुमुदेन्दु विरचित अंक काव्य सिरिभूवलय, ताल-लय से संयोजित ६००० सूत्रों में, ६ लाख श्लोकों में रचित हुआ है, चत्ताण(चतुःस्थान) को सांगत्य रूप में भी बदंडों का प्रयोग कर अंतर काव्य श्रेणी के दंड रूप गद्य साहित्य में भी रचित हुआ है, जानकारी मिलती है। संपूर्ण जगत में यही एकमात्र अंकराशी ग्रंथ है ऐसा कहने में कोई विघ्न नहीं है। ऐसा ग्रंथ विश्वव्याप्ति किसी और भाषा में नहीं है कह सकते हैं । इसके पाठक अति दुर्लभ है। लगभग ११५० वर्ष पूर्व रचित इस सर्वभाषा मयी काव्य में प्राकृत, संस्कृत, कन्नड, अर्धमागधी, पाली, शूरसेनी, लाड, तेलगु, तमिल, आदि किस प्रकार समाहित हैं उसे अनुलोम, प्रतिलोम, अप्रतिम लोम के द्वारा पढने पर लाखों-करोंडों साहित्य समाहित है इसे स्वयं पढकर, लिखकर, और फिर मुद्रित कर जनता के सामने प्रस्तुत करने वाले पंडित श्रीमान यल्लप्पा शास्त्री जी, संपादक श्रीमान श्रीकंठैय्या जी अभिनंदनीय हैं । कन्नड जनता के प्रति हमेशा कार्यरत इनके लिए सर्वभाषाभिमानी कृतज्ञ हैं इतना ही नहीं सर्वविधि से इनके इस शाश्वत देवमान्य कार्य को संपूर्ण होने में सहयोग और उत्तेजना देना उचित होगा, ऐसी आशा करते हैं । पंडित सुधाकर चतुर्वेदीजी दिवगंत स्याद्वादशिरोमणी, पंडित, वेदरत्न, वेदवारिधि, वेदश्री, तर्कालंकार यल्लप्पा शास्त्री जी के सुपुत्र श्री धर्मपाल जी ने मुझसे सिरि भूवलय के विषय में अभिप्राय को देने का आग्रह किया। -435 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय मेरा अभिप्राय :- सिरिभूवलय स्याद्वादशिरोमणी जी को प्राप्त अमूल्य संपत्ति है। आचार्य कुमुदेन्दु जी की यह रचना एक असाधरण चक्र बंध है। नाना अंको से बने इस चक्र में ७०० से भी अधिक भाषाओं को पढा जा सकता है कहा गया है। वंशपरंपरागत रूप से प्राप्त उस अलौकिक निधि को सुरक्षित रखने के साथ-साथ उस के प्रसार के हेतु श्रम उठाने वाले श्री धर्मपाल जी का पुरुषार्थ वास्तव में प्रशंसनीय है। दिवगंत श्री कर्लमंगलम श्रीकंठैय्या जी आदरणीय स्याद्वादशिरोमणी, हमारे विश्वेश्वरपुरं आर्य समाज के बरामदे में बैठ कर सिरिभूवलय की गूढ भाषा को सुलझाने, समझने के प्रयास को मैंनें स्वयं देखा है। दिवंगत श्री कंठैय्याजी ने मुझसे एक बार आचार्य कुमुदेन्दु कन्नडिगा । हमने कन्नड को समझने का यत्न करते समय आदिभगवद्वाणि ऋगवेद उसमें तुम्हारी इच्छानुसार किसी भी कला को पढ लो ऐसा वाक्य प्रकटित हुआ ऐसा कहा । श्री धर्मपाल जी ने गीता श्लोकों को पढ कर दिखाया है। कुल मिलाकर सिरिभूवलय एक असाधरण कृति है ऐसा कहने में संदेह नहीं है । श्री धर्मपाल जी ने उलझी हुई पहेली की भाँति रहने वाले सिरि भूवलय के रहस्य को बहिरंग कर, कन्नडांबे (माता) के लाडले पुत्र आचार्य कुमुदेन्दु के दिव्य वेदशक्ति का परिचय संपूर्ण जग को दिखाने का सामर्थ्य श्री धर्मपाल जी को विश्व चेतना प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना करता हूँ । डॉ. एस. श्रीकंठशास्त्री जी संशोधन लेखन :- भूवलय में जैन गणित; केवल कर्नाटक साहित्य में ही नहीं वरन विश्व साहित्य में भी अत्यंत आश्चर्यकर ग्रंथ सिरिभूवलय में कुमुदेन्द नाम के कवि समस्त शास्त्रों को संग्रहित करने के लिए नवमांक गणित पद्धति का अनुसरण करते हैं । कुमुदेन्द, राष्ट्रकूट चक्रवर्ति अमोघवर्ष तथा गंगराज सैगोट्ट शिवमार के भी गुरु थे तथा वीरसेनाचार्य के शिष्य और जिनसेन के मित्र थे ऐसा माना जाता है। अपने भूवलय ग्रंथ में वीरसेन का धवळाटीका का अनुसरण कर गुरु से भी अधिक ज्ञानार्जन प्राप्त किया ऐसा कहा जा सकता है। इस बृहद्ग्रंथ को संख्या- अंकों में ही विविध बंधों में सूचित किए होने के कारण कवि के मार्ग को समझने के लिए सर्वतोमुख ज्ञान का होना आवश्यक है । यह केवल कुतूहल जनक ग्रंथ नहीं है | साहित्यकारों के लिए, दार्शनिकों के लिए, वैज्ञानिकों के लिए, सर्वमताभिमानियों के 436 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय लिए, इष्ट विषयों को समझने क लिए, विमर्शन करने के लिए, अनुशीलन करने के लिए, उपयुक्त ग्रंथ होने के कारण इस प्रकार के विस्तृत ग्रंथों के लिए आधार भूत गणित पद्धतियों का, विशेषज्ञों को चर्चा-परिचर्चा करनी चाहिए। ज्ञातव्य ही है कि गणित शास्त्र में स्थान निर्णय (place value) तथा शून्य को भारतीयों ने ही ढूंढ निकाला। ईसा पूर्व २०० से भी पहले शून्य को निर्देशित करता हुआ वृत चिन्ह भारत में दृष्टिगत हुआ है। लुप्त अंक को ब्याबिलोनिय, मायासंस्कृति में गुणा करने का चिन्ह अथवा किसी और चिन्ह का प्रयोग करने पर भी स्थान निर्णय के न होने पर गणित शास्त्र को आगे नहीं बढ़ाया जा सका । अमेरिका में दिखाई देने वाले मायासंस्कृति के लिपि में कालगणना तथा पंचाग दिखाई देते हैं। इसमें विंशतिगणना ( vigesimal) के होने पर भी शून्य को शंख के समान चिन्ह से सूचित किया जाता था। परन्तु स्थान निर्णय के ज्ञात होने के विषय में संपर्क आधार नहीं मिले। माया संस्कृति ईसापूर्व २५०-३०० से पहले का नहीं है यह निश्चित होने के कारण अभी तक जानकारीनुसार इन मायाजनवासियों की पूर्व संस्कृति कैसी रही होगी इस संदर्भ में अमेरिका खंड में कोई भी जानकारी प्राप्त न होने के कारण भी संपूर्ण रूप से विकसित माया संस्कृति के जन ईसा सन् १-२रे सदी मे किसी और देश से आकर वहाँ स्थापित हुए होंगें ऐसा अंदाज लगाया जाता है। भारतीय संस्कृति का इस माया संस्कृति पर प्रभाव पडा है ऐसा कहने के हेतु कुछ निर्दशन प्राप्त होने के कारण बहुशः गणित पद्धति को मायाजनवासियों ने भारतीयों से ही अंगीकृत किया होगा। इस विवादास्पद अंश को नज़र अंदाज कर दिया जाए तो भारतीय गणित ही दुनिया में प्राचीनतम गणित है कहा जा सकता ___ भारतीय गणित की परिभाषानुसार शून्य अर्थात, अभाव, तुच्छ, असंपूर्ण, और दोष आदि चार अर्थ हैं लेकिन अध्यातमक दृष्टि से देखा जाए तो शून्य का अर्थ, संपूर्ण माना जाता है। शून्य से गुणा करें या विभागित करें तो भी उसका अनंतत्व व्यक्त होगा ऐसा गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त, भास्कर, कृष्ण गणेश आदि महानुभावों ने कहा है । महावीराचार्य ने गणित सागर संग्रह में, एक से लेकर नौ तक संख्यानुसार ही शून्य भी एक संख्या है कहा है। शून्य से भागित किया जए तो अनंतत्व प्राप्त होगा ऐसा सातवी सदी के ब्रह्मगुप्त ने प्रप्रथम निश्चित किया ऐसा माना जाता है। महावीर ने नवीं सदी में शून्य से विभागित किया जाए तो संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होगा ऐसा गलत अभिप्राय व्यक्त किया है। ब्रह्मगुप्त ने ऋण अथवा धन संख्या को शून्य से भागित किया जाए तो तच्छेद होगा ऐसा -437 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) कहते हैं। तच्छेद अर्थात भाजक संख्या (a:/0=/)। बारहवीं सदी के भास्कराचार्य ने परिमित संख्या को शून्य से विभागित किया जाए तो खहर प्राप्त होगा परन्तु यह खहर अनंत राशी होगी, ऐसा कहा है । ओह्म के कहेनुसार अ शून्य नहीं है ब शून्य है ऐसा सोचने पर अ/ब का कोई अर्थ नहीं निकलता । फिर भास्कर ने अनंत के लिए किसी भी परिमित संख्या को जोडे या घटाए तो परिवर्तन नहीं होगा ऐसा निश्चित किया । अ/० + ब=अ/०(यहाँ अ और ब परिमित) कृष्ण ने (१६ वीं सदी में) खहर अंश अनंतत्व सूचक हो परिमित संख्या के धन ऋण व्यापार से कोई भी परिवर्तन को प्राप्त नहीं होगा ऐसा निर्धारित किया । अ/० + ब/क=अ/0+बx०/त*0%आ+0/0-अ/ तथा अ/०+ब/0=अब/०=अनंत इस प्रकार भारतीयों ने खछेद अथवा खहर( शून्य से भाग किया हुआ) को अनंत कह कर व्यवहार में उपयोग किया। वीरसेनाचार्य के धवळाटीका में ग्यारह प्रकार के अनंत को निर्देशित किया है: १.नामानंत, २.स्थापनानंत, ३.द्रव्यानंत, ४.गणनानंत, ५.अप्रादेशिकानंत, ६.ऐकानंत, ७.उभयानंत, ८.विस्तारानंत, ९. सर्वानंत, १०.भावानंत, ११.शाश्वतानंत जैनगणित में संख्या अर्थात जिसे वचन से निर्देशित किया जा सकता है । अंक अर्थात चिन्ह। मानों में गणितमान को संख्यात, असंख्यात, तथा अनंत आदि में विभाजित किया गया है। जैन अभिप्रायानुसार एक (१) संख्या नहीं है दो(२) से संख्याएँ (ऐकादीयागणणा,बीयादीया हवन्तिसंखेज्जात्रिलोकसाए.१६)। इन तीन प्रकार के गणित मान में संख्यात को जघन्य, मध्यम,और उत्कृष्ट आदि तीन रूप में भागित किया गया है । असंख्यात को परीत,युक्त,और असंख्यातासंख्यात स्थूल रूप में विभागित कर, इन्हें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप में पुनः भागित किया गया है। इसी प्रकार अनंत को परीत,युक्त और अनंतानंत तीन प्रकार से, इन एक-एक प्रकार में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भाग किए गए हैं। जघन्य और उत्कृष्ट कहने से एक ही संख्या निर्देशित हुई है। ईसा पूर्व २री सदी स्थानांगसूत्र में रेखा गणित का अनुसरण कर पाँच प्रकार के अनंत कहे गए हैं ऐकोत्योनंत, द्विधानंत, देशविस्तारानंत, सर्वविस्तारानंत तथा शाश्वतानंत। असंख्यात की गणना करने के लिए सर्वज्ञ को भी असाध्यकर हो तो भी उसे माना जा सकता है परन्तु अनंत के लिए कोई सीमा नहीं है। 438 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय संख्याविशेषातीत्वादसंखेयाः तदनुपलब्धेरसर्वज्ञत्वप्रसंग इति चीन्न तेनात्मनावसितत्वात (तत्वार्थराजवार्तिका ५.८.१३) इस प्रकार गणितमान में १.जघन्य संख्यात (२), २.मध्यम संख्यात (3,4, III-1), ३.उत्कृष्ट संख्यात (III IV-1), ४.जघन्य परीत असंख्यात(करणसूत्र), ५. मध्यम परीत असंख्यात(IV+1, IV+2 V-1), ६.उत्कृष्ट परीत असंख्यात(VII-1) ७. जघन्य युक्त असंख्यात( IV".), ८.मध्यम युक्त असंख्यात (VII+I, VII+2 IX-1), ९.उत्कृष्ट युक्त असंख्यात (x-1), १०. जघन्य असंख्यातासंख्यात (VII), ११.मध्यम असंख्यातासंख्यात (x-1, X+2, XII-1), १२.उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात (XIII-1), १३.जघन्य परीत अनंत (करण सूत्र) १४.मध्यम परीत अनंत (XIII+1, XII+2, xv-1), १५.उत्कृष्ट परीत अनंत (XVI-1), १६. जघन्य युक्त अनंत (XIII x XIII), १७.मध्यम युक्त अनंत (XVI+1, XVI+2.. XVIII-1), १८. उत्कृष्ट युक्त अनंत (XIX-1), १९ जघन्य अनंतानंत (XVI-2), २०. मध्यम अनंतानंत (XIX+1, XIX+2 XXI-1), २१. उत्कृष्ट अनंतानंत (केवल ज्ञान के अंश) सूर्यप्रज्ञप्ति, त्रिकोलप्रज्ञप्ति आदि जैन ग्रंथों में इन संख्या को सिद्ध करने के उदाहरण मिलते हैं । IV को थे (जैन परीत असंख्यात) को प्राप्त करने के लिए निम्न उदाहरण मिलता है । अ, ब, ग, ड, चार गढों (गड्ढा) प्रथम भूमि भाग में खोदा जाए तो पहले अ गढे में-१९७, ७११, २९३, ८५५, १३१, ६३६, ३६३, ६३६, ३६३, ६३६, ३६३, ६३६, ३६३, ६३६, ३६३, ६ ४/,, इतने सरसों के दाने भरे जा सकते हैं ऐसा हिसाब लगाया गया है। खंडानंतर में भी गढों को खोद कर आखिर 'ड' गड्ढा पूर्ण होने पर पिछले ग गड्ढे में भरे जा सकने वाले सरसों के दानों की संख्या क्ष माना जाए तो वह जघन्य परीत असंख्यात अर्थात (IV) ____VII (जघन्य युक्त असंख्यात) को प्राप्त करना हो तो IV को पृथक कर, जितने एक अंक आएंगे उन्हें लिख कर, प्रत्येक के ऊपर IV को देय बना कर रखना चाहिए। इन देय को गुणा करें तो जघन्य युक्त असंख्यात प्राप्त होगा IVi" = VII IViv? =VII2 IViv2 = x 439 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय X इसमें शलाक त्र्यनिष्ठापन नाम के करणसूत्रानुसार, शलाक, पृथक तथा देय को करते जाए तो XI (मध्यम असंख्यात) का एक प्रकार प्राप्त होगा। इस XI राशी में पुनः ६ राशियों को मिलाकर शलाकत्र्यनिष्ठापन किया जाए तो एक और प्रकार का XI प्राप्त होगा (XII)। इस XII में चार राशियों को जोड कर शलाकत्र्यनिष्ठापन किया जाए तो XIII (जघन्य परीत अनंत) प्राप्त होगा। ___XVI (जघन्य अनंत) कहा जाने वाला XIII बना है। और (XIII) कहा जाने वाला जघन्य अनंतानंत (XIX) बनेगा । उसको शलाकत्र्यनिष्ठापन करें तो Xx (मध्यम अनंतानंत) प्राप्त होगा। इसमें Xx) ६ राशियों को जोड कर, शलाकत्र्यनिष्ठापन करें तो Xx का एक प्रकार प्राप्त होगा (xx.) इस XXI ६ राशियों को मिला कर शलाकत्र्यनिष्ठापन करें तो का एक और प्रकार का xx प्राप्त होगा। (xx =oc)। केवल ज्ञान की संख्या में अविभागी प्रतिच्छेद के अनुसार इस संख्या को घटा कर उसको शेष में मिलाए तो केवल ज्ञान का उत्कृ अनंतानंत XXI संख्या प्राप्त होगी। वीरसेनाचार्य के धवळाटीका में वितत-भिन्न प्रयोग से संख्यात, असंख्यात , अनंत, अनंतानंत, गणना क्रम को कहा गया है। और वीरसेन ने आगम विस्तार को कहते समय विन्यास तथा समुच्चय (permutation and combination) के द्वारा भंगों को निर्देशित किया है। भंगों में स्थान भंग और क्रमभंग दो प्रकार हैं। १.२४३* ४......... अ = उद्दिष्ट राशी ३३ व्यंजन, २७ स्वर, क्ष आदि ४, कुल ६४ अक्षरों में, एक-एक, दो-दो, तीनतीन, इत्यादि स्थान भंग किया जाए तो २६४१ पद प्राप्त होंगें। कुमदेन्दु, वृषभ तीर्थंकर के द्वारा ब्राह्मी को दिए गए ६४ अक्षर, सौन्दरी को दिए गए शून्य अथवा नवमांक एक ही हैं, कहते हैं। अट्ठारह महाभाषाएँ, अट्ठारह मुख्य लिपि, ७०० क्षुल्लक(लघु) भाषाएँ सभी को अक्षरांक गणित में उतार दिया है। गोम्मट देव ने भूवलय काव्य को नवमांक पद्धति में चक्रबंध रूप में भरत को एक अंतर्मुहूर्त में उपदेशित किया । यह चक्र ५१०२५०००+५००० =५१०, ३०००० अंक, अथवा अक्षर अथवा दलों को समाए हुए था। अनंतर में गौतम गणधर से परंपरा से आए शास्त्र को ६००० सूत्रों में, ६,००,०००ग्रंथों में कुमुदेन्द ने रचा। इतना ही नहीं पूर्ण चक्र का ५१०,३०,००० अक्षरों के संयुक्तांक ९ को आधार बना कर वर्गीकरण किया जाए तो असंख्यात तथा अनंत अक्षर बन ७१८ भाषाएँ अथवा १००८ भाषाओं में अनेकानेक ग्रंथ उत्पन्न होंगें, भी कहा। 440 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय वर्गित संवर्गित (raising a number to its own power) क्रमानुसार अनंत संख्याओं को प्राप्त किया जा सकता है। अ कहे जाने वाले प्रथम वर्गित संवर्गित = अ कहे जाने वाले दुसरे वर्गित संवर्गित = (अ अ कहे जाने वाले तीसरे वर्गित संवर्गित = २५६ दो के लिए तीसरे का वर्गित-संवर्गित, कहे जाने वाले असंख्यात बनेगा। कुमुदेन्दु ने इसी वर्ग भंद रीति में अंकाक्षर राशी को पृथक कर, ५४ अक्षरों के अनुलोम-प्रतिलोम संख्या को इस प्रकार सूचित किया-(सिरि भूवलय २.९.१७) प्रतिलोम (८५-अंक) १८८ १९८३ ९५६ २३२ ७६२ ५९५ ३९१८ ७३४ १२९७० ४५८४ ५२८०७३६ ८४७८३५ ४९३ ९३१ ५२९ ९०० ९४८ ६९२ ६६४ ३२ ००००००,००,००,०००। इसका संयुक्तांक ३६०९ = १८ =९ अनुलोम (७१ अंक) ४०२४७९९८०८३१६ १०४३८३ ५७१ ५३२ ६२१ ०६४ २४९९ १६५७ ६ . ५८५ २०४ ११७ ४८६ ८५५ ७८२ ४००० ००० ००० ००० -441 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय इसका संयुक्तांक २६१ =९ धवळ ग्रंथ के आधार पर रचित वीरसेन के टीका में भी कुमुदेन्दु के भूवलय में भी जैनों के लिए अलग से अन्य संस्कृत ग्रंथों में दिखाई देने वाले लॉस ऑफ़ इंडिसेस (laws of indices) तथा लॉगरिदम्स (logarithms) का उपयोग किया गया है। I. (laws of indices) अ) मन म + न अ अ = अ मन ब) अ -अ न मन अ = + । उदाहरण स्वरूप (धवळ ३. श्लोक. ५२) २का सातवें वर्ग को २के छठे वर्ग से विभागित किया जाए तो २का छठा वर्ग प्राप्त होगा। लॉगरिदम्स (logarithms) को जैन गणित में छेद कह कर संबोधित किया गया है। पाश्चात्य लॉगरिदम्स (logarithms) पदक तालिका में आधार सी या आधार १० रहने पर भी जैनों में २, ३, ४ के लिए गणित किए अनुसार ही दिखता है। परन्तु इसके आधार में उपरोक्त तालिका के रचेनुसार नहीं दिखाया गया है मात्र सूत्रों और उदाहरणों को दिया गया है। १. अर्धछेद. २ अर्धछेद = म. क्ष का अर्धछेद (Ac) = log x (log being to base 2) Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय) २.वर्गशलाक (अर्ध छेद का अर्धछद० क्ष का वर्ग शलाक = Vs (क्ष) = Ac {(Ac (क्ष))} =log log (log being to base 2) ३. त्रिक छेद क्ष का त्रिक छेद = Tc (क्ष) = ३ (log is to base ३) इत्यादि ४. चतुर्थछेद क्ष का चतुर्थछेद = log ४ (क्ष) ( log to base ४ ) इत्यादि अ को यदि एक संख्या माना जाए तो उसका पहला वर्गित संवर्गित = अ = ब दसरा वर्गित संवर्गित = ब =ग तीसरा वर्गित संवर्गित = ग द तब धवळ टीका के अनुसार यह उत्तर प्राप्त होगा १. लॉग ब = अ लॉग अ २. लॉग लॉग ब = लॉग अ + लॉग लॉग अ ३. लॉग ग = ब लॉग ब ४. लॉग लॉग ग = लॉग ब + लॉग लॉग ब लॉग अ + लॉग लॉग अ + अ लॉग अ ५. लॉग द = ग लॉग ग ६. लॉग लॉग द = लॉग ग + लॉग लॉग ग इत्यादि इस प्रकार अनेक गणित सूक्ष्मों का प्रयोग कर कुमुदेन्दु ने भूवलय में १८ महा भाषाओं को तथा ७०० लघु भाषाओं को, समस्त शास्त्रादिओं को अंकाक्षर के द्वारा बाँध कर कन्नड में अत्यद्भुत ग्रंथ की रचना की, यह कन्नड प्रदेश का गौरव है । 1443 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय डॉ. एस. श्रीकंठशास्त्री जी कुमुदेन्दु कवि का भूवलय; अभिवंदना (ए. आर. कृ. संभावना ग्रंथ प्रकटन समीति, मैसूर १९५६, पृ ५६२-८९ ) सिरिभूवलय नामांकित कुमुदेन्दु कवि के अद्भुत ग्रंथ को संपादक कर्लमंगलं श्री कंठैया जी तथा पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी ने अत्यधिक प्रयास से प्रकाश में लाए हैं (सिरि भूवलय, सर्वार्थ सिद्धि संघ, बंगलूर, भाग १ - १९५३; २ - १९५५) इस महा ग्रंथ के प्रथम भाग के श्रीकंठाशास्त्री जी के द्वारा लिखे गए प्रस्तावना में उन्होंनें भरसक अनेक समस्याओं के समाधान को देकर इस ग्रंथ के विश्व महत्त्व को भी सूचित किया है। केवल भाषा की दृष्टि से ही यह ग्रंथ आधुनिक है यदि ऐसा निर्णय लिया जाए तो उत्पन्न अनेक समस्याओं के लिए सदुउत्तर देना दुष्कर होने के कारण भी इस ग्रंथ के अध्ययन करने में कन्नड भाषा शास्त्र ही नहीं जैन सिध्दांत, ज्योतिष्य, आयुर्वेद, रसायन शास्त्र, जैन गणित पद्धति, पुरातत्व शोध, कर्नाटक का चरीत्रे (इतिहास), अनेक भाषाओं में पांडित्य, ऋगवेद, रामायण, महाभारत इत्यादि का संपूर्ण ज्ञान अत्यावश्यक है। ऐसा पांडित्य ने होने पर इस ग्रंथ का विमर्शन करना केवल कुतूहल जनक, मनोरंजन के लिए चक्रबंध स्पर्धा के लिए रचित ग्रंथ है ऐसा निर्णय लें तो महा अपचार करने की भाँति होगा । भारतीय संस्कृति के लिए ही नहीं वरन विश्व संस्कृति के लिए भी यह ग्रंथ परमोपकारी ही ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अभी प्रकाशित भूवलय के प्रथम और द्वितीय संस्करणों के कुछ अंशों का यहाँ चर्चा की गई है। ग्रंथ रचना काल के विषय में कुमुदेन्दु स्वयं अपने विषय में कहने के कारण संपादक की सूचनानुसार कवि वीरसेन, जिनसेन, अमोघ वर्ष, शिवमारगंग के समय के रहें होंगें। वीरसेन तथा जिनसेन की टीकाओं का भी उल्लेख किया है । वीरसेन ने अपने धवळटीका ग्रंथ के उपोद्घात ( प्रारंभ ) में महावीर तीर्थंकर के समय से अविच्छिन रूप से चले आ रहे आगम परंपरा का भी उल्लेख किया है। महावीर जी के उपदेशों को इंद्रभूति गौतम के बारह अंगों के रूप में विभक्त किया है । माघनंदी के श्रावकचार में गौतम के अनंतर (बाद) २८ आचार्य वीरनिर्वाण शक ६८३तक के आगमों को रक्षित करते आए । ऐकांगधरों में अंतिम लोहाचार्य के समय में केवल एक ही अंग शेष रहा, कहा गया है। उसके कुछ समय के पश्चात गुणधर के समकालीन धरसेन ने कुछ भागों को मात्र सीख कर अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलि को उपदेशित करने के लिए उन्होंनें 444 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय सूत्र रूप में रचा । पुष्पदत ने १७७ सूत्रों को भूतबलि ने शेष सूत्रों को रचा । नंदीसंघ के प्राकृत सूची में आचार्यों के समय को सूचित करने के साथ-साथ, धरसेन गुणधर पुष्पदंत भूतबलि आदि नामों को शामिल कर, वीरनिर्वाण शक ९१४-९८७ में रहे होंगें कहा गया है । बृहटिप्पणिका नाम के ग्रंथ के अनुसार वीरशक ६००० में धरसेन ने जोडी पाहुड को रचा था । पुष्पदंत तथा भूतबलि के सूत्र प्रथम अर्धमागधी में रचे गए थे । पश्चात सौराष्ट्री और महाराष्ट्री प्राकृत रूप में परिवर्तित हुए ऐसा माना गया है। वीरसेन के धवळ में बारह अंग के दिट्ठिवाद में और सूत्रों में समाहित भागों का निर्देश है। दिट्ठिवाद के पाँच भागों में से चौथे भाग को पूर्वगत कहा गया है। उसमें चौदह विभागों हैं जिसमें दूसरे विभाग का अग्रायणीयपूर्व नाम था। इस अग्रायणीयपूर्व में पुनः चौदह विभागों में पाँचवें विभाग का नाम था चयनलब्धि । उसमें २० पाहुडों में चौथे पाहुड का नाम कम्मपयडि (कर्मप्रकृति) था। इस कम्मपयडी पाहुड के २४ विषय भी सूत्रों में समाहित थे । केवल एक लघु भाग मात्र वियाह पन्नत्ति का अनुसरण करता हुआ था। (jaina Antiquary volVI) वीर सेन ने इन सूत्रों को षटखंड सिध्दांत कह कर संबोधित किया है। षटखंडागम नाम अनंतर में आया होगा ऐसा जान पड़ता है। जीवठ्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्त विचय, वेदणा, वग्गणा, महाबंध आदि नाम के छह खंडों में प्रथम पाँच खंड ६००० सूत्रों में समाहित होकर वीरसेन ने ७२०००ग्रंथ परिमित का धवल नाम के व्याख्यान को लिखा । अंतिम महाबंध के लिए भूतबलि ने ही ३० अथवा चालीस हजार ग्रंथ व्याख्यान लिखा होगा और उसका नाम महाधवल रखा होगा इसी कारण से आपने (वीरसेन) पुनः व्याख्यान नहीं लिखा ऐसा वीरसेन ने कहा । भूतबलि के यह महा बंध (महाधवल) के अनुसार ठिठदि, अणुभाग, प्रदेश, (प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश) आदि नामों के चार विधानों का निरूपण करता है ऐसा वीरसेन ने अपने धवलटीका में कहा है। धरसेन के सहपाठी गुणधर ने दिठवाद के एक और भाग को संरक्षित किया । चौदह पूणे में पाँचवाँ है ज्ञानप्रदवाद । उसके बारह वस्तुओं में दसवेण वस्तु में २० पाहुड हैं । उसमे से तीसरे पाहुड पेज्जदोसपाहुड को गुणधर ने १८० गाथाओं में रच कर कषायपाहुड नाम दिया। इस कषायपाहुड के लिए यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्र को रचा । इस कषाय पाहुड के लिए वोछामि सत्तकम्मे पंचिय रूपण विवरणं समहत्थिं ऐसे आरंभ होने वाला एक प्राकृत पंचिके है । तुंबलूराचार्य के चूडामणि कन्नड में है ऐसा मानने Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय के कारण यह प्राकृत पंचिके ग्रंथ किसी और ग्रंथकार का होगा। यह सत्तकम्म अथवा कषाय पाहुड ७२०००ग्रंथ है ऐसा धवल में कहा गया है ।इस लिए वीरसेन ने उनके शिष्य जिनसेन ने ६०,००० ग्रंथ प्रमाण का जयधवल नाम के टीका को रचा । इसके पहले गुणधर के शिष्य नागहस्ति और आर्यमंगु (मंक्षु) (२) नागहस्ति के शिष्य यति वृषभ (चूर्णीसूत्र कर्ता) उनके शिष्य उच्चारणाचार्य (वृत्तिकार) थे। वीरसेन ने अपने से भी पूर्व में सूत्रों पर रचित व्याख्यानों के नामों का उदाहरण दिया है। कुंदकुंदन परिक्रम(१२००० ग्रंथ) (२) श्यामकंदन पद्धति, (१२०००) (३) तुंबलूराचार्य का चूडामणि(कन्नड, ११०००) (४) समंतभद्र का भाष्य (४८,०००?) (५) बप्पदेव का व्याख्यान प्रज्ञप्ति (प्राकृत ७३,००० श्लोक) इतना ही नहीं पूज्यपाद का सारसंग्रह, छेदसुत्त, कम्मपवाद, दशकरणि संग्रह, जोणिपाहूद, इत्यादि का भी उल्लेख है। वीरसेन के धवल टीका में (अमरावती,प्रति,पृ.३९७) धनंजय के अनेकार्थ नाममाला के हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादा वेसमाप्तौ च इति शब्दं विदुर्बुधाः।। ऐसा शब्दकोष व्यक्त हुआ है। कुंदकुंदपुर के पद्मनंदी कर्माप्राभृत को समझ कर षट्टखंडागम के प्रथम तीन खंड (जीवविभाग) के लिए व्याख्यान को रचा, ऐसा श्रुतावतार (इंद्रनंदी का एक ग्रंथ) भी कहते हैं । विबुध श्रीधर, कुंदकुंदन के शिष्य कुंदकीर्ति ने इस टीका की रचना की, ऐसा कहते हैं। वीरसेन ने चित्रकूटान्माय के ऐलाचार्य तथा पंचसूप्तान्माय के चंद्र सेन के शिष्य, आर्यनंदी के शिष्य थे, ऐसा आनतेन्द्र से वाटग्राम में निर्मित बसदि(जैन देवालय) में ग्रंथ रचना की ऐसा धवळग्रंथ से भी इंद्रनंदी के श्रुतावतार से भी ज्ञात होता है । वीरसेन ने निर्णयसागर प्रति में धवळटीका ग्रंथ के रचना समय को इस प्रकार सूचित किया है। हीरालाल ने विक्रमराय के समय को ७१८ का है कहने पर भी शालिवाहन शक के लिए (सगणामे) अन्वयन कर धवलग्रंथ समाप्ति सन् ८१६ कार्तिक शुद्ध १३ (अक्टूबर ८) ऐसा उस समय जगत्तुंग का राज्य समाप्त होकर बिद्दनरय (बदेग-अमोघ वर्ष) के शासन का आरंभ हुआ था निर्धारित किया गया। परन्तु जे.पी. जैन (jaina Antiquary jan 1949, vol 15) विक्रम संवत ८३८ (सन् ७८०) कार्तिक शुद्ध १३ (सोमवार अक्टूबर ८) ऐसा मानते हैं ।हीरालाल के अभिप्रायानुसार विक्रमरायंहि के लिए समर्पक अर्थ नहीं है। जे. पी. जैन के अनुसार सगणामे अथवा संगरमोक के लिए कोई उत्तर नहीं है। वीरसेन के कहेनुसार ग्रहस्फुट में अनेक समस्याएं हैं सामान्य तौर पर जैन ग्रंथों में विक्रम Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) शक का उल्लेख ही नहीं होता है । परन्तु जे. पी. जैन के कहेनुसार कार्तिक शुद्ध १३ सन् ७८० में अक्टूबर ८ होगा ही नहीं अक्टूबर १६ सोमवार होगा फिर भी ग्रह गति ठीक नहीं बैठेगी वीरसेन के कहेनुसार कुंभ में राहु, कोण (शनि?) तुला में, रवि कुल में गुरु, वरणवुत्त (कुज?) धनुष में, शुक्र सिंह में, चंद्र मीन में रहे होंगें । तुला मास कार्तिक शु १३ में चंद्र रेवती में हो सकता है। सन् ७८० अक्टूबर १९ सोमवार रवि १९३° तुला चंद्र ३५६० मीन बुध १७२० कन्या कुज २३६० धनु गुरु १०६० कटक शुक्र १९१° तुला शनि २४१० धनु राहु ३५०० मीन केतु १७०० कन्या सन् ८१६ अक्टूबर ८ बुधवार रवि १९४° तुला चंद्र ३१६० मीन २०८° तुला २६५° धनु गुरु ११९० कटक शुक्र १४८° सिंह शनि ३१५° कुंभ राहु ३२५० कुंभ केतु १४५° सिंह ३५०० राश सन् ८१६ सन् ८१६ ल र ल र 96 -447 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय) सन् ७८० के उक्त तिथि में शुक्र सिंह में नहीं होगा और कुंभ में कोण(शनि) नहीं होगा । सन् ८१६ कार्तिक शुद्ध १३ को ग्रह सामान्य तौर से वीरसेन के कहेनुसार रहें तो भी विक्रम राय के शक से नहीं मिलते। जगत्तुंग देवराज्य के मोद्दणरायण के आधार पर, वीरसेन के शिष्यों के ग्रंथों के आधार पर भी, वीरसेन के काल का निर्धारण कर सकते हैं। तुंग राष्ट्र कूट चक्रवर्तियों का चिन्ह है। राष्ट्र कूट में इम्मडि गोविन्द (सन् ७७२-७७९) को यह जगत्तुंग नाम की उपाधि दी गई होगी तो भी आज के वर्तमान शासन में दिखाई नहीं देता। तत्त्पश्चात ध्रुवनिरुपम के शासनावधि में (७७९-७९३) हरिवंश कर्तृ जिनसेन ने वीरसेन के नाम का उल्लेख किया है। ध्रुवनिरुपम को जगत्तुंग उपाधि रही होगी ऐसा निश्चित नहीं है। बादि पोद्दि के पट्टदकल शासन इम्मडि गोविन्द का है फ्लीट के इस कथन को कील्होर्न अंगाकार नहीं करते । वामन के लिंगानुशासन में जगत्तुंग सभा उल्लेखित है। हरिवंश के द्वारा रचित बृहत्पान्नाटसंघ के (प्रथम) जिनसेन वीरसेन, कीर्तिषेण, गुरुओं को अपने समकालीन (शक ७०५=सन् ७८३) राजाओं के रूप में उल्लेखित किया है (कर्नाटका इतिहास के द्वारा संकलित संस्करण १ पृ सं ६७) इसमें उल्लेखित वीरसेन धवळ ग्रंथ कर्ता होने के कारण सन् ७८३ से पहले ही प्रसिद्ध हुए होंगें ऐसी कल्पना की जा सकती है। प्रथम जिनसेन ने, कीर्तिषेण के अग्रशिष्य वर्धमानपुर में नन्न राजा के द्वारा निर्मित पाश्वनाथ के देवालय में ग्रंथ को रचा ऐसा कहा है। द्वितीय जिनसेन ने वीरसेन मुनि के शिष्य विनय सेन के प्रचोदन(प्रेरणा) से पाश्र्वाभ्युदय नाम का वेष्टत काव्य की रचना की ।(संकलन संस्करण १, पृ.सं ६८) इससे अमोघ वर्ष के परम गुरु जिनेसेन, वीरसेन के शिष्य रहें विनयसेन के समकालीन हैं । महापुराण में वीरसेन अपने गुरु और धवळ ग्रंथकर्ता के रूप में जिनसेन का नाम लिया है। (संकलन संस्करण १, पृ.सं ७४) यही जिनसेन वीरसेन के धवळ के समाप्ति के रूप में, जयधवळ को शक ७५९, फाल्गुण शुद्ध दशमी नंदीश्वर महोत्सव के दिन पूर्ण किया । श्री पाल ने इस ग्रंथ का संपादन किया, अमोघ वर्ष के शासन काल में गूर्जरार्य से मिले वाट ग्राम में लिखा गया है, ऐसा जिनसेन ने जयधवळ की प्रशस्ति में कहा है। (संकलन संस्करण १, पृ.सं ७७) 448 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय जयधवळ सन् ८३७ फरवरी १९ सोमावार को संपूर्ण हुआ। बहुशः जिनसेन ने महापुराण ग्रंथ रचना को अनंतर में आरंभ कर असंपूर्ण ही छोड दिया था जिसे उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने बंकापुर में सन् ८९८ मार्च २ गुरुवार श्री पंचमी के दिन उत्तर पुराण रूप में संपूर्ण किया (संकलन संस्करण १, पृ.सं १०९) वीरसेन तथा द्वितीय जिनसेन लंबे समय तक जीवित रहें होंगें ऐसा मानना होगा हरिवंश के जिनसेन ने अपने ग्रंथ को नन्न राजा से निर्मित बसदि( जैन देवालय) में रचा है ऐसा कहने के कारण, बहुषः यह नन्न राजा सन् ७९३ में रहे शंकर गण के पिता काका के पुत्र रहे नन्न राजा होंगें। राष्ट्र कूट मम्मडि गोविन्द (सन् ७९३-८१५) को जगत्तुंग उपाधि रही होगी (सु.क्रि.श.८००) बनवासी के राज्यादित्य परमेश्वर के शासन काल से, हूलीहळ्ळि शासन से भी ज्ञात होता है। इस हूलिहळ्ळि शासन में जगत्तुंग के शासनावधि में सलुकिक वंश के मणिनाग के पौत्र बनवासी के राज्यादित्य के पुत्र सामंत बुद्धरस एरेयम्मरस के साथ दान किया ऐसा कहा गया है। वीरसेन ने जगत्तुंग देवराज्य ऐसा कह विद्दणरायनरेन्द्र ऐसा बहुशः एक सामंत का नाम लिया होगा। मम्मडि गोविन्द के पुत्र अमोघवर्ष (नृपतुंग) ही बोद्दन नरय (बद्धेग नरप) नाम के हीरालाल के पाठांतर से अमोघवर्ष का भी बद्धेग नाम होगा ऐसा कुछ लोगों का मानना है। सन् ९३७ में रहे इम्मडि कृष्ण के पौत्र युवराजावस्था में निधन हुए, जगत्तुंग के द्वितीय पुत्र भी रहे, मुम्मडि अमोघवर्ष का, बद्देग नाम भी था । परन्तु उनके पहले के दो अमोघवर्ष का नाम बद्देग रहा होगा इस के लिए पर्याप्त आधार नहीं है । केवल नरेन्द्र कहा जाने के कारण सामंत बुद्धरस के नाम को ही वीरसेन ने मोद्दणराय कहा होगा। अमोघवर्ष नृपतुंग को अतिशयधवळ ऐसी उपाधि थी ऐसा कविरजमार्ग से विदित होता है।(संकलन संस्करण १,पृ.७९) भूतबलि का महाधवल, वीरसेन का धवळ, जिनसेन का जयधवळ, इतना ही नहीं कुमुदेन्दु विजयधवळ, जयशीलधवळ, और अतिशय धवळ, का उल्लेख किया है। जिनसेन का जयधवळ (सन् ८३७) के पश्चात अमोघवर्ष के अंत्य में (सन् ८७७) और ई.सा. ८६६ के नीलगुंद सिरूरु शासन से पहले नृपतुंग को अतिशयधवळ उपाधि प्राप्त हो इस अंतर में कुमुदेन्दु का भूवलय और “कविराजमार्ग” रचित हुआ होगा। बहुशः छहखंडाशास्त्र की छह भाग जीवठ्ठाण, खुद्दाबंध, बंध समित्त विचय, वेदणा, वग्गणा, महाबंधों के लिए अनुक्रम रूप से धवळ, जयधवळ, महाधवळ, जयशीलधवळ, Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय अतिशयधवळ, और विजयधवळ आदि नामों के व्याख्यान रहें होंगें ऐसा कुमुदेन्दु का अभिप्राय रहा होगा। ___ कुमुदेन्दु जिनसेन गुरु के तनुविन जन्म का घन पुण्य वर्धन वस्तु कह कर जिनसेन को भी गुरु पदवी देने के कारण जयधवळ और महापुराण के उल्लेखों से भी महापुराण (आदिभाग) प्रचार में आने के बाद अमोघवर्ष के अंत्य काल में भूवलय ग्रंथ को रचा होगा। __ कुमुदेन्दु भल्लातकाद्री (गेरुसोप्पे) नंदी, कोवळाल, कळवप्पु, गोट्टिगगंग, तलेकाड़, आदि स्थानों को को उल्लेखित करने के कारण अमोघवर्ष के लगभग समकालीन शिवमार सैगोट्ट के आश्रय को प्राप्त किया था कह सकते हैं। सैगोट्ट शिवमार राष्ट्र कूट ध्रुव के काल में दंगाई के रूप में बंधित हो कर मुम्मडि गोविन्द के द्वारा रिहा किए गए थे। परन्तु पुनः गंगराज्य में दंगे के कारण गोविन्द ने शिवमार को पुनः बंदीगृह में डाल दिया था। कल्भावि शासन में (I.A. XVIII P.274) यह सैगोट्ट शिवमार अमोघवर्ष के पादपद्मोपजीवी ऐसा कुवलालपुरवेश्वर, पद्मावतीलब्धवर प्रसादित, भगवदहरन्मुमुक्षु, पिंछध्वजविभूषण, सारस्वत जनित, भाषात्रय, कविता ललितावगललना लीलाललामं गजविद्याधाम, श्रीमत, सिवमाराभिधान, सैगोट्ट गंगपेमार्नडिगळ ऐसा कहने के कारण अमोघवर्ष को भी यही पहले विधेय (मार्गदर्शक) बने थे । नृपतुंग के पुत्र कृषण दंगाई बन तलकाडु गंग के आश्रित होने पर नृपतुंग ने बंकेश को भेजा । बहुशः इस समय में सैगोट्ट शिवमार पुनः गंग राज्य को खो कर मृत्यु को प्राप्त हुए होंगें। इम्मडि राचमल्ल के रंगपुर शासन में (संकलन संस्करण १,पृ. ९८ इम्मडि शिवमार के अंतिम वर्ष ई.पू.८१२, राचमल्ल के प्रथम वर्ष ८१७ ऐसा कुछेक ने कहा है अर्थात शिवमार नृपतुंग के अभिषेक से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। यह कल्बावि शासन के विरूद्ध में है। युवराज मारसिंह के कूडलूरु शासन में (ई.पू.७९९) सैगोटट शिवमार को गुरुमकरध्वज ऐसा कहा गया है। (निजनिर्मितगजदंतकल्वागमानल्वचेता विरचितसेतुबंघनिबंधना नंदित्विपश्चिन्मंडलः मकरध्वजगुरुचरणसरोजविनमनपवित्रीकतोत्तमांगः ।।) =450 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय इस प्रकार कुमुदेन्दु का ग्रंथ जिनसेन के धवळाटीका के रचनानंतर (सन् ८३७) आदि पुराण के प्रचार में आने के बाद बंकेश के तलकाडु दिग्विजय से पहले, सैगोट्ट शिवमार के जीवित रहते (लगभग ई.पू. ८५० में ? ) रचित हुआ होगा । गंग प्रथम शिवमार (लगभग ई.पू. ७१३) को गोट्टिग उपाधि नहीं दिखाई देता । कुमुदेन्दु नृपतुंग नाम को कहे भी हो तो अमोघ कहने के कारण आठवीं सदी में मान्य खेट में नृपतुंग से पहले एक अमोघ नाम का राष्ट्र कूट राजा रहा होगा ऐसा कहने के लिए कोई आधार नहीं है। भूवलय प्रति के विषय में चर्चा करना आवश्यक है। संपादक के द्वारा उपयोगित कागज़ की प्रति में समय को सूचित नहीं किया गया है। मल्लिकब्बे प्रतिलिपि ही उनके पास है ऐसा ही कहा गया है। सेन की सती मल्लिकब्बे अपने परम गुरु गुणभद्रसूरी के शिष्य माघनंदी को श्री पंचमी के उद्यापन के समय में शास्त्र दान किया । यही निर्देश मूडबिद्री के लोकनाथ शास्त्री जी के कथनानुसार महाधवळ प्रति के अंत में भी है (भुजबल शास्त्री केटलॉग बनारस १९४८) । यह महाबंध का निर्देश ही है न की भूवलय का । यह गुणभद्र और माघनंदी कौन से गण गच्छ के हैं इसे संपादक ने निरूपित नहीं किया है मूडबिद्री की हस्त प्रति समुदाय में कोपणतीर्थ के श्रीधराचार्य के शिष्य माघनंदी सैद्धान्तिक शिष्य यकीर्ति रचित पुष्पांजलि काव्य नाम का ग्रंथ है। यह दो बलदेशाधिपति कद्रुभूपाल नामांकित दद्दपश्रेष्ठी द्वारा प्रवर्तित हुआ। दंष्ट्रोपलक्ष्मीतमहाकडगस्य वंशे । जातः समौक्तिक इवामल कद्रुभूपः इति स्थावर कुपणतीर्थनिवासि जंगमतीर्थ श्रीधरदेव परमभट्टारक शिष्य श्री माघ सैद्धान्ति चरणसरसीरुह चंचरीकेणो यकेर्तिना (?) विरचिते पुष्पांजलिमहाकाव्ये दद्दपश्रेष्ठ प्रवर्तिते श्रीमद्दोद्दबल देशाधिपति कद्रुभूपाल नामांकोते. यह माघणंदी, श्रीधराचार्य के शिष्य होने के कारण भूवलय प्रति के गुणभद्र सूरी के शिष्य माघनंदी नहीं है । श्रवणाबेळगोळ ४२ (४६) शासन में श्रीधर के शिष्य माघनंदी, उनके शिष्य आचार्य नागदेव, माघनंदीके शिष्य चंदकीर्ति के निसिदि (समाधि) को बनवाया, ऐसा कहा गया है। निर्णय सागर प्रेस धवळ ग्रंथ प्रति के लिए मूल "मंडलिनाड" श्री भुजबल गंग पर्माडिदेवरत्तेयरुमप्प दवि. “देवियक्क,” श्रुतपंचमी के उद्यापन में अपने गुरु, बन्नियकेरे के उत्तांगचैत्यालय के दिवाकरणंदि सिध्दांत रत्नाकर के शिष्य ( मलधारिय) शिष्य शुभचंद्र को दान दिया गया धवल 451 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय - पुस्तक “कपणपुर" आणेग वंशज जिन्नम म(मु)नु नीतिमार्ग ऐसी प्रति बनवाने वाले का उल्लेख भी है कहा गया है । (भुजबलि शास्त्री केटलॉग पृ. २२६ सं १७ यह प्रति शा श ७३८ ऐसा कहना गलत है।) तत्वार्थ सूत्र के लिए कर्नाटक लघुवृत्ति को रचे दिवाकरणंदि सन् १०६२ सोरब ५८, नगर ५७ शासनों में बीर सांतर पट्टणस्वामी नोक्क के गुरु सकलचंद्र के गुरु हैं चंद्र कीर्ति के शिष्य हैं (उभय) सिध्दांत रत्नाकर ऐसी उपाधि से विभूिषित थे, कहा गया है (क. क. च. आई पी. ७९) नयसेन के धर्मामृत (सन् १११२) में उक्त हुए गुरु परंपरा में ऐळचार्य, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, (शु)भचंद्र, अजित सेन, सोमदेव, नरेन्द्र सेन, नयसेनमुनि, दिवकरणांदि, शुभचंद्र, आदि नाम हैं क. च. आई पी १२०)। इस कारण से यह धवळ प्रति लगभग ई.पू. १०५० में प्रकाश में आई होगी। मूडबिद्रि के धवळ और महाबंध प्रति ग्यारहवीं सदी में प्रचारित हुई होगी । हीरालाल जी ने मूडबिद्रि के धवळव प्रति लगभग ९-१० वीं सदी की हैं ऐसा माना है। कुमदेन्दु गुरु परंपरा को कहते समय स्वस्तिश्रीमद्राय राजगुरु भूमंडलाचार्य, भाष प्रभाकर ,मीमांसक विद्याधर, कन्नाडिराजा, पुष्पगच्छदलि भूवलय, मध्याह्न कल्पवृक्ष, इंद्रप्रस्थ गद्गे, योवनालि भाषाभाषित, वृषभ सेननायक, पुष्पगच्छ के सेनगण आदि उपाधियों से विभूषित किया है। रायराजगुरु भूमंडलाचार्य ऐसी उपाधि १३वीं शताब्दी से पहले के शासनों में दिखाई नहीं देता। मूडबिद्रि की हस्त प्रति (संख्या ३४४) गुणभद्र प्रशस्ति में वृषभ सेनान्वय का सिद्ध सेन, शिवकोटी भट्टारक, रैवत पर्वत पर सिद्ध चक्र को स्थापित करने वाले वीरसेन, धवळ, महाधवळ, जयधवळ, विजयधवळ, महापुराणादि के रचनाकर जिनसेन तत्पश्चात नेमिसेन, छत्रसेन, जिनसेन, लोकसेन, ब्रह्मसेन, उदयसेन आदि नामों को कहते हुए कंदर्परूपवतार चतुर्दशपूर्व, पंचप्रज्ञप्ति, पंचविध दृ िवादांगादि सकल श्रुत गुणभद्राचार्य तथा बारह पीढी के बाद श्री मुद्रायराजगुरु वसंसुधराचार्यवर्य महावादि वादी श्वर रायवादि पितामह सकलविद्वज्ञनचक्रवर्ति वंकडिकडिवाण परग्रह विक्रमादित्य मध्याह्न कल्पवृक्ष पुष्करगच्छबिरुदावळी विराजमान.. षड्दर्शनस्थापनाचार्य चक्रेश्वर डिल्लि सिंहासनाधीश्वर साभिमानवादीभसिंहचक्रेश्वर सोमसेन मूलसंघ वृषभसेनान्वय सेनगण ऐसी उपाधियों को कहा गया है। 452 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय - भूवलय में कुमुदेन्दु ने ऐदु परमेष्ठि बोल्लि (पाँच परमेष्ठि कथा) को कहा है। (अध्याय १३. २१३) शक ११९५( बाणपदार्थ कळाअधर), अंगीरस कार्तिक शुद्ध पंचमी में बालचंद्र पंडित देव ने (क.क.च. १ पृ. २९१,पृ११) द्रव्यसंग्रह सूत्रों के लिए कर्नाटक लघुवृत्ति को पंच परमेष्ठियों की बोल्लि(कथा) ऐसे गद्य ग्रंथ को रचित किया है। (सन् १२७३-१२७५) बालेंदुबुध कहकर स्वयं को निर्देशित करते हैं। कुमुदेन्दु के कहेनुसार बोल्लिपद्धति बालचंद्र के गद्य ग्रंथ कि लिए आदर्श रहा होगा । कुमुदेन्दु अक्षर संख्या को कहते समय त्रिषष्टि श्चतुष्षष्टिा वर्णाः शुभमते मताः प्राकृतेसंस्कृतेचापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयंभुवा अकारादि हकारान्तां शुद्दां मुक्तावलीमिम स्वरव्यंजनभेदने द्विधाभेदमुपेयुषीम।। अयोगवाहपर्यन्तां सर्वविद्यासुसंगताम अयोगाक्षर संभूतिं नैकबीजाक्षरैश्चिताम ततो भगवतो वक़्तान्निः सृताक्षरावळीम नम इति व्यक्त सुमंगलां सिद्धमातृकाम ॥ भूवलय ५ १३८-१४५ अर्थात त्रिषष्टि चतुर्षष्टि वर्ण शुभमत से प्राक्त संस्कृत के अकार हकार स्वर व्यंजन भेदों से कहे सर्वविद्या सुसंगत योगाक्षर को बीजाक्षर में निश्चित कर ब्राह्मी लिपि द्वारा गणित संख्या में विवरित सुमंगल काव्य । इस जैन ग्रंथ के श्लोक का उदाहरण दिया है। थोडा बहुत पाठ भेद के साथ यह श्लोक शंभु रहस्य, मातृकार्णवतंत्र, अग्नि पुराण, इत्यादि ग्रंथ में भी दिखाई देते हैं (श्री विद्यार्णवतन्त्र १ पृ ६३) सिद्ध मातृकासोत्र शाक्ततंत्र में दिखाई देते ही नहीं है वरन बौध्दों में भी रह आज भी जापानी में पित्तोन नाम की वर्णमाला है (आर्ट एंड थॉट) सिद्धाहि शुद्दाकाः सिद्धो वर्णसमाम्मायः ऐसा कातंत्र व्याकरण में भी बहुशः ऐंद्रव्याकरण में भी है। कुमुदेन्दु ६४ अक्षरों को इस प्रकार कहते हैं - -453 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय कादियिं वर्णमालांक । कादियं नवमांक बंध टादियं नवमांक दंग पादियिं नवमांक भंग याद्यष्व रळकुळभंग । साद्यंत अं अः On क पद । मोददिप्पत्तेळु स्वरद। ओदिन अरवलाल्कांक (अ१०-१८-२५) संस्कृत वर्णमाला में ६३ अथवा ६४ अक्षर है ऐसा सामन्यतः कहा गया है शिक्षा और प्रातिशाख्य ग्रंथों में अलग-अलग संख्याओं को कहा गया है। कात्यायन के शुक्लयजुःप्रातिशाख्य में ६५, तैत्तिरी के प्रतिशाख्य में त्रिभाषारत्न के अभिप्रायनुसार ६०, गार्ग्य गोपाल यज्वन मतानुसार ५९, माहिषे के भाष्य का अनुसरणकर ५३. शुभशिक्ष में (रहस्य) में ६३ अथवा ६४, कालनिर्णय शिक्षे में ७३, आरण्यशिक्षे में ६५, लक्ष्मीकांत शिक्षे में १०८ ऐसे अक्षर संख्या का निर्धारण हुआ है । (सुकलयजस प्रतिसख्य ऑफ़ कात्यायन मद्रास ओ आर.एस आर १९३९) वीरसेनाचार्य ने धवळ ग्रंथ में २७ स्वर, ३३ व्यंजन, शेष (क्ष इत्यादि) कहा है (चौसट्ठिमूळवण्णाह)। अक्षरों का विन्यास और समुच्चय अर्थात भंग। भंगों में स्थान भंग और क्रम भंग दो प्रकार हैं । १.२.३.४४ .... अ इतनी राशी । आगम विस्तार को कहते हुए वीर सेन ६४ अक्षरों से (एक-एक, दो-दो, तीन-तीन, इत्यादि) २६४१ पदों की राशी बनेंगी कहते हैं । भटकलंक कर्नाटके मूलवर्णाः चतुष्ट ष्टिरित्यविवादम ऐसे २५ स्वर, ४ योगवाह, २५ वर्गीय व्यंजन, १० अवर्गीय व्यंजनों को कहा है। भट्टाकलंक के मतानुसार ऐ औ के लिए ह्रस्व न होने के कारण २७ स्वर नहीं हैं । कात्यायन के प्रातिश्य में २३ स्वर ( १३ मूल स्वर, ८ संध्यक्षर), ३३ योगवाह, ९ अयोगवाह, (जिह्वामूलीय nक उपध्मानीय "प अनुस्वार (म्), विसर्जनीय(:), नासिक्य (हुम्), कुम्, खुम्, गुम्, आदि ४ यम कुल ६५ अक्षर । कुमुदेन्दु ने जैन और प्राकृत, कन्नड, भाषाओं के संप्रदयानुसार ऐ, औ के ह्रस्व को अंगीकार किया है। केशीराज के मतानुसार ५७ अक्षर, कन्नड के लिए ४७, शब्दस्मृति में १४ स्वर (अ-औ) सभी के लिए ह्रस्वदीर्घपुल्त ऐसे तीन-तीन रूप, २५ वर्गीय वयंजन शेष अवर्गीय हैं कहा है। भाषाभूषण में १४ स्वर, ३३ व्यंजन, कुल ४७ हैं कन्नड में मात्र ३६ हैं ऐसा नागवर्मन ने कहा है। तमिल में अर्धमात्रा कालद कुट्रियल (म और य के बीच केण्मिया, सेन्मेया) तथा कुट्रियल उगरम् (प्राचीन हल् संबंधित) ऐसे दो ध्वनियाँ थीं। वैदिक साहित्य में भी ह्रस्व ए ओ थे ऐसी सूचना 454 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय - मिलती है। पतंजलि के महाभाष्य में ( महाभाष्य, १. २२, पक्ति २१-२४) छान्दोगानाम सात्यमुनि राणायाणीयाः अर्धमेकारमर्धमोकारं चाधीयते । नैव हि लोके नान्यस्मिन वेदे अर्ध ऐकारो अर्ध ओकारोवास्ति। चिन्नयसूरी अपने आंध्र व्याकरण में प्राकृत में कुछेकों के अभिप्रायानुसार ए, ऐ, ओ, औ, के लिए ह्रस्ववक्र और अन्य ऐ, औ, के लिए वक्रतम कहतें हैं ऐसे अभिप्राय का उदाहरण दिया है। (गंटिजोगि सोमयाजुलु, आंध्र भाषाविकासमु)। ह्रस्व ए, ओ, औ प्राकृत में नहीं है ऐसा कहने वाले ऐ, औ, दीर्घ हैं ऐसा अभिप्राय रखते हैं। अभी प्रकाशित भूवलय के भाग में सर्वभाषामयीभाषे ६४ अक्षरानुसार अध्यायों को प्राकृत गाथाओं को कुमुदेन्दु ने बाँधा है। इन्हें परिक्षित किया जाए तो (प्रकटित २० अध्यायों के आद्यक्षरबंध) आकार से २०वा दीर्घ ऐ तक प्राकृत पद उदाहरण रूप में प्राप्त होतें हैं १. अ- अट्टविहकम्म १५. ळू (इ?)- ळो(?) अट्टावयौसहो २. आ-आदिम १६. ए-एसहरराय ३. आ-आणेहिं १७. ए।- ए बाहुबली वन्दमि ४. इ- इयमूलतन्न १८. एा- एावं कल्लाणठाणइजाण ५. ई- ईयमणाया १९. ऐ- ऐवं हि जीवरायाणदव्वो ६. डी- इीसमुहग्गह २०. ऐ- ऐघुणघाईमहणा ७. उ- उववाद २१. गो- गोलियासापरसमय ८. ऊ-ऊणापमाणां २२. ओण्णाण ९. - वर्वर २३. ओधिरधारिय १०. ऋ-ऋषिओ २४. औौन्देपंचगुरू ११. ऋ- ऋअमसुदो २५. औसहिमंगल १२. ऋा-ऋऐवाणाऐतीरे ---- २६. औगालयदिवि १३. ळ (इ?)- ळाडावंशापज्जुण्णो २७. औौण्णिवियप्टा, अनंतर्पश्चादानुपूर्वि १४. ळु(इ?)- ळुविसन्तु जिणवरिन्दा __ यह प्राकृत पद बहुशः निर्वाण गाथा है। एक ही स्वर के दीर्घ और प्लुत रूपों से अर्थ किस प्रकार भिन्न होता है इसे आगे विमर्शन करना होगा। 455 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय भाषाओं की संख्यायों को सामान्यत सभी जैन ग्रंथों में १८ महाभाषा और ७०० क्षुल्लक (लघु) भाषा हैं ऐसा ही उल्लेखित किया गया है। अटठारसविहपगारदेशीभासा विसाराऐ अट्ठारस देसीभाषा विसारया (ज्ञातृधर्मकथासूत्र) . अट्ठारस देसीभाषा विसाराऐ (औपपातिकसूत्र, विपाकसूत्र) अट्ठारस विहदेसि गारभासा विसाराऐ (राजप्रश्निय) कुमदेन्दु (अ.५) इस संस्कृत श्लोकों को उदाहरण देते हैं। अथवा प्राकृत संस्कृत मागध पिशाच भाषाश्च शूरसेनी च षष्ठोत्र भेदो देशविशेषादपभ्रंशः अथवा कर्णाटमागधमालवलाटगौडगुर्जरप्रत्येकत्रय मित्य दिशमभाषा। रुद्रट के काव्यालंकार में उपरोक्त लिखे गए श्लोक में से प्रथम श्लोक इस प्रकार dic प्राकृत संस्कृत मागध पिशाच भाषाश्च शौरसेनी च षष्ठोत्र भूरिभेदः देशविशेषादपभ्रंशः।। इसे ग्यारहवीं सदी में नमिसाधु व्याख्यान करते समय इस प्रकार कहते हैं आरिसगयणे सिद्धं देनाणां अद्धमगहा वाणी इत्यादि नचनात प्राक पूर्व कृतं प्राकृतं बालमहि ळादि सुबोध सकलभाषानिबंधन भूतं वचनमुच्यते मेघनिमुक्त जलमिनै कस्नरूपं तदेव च देशनि तेषात्संस्कारकरणाच्च समसादित विशेषं सत संस्कृताधुत्तरविभेदाना प्नोति अतऐन शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दि म तदनु संस्कृतादीनि पाणिन्यादि व्याकरणोदित शब्दलक्षणेन संस्करणात संस्कृतमुच्चयते तथा प्राकृतमेव किंचिद्विशेषात पैशाचिकम अर्थात बादलों से मुक्त रूप से जल छलकने की भाति अर्धमागधी प्राकृत पैशाची भाषाएँ इस देश में छलकीं हैं पाणिनि आदि ने व्याकरण रच कर शब्दलक्षणों को समझा कर संस्करित किया है यह भाषा ही संस्कृत है । 456 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय सर्वभाषामयी भाषा प्रवृता यन्मुखांबुजात ( शब्दानुशासन ) ऐसा प्रवृत्तायन्मुखाद्देवी सर्वभाषा सरस्वती (भाषाभूषण) ऐसा छंदोबुधि में संस्कृतं प्राकृतमपभ्रंश पैशाचिकमेंब मूरुवरे भाषेगळोळ पुट्टुव द्रविडांध्र कर्णाटादि षट्पंचाशत्सर्वविषयभाषाजातिगळक्कं अर्थात संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश आदि तीन भाषाओं से द्रविड आंध्रा कर्नाटक आदि तीन भाषाओं का जन्म हुआ है। इस प्रकार कहे जाने के कारण कर्नाटक भाषा जन भाषा है। प्रायः जैन बौद्धों को अर्धमागधी (अथवा पालि) मूलभाषा, महावीर गौतम बुद्ध की वाणी होने के कारण जग के लिए मूलभाषा, सर्वभाषामयी भाषा । कुमुदेन्दु के कहेनुसार प्राक्रुत संस्कृत मागध पिशाच भाषा शौरसेनी अथवा कर्णाट मागध मालव लाट गौड गुर्जर आदि ६, तीन प्रकार के १८ भाषाएँ अष्टदश महाभाषाएँ हो सकती हैं। इस प्राक्रुत के विषय में भरत का नाट्य शास्त्र मागध्यवन्तिजा प्राच्या शूरसेन्यर्धमागधी। वाह्लीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः इस प्रकार सातों को दंडि के काव्यादर्श में महाराष्ट्र शौरसेनी गौडी लाटी आदि को उल्लेखित किया गया है। कुमुदेन्दु के अभिप्रायानुसार मूलभाषा कर्माट, कन्नड । सकलवु कर्माटदणुरूप होन्दुत । प्रकटदे ओन्दरोळडगि।। हदिनेन्टु भाषेयु महाभाषेयागलु । बरिय भाषेगळेळुनूरं ।। (अ . ६-३, ४) सभी भाषाएँ एक में एक समाहित होकर कर्नाटक का अणुरूप बन १८ महाभाषा और ७०० अन्य भाषाएँ हैं । आदि तीर्थंकर के द्वारा सौनदरी को उपदेशित अंकाक्षर पद्धति की भाषा कन्नड थी । नागवर्म को भी (सन् १०४०) यह ज्ञात नहीं था ऐसा अनुमान लगाया जाना चाहिए। कुमुदेन्दु के कहेनुसार भाषाओं को लिपियों को अन्य जैनग्रंथों में कहेनुसार विर्मशन करना चाहिए। बौद्धों के ललित विस्तर में ६४ लिपियों का उल्लेख है। जैनों के पन्नवन्न के चारों ओर समवायांग घुमावों में कल्पांतरवाक्यानि निम्न लिखित १८ लिपियाँ उक्त हुई हैं। भम्भी, जवणालि, दोसापुरया, खरोष्टि पुक्करसारी (दि), भोगवति, पहाराय, उयांतरिक्ख, अक्करपिट्ठि, तेवणइ, राहति, अंकलिपि, गळित (गणित) लिवि, गन्धव्वलिवि, आंधसलिवि, माहेसरी, दामिली, पौलिन्दी | 457 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय कुमुदेन्दु (अ.५.१०१) हंसलिपि, भूतलिपि, वीर, यक्षि, राक्षसि, ऊहिया, यवनानि, तुर्किय, द्रमिळ, सैन्धव, मालवणीय, कीरियनाडु, देवनागरि, लाड, पारशि, आमित्रिक, चाणक्य, ब्राह्मी ऐसे १८ भाषाओं को कह, अंकों में शुद्ध कर्माटका, प्राकृतलिपि अंक, संस्कृत द्रव्य अंक, द्राविद, महाराष्ट्र, मलेयाळ, गुर्जर, अंग, कळिंग, काश्मीर, काम्भोज, हम्मीर, शौरसेनि, वालोयंक, तेबति, आदि अंक, वेंगिप, वंग, ब्राह्मीअंक, विजयार्ध, पद्म, वैदर्भ, वैशालि, सौराष्ट्र, खरोष्टि निरोष्टि, अपभ्रंशिक, पैशाचिक, रक्ताक्षर, अरिस्टदेश्दंक, कुसुमाजि देशदंक, सुमनाजि देशदंक, ऐन्द्रध्वज, जलजदल, महापद्म, अर्धमागधी, अरस, पारस, सारस्वत, बारस देशदंक, शूर, मालव, लाट, गौड, मागध, विहारु, उत्कल, कन्याकुब्ज, वराहनाडु, वैश्रमणर नाडु, वेदान्त, अडविय, बनवासि, कर्णाटक और वर्धमानांक, ऐसे चौवन में एक जोडा जाए तो पचपन होगा ऐसा कहते हैं। नागवर्मन के कहे षट्पंचाशत भाषाओं में और इन भाषाओं में सम्बंध हो सकता है। इनमें से तेबति(टिबेटिन) लिपि गप्त काल के नागरी लिपि को अनसरित कर तिब्बत में सातवीं-आठवीं सदी में प्रचारित हुई। हर्ष के समकालीन स्रो-त्सान-गाम-पो नाम के राजा नेपाली राजपुत्री (नीलतारा) और चीनराजपुत्री (श्वेततारा) से विवाह कर उनके प्रभाव से बौद्ध मत को स्वीकार कर प्रचारित किया। पद्मसंभव शांतिरक्षित (सु सन् ७५०), शांतिदेव, कमलशील नाम के नालांदा विश्वविद्यालय के बौद्ध भिक्षुओं ने तिब्बत में बौद्ध मत को स्थापित कर बौद्ध ग्रंथों को उस भाषा में तर्जुमें(अनुवादित) करने के लिए उस काल के देवनागरी लिपि को ही अपनाया (एस. सी. विद्याभूषण, तिब्बत ग्रामर) । ब्राह्मी और खरोष्ठी (खरोष्ट्री) लिपियों का परिचय अशोक के शासन को प्रिन्सेप,कोल्बुकादि ने ग्रीकों के द्विभाषालिपि में रहे सिक्कों की सहायता से पढने के बाद हमें पता चला। यवनानी, पाणिसूत्रों से भी प्राचीन है। इंद्रभवशर्म रुद्रमृडहिमारण्य यवयवन मातु लाचार्या णामानुक इस सूत्र के लिए कात्यायन के वार्तिका, पतंजलि के महाभाष्य, यवनानि लिपि ऐसी व्याख्या करने के कारण अलेक्सांडर (एलेक्जेन्डर) के साथ आए यवनों के अतिरिक्त ई.पू. छठे शतमान में अकेमीनियन ग्रीक निवासी है ऐसा अनुमान लगाया गया है। तुर्की, मध्य एशिया में चौथी-पाँचवीं सदी की भाषा है। द्रमिळ लिपि का उल्लेख भी जैनों के अंगग्रंथों में ही दिखाई पडता है। छठी-सातवीं सदी तक ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न दाक्षिणात्य लिपियाँ ही तमिल देश में भी प्रचलित थी। मौर्य साम्राज्य के दक्षिण भागों में ब्राह्मी लिपि ही थी ऐसा अशोक के शासन से ज्ञात होता है। तमिल देश में प्राप्त अत्यंत प्राचीन शासन भी ब्राह्मी अक्षरों में ही है। बहुशः सातवीं सदी के पश्चात पल्लव ग्रंथ लिपि के लिए =458 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय दामिली नाम पडा होगा। चाणक्य लिपि कुटिल लिपि होने के कारण अर्थशास्त्र में उक्त गूढ लिपि, गुप्त के समय की कुटिल लिपि रही होगी। हम्मीर, नवीं सदी जितनी प्राचीन है क्या? ऐसा एक संदेह होता है । ग्यारहवीं - बारहवीं सदी में राजपुत्रवंश के इतिहास में हंबीर, हम्मीर, पहले से प्रचलित अम्मीर शब्द के रूप होंगें । जयसिंह सूरी के हम्मीरमदमर्धन काव्य ( Gaekwar Or. Sr. No. 10 ) नयनचंद्र सूरी के हम्मीर महा काव्य (I.A.VIII, P.55TR, kirtane) राजपुत्र इतिहास के लिए संबंधित है (Ojha. History of Rajputana) । कन्नड में हम्मीर काव्य अथवा राजेन्द्र विजय नाम के चंपूग्रंथ देशिकेन्द्र से सु १५६० में रचित हुआ। यह पट्टद कल्लिन (स्थान का नाम ) राजा हम्मीर का इतिहास है कहा गया है। क.क.च. पृ २९०। यदि कुमुदेन्दु के कहे जैन ग्रंथों का परिशीलन किया जाए तो, दिगंबर पंथ को मानने वाले दिट्टिवाद नाम का बारहवाँ अंग मात्र ही शेष बचा है शेष ग्यारह न हो गए हैं ऐसा, श्वेतांबर ग्यारह अंग शेष बच कर दिट्टिवाद लुप्त हो गया है ऐसा कहते हैं । श्वेतांब के ग्यारह अंगों को दिगबंर प्रमाणग्रंथ के रूप में अंगीकार नहीं करते हैं। परन्तु याकोबी आदि दिखाए गए आचारांग सूत्रकृतांग आदि ई.पू. तीसरी सदी में ही प्रचलित थे ऐसा जान पडता है। कुमुदेन्दु दिगंबर मुनि होने पर भी ग्यारह अंगोम को कहते हैं। जैनागमों को तीन रीति से विभक्त करने का संप्रदाय है। (१) दृष्टि वाद अंग को छोड कर ४५ (११ अंग,१२उपांग, १० पइन्न, ६ छेदसूत्र, २ नंदी तथा अनुयोगद्वारस्तु, ४ मूलसूत्र ) अथवा (२) अंग अंगप्रवि तथा अंगबाहिर । अंग प्रवि में १२ अंग अथवा गणिपिडग; अंगबाहिर में ६ प्रकार के आवश्यक, कलिय उत्कलिय आदि भेदों के साथ आवश्यनिर्युक्ति; (३) ८४ आगम (११ अंग, १२ उपांग, ५ छेद सूत्र, २ मूल सूत्र, ३० पइन्न २ चूलियसूत्र, ८ अन्य सूत्र कल्प, १० निज्जुत्ति, ३ (पिण्डनिज्जुत्ति संसक्तनिज्जुत्ति विसेनावस्सयभास) कुल ८४ आगम । इन पर व्याख्यानों को निज्जुत्ति भास, चुण्णि, टीका, आदि प्रकारों में विभक्त किया गया है। बारहवें अध्याय में कुमुदेन्दु ने आगमों को कहा है (अ.१२.४७) १. द्वादशांग, २ . चतुर्दशपूर्व, ३. प्रतिक्रमण शास्त्र, ४. परीक्षित, ५. मतिज्ञान, ६. पर्यायाक्षर, ७.पदसंघात, ८.प्रतिपत्यंगधर, ९. अनुयोगश्रुत, १०. प्राभृतक, ११. प्राभृतकांग, १२.१० पूर्व, १३.जीवसमास, १४. आचार, १५. सूत्रकृत, १६. स्थान, १७. समवाय, १८. व्याख्याप्रज्ञप्ति, १९.ज्ञातरूपकथा, २०. उपासकाध्ययन, २१. अंतकृद्दशा, २२. अनुत्तरोपपाद दशा, 459 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय २३.प्रश्नव्याकरण, २४.विपाकसूत्र, २५. ११अंग, २६.परिक्रमसूत्र २७.प्रथमानुयोग, २८.पूर्वगतचूळिके, २९.दृष्टिवाद ऐदु(पाँच)(चूळिके), ३०.पूर्वगतदलि, ३१.उत्पादागेणिय ३२.वीर्यानुवाद, ३३.अस्तिनास्ति प्रवाद(पूर्व), ३४.ज्ञानप्रवाद, ३५.सत्यप्रवाद, ३६.आत्मप्रवाद, ३७.कर्मप्रवाद, ३८.प्रत्याख्यान, ३९.विद्यानुवाद पूर्व, ४०.कल्याणवाद, ४१.प्राणावायु पूर्व, ४२.क्रियाविशाल, ४३.लोकबिन्दुसार, ४४. १४ पूर्व, ४५.अग्रेयणीय आशेयादिय एरडलि, ४६.पूर्वेय१४ ४७.पूर्वान्त, ४८.अपतान्त, ४९.ध्रुव, ५०.अध्रुव, ५१.चवनलब्धि, ५२.अध्रुव संप्रणधि, ५३.अर्ध, ५४.भौमावयाद्य, ५५.सवार्थ कल्पनीय, ५६.अतीत ज्ञान, ५७.अनागत, सिद्ध, ५८.उसह, ५९.सिद्ध, ६०.उपाध्याय, ६१.महाधवळ, ६२.जयधवळ, ६३.विजयधवळ, ६४.लोकसार, ६५.लब्धिसार, ६६.चारित्रसार, ६७.श्रावकाचार, ६८.सूर्यप्रज्ञप्ति, ६९.युक्तियुक्तागम, ७०.परमागम, ७१.तीर्थीकरांतसंतति ७२.मूलप्रकृति, ७३.उत्तरोत्तर प्रकृति, ७४.आशायुर्वेदविधि, ७५.दशधर्म, ७६.योगसार, ७७.रसवाद ७८.छशतद सूत्रांग (इनमें १०, १४, ८, १८, १२, १२, १६, २०, ३०, १५, १०, १०, १०, १०, वस्तु उपरोक्त सूची में १४ से लेकर २४ तक ग्यारह अंग उक्त हुए हैं। (आयारांग, सूयगडंग, ठाणांग, समवायांग, भगवती अथवा व्याख्यापन्नति, नायधम्मकहा, अंतगडदसा, अनुत्तरोववायियदसा, पण्हवागरनाइम, विवागसुयं) बारहवाँ अंग दिट्ठिवाय( दृष्टिवाद) । सेनगणों के लिए इस श्वेताबंरों द्वारा अंगीकृत ग्यारह अंग ज्ञात थे ऐसा कुमुदेन्दु कहते हैं । बारह उपांगों में उववाइअ(जौपपातिक), रायपसेनीय, जीवाभिगम, सूर्य, प्रज्ञप्ति आदि को कुमुदेन्दु ने कहा है । ___ बारहवें अंग, दिठिवाद में पाँच चूळिक हैं ऐसा वीरसेन ने और कुमुदेन्दु ने भी कहा है। चौथे चूळिक का नाम पूर्वगत है। उसमें १४ भाग हैं जिसमें दूसरा अग्रायणीय पूर्व। इस अग्रायणीय पूर्व में १४ भाग हैं जिसमें पाँचवें भाग का नाम च्यवनलब्धि है। च्यवनलब्धि के २० पाहुडों में से चौथे पाहुड का नाम कम्मपयडि है। अग्रायणीय पूर्व के १४ वस्तुओं को पूज्यपाद ने श्रुतभक्ति में इस प्रकार से विवरित किया है। -460 = 460 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय पूर्वंतं ह्यपरांतं ध्रुवमध्रुवं च्यवनलब्धिनामानि अध्रुव संपे अणिधिं चाप्यर्थं भौवावयाद्यं च सवार्थकल्पनीयं ज्ञानमतीतं त्वनागतं कालं सिद्धिमुपाद्यं च तथा चतुर्दश वस्तुनि द्वितीयस्य ।। इन्हें उपरोक्त सूची में (४७ - ६०) कुमुदेन्दु ने भी कहा है । वंदित्तु सूत्र को कुमुदेन्दु सूचित करते हैं। (भूवलय, श्रुतावतार पृ. ८२ ) जोणि पाहुड दिगबंरों के लिए प्रमाण नहीं है कहने पर भी कुंदकुंदने ने जोणिसार को लिखा, जान पडता है। कुंदकुंद, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद, समंतभद्र, चूडामणि कर्त्ता तुंबलूराचार्य आदि के ग्रंथों को कुमुदेन्दु उल्लेखित करते हैं। परन्तु आजकल में प्रकटित २० - ३३ अध्यायों में निम्न ग्रंथों से कुछ भाग गोचर होते हैं । १.समंतभद्र-बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २. पात्रकेसरि स्तोत्र, ३. गुणभद्र - उत्तर पुराण, ४. उग्रादित्य कल्याणकारक, ५.जिनसेन - जयधवळटीका, ६ . तिलोयपण्णत्ति, ७. पूज्यपाद - इष्टोपदेश, ८. इंद्रनंदि - समयभूषण, नीतिसार, ९. जिनसेन आदि पुराण, सहस्रनाम स्तोत्र, १०. गंभीरं मधुरं श्लोक (भट्टकलंक के श्ब्दानुशासन में भी उद्धृत), ११. कविजिह्वाबंधन, १२. वड्डाराधना (?), १३. सिरिगोम्मडदेव विरइय कंमंड सक्कद पाहुड गीदा, १४.आदिगिम्मटादेव विरइया अणाइ अणिहणभयवद्गीदादि मंगल पाहुडसुत्तम तरालटिय दव्वप्पमाणाणु योगद्दाद्दारे पढमसुत्तं समत्ता, १५. अथ व्यासर्षि प्रणीत जयाख्यानाद्यंतर श्रेढी ऋ मंत्रांतर्गत गीता, १६. समंतभद्रयतिवर - गन्धहस्तिय महाभाष्य, १७. भगवद्गीता पैशाचीभाष्य, १८. महाबंध इनमें जिनसेन का जयधवळ टीका सन् ८३७ में संपूर्ण हुआ। अनंतर आ की रचना की ऐसी कल्पना की जा सकती है। उत्तरपुराण को गुणभद्र ने सन् ८९८ में बकापुर में पूर्ण किया। समय भूषण अथवा नीतिसार, ज्वालामालिनीकल्प आदि ग्रंथ को इंद्रनंदि ने सन् ९३० में राष्ट्र कूट मुम्मडि कृष्ण के शासन में रचा । इन ग्रंथों से उद्धृत श्लोक भूवलय में समाहित हैं ऐसा मानना होगा । कुमुदेन्दु कहेनुसार त्रिलोक्सार लब्धिसार चारित्रसार सन् ९८० में रहे नेमिचंद्र के ही ग्रंथ हैं ऐसा मानने के लिए पर्याप्त आधार 461 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय नहीं है। इसी नाम से अन्य लोगों ने भी ग्रंथ रचना की है । मेघचंद्र के शिष्य वीरणंदे भी सन् १९५३ में एक ही चारित्रसार रचना की है। सु. सन् १४०० में चंद्र कीर्ति ने परमागमसार की रचना की । कुमदेन्दु के कहे कविजिह्वाबंधन के लिए भी पंद्रहवीं सदी के ईश्वर कवि के कन्नड छंदोग्रंथ का उसी नाम के ग्रंथ से कोई भी संबंध दिखाई नहीं देता । शिवकोटि के वड्डाराधने से ही उद्धृत वाक्य भूवलय में हैं ऐसा निसंशय रूप से कहना संभव नहीं है। कुमुदेन्दु शतक को पिरियापट्टण के देवप्पा ने रचा है इस कारण से उन्हें भूवलय का परिचय रहा होगा ऐसा कहा गया है । परन्तु इस कुमुदेन्दु शतक में दोड्डैय्या के संस्कृत भुजबलि चरिते (इतिहास) और अन्य ग्रंथों से श्लोकों को लेकर अन्य जैनाचार्यों के नाम आने पर कुमुदेन्दु नाम को जोड कर रचित शतक ( ? ) होने के कारण भूवलय के समय को निर्धारित करने में इससे कोई सहायता नहीं मिलेगी । कुमुदेन्दु आत्म कथा को कहते समय मान्यखेट के अमोघ, सैगोट्ट सिव, उनकी रानियाँ जक्कि लक्कि, ऐसे केवल दो ही राजाओं का नाम कहते हैं और कल्बप्पु तिप्पूरु यलवभू नन्दि अद्याळ पेनुगोण्डे गजदन्त पोन्नूरु मले उच्चंगी मैदाळ कैदाळ मलेयूरु सगोट्ट सिवनूरु कुंदापुर वन्दवासि मानूल तिरुमले सिद्धापुर कोत्तळ 462 कुसुमदपुर गेरोसोप्पे सागर नीलगिरि कोंगुणि द्रमिळ जन विष्णु तवरूरु तिरुप्पळनूरु तिरुक्कुरुळ कोंडूं चित्तामूरु मिनाक्षिय कोविल कामाक्षियक्षिय दानांकसाले आदि जैन क्षेत्रों के नामों का उल्लेख करते हैं । इनमें पेनुगोण्डे और गेरुसोप्पे होय्सळ-विजयनगर समय में प्रख्यात हुए थे। उससे पहले के शासन में दिखाई नहीं पड़ते। मान्यखेट को अमोघवर्ष ने ही निर्मित कर अपनी राजधानी बनाई उससे पहले Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय मयूरखंडियोसूलभं राष्ट्रकूट की राजधानी थी ऐसा फ्लीट का कहना है। परन्तु उससे पहले ही मान्यखेट ज्योतिषियों की दृष्टि में मुख्य स्थल था, ऐसी जानकारी मिलती है । भूवलय की प्रति में मल्लिकब्बे की प्रशस्ति(प्राचीन हस्त लिखित पुस्तकों के आदि और अंत की कछ पंक्तियाँ जिनमें पुस्तक के कर्त्ता विषय काल आदि का कछ पता चलता है उसे प्रशस्ति कहते हैं) मूडबिद्रि के महाबंध की प्रति से लेकर जोडा होगा। इसमें भूवलय की प्रति को दान दिया ऐसा नहीं कहा गया है। श्री भुजबलिशास्त्री जी के कन्नड ताड प्रति ग्रंथों के कोश में निम्न लिखित अंश दिखते हैं ____ पृष्ठ २५७. मूडबिदि, सिद्धांत बसदि, प्रति २२, भूतबलि का महाबंध, लिपि-प्राचीन कन्नड, प्रति लिपिकार-श्री उदयादित्य अपने राजा शांति सेन की पत्नी मल्लिकब्बे देवी के लिए रचा। श्रुतपंचमी के उद्यापन में सिद्धांत मुनिमाघनंदी को दान दिया गया। ___ प्रति २५. लद्धिसार नेमिचंद्र का ग्रंथ, प्राचीन कन्नड लिपि. प्रति लिपिकार-रेचण्ण. माघनंदी को प्रति का दान। प्रति २६. सत्तकम्म पंजिका- प्रति लिपिकार- उदयादित्य, राज शांतिनाथ के लिए माघनंदी को दान। पृष्ठ २५६. प्रति १५. वीरसेन का धवळाटीका, गंडरादित्य सेनापति मल्लिदेव ने कुलभूषण मुनि को दान दिया । प्राचीन कन्नड लिपि । ____ प्रति १७. धवळाटीका (षटखंडागम) मंडलिनाडु भुजबलि(?) , गंगपेर्माडि की बुआ देवीयक्का, कुपणपुर के आणिगवंश के जिन्नप्प द्वारा प्रति बनवा कर बन्निय केरे (तालाब) जैन चैत्यालय में मुनि शुभचंद्र को दान में दिया शालिवाहन शक ७३८(?)। पष्ठ २५५, ८ वीरसेन जिनसेन का जयधवळाटीका प्रति लिपिकार भुजबल अण्णचिक्कम्मय और बल्लिसेट्टि पद्मसेन को दान दिया शालिवाहन शक ७५८(?) प्रतियों को उदयादित्य और रेचण्ण माघनंदी, शांतिनाथ(सेन) मल्लिक्ब्वे के समकालीन हैं । महाबंध सत्तकर्म पंजिका और लब्धिसार की रचना की। महाबंध के ठिदिबंधादिकार की समाप्ति पर गुणभद्र सूरी के शिष्य माघ नंदी, उसे सेन मल्लिकब्बे ने शास्त्रदान किया ऐसा कहा गया है। अनुभाग बंधाधिकार में मेघचंद्र के शिष्य माघनंदी को सेन-मल्लिकब्बे 463 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय ने दान दिया ऐसा ही है। पदेशबंधाधिकार में मलधारि मुनीन्द्र के शिष्य माघणंदी को सेन ने दान दिया कहा गया है। अर्थात माघणंदी गुणभद्र, मेघचंद्र तथामलधारी के शिष्य थे। भूवलय की प्रशस्ति के अनुसार गुणभद्र सूरी के शिष्य माघणंदी हैं। यह महा बंध प्रति से संबंधित है। भूवलय को मल्लिकब्बे ने प्रति बनावाई वह प्रति ही अभी प्राप्त कागज की प्रति है ऐसा कहने के लिए आधार नहीं है। शांतिनाथ अथवा शांतिसेन नाम है ऐसा श्री भुजबलि शास्त्री जी ने कहा है । परन्तु केवलसेन, रूपजितसेन, ऐसा भी है, अमरावती में संपादित ग्रंथ से ज्ञात होता है। उदयादित्य शांति सेन के काल के विषय में शासन नहीं मिलते । अनेक मेघचंद्र- माघनंदी १२-१३ सदी के शासन में उक्त हैं। बन्नि केरे (तालाब) के शुभचंद्र के विषय के अनेक शासन सु.सन् १११८ से मिलते हैं। श्री भुजबलि शास्त्री जी धवळ जयधवळ टीकाओं की प्रति का,समय शा.श.७३८, ७५८ ऐसा लिखने में शायद कोई त्रुटि होगी । बहुशः शक १०३८, १०७८ (सन् १११६,११३६) कहा जाय तो शुभचंद्र शासन के समय काल से ठीक होगा। महाबंध सत्तकम्म पंजिका प्रतियाँ उसी समय में उत्पन्न हो, उसी सेन मल्लिकब्बे प्रशस्ति भूवलय से अन्वय (संबंधित) है ऐसा तात्कालिक रूप से निर्धारित करें तो, इंद्रनंदी(सन् ९३०) और सन् ११२० के अंदर भूवलय रचित हुआ होगा, कह सकते हैं। अर्थात अमोघवर्ष शिवमार (सन् ८१५) के कहे के लिए परिहार को ढूँढना होगा । यह अद्भुत ग्रंथ संपूर्ण होकर प्रकटित हो तो काल निर्णय करने में सहायता होगी। ७. एस.श्रीकंठ शास्त्री जैज्भगवद्गीता: कर्मवीर, २७-८-१९६१ आदरणीय ग्रंथ लगभग आठवीं शताब्दी तक भगवद् गीता जैनों के लिए भी आदरणीय ग्रंथ था। कुमुदेन्दु के सिरि भूवलय में अनादि गीता को वृषभ तीर्थंकर ने भरत बाहुबलि को उपनयन (जनेऊ) में बोधित कराया यह परंपरागत रूप से प्राप्त नेमितीर्थंकर के काल में नेमिनाथ कृष्ण बलराम को बोधित हुआ कृष्ण ने अष्ट भाषाओं में समझने की रीति में अर्जुन से कहा व्यास जी ने संस्कृत में जयख्यान नाम से गीता को भारत(महा) में मिलाया । इस जयख्यान के तीन अध्याय के गीता को कुमुदेन्दु ने दिया। इन तीन अध्यायों के प्रथमाक्षर स्तंभ गीता के तीन श्लोक बने हैं । 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म' “ममयोनिर्महद्ब्रह्म” “तत्रिगुह्यतरं -464 464 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय "" शास्त्र" ऐसे तीन स्तंभ बने हैं । प्रथमध्याय के अंत में चिदानंद घने कृष्णेनोक्ता स्वमुखतोवर्जनं। वेदत्रयि परानंद तत्वार्थ ऋषिमंडलं ।। कहा गया है । तत्वार्थाधिगम सूत्र और ऋषिमंडल गीता में अनुस्यूत ( मिलें ) हैं । द्वितीय अध्याय 'अथ व्यासमुनींद्रोपदि जयताख्यानांतर्गत गीता द्वितीयोध्यायः " ऐसे आरंभ होता है। यह अध्याय भी “ योष्टागा जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानस ज्ञान्सिद्धिं सलभते ततो याति परां पदम" इस श्लोक से अंत होता है । तृतीय अध्याय भी " अथ वेदव्यासर्षिप्रणीत जयख्यानाद्यंतर श्रेढी ऋकमंत्रांतर्गत भगवद्गीता तृतीयोध्यायः " अथवा प्रतिलोम रूप में " अथ व्यास महर्षि प्रणीत जयख्यानांतर्गत भगवदगीता तृतीयोध्यायः " ऐसे प्रारंभ होता है । " तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। प्रवक्तंते विधानोक्ता स्थततं ब्रह्मवादिनं” ऐसे अंत होता है । इतना ही नहीं इक्कतीसवें अध्याय में “पख्खेवगणीयसारं” ऐसे आठ श्लोक हैं। इस प्रकार ५४, ५४, ५४, कुल १६२ और ८ (१७०) श्लोक जयख्यान के भगवद गीता में हैं कहा गया है । इनमें से १३३ श्लोक आज की गीता में मिलते हैं । शेष ३७ श्लोकों में गीताप्रशंस, पठनफल, जिनसेन के महापुराण में कहे जिनसहस्र नाम दर्शनसार समयभूषण के जैनाभास शाखाओं के निंदारूप के श्लोक मिलते हैं। इन सभी को भगवद् गीता के मूल श्लोक नहीं कहा जा सकता है। इतना ही नहीं भगवद् गीता के श्लोकों में आनुपूर्वि दिखाई नहीं देता है। अलग-अलग विषयों को कहने वाले श्लोकों को प्रथमाक्षर स्तंभ बंध के लिए जोडे गए हैं ऐसा प्रतीत होता है । वहाँ भी गोपुच्छक के लिए शापुच्छक इत्यादि व्याकरण दुष्टवाद प्रयोग दिखाई पडतें हैं । भूवलय में किसी गीता प्रशस्ति के श्लोकों को नहीं मिलाया गया है। भूवलय की गीता यत्रतत्रानुपूर्वि में है ऐसा कहा गया है । पूर्वानुपूर्वि अथवा पश्चातानुपूर्वि में ही सही यही श्लोक रहेंगें । जयख्यान के गीता में मूलसंघ के भेद, देव, सेन, नंदि संघों का उल्लेख, शा(?) पुच्छक, श्वे (शी ?) तवास, द्राविड, यापनीयक, निःपिंछ, ऐसे पाँच जैन पंथों को आर्या (दा) भास कह कर संबोधित किया गया है, साधु उपाध्याय लक्षण, ऋषभसहस्रनामस्तोत्र आदि नहीं हो सकते हैं। ऐसे ही प्राकृत जयभगवद गीता संबोधित करने में निर्वाण गाथाएँ, त्रिलोक प्रज्ञप्ति श्लोक मिले हुए हैं। इसके यत्रतत्रानुपूर्व पूर्व वर्णन में सिरि कुमुदचंद मुणिणा णिम्मवियं यलवभू, मिमिणं, इस प्रकार कुमुद चंद्र का नाम भी उल्लेखित होता है। 465 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय कुमुदेन्दु को कुमुद चंद्र नाम भी दिया गया है। यही इस प्राकृत (?) गीता को निर्मित करने के कारण यापनीयक नहीं होंगें यापनीयकरों को जैनाभास, ऐसा अन्य दिगबंर ग्रंथों में कहा गया है। यहाँ यापनीयक आर्या(द्या) भस कह के कहा गया है। सिरि भूवलय में दिए गए भगवद् गीता प्राचीन जयख्यान गीता है ऐसा अंगीकार करने से पूर्व इन शंकाओं का समाधान देना होगा। ता.२७, २८, २९, दिसम्बर १९६० ८. अ. न. कृष्ण राय जी ४२ कन्नड साहित्य सम्मेलन मणिपाल, दक्षिण कन्नड जिला सिरि भूवलय धवळ के वीरसेन के जिनसेनाचार्य के शिष्य और मान्यखेट अमोघवर्ष के गुरु कुमुदेन्दु विरचित सिरि भूवलय ग्रंथ विश्व साहित्य में एक अद्भुत कृति है। कवि ईसा के उत्तरार्ध आठवीं सदी के हैं और उसी काल समय में उन्होंने इस कृति की रचना की होगी ऐसा संपादक पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी का और कर्लमंगलन श्रीकंठैय्या जी का अभिप्राय है। सिरि भूवलय एक ग्रंथ नहीं है। यह ग्रंथों का भंडार है इरुन भूवलयदोळेळनूरहदिनेन्ट भाषेगळवतार (भूवलय में ७१८ भाषाओं का अवतार है)। ऐसा स्वयं कवि का कहना है। नुणपाद (चिकना) दुण्डाद( गोल) एक बिन्दु को तोड कर उसकी सुन्दरता मे विघ्न ने होने की रीति में अनेक सुन्दर रूप में बना कर उन अनेकों में अक्षरों को समाहित कर विश्व में न कभी पहले था और न कभी आगे होगा ऐसी अपनी ही एक रीति को कवि ने प्रदर्शित किया है। आपकी सर्वभाषामयी भाषा को आप ही की एक भाषा है कहना होगा। अपनी काव्य भाषा सर्वभाषामयी कर्नाटक है कह, विश्व के भूत भविष्य और वर्तमान से संबंधित सभी भाषाओं के सभी ज्ञान को इस ग्रंथ राशी में गणित बद्ध रूप से समाहित किया गया है ऐसा भी कुमुदेन्दु कहतें हैं। नौ खंडों की इस ग्रंथ राशो का प्रथमखंड मंगलप्राभृत जिसमें ५९ अध्याय हैं। कन्नड, संस्कृत, प्राकृत तीन भाषाओं का कवि ने प्रयोग किया है । प्रथम खडं तथा शेष आठ खंड संग्रहित हैं। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय I इस ग्रंथ समुच्चय में धर्म, साहित्य, विज्ञान, तंत्रशास्त्र आदि के ग्रंथों के साथ भारत के इतिहास, संस्कृति, भाषाओं पर अनेक नवीन जानकारियाँ भी निरूपित हैं । प्राचीन भारतीयों को खंडांतरयान, खगोलविज्ञान, आयुर्वेद, गणित शास्त्र, जीवशास्त्र, भौतशास्त्र, रसायनशास्त्र में निहित जानकारियों को कवि ने प्रस्तापित किया है। अपने ग्रंथ में गीता भी आठ-दस रूप में होने के साथ जयख्यान संहिता नाम के मूलमहाभारत को भी निरूपित किया है ऐसा कुमुदेन्दु कहतें हैं । रामायण, ऋगवेद, जैनदर्शन ग्रंथ भी सिरिभूवलय में समाहित है। परमाश्चर्यकर इस अपूर्व ग्रंथ को प्रकाश में लाने वाले दिवंगत पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी, श्री कलमंगल श्रीकंठैय्या जी अभिनंदन के सुपात्र हैं। इस ग्रंथ विषय में और अधिक संशोधन कार्य होना शेष है । विविध भाषातज्ञों की एक मंडली को यह कार्य अपने हाथ में लेना होगा । केन्द्र सरकार ही इस कार्य का निर्वहन करें तो श्रेयस्य होगा । उनके ध्यानाकर्षण में इस ग्रंथ को लाना राज्य सरकार का कर्त्तव्य है। ९. श्री दोड्डमेटि अन्नदानप्पा जी कर्नाटक राज्य क्यों कहा जाए ? सिरि भूवलय : सन् ६८० ईसवी में हमारे यही कोलार जिले के नंदिदुर्ग के समीप श्री कुमुदेन्दु मुनि नाम के जैन ऋषि के द्वारा कन्नड के अंकों से लिखित सर्वभाषामयी, सर्वतत्वबोधिनि सिरिभूवलय नाम का अपूर्व ग्रंथ शोधित होकर आधा-अधूरा मुद्रित हुआ है। इस ग्रंथ के लिए भारत सरकार तथा राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी ने विशेष प्रोतसाहन प्रदान को हम में से अनेक जानते हैं। इसमें कर्नाटक प्रशस्ति के विषय में अनेक श्लोक हैं । जिसे मैसूर अधिवेशन में मान्य सदस्यों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया था कि उन्हें मैसूर राज्य के नाम को कर्नाटक नाम से परिवर्तित करने निर्णय को लेने में सहयोग मिलें। १०. अनंतसुब्बराय जी सिरिभूवलय गणित सिद्धांत आयुर्वेद २९ सितम्बर १९५७ सिरिभूवलय सकल भाषाओं मे (७१८) वेद, शास्त्र, पुराण, वैद्य, वेदांत, ज्योतिष्य, अणुविज्ञान आदि समस्त विचारों (६४ कला), भगवान के जिनवाणि - दिव्यध्वनि में 467 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय भगवद्गीतात्मक रूप में कुमुदेंद् मंगल मुनि द्वारा कही गई प्रत्यक्ष विश्वरूपी गणित सिद्धांत साहित्य है । इसमें ६ लाख कन्नड श्लोक, उससे संस्कृत प्राकृत आदि देव मानव मग पैशाचिक भाषादियों में करोडों गद्य पद्य श्लोक उत्पन्न होते हैं । यह विश्वविख्यात अप्रतिम महाग्रंथ में सिद्धांत आयुर्वेद एक लाख श्लोकों से वर्णत हाता है। सरस विद्येगळोळु कामनद कलेयोळु। हरुषदायुर्वेददोळु लरयद अपुनरुक्ताक्षरदंकद । सरस सौनदरी देवियोडने ॥ मनविटू कलितवनाद कारणादिन्दा । मनुमथनेनिसिदे देवा ।। शरणसदे सौनदरीयरीतकगननेय घन क्वेि इरुव भूवलय ।। अर्थात सरस विद्या में काम कलाओं में हर्षयुर्वेद में अक्षरांक के सरस में मन से सीखने के कारण यह भूवलय काव्य एक घन विद्या है। ___यह सरसविद्या से भरी काम कला की विधि विधानों को प्रप्रथम, कृत युग में आदिवृषभ देव जी के पुत्र गोम्मटदेव और उनके सहोदरी सौंदरी भी गणित सिद्धांत द्वारा अपने पिताजी से उपदेश प्राप्त किया । उसको गोम्मट देव ने मन से सीखने के कारण मन्मथ हो गए । केवल ९ संख्या से सकल शास्त्रों को सीखा। आज सामान्य मनुष्य के द्वारा काम की कला को समझते ही देह क्षीण होने लगता है। इस प्रकार देह क्षीण न हो, यौवन स्थिर हो, मन्मथत्व भी संपूर्ण विकसित हो तभी आयुष्यवृद्धि होने की काम कला प्रसन्न होकर प्रवर्धमान होगा । इस काम कला के आयुर्वेद का क्रम सामान्य समाज का क्रम नहीं है वह रीत अलग ही है। जाति जरामरणावनु गुणाकार । दातिथय बरे भागहार ।। ख्यातिय भंगदोळरियं विख्यात । पूतवु पुण्यभूवलय ।। सागरद्वीपगळेल्लव गणिसुव । श्री गुरु ऐदवरंक । नागव नाकव नरकव मोक्षन । साघनवागिसिदंक । अर्थात: यह सिरि भूवलय काव्य पवित्र काव्य है क्योंकि जाति, जरा(बुढापा)-मृत्यु से भी ऊपर गुणाकार भागकार से मिला है और नाकव अर्थात स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि विषयों को घन अंकों में ही विवरित किया गया है। 468 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय महाराशी में से जितना ही निकला जाए कम न होना ही अनंतराशि है । इससे कम संख्यात राशी है यह मानवों के लिये है। अनंतराशी ही परमात्म केवल ज्ञानगम्य है । इन तीन गिनती(संख्या) में ६४ अक्षरभंग में आनेवाले ९२ पृथक अंकों में आयुर्वेद गणित में अनेक विधिविधान, अष्टविभाग, चिकित्सा क्रम आदि निहित है । आज उपलब्ध औषधक्रम में वृक्ष, पत्र, फलादियों से श्रेष्ठ पुष्पायुर्वेद सिरिभूवलय में आने वाला एक विशिष्ठ विचार है । वृक्षायुर्वेद में वृक्ष नाश होते हैं । फलायुर्वेद में थोडा घात है । पुष्पायुर्वेद में वृक्ष को थोडी भी हानि नहीं है । वृक्ष के पंचांगसार भी समाहित होता है । इसका रसायन अद्भुत फलकारी है । यह संख्यात, असंख्यात, अनंतानंक तीन से गुणा कर गणन से मिले लब्धांक में आयुर्वेद में १८००० जाति पुष्प मिलते है । इसमें अतीत कमल, अनागत कमल, वर्तमान कमल यह भूवलय में प्रमुख है। इस सिरिभूवलय काव्य को सागर पल्यादि गणित बंधों से बाँधकर, आत्मा को ध्यान से बांधने की भाँति, पुष्पायुर्वेद से पादरस को बांधना है । रससिद्धि करना है। श्री कृष्णार्जुन से आए पंचभाषा भगवद्गीता के प्राणवायु पूर्वे के द्वारा १४ कर्मों को समझकर अंकों की उलझन को सुलझना चाहिये । नहीं तो पादरस नष्ट हो जाएगा। मनद दोषक्के सिद्धांत शास्त्रनु। तनुविगे प्राणवायु ।। वनुपमवचनद दोषके शब्दवर । धनसिद्धांतवनरुहिं।। अर्थात सिद्धांत शास्त्र मन के दोषों की भाँति ही शरीर के लिए भी प्राणवायु। वचन दोषों के लिए शब्द । इस प्रकार धन सिद्धांत को समझाया। इस प्राणवायु पूर्वे में १३००००००० पद है। इसको अक्षरों में परिवर्तित करें तो २१२५२८००२५४४०००००० होते है। श्री मम्मडि कष्णराज वोडेयर ने देवालय में शत्रु कार्याचरण द्वारा विष्यक्त तीर्थ प्राशन करते समय दैवभक्ति के साथ विष को पचाने की औषधि की रिद्धिसिद्धि को प्राप्त किए हुए थे । प्रतिदिन गरम रागी( एक धान्य) के आटे के साथ सोने के रेक (सोने का पतला चिपटा पतला पत्तर या टुकडा) का सेवन करते थे । अत्यंत बलवान थे । उन्होंने उस तरह के औषध को उस समय के आस्थान में उपस्थित जैन ब्राह्मण पंडितों से सीखा 469 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय था । उसको नेरद दृष्ट बीळलु विषवमृत... ॥, चित्रवचित्रवादौषधि.....॥ जैसे अनेक पद्य के अर्थ को पुनः अवलोकन करे तो यह स्पष्ट होगा । __ श्री पूज्यपादाचार्य पंडित का नाम अभी भी आनुवंशिक वैद्यों ने सुना है । वह कोळ्ळेगाल मे स्थित माधवभट्टाचार्य के संतान हैं । उनके ससुरजी ही पाणिनि आचार्य है। श्री पूज्यपादाचार्य ११ साल तक उस समय के दिगंबर जैनमुनि संस्था के आचार्य थे । यह समान्य विचार नहीं है । इससे पूर्व चौथी सदी में समंतभद्राचार्य , सिद्धांतरसायन कल्प जैसे अनेक वैद्यग्रंथ के कर्ता थे। उन्होंने नरसिंहराजपुर में एक मठ(पाठशाला) की स्थापना की थी। गेरुसोप्पे के समीप रह रहें जैनमुनि द्वारा सूत स्वर्णविद्याओं को जानते थे । इनके द्वारा रचित भूपुट, भूरुहपुट, गणित पुट, मूष( लोहे को पिघलाने के साधन) गणित आदि अत्यंत मूल्य है। आज के प्लाटिनं कहनेवाले लौह को श्वेतस्वर्ण-सफेदस्वर्ण ऐसा इस ग्रंथ में कहा गया है। समंतभद्राचार्य ने सिंदूर को अत्यंत आरोग्यदृढकाय शरीर के रक्तरेणु की भाँति है ऐसी जानकारी दी है। पूज्यपाद के वचन के अनुसार सिंदूर उद्यद् भास्कर सन्निभं च विमचं तत्सूर्य भारंजितं । वातं पित्तेन शीतं तपनिल नहितं विंशतिर्मेह हति ।। तृष्णादाहार्ध गुलं पिशगुद रजोपाडु शोमोदराणां ।। कुष्टं अष्टदशघु सकलवण सन्निशूलाग्र गंधी ॥ बाल स्त्री सौख्य संगं जरा मरणा रुजा कांति मायुप्रवर्ध।। इस सिंदूर १८ प्रकार के कुष्ठरोगों का नाश करता है । इससे जरा(बुढापा) मरणरुज(रोग) का नाश होता है ऐसा कहा गया है । इसी प्रकार सिरिभूवलय में आनेवालाजयचक्र केसरगर्भदंतरदर्ध । नयका कक्षपिंछ बला । नियतिकांतार भल्लातकीगडिया । शम्याकामृतमोघं ॥ -470 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय इस सांगत्यपद्य में चक्रं केसर गंधकाद्रक बला कांतारभल्लातकी । शम्याकाम्रुत मोघमुत्पल सुमं कार्पास जीवंतिका ॥ यह संस्कृत श्लोक, अनेक श्लोकों के विवरण के साथ एक बार सिद्ध किए गए औषधि को हजारों लोगों को सालों तक दिया जा सकता है, ऐसा विवरण दिया गया है। सिरि भूवलय में वेदनीय कर्म को दो भेदों में समझाया गया है । सुख ही सातावेदनीय, दुख ही असातावेदनीय । इनकी तीव्रता या मंदता से भी क्षुधा तृषा अनेक पीडाएं उत्पन्न होती है । यह मानव में सदा ही उत्पन्न होता है । परंतु वह वीतरागप्रभु में संपूर्ण न हुआ होता है । इसलिए उसमें अनंत सुख होता है । इसी तरह राग में शुभअशुभ के दो प्रकार होते है । धन, कनक, रत्न, राज्य, स्त्री इत्यादि मानव के लिए शुभ माना जाए तो योगियों के लिए यह अशुभ है ! इस प्रकार रागादि रोगों का नाश कर आत्म के नित्यपद, मोक्ष को प्राप्त कराना ही आयुर्वेद का उद्देश्य है । जातस्य मरणं ध्रुवं त्रिकालाबाधित नित्यसत्य कहावत को, व्यवहारनय प्रधान इस सिद्धांत को सिरिभूवलय का आयुर्वेद कहता है- यह गलत है ऐसा भगवंत के भगवद्गीता में कहा है । जन्म लेने वाला न मरे, मरना भी नहीं है, ऐसा सिरिभूवलय के आयुर्वेद सिद्धांत कहता है । वाग्भटाचार्य-रागादि रोगान सततानुशक्तान इस पद्य में राग ही रोग का जड है ऐसा कह उस पर जय प्राप्त करनेवाला ही भवरोगवैद्य परमात्म है, ऐसा कहा है । सिद्धांत रसायन से जर, मरण, रुज का नाश होता है । इसलिए जीव नित्य सुखः से सदाकाल जीवित रहता है । ज्ञानवरणीययादि अष्ट कर्मों से संसारी जीवन को बांधने की भाँति पादरससिद्धि को अष्टविधकीटादि कर्मों से बांधाना चाहिए । इस संसार में भगवान को हमने नहीं देखा है । परंतु युक्ति से उसे देख सकते है । उसी प्रकार पादरस (पारा) को बांध कर सिद्ध कर उसमें सकल गुण को देखने के लिए दोषविमुक्त होकर शुद्धजीवन जैसे सिद्ध रस होना चाहिए । मुक्तात्मों को सिद्ध कहने की भाँति सिद्धरस को भी दोष से मुक्त होना है । 471 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय समंतभदाचार्य जी ने मंगल श्लोक में ही सिद्धरस स्तोत्र किए है। अर्हत्पदा भोजनमस्कारो सिद्धेर सालंकृत दीपीका द्यौ। नानर्थरत्नाकर सिंधुलोहरसेन्द्र जैनागमसूत्र बद्धं । परमात्म के विराट रूप और महागुण हमने नहीं देखा है। उसे देखने के लिए हम विद्युत दीप जैसे अनेक ज्योतियों को प्रकाशित करते है । पर क्यों ? वह अचेतन है। शाश्वत प्रकाश नहीं देता है । सूर्य का प्रकाश भी शाश्वत नहीं है । निशा में उसका भी प्रकाश हमारे लिए नहीं है। इस कारण परमात्मा को देखने के लिए कोई भी योग्य नहीं है। हमारे इष्टदेव इन किसी से भी नहीं मिलेंगें । अष्टकर्म से मुक्त होना है । रस मूर्छित हो तो रोग नाश होगा । रस मृग बन जाए तो (भस्म) धन, धान्य और ऐश्वैर्य प्राप्त होगा यह शुद्ध हो तो सिद्ध रस बनेगा । इस कारण आकाशगम नेत्यादि अजरामरत्व प्राप्त होगा यह हमारे समझ में नहीं आया होगा। पर कायाकल्प आदि से आयुष्य वृद्धि होगी इस विषय के जानकारी तो हमें है। वैसे ही नित्यजीवन, नित्य सुखः प्राप्त करने के लिए आयुर्वेद का साधन होना बहुत आवश्यक है । इसमें ऋग्वेद आदि सकलशास्त्र भी सामाहित होते है । इस विषय के तथ्य के लिए इसे ९२ पृथक अंकों को, शब्दराशि को इस ग्रंथ में आनेवाले आयुर्वेद भाग को दि।। श्री नाल्वडि कृष्ण राजवोडेयर ने श्रवणबेळगोळ के दूसरे महामस्तकाभिषेक के समय में, राजकुमारी अमृत कौर जी, श्री अजितकुमार शास्त्री और अनेकों ने सुनकर बरोडा आयुर्वेद परिशोधनालय में विमर्शन करने के लिए कहा। अखिल भारत आयुर्वेद कांग्रेस के विद्यापीठ के अध्यक्ष श्री रामगोपाल शर्मा जी ने दिल्ली के कनॉट सर्कल में श्री आशुतोष मुखर्जी के औषधालय में यह देखा तो इस सिरिभूवलय आयुर्वेद विभाग से प्रकाशन के लिए धन सहाय आदि सौकर्य प्राप्त कराने के लिए निर्णय कराया। वह जल्द कार्यगत हो तो सारे विश्व को अत्यावश्यक इस ग्रंथ के आयुर्वेद विभाग को प्रदान किया जा सकता है ११. डॉ.एस.के. करींखानजी ____ कुमुदेन्दु विरचित सिरिभूवलय एक महा काव्य ग्रंथ है। यह संसार के सभी भाषा लिपियों को समाहित कर, तीन सौ तिरसठ धर्मों के सार को,चौंसठ महा कलाओं को उस पर सातसौ अट्ठारह भाषाओं को विवरणारूप से अंकाक्षर माध्यम द्वारा दिया जाना Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) ही महत्वपूर्ण है । आज के गणक यंत्र तभी सातवीं सदी में ही थे ऐसा साक्ष्याधार ही सिरिभूवलय है जगत की सर्वशांति के लिए यह ग्रंथ उपयोगी सिद्ध हो ऐसी शुभकामनाओं के साथ ला इलाही इल्लल्लाह मोहम्मदर्तसूलुल्लाह १२. डॉ. सूर्यदेव शर्माजी, सं, आर्य माण्ड, अजमेर ___मैं पाठकों के सम्मुख एक अद्भुत ग्रंथ के संक्षिप्त विवरण को देने की इच्छा रखता हूँ। इस ग्रंथ के समान और किसी ग्रंथ को मैंने अपने जीवन में न तो देखा है और न ही सुना है। इस ग्रंथ में अनेक स्थान पर ऋगवेद की प्रशंसा में दिए गए विश्लेषण को मैं एक श्लोक के रूप में कहता हूँ - अनादिनिधनां वाक दिव्य ईश्वरीयं वचः ऋगवेदोहि भूवलयः सर्वज्ञानमयो हि आः।। इसके द्वारा महर्षि दयानंद तथा आर्यसमाज के वेदों के अपौरुषेयते सिद्धांत कितनी सुन्दरता के साथ स्पष्ट होते हैं । अंकों को ऊपर से नीचे की ओर पढते जाए तो संस्कृत श्लोकों की उत्पत्ति होती है इसे मैंने स्वयं देखा है। १३. भास्करपंत सुब्बनरसिंह शास्त्री भूवलय में निहित प्राचीन भारत का दिव्यज्ञान सारी दुनिया के लिए एक सवाल है। कुमुदेन्दु मुनि ने इस महा ग्रंथ को गणित पद्धति में रचा है। १४. वीरकेसरी सीताराम शास्त्री जी वेदों का सर्व प्रमाण भूवलय में दिखाई देता है १५. तिरुमले ताताचार्य शर्मा जी कर्ता और ग्रंथ के विषय में किए गए टिप्पणी के कुछ भाग ३५-४० वर्ष पूर्व विश्व कर्नाटक के कार्यालय में एक यंत्रगल (साँचा)लाकर आप शिलालेखों को देखने में निपुण हैं इसका रहस्य क्या है ज्ञात नहीं हुआ कृपा करके इसे कोंच(थोडा) देखें ऐसा कह कर हाथ में थमाया। उसको पत्रिका के साहित्य संचिका के -473 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय मुख पृष्ठ पर प्रकटित किया है कोई भी इसे विवरित कर लिख भेजें ऐसा आह्वान दिया है। यंत्रगल न हो तो करुगल - करूंगल (सांचा) होगा ऐसी कल्पना की। इसके लिए भी उदाहरण हैं । अंतर इतना है कि करुगल यंत्र में अक्षर हैं और इसमें अंक । १९४०-४१ के लगभग होगा । प्रप्रथम बार सिरिभूवलय के विषय में पंडित यल्लप्पा जी के साथ आए । अनंतर कर्लमंगलम श्रीकंठैय्या जी ने आधा दिन यल्लप्पा जी के घर ही बिताया शेष आधा दिन हमारे घर पर बिताया । सिरिभूवलय के सांगत्य को वे अपनी ही धुन में गाते रहे । सिरिभूवलय के कुमुदेन्दु सन् ६८० में रहते थे सिरिभूवलय के सांगत्य की भाषा सातवीं सदी की नहीं होगी आठवीं नवीं सदी की कहना भी कठिन है । Dr. S.Srikantha Sastri, M. A., D. Litt I am informed that the whole manuscript consists of many pages, which are in an extremely frail condition, so that it is very difficult to handle them. I had also several talks with Sri Srikantayya about the complicated problems raised by this astonishing work. 16. From the clues, laboriously worked out by the editors, I myself have verified that the readings given by the editors, are substantially correct as far as published and I can say that, however astonishing the results are, there is no proof of deliberate forgery by any modern author. A dispassionate scholar, with no preconceived opinions, should be prepared to accept bearistic method of evaluating historical document until and unless substantial evidence is produced to the contrary. "Bhuvalaya" claims to be the work of Kumudendu, who says that he was the Guru of Amoghavarsha of Manyakheta and a desciple of Virasena and Jinasena of Dhavala. The recent discovery and publication of the 'Dhavala Tika' constitutes a land mark in Indological studies, essentially for Jainology. Kumudendu's Kannada Bhuvalaya is professedly based on Virasena's work, but is more extensive and perhaps more important. I have scrutinised carefully for any evidence of a latter date than 9th century A.D. The importance of this work may be briefly analysed under following heads: 474 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. सिरि भूवलय For the History of Kannada language and literature, it is one of the earliest works, however much it may upset our present notions of the development of Kannada language, unless it can be proved to be modern. For the history of Sanskrit, Prakrit, Tamil & Telugu literatures of the 9th Century, it is an eyeopener. For the study of Jainism in particular and all other schools of Indian philosophy and religions, it provides new material which may revolutionise our present concepts of the development of Indian thought. For political history of India and Karnataka, it provides fresh material as it mentions Amoghavarsha and Ganga rulers of Mysore. For the history of Indian mathematics, it is an important document. The recent studies in Virasena's Dhavala Tika show that Indians even in the 9th Century, if not centuries earlier, were conversant with the theory of place-values, laws of indices, the theory of logarithms, special methods to deal with fractions, theories of transformations, geometrical and mensuration formulae, infinite processes and theories of infinity anticipating Canter and other western mathematicians, correct value of (pi), permutation and combination etc. Kumudendu's work seems to be far more advanced than even Virasena's and therefore not easy of comprehension. For the study of Indian Positive Sciences, it is important showing how as early as the 9th Century, if not earlier, Physics, Chemistry, Biology, Ayurveda, Zoology, Veterinary Science, astronomy, etc. had developed in India. For the history of the fine arts like architecture, sculpture, iconography, painting etc. the Bhuvalaya forms an inexhaustible source. Special attention should be drawn to the version of Bhagavad Gita and Mahabharata, which have been embedded in the general text in such a way that it is impossible to assert that they are interpolotions by some moderns, who should have had extraordinary genius indeed to produce work involving a mathematical combination of letters to fit in the general scheme of numerous other Kavyas. There are not less than eight or ten versions of the Gita according to Kumudendu in five languages. Regarding the Mahabharata in which the Bhandarkar Institute of Poona is working for the past 25 years and more to bring out a critical edition, the Bhuvalaya professes to give the original nucleus of the Mahabharata called Jayakhya Samhita. Further it gives three versions of the Rig Veda differing entirely from the accepted versions. The Bhagavad Gita, Mahabharata and Rig Veda as 475 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 10. सिरि भूवलय well as the Ramayana (which also is included in this Kavya by Kumudendu) are acknowledgly fundamental texts for the study of Indian culture. Besides these works of general interest, the Bhuvalaya professes to give the texts of important Jaina texts like Tattavarthadigama sutras of Uma Swati, The Gandhahasti Mahabhasya, Devagamastotra etc, of Samanta Bhadra, Chudamani, Samayasara, Pravachana Sara etc of Kundakundacharya, the work of Pujyapada like Sarvartha Siddhi, Akalamka, Virasena, Jinasena etc of Digambara School, the Angas, and many works considered lost by Digambaras but claimed to have been preserved by the Swethambaras. Technical works like Suryaprajanapti, Chandraprajnapti, Jambudwipa prajnapti, Trilokaprajnapti etc. The work is also important from the archeological point of view as it gives a list of 27 alphabets, including Brahmi, Kharoshti, Yavanani (Greek), Saindhava (Indus Script), Gandhara, Bolidi etc. and languages like Tebati (Tibetan), Parasa (Persion) etc. In short the importance of this work can hardly be exaggerated for the study of Indian and world cultures. The editors by undertaking the decipherment of such a difficult work, with very little encouragement from the enlightened public, are really doing selfless work, whose significance can be realized only by a few scholars scattered all over the world, working in the field of Indological studies now and perhaps years later by the general public unless full publicity is given to this remarkable work. Even the elucidation of the main text from the cryptic table of numbers not only great sciences, arts, works on philosophy, religion etc. I am glad to testify that the editors have to the best of their ability discharged their responsibilities, handicapped as they are by the task of financial and other assistance. It is the duty of every person and institution interested in rescuing from oblivion a great Indian heritage, to help the editors. 17. Katte Nagaraj Siri Bhuvalaya Jayakhyana Bharata Bhagavadgita Anantha Ranga Prathisthana, Bangalore - 560076 The remarkable Kannada work called 'Siri Bhuvalaya', which is attributed to a Digambara saint Kumudendu, claims to have the 'Jayakhyana' of Vyasa (in 10,368 stanzas) and the original Bhagavadgita in five different languages, in the body of its text. Siri Bhuvalaya, which is said to be composed according to mathematical and phonetical formulae, claims that the work can be read in 718 languages and includes 363 philosophical systems and 64 kalas (arts), in fact all the arts and science of his time. 476 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भवलय The author Kumudendu says that he was the teacher of Rashtrakuta Amoghavarsha and Ganga Sivmara of Talakad, and disciple of Virasena and Jinasena, the celebrated authors of Dhavala and Jaya Dhavala tika. Kumudendu belongs to the line of Senagana, Jnata vamsa, Saddharma gotra, Dravyanga Sakha, Ikshvaku dynasty, down to Prabhavasena, Dharasena and Bhutbali. Though it is very difficult to decide the date of the work, it cannot be called as by some scholars a freak or a curiosity. Though one cannot agree with the late Sri. K. Srikantaiah on the question of the date of the work, the so-called mathematical tables, original MSs, etc., undoubtedly the work is earlier than the tenth century A.D. Siri Bhuvalaya contains 600,000 verses in Kannada. It is a compendium of Indian culture, philosophy, religion, art and science. Kumudendu, though a Digambara Jaina, says that Rgveda is the source of all knowledge, and tries to prove it in all aspects. He mentions almost all the canonical literature belonging to the different schools of thought of his time. Kumudendu's work 'Siri Bhuvalaya' is divided in to nine parts (volumes), and the first volume which is called, "Mangala Prabhrta" is an epitome of the remaining eight volumes. Out of the remaining eight volumes the first four contain: 1) Almost all the canonical literature of the Vedic school, Brahmanas, Upanishads, etc.; Digambara and Svatambara Jaina works and other religious works; 2)Original texts belonging to different Ayurvedic and Veterinary systems. Kumudendu mentioned more than 27 Ayurvedic systems which existed in India, and in the 3rd and 4th volumes he deals with the Indian positive sciences like physics, chemistry, alchemy, biochemistry, biology, botony, zoology, astronomy, space science, etc. The latter four volumes deal with the Karma theory and the liberation of the soul. 18. Colonel Sirdar M. Gopalkrishna Urs Military Bakshi & Hon. A.D.C. To H.H. The Maharaja of Mysore I went through the works of Sriman Pandit M. Yellappa Sastry. The name of work itself viz., "ANKAKSHARA VIGNANA" is a new thing to the world. The easy method of bringing in contact the figures with words is really a work of an extra-ordinary intelligence. The Composition of several poems on the new form seems to me so very hormonious and a great help to the leading authors as well. Hope his unique work will be appreciated by everyone. 477 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय 19. H.C. Dasappa Ex Minister for Finance & Industries, Karanataka My Dear Shri Ajit Prasad Jain, I am glad to introduce to you Sri Pandit Yellappa Sastry of Sarvatha Siddhi Company, Bangalore, who is well-read scholar in Jain literature. His erudition is of a very high order, tested and certified by oriental scholars. He has made many researches in higher mathematics & discovered "Sankhyakshara Vignana" & "Ayurveda" according to Jain tradition. It is truely a wonderful science. He wants to popularise these treatises by printing and publishing them in Hindi and Kannada. I shall be thankful and he would be very greatful if he is kindly given a patient hearing to explain these matters. 20. H.L. Devaraj Urs Durbar Bakshi & Hon. A.D.C. to H.H. the Maharaja of Mysore Sri Pandit M. Yellappa Sastry, a representative of Messrs. Sarvartha Siddhi Company, 359, Visveswarapuram Circle, Bangalore - 2, read before me a few select varses composed by him on various subjects. The subject matter and the way in which he has given expression to his "Sadhanas" not only in the field of "Sahitya" but also in "Adhyatma Yoga" have left a great impression on my mind. He is also an exponent of 'sichter fashi' which is based on pure mathematics. Though the ideas are based on Principles of Jainism, they are useful for all besides interesting. I appeal to the learned mathematicians to give him a patient hearing. He has reduced many "Adhyatmic" precepts into simple language which is within the easy reach of everybody. Such learned Pandits are very rare nowadays. I wish him every success in his attempts so that he may spread the Gospel of Truth & non-violence in every nook & corner of this ancient land which is perhaps now turning towards the materialism of the west. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित यल्लप्पा शास्त्रीजी के पास उपलब्ध सिरी भूवलय का कोरीकागज के चक्रो की कुछ प्रतियाँ MA' hen pun .. w in N.. ... . . . .. .! *** Sun ne Inw./ ** , . 9. 20 uro ... ... .... 1922-12-**.. ** nini na n.2 new 192, **yante faxinn vis s JOS - M ...45.R . 1 L 2. 2 SA ." . X. 12. 12.10 . lat. In 13:20 W in X5 8 12 Ervin 24; 2.1 * Y' 1* *2,20 puk2. t *.2an 21- **.YOXO fat... * Mumin, 12:33 : 2 2 tn 12.;4... - Int. n 12 , n.12 . ymn 2010-20 11 ** ....* 3:*;2An t ena ...*** WSV-21** n. 1 20 mm 2 :20.. .1 99 Y MY!". dvazin!!.4****,, 1-2- r mtinik 12 NMD 6.3 U C'Eccs?! se u vk - U uvj.7.07 > Amhar vs. Soor? ch zivi ulchar, o rtal toxin. u WEMA 1.TE tilan P T h alinin 27 de in ,122 27,62.Luna 42. Ny v. to. 2 w ** - : r > ** * An Xxx2x2 2.2.3 Yen *;*2. **** " "Yo Yuan ni ?. * * * MYL AW. Le prin Vamanns. Va ** inny AUX 20 n. n . 20 na buity 19. XV ). Max, MA 1 , Y WL, YL LAMA nnn IS Six 112. 2. in. .. v i * Y 12M VL j?. 3, Yuriy...MY .7.192 1 . 2.2.1 AL?.. . . . üuixusu nitamentelor csebu Uw kin . Th 7 ul-ah -> 7* nc **7*u'vure u uluruusui-'*** au use thax ka XX3x Xenin! De ce Ungutust ou***Uue su "Tix Shalu or y ? iXnNXL2 xem nevlan!! Pero 2M an x2. ****2.20 no-ingine M-1x * *2. i W 12 -2 _w swym 29x21 sat, 1.2. VEYS.* M won **. in 2.***.1252 A. . r o manit. _* W XXniww.v2 MY 1 sx concu you! U .2 raktan X T FOU U 3 nr.2. ** . X. 120 UHR 302. h iliku 5 ? porn nein n at2... SAN Manantonivelen 1922 479 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर राष्ट्रीय प्राच्य संग्रहालय में बनवा कर रखी गई १२३० चक्रो की माइको फिल्म और पॉजिटिव 480 छायचित्र वाय. के. मोहन् Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी के द्वारा राष्ट्रपित बाबू राजेन्दप्रसाद तथा मैसूर महाराजा जी से मुलाकात के संदर्भ में पत्र व्यवहार No. F.13(2)-0/61. SECRETARY TO PRESIDENT OF INDIA, RASHTRAPATI BRAVAN, Naw DELEL 27th December 1951. Dear Sir, With reference to your letter dated the 24th December 1951, I write to say that the President will be glad to see you at 5-00 p.m. on Tuesday, the 1st January 1952. Kindly acknowledge receipt. Yours faithfully, Balliste (Balkrishna), Deputy Private Secretary to the President. Pandit Yallappa Shastri, Bangalorevala, c/o All-India Digambar Jain Maha Sabha, General Secretary's Office, Nai Sarak, Delhi. Imediate. JAVA / TO THE PARENT No. 7. 13(2)-0/66. New Dum. 21st March, 1956. Dear Sir, With reference to your letter dated the 19th March seeking an interview, I am desired to say that 11-00 a.. on Thursday the 22nd March has been fixed for you and "bri 3 Nijalingappa to call on the President. Yours faithfully, Pratch Tes (Valmiki Choudhary) · 104qwyn, unuity. Sri S.M. Malingappa, M.P. 19-Ferosshah Road, Max Delhi. 481 PRIVATE BECKSTARY TO THE PRESIDENT OF INDIA, RASHTRAFATI BHAVAN, F.No. 13(2)-G/54. NEW DELHI 25th Octr. 1954. Dear Sir, With reference to the request made on your behalf by Shri S. Mijalingappa M.P. for an interview with the President, I am desired to inform you that the President will be glad to see you at 6-00 p.a. on Saturday the 30th October 1954. A line in reply conrirming the appointment will be greatly appreciated. Yours faithfully, Growth Gray Pandit M. Yellappa Shastri, c/o Shri S. Mijalingappa, N.P., Bangalore Ambavilas Entrance. (Valmiki Choudhary) " Sri Yellappa Bastry, c/o Br1 1.P. Anantares, F.T. Station, Mysore. Dear Sir, No.F.H.3/5-67 The Palace, Mysore, September 20, 1956. I write to intimate that His Highness the Maharaja will be glad to see you in the Palace here this morning at 9-45 A.M. Please enter the Palace through the You faithfully, (3, Darashah) Becretary to H.H. the Rajpramukh of Mysore. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यलवल्ली के समीप गोवर्धनगिरी के पास स्थित जैन शिला लेख छायचित्र : वाय.के. मोहना सिरी भूवलय प्रथम परिस्करण २२-३-१९५३ में विमोचन के संदर्भ का आमत्रण पत्र ಹ-ಶಿರಾರು, ಬೆಂಗಳೂರು ಶಕೆ ಆಶ್ರಯದಲ್ಲಿ) ರ್ಯಕ್ರಮ # ಶ ಕಾಶೀಳು ೩೫-t-oranಸರು ಭಾನುವಾರ lod & ಇವರಿಗೆ ಸರಿಯಾಗಿ ಶ್ರೀ ಕೃಷ್ಣ ಈw Kಶಿಂಪಿಕ್ ಸಭಾಂಗಣದಲ್ಲಿ ದ #ಗd 4 pm ಕಂತಿನ ಎಳಜ್ಞ way ಆದರಿಂದ lg' sayskoodsಂಟಿಗೆ ಸಿದ್ದವಾಗಿದೆ ........ : ಶ್ರೀ ಕುಮುದೇಂದು ಗುರುಏdise * ಸಿರಿ ಭೂವಲಯ ” ಗ್ರಂಥದ ಪ್ರಕಟನೋತ್ಸವವನ್ನು ಮೈಸೂರು ಸಂಸದ ಏm ಕುಂತ್ರಿಗಳಾದ , ಉಮಚಂದ್ರರಾವ್, .ವಿ, ಎಲ್ ಎಲ್.ಬಿ, ಇವರು * ನೆರವೇರಿಸಲು ಕೃಪೆಯಿಟ್ಟು ಒಪ್ಪಿರುತ್ತಾರೆ. ಸರ್ವರೂ ಧಯಮಾಡಿಸಬೇಕಾಗಿ ವಿನಂತಿ. ೨. ೫ಾಗ+ಹರಿಹತ್ತಿ ನ ಅಧ್ಯಕ್ಷರಿಂದ & ಉದ್ಯಮu. AD ಭೂದಲು • ಗ್ರಂಥದಿಂದ) * ಸ್ತ್ರೀ ಶಕ್ತಿ ತುಂಗದಳಂಕಯ್ಯ ಗದರಿಂದ 9 ಗ್ರಂಥ ಹರೀಶ 'ತು. ಇಾಟಿ ಭಿಜಗ್ಯಚ ವೈದ್ಯಲaBanase ಶ್ರೀ ವಿಲಕ್ಷ = Vವರಿಂದ ಈ ಗ್ರಂಥದ ಪ್ರಕಟನೆ-bಮ್ಮ ಮಂತ್ರಿಗಳಾದೆ ಶ್ರೀ ವಿ. ಜಿ. ಪಂದ್ರೆ ಉಳ, ಬಿ.ಎ,ನೀಳ ಎಳೆ . ಓ, ಅಂದzners, Modioptouಯ, A +, ನಗರಾಚರಾಸ್, ಗೌ| wಯದrne" ಕಾಣದು ಅಚ್ಚುಕೂಟ, ಆಥ ಹಿನ್ನ sಂಡೆಡು ” ಗ್ರಂಥ dar 482 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अँक चक्र Start 59 23 1 16 1 28 28 1 1 56 59 4 56 1 1 47 16 34 1 7 16 1 1 7 56 160 53 54_47 28 1 47 45 28 7 4 59 41 4 45 1 30 47 47 45 42 53 28 51 1 52 1 1 1 22 1 30 2 1 2 55 30 1 7 45 47 52 1 4 1 47 1 1 1 1 53 1 52 5952 59 30 2 55_55 13 16 2 53 60 1 4 16 47 48 45 16 56 56 43 45 1 56 1 4 1 13 47 45 1 1 22 30 51 1 2 56_38 30 4 1 1 56 1 1 16 1 57 7 56 56 1 22 1 54 52_52 45 1 7 55_48 1 58 52_35 28 55 1 38 45 30 55 4 47 7 45_38 45 38 1 1 1 1 28 13 56 55 51 54 1 1 1 1 42 2 4 4 1 43 16 47 7 1 13 4 514 28 53_47 22 8 1 53 59 38 7 43 40 1 52 59 54_30 1 45 16 1 28 2350 7 43 43 1 2 45_51 30 1 52 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16 1 1 1 30 48 56 54 54 55_28 45 1 47 47 1 28 22 1 47 1 1 45 46 1 1 47 53 55_52 1 1 7 43 2 1 1 1 43 1 4 53 1 45 43_16_55_52_4_47 55_45 22 51 56 1 38 13 30 2 28 56_13_56 28 55 4_16_46 1 1 16 1 1 1 1 1 47 59 4 8 38 58 1 1 48 1 7 22 1 1 1 60 52 4 3056 53 52 54 1 3052 1 16 54 7 58 130541 56 51 53 56 57 56 4 60 End परिकल्पना : पुस्तक शक्ति 483 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अक्षर चक्र Start स् ओ अ ए अ क् क् अ अ व् स् इ व् अ अ न् ढ़ छ् अ उ ए अ अ उ व् अ ह् य् र् न् क् अ न् द् क् उ इ स् द इ द् अ ग् न् न् द् ण् य् क् भ् अ म् अ अ अ ओ अ ग् आ अ आ ल् ग् अ उ द् न् म् अ इ अ - अ अ अ अ य अ म् स् म् स् ग् आ ल् ल् ळ ढ़ आ य् ह् अ इ ढ़ न् प् द् ढ़ व् व् त् द् अ व् अ इ अ ळ् न् द् अ अ ओ ग् भ् अ आ व् ट् ग् इ अ अ व् अ अ ए अ श् उ व् व् अ ओ अ र् म् म् द् अ उ ल् ष् अ ष् म् ज् क् ल् अ ट् द् ग् ल् इ न् उ द् द् द् ट अ अ अ अ क् ळ व् ल् भ् र अ अ अ अ ण् आ इ इ अ त् ए न् उ अ ळ् इ भ् इ क् य् न् ओ ऊ अ य् स् ट् उ त् ड् अ म् स् र-म् अ द् ए अ क् ओ ब् उ त् क् अ आ द् भ् ग् अ म् ष् प् स् न् र इ इ अ न् द् न् व् क् अ द् अ ळ् उ उ उ ल् अ य् न् व् अ अ उ अ अ आ इ प् व् अ अ ए अ अ र् अ म् ऐ ग् र् द् द् स् व् म् अ द् अ ल् क् म् क् अ आ अ म् र् इ त् ह् प् क् अ ए ओ ऊ य् उ अ आ अ य् म् त् ओ आ इ ए म् थ् र अ आ ण् उ अ उ न् ग् क् प् न् अ र् म् ए द् र् ओ इ क् द् द् ग् अ स् अ व् क् आ र् य् र् आ आ अ क् ल् ड् ह् इ ब् क् आ ळ् न् अ अ इ ऐ द् अ व् अ म् व् भ् अ न् ल् ल् द् उ आ र् अ व् उ अ अ द् र ओ इ क् द् द् ग् अ स् अ व् क् आ र् य ट् आ आ अ क् ल् ड् ह् इ ब् क् आ ळ् न् अ अ इ ऐ द् अ व् अ म् व् भ् अ न् ल् ल् द् उ आ र् अ व् उ अ अ ओ इ य् र् स् प् ल् व् अ न् ओ अ आ ल ए अ अ न् ड् र् ए म् अ न् ह् त् ह् द् ए त् अ उ न् अ उ अ इ र् र् अ त् क् क् उ अ आ उ म् ग् अ इ न् इ ळ् ण् अ र् ळ् अ क् अ द् ण् ई प् व् अ अ अ म् र उ अ अ आ व् व् आ त् अ अ व् त् ओ द् व् त् आ आ व् अ ऊ प् स् स् उ ए य ल य प अ अ ध् अ ग् य् अ न् द् अ आ र् व् व् आ .ल् भ् इ ए उ ळ् ग् ए अ अ इ म् म् इ र् न् आ ट् अ अ र् ह व् र अ ह् अ अ ए ड् द् ऐ अ न् व् च् ल् अ अ स् प् अ य उ अ अ अ म् ए अ ह् अ ग् य् ग् उ न् ळ्ळ् ओ ऊ ळ् द् स् र् अ अ ण् र् न् य् म् य् ए ग् अ इ म् न् व् अ क् ए आ ओ स् भ् अ अ उ क् य ह उ अ ए ए अ अ ष इ य् व् अ म् आ ळ् म् ट् ग् द् उ अ ग् व् ए अ अ अ ग् प् व् र् र् ल् क् द् अ न् न् अ क् ओ अ न् अ अ द् ध् अ अ न् य् ल् म् अ अ उ त् अ अ अ अ त् अ इ य् अ द् त् ए ल् म् इ न् ल् द् ओ भ् व् अ ट्ळ् ग् आ क् व् ळ् व् क् ल् इ ए ध् अ अ ए अ अ अ अ अ न् स् इ ऊ द् ष् अ अ प् अ उ ओ अ अ अ ह् म् इ ग् व् य् म् र् अ ग् म् अ ए र उ ष् अ ग् र् अ व् भ् य् व् श् व् इ ह् AAAAAAH مر مر AA भिभ NA End *अंको को अनक्रम से अक्षरों में परिवर्तित करने पर प्राप्त होने वाला अक्षर चक्र . -484 484 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रों को चक्र बंध में पढने का क्रम Start - ० 1380 409 438_467 496 525_554 583 612 641 670699 728 1 30_59_88 117 146 175 204233 262 291 320 349 378 =9855 2408437 466495_524 553582611 640669 698_727 21 295887 116_145 174203232 261 290 319 348 37 379 3 / 436_465_494_523 552 581610 639 668 697 726 26 285786_115 144 173 202231260 289 318 47 376405407 609_638 667 696 696_725 25_5456_85 114 143 172 201 230259 288 317 346 375 375 404406_435 492 521 550 579 608 637_666_695 72424_53 55_84_113 142 171 200 229 258 287 316 345_374 403 432 6520 549 578_607_636_665_69472323_52_81 83_112 141 170 199 228 257 286 315 344 373 402 431433_462 491 22 51_80 82_111 140 169 198 227 256 285 314 343 576_605_634663692_721 2150_79 108 110 139 168 197 226255 284313 42 371 400 429 458 460 489 604_633662 691 720 204978 107 109 138 167 196225 254283 312 341 370 399 428 457 486 488 517 546575 10/632_661_690 719 1948 77 106 135 137 166 195 224 253 282 311 340 369 398 427 456 485 487 516 545 11/660 689 718 18 47 76 105_134 136 165 194223 281 310 339 368 397 426 455_484 513 515 544573 688_717 17 46_75_104 133 162 164193 22m 251 309 338 37 396 425 454 483 512 514 543 13716_16_45_74_103 132 161 163 192221 308 337 366 395_424 453482 511 540 542 571 14/15_4_73 102 131 160 189 191 220249 278 307 336 365 394423 452 481 5106539 541 570599 628 657 686 715 1543_72_101 130 159 188 190 219 248 2m 306 335 364_393_422 451 480 509 538567 569 598627_656685_714 14 1671 100 129 158 187 216 218 247 276 305 334363 392_421 450 479 508 537 566_568_597 626_6556846713 13 42 1799_128 157 186 215 217 246 275 304_333 362 391 420 449 478 507_536 565 594 596_625_654683_712 1241 70 18/127 156 185214 332. 361 390 419 448 477 506 535 564 593 595_624653_682 71111 4069 98 331 350 389 418 447 476505 563 592621623652681710 1039 68_97 126 272 301 330 359 388 417 446 475504533 562 591 620622 651680 709 9 8 679 329 358387 416 445 474503 532 561 590619 648_650_679 7088 376695_124 357 386 415 444473 502 531 550 589 618 647 649 678 707 1 5 65_94_123 152 385 414 443 472 501 530 559 588 617 646_675_677 706 6 35_64_93 122 151 180 413 442 471 500 529 558 587 616645_674_676_705_5 3 63_92 121 150 179 208 470 499 528 557 586615_644673 702 204 4 33_62_91 120 149 178 207 207 236 265 294 382 411 440 469 498 527556_585_614643_672 701 703 3 3261_90 119 148 17 206 235 264 352 381 410439 468 497 526_555_584613 642_671 700 729 2 3160 89 118 147 176 205 234 263 292 321 350 =9855 354383 =9855 End सिरि भूवलय के प्रत्येक चक्र में आडे में = २७ और लंबाई में = २७ इस प्रकार कुल २७* २७= ७२९ खानें हैं । आडी पक्तियों को a, b, c,d, ........x, y, 2, 2' नाम दिया गया है । लंबाई में पक्तियों को १ २ ३ ४ .......२५ २६ २७ नाम दिया गया है । चक्र के प्रत्येक संख्या को उस के स्थानुसार पहचाना जाता है उदाहरण के लिए चक्र के प्रथम संख्या का स्थान (अ-१) चक्र को चक्र बंध में पढने का क्रम 10-1), 2.(0-29). 3.(p-26). 4.14-25). 5.61-24), 6.65-22). 7.1-22). 726.0k-3), 727 (1-2), 728 (m-I). 729 (1-27) यहाँ स्थान अनुक्रम से १ से लेकर ७२९ तक दिए गए हैं। उस स्थान में स्थित संख्या को अक्षरों में परिवर्तित करें तो श्लोंकों की उत्पत्ति होती है । इस चक्र के स्थान संख्याओं को लंबाई में और चौडाई में जोड़ा जाए तो कुल ९८५५ संख्या होंगें । परिकल्पना : पुस्तक शक्ति परिकल्पना : पुस्तक शक्ति End 1485 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्र को चक्रबंध में पढने का क्रम – उदाहरण Start 1923 1 16 128 28 1 165956 1 147 16 17 16 1 1 156 160 1535447 28 147 4528145941445 1 3047474542532851 152 1 1 31 22 130 2 1 25530 1 1454752 14 147 1 1 1 153152595 59302555513 16253601 1647 48 451656564345 156 1 1 13 5147451 1 223051 1 2 38304 1 1 5 1 1 16 15 15656 1 2 1 61525245 | 15548 1 52352855 1 3845305.47 1453845381 71 1 28 135555154 1 1 1 142 244 143 1647 7 1 134514 8/28347228135938 14340 1 52 595430 145 16 128 2350 143 43, 9/1245513015258485947 4 1 47 45475528145 1 13111 10/ 1534756 1 1 7 1 1 2 6048 1 1 16 ।।54152 1730544545 1595652 145 1552852 28 1 2 15254443604828 1 16 2385371 2153524323 24 1652451 242 1 1 147 30 284847 15452 16 13/455423284545 30 15915628254533822 1 285540605028 2 1347 1 14 1745 16 1 52 5651147-5555457251567 1 1 23.53 545948 13 56147231255 16 1 1 47 403161 0043 16/61643 1 1 47 1 1 14545143 2828 1 1 2 15230 144713 42 154 13 1 28 1 454254856 1 1 152547 1 25656243 1 1 185432456432 25 18485959116355348114620501 1947 45 1 245625514 167 13 30 16 1 1 52 52547 281 20 | 546065160 11 164038 17 14756 3355 1 19481511 । 21 152 16 160 1305330 147 1313281345595122545352 53 22115301 2 4756 1 28 16 1225951 1 1 1 2853601 1 16 16 1 158 23.35 152 2 1352383045113056 16 1 1 13040565454552845 2414747 1 2822 147 1 14546 1 14753552 1 1 143 2 1 1 143 25/ 1 1 4543 1655244754522 51 5 138 130 2 28 1362855 26. 1646 1 1 16 1 1 1 । 147 59483881 148 1 122 1 1 160 27523056535251305211654 158 130515651535657 60 End चक्र१ - सिरि भूवलय सिद्धांत के 'अ' विभाग के मंगल प्राभूत के प्रथम पँक्ति पढने का क्रम 27 p26 425 1-24 5-23 t-22 u-21 v-20 w-19_x-18 y-17 2-16 ष ट आ म अ । र आ त् 1 अ ह m-2 y-18 पर हूँ . यम 42-45-4 44.4g-4340 42.4848 *442 4244 4g 434 42-42., 43 4454 5- 7 k6k-7 1-6 m-5 -2 03 p2 41 -27 ट अ म अ ज इ न अ ग ए र अ 4-24 v-23 w-22 x-21 y-20 उ व ए न् उ उपरोक्त अक्षरों को मिलाकर पढने पर निम्न लिखित श्लोक प्राप्त होगा । अष्टमहाप्रातिहार्य वैभवदिन्दा अष्टगुणगळोळ ओम्दम् । सृष्टिगे मंगळपर्यायदिनित अष्टमजिनगेरगुवेनु।। परिकल्पना : पुस्तक शक्ति 486 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर से Start पश्चिम से a b c d e f g h i j k l m n o p q r s t u v w x y z z1 159 23 1 16 1 28 28 1 1 56 59 4 56 1 1 47 16 34 1 7 16 1 1 756 1 60 2 53 54 47 28 1 47 4528 7459 41 4 45 1 3047 47 45 42 53 28 51 1 52 1 1 3 1 22 1 30 2 1 2 55 30 1 7 45 47 52 1 4 1 47 1 1 1 1 53 1 52 59 52 4 59 30 2 55 55 13 16 2 53 60 1 4 16 47 48 45 16 56 56 43 45 1 56 1 4 1 13 5 47 45 1 1 22 30 51 1 2 56 38 30 4 1 1 56 1 1 16 1 57 7 56 56 1 22 1 6 54 52 52 45 1 7 55 48 1 58 52 35 28 55 1 38 45 30 55 447 7 45 38 45 38 1 7 1 1 1 28 13 56 55 51 54 1 1 1 1 42 2 4 4 1 43 16 47 1 1 13 4 51 4 8 28 53 47 22 8 153 59 38 7 43 40 1 52 59 54 30 1 45 16 1 28 23 50 7 43 43 9 1 2 45 51 30 1 52 58 48 59 47 54 4 4 1 47 45 47 56 28 1 45 1 13 7 7 7 10 55 1 53 47 56 1 1 7 1 1 2 60 48 56 1 1 16 1 1 54 1 52 17 30 54 45 45 11 59 56 52 1 45 1 55 28 52 28 1 2 1 52 54 4 43 60 48 28 1 16 23 8 53 7 12 2 1 53 52 43 23 2 4 16 52 44 54 1 2 42 7 1 7 47 30 28 48 47 1 54 52 16 13 455423 4 28 45 45 30 1 59 1 56 28 2 54 53 38 2 2 1 28 55 40 60 45028 2 13 47 1 1 4 17 45 1 56 1 52 56 51 1 47 55 55 45 7 2 54 1 56 7 15 23 4 53 54 59 48 13 56 1 47 23 1 2 55 16 1 1 47 40 54 16 52 1 47 60 43 60 16 45 16 43 1 1 47 1 7 1 4 54 54 1 43 28 28 7 1 2 7 52 30 1 4 47 4 13 17 42 1 54 13 1 28 1 45 42 5 48 56 1 1 1 52 54 7 1 1 2 56 56 2 43 1 1 18 56 43 22 45 56 43 2 2 56 1 8 48 59 59 7 16 53 55 53 48 1 146 2 30 53 1 19 47 45 1 2 54 56 56 2 55 51 4 16 7 13 30 16 1 1 4 52 52 4 5447 2 38 1 20 1 54 60 56 54 1 60 1 1 16-40 38 17 1 47 56 33 55 1 1 59 48 1 53 7 1 1 21 1 52 16 160 1305330747 13 13 22 8 13 45 59 54 1 2 42 5447 53 52 53 22 16 30 1 4 52 47 56 1 28 16 1 22 59 51 1 17 28 53 60 7 1 16 16 1 158 23 4 53 56 1 52 2 13 52 38 30 45 7 1 30 56 16 1 1 1 30 48 56 54 54 55 28 45 24 1 47 47 1 28 22 1 47 1 1 45 46 1 1 47 53 5552 1 1 7 43 2 1 1 1 43 25 1 4 53 1 45 43 16 55 52 4 47 55 45 22 51 56 1 38 13 30 2 28 56 13 56 28 55 26 4 16 46 1 1 16 1 1 1 1 147 59 4 8 38 58 1 1 48 1 7 22 1 1 1 60 27 52 4 30 56 53 52 54 1 30 52 1 16 54 7 58 1 30 54 1 56 51 53 56 57 56 4 60 पूर्व से End दक्षिण से परिकल्पना : पुस्तक शक्ति 487 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय विमलांक बंध का उदाहरण उत्तर से (अंक बंध से) n-1 027 p-26 425 -24 5-23 -22 21 v-20 -19 x-18 y-17 2-16 21-15 अ ष ट अ म अ ह आ प र आ त इ ह 414613 120-11 e-10 198 7 165 k -4-13 m2 m-3 आ र य अ व अ य भ अ व अ द इ न ___p27 426 1-25 524t-23 122 v-21 W-20. _x-19 y-18 2-17 21-16 अ आ ष ट अ ग उ. ण अ। न ग अळ । d-12 e-11 f-109 8 7 - 6k -5 4 -5 m4 म द अ म स र ष ट इ ग ए n3 2 1 27 1-26 525t-24 23 -22 w-21 -20 y-19 7-18 21-17 __ग अ ळ अ प अ । र य आ य अ । 216 b-15 140-13_e-121-11 -10_19i-8 , 7k6k-7 6 m-5 द् इन् इत् अ अ षट म् अ ज इ 04 3 2 41 -27 5-26 -25 124 v-23 ___w-22 x-21 y-20 न् अ ग् ए र अ ग् उ व् ए न् उ । दक्षिण से n-27 m-1 2 3 4 5 6 7 8 9 -10 -11b-12 213 उ व ढ़ उ ह आ प ल अ ग् न म अ द्। 11-14 2-15y-16 x-17 W-18_v-19 420 t-21 522 1-23 24 p.25 0-26 0-25 अ त् न् आ ध इ स अ य अ ल व ऊ भ n-26 m-27 1 -2 -3 -4 g47 08 09 C-100-11 12 इ र इ स अ य अ ल व ऊ भ । 21-13 2-14 ___y-15 -16 w-17 v-18 19 20 21 1-22 423 422 p-23 024 क् अ ह इ व अ म् अ र क अ 0-25 m-26 27 k- 1 2 -3 54 55 16 07 08 b-10 -11 ओ स ए स ई ग आ भ उ ळ ओ द 21-12 2-13 -14 x-15 -16_v-17 118 1-19 5-20 1-21 422 4210-22 ए ब उ न अ व अ म अ स उ द अ व 024 m.25 26 k-271 -2 3 4 5 6 7 8 b9 2-10 अ द् न् अ व उ ल ए ग् अ क न आ ल 21-11 2-12 -13 x-14 अ म् इव दक्षिण से (नीचे से ऊपर) विमलांकगेलुवंदवदु समवनु बेसदोळु भागिसे सोन्नेय क्रमविह काव्य भूवलय सिरिभूवलय सिद्धांतद मंगलपाहुडवु।। पूर्व से अ ओ ए र द् ग् अ टु अ न् न् र अ अ इ ए अ ल ए अ द ऐ ऊ र ब ई अ है द् ओ ओ ओ र अ व म अ इ अ ए व् द् अं द् अ ग त् ए अं म् औ अं न ह् उ त् ळं पश्चिम से आ क् म् ए व अ ग अ। क् य ह व व ळ त् ई य् ळ द ए र् ळ ओ उ न अ ए ई द् ध् द् एं ग् अ व त् अं उ र न र आ। परिकल्पना : पुस्तक शक्ति 488 आ न अ 0-23 क whers Fn her A,44 कल - by R har द म् न् द् Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सिरि भूवलय चक्र को नवमांक बंध में पढने का क्रम - ON - A B C D E F G H I 47 58 69 80 1 12 23 34 45 57 68 799 11 22 33 44 46 67 78 8 10 21 32 43 54 77 7 18 20 31 42 53 55 | 6 17 19 30 41 52 63 65 76 6 | 16 27 29 40 51 62 64_75 5 26 28 39 50 61 72 74 4 15 36 38 49 60 71 73 3 14 25 37 48 59 70 81 2 13 2435 • इस क्रम में चक्र को ९ आडी पक्तियों में और ९ ही लंबी पंक्तियों में उपचक्र की भांति ० 8 | ९ भागों में विभक्त किया जाता है । इन ९ उपचक्रों को पढ़ने का अनुक्रम प्रत्येक अध्याय के लिए अलग-अलग होता है । उदाहरणस्वरूप द्वितीय अध्याय में इस नौ उपचक्रों को पढने का क्रम इस प्रकार है: ८७ • प्रत्येक उपचक्र में नौ आडी पक्तियाँ तथा नौ लंबी पंक्तियाँ हैं जिन्हें इस प्रकार से नामांकित किया गया है आडी पंक्तियाँ A, B, C, D, E, F, G H, I लंबी पंक्तियाँ 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, पढने का क्रम इस प्रकार है:- (E-1), 2.(F-9), 3.(G-8), 4.(H-7),......, 78.(B-3), 79.(C-2), 80.(D-1), 81.(C-27). इन स्थानों पर की संख्या को अक्षरों में परिवर्तित कर पढने पर श्लोक प्राप्त होंगें । परिकल्पना : पुस्तक शक्ति 489 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 2222 20 21 23 24 25 47 26 59 27 1 1 16 6 52 1 47 47 1 54 1 3 4 28 1 53 1 3 b 40 1 45 46 55 7 54 4 45 1 54 59 1 4 1 43 59 3 19 54 1 1 1 56 4 46 59 1 55 59 18 52 30 47 3 53 47 22 58 45 58 54 54 4 1 1 56 54 6 56 1 1 1 30 30 4 54 d 45 56 60 16 18 45 4 28 51 4 54 45 3 53 1 54 30 16 47 54 4 1 1 24 1 54 54 56 47 33 4 1 1 1 7 1 52 1 16 47 47 1 54 53 1 52 52 1 1 f 1 47 7 43 45 1 52 54 28 30 47 30 52 1 47 53 50 54 48 30 51 47 1 54 47 1 59 28 1 3 1 56 g 59 1 55 30 1 1 58 1 56 3 54 43 7 1 50 7 3 58 1 1 1 38 55 1 47 56 3 28 1 1 54 4 13 47 56 1 1 54 54 4 57 1 16 50 1 47 45 54 58 1 1 $6 13 1 1 1 1 41 43 4 1 52 28 54 56 52 52 48 54 60 16 53 47 54 1 57 54 54 28 56 54 7 56 54 4 1 54 7 1 52 1 46 54 59 4 7 1 3 28 47 7 47 3 7 45 28 1 1 48 1 47 45 1 1 1 5 9 1 1 3 1 54 45 30 7 53 50 53 28 1 54 53 47 54 16 48 24 I m n o p q 47 47 1 52 1 54 1 55 52 7 54 1 18 47 1 1 57 7 47 3 52 28 7 48 1 1 1 54 56 54 51 1 7 20 1 1 43 7 33 4 45 7 54 4 4 59 1 48 1 59 54 16 50 28 490 7 4 26 30 30 58 7 7 46 1 43 7 13 55 56 6 7 53 53 1 9 60 3 1 43 45 1 1 58 30 1 45 52 4 1 56 47 24 3 28 1 56 58 1 54 43 1 54 54 53 28 30 42 4 54 50 1 54 56 46 3 13 1 1 35 6 9 1 3 1 47 28 52 54 52 3 28 1 1 4 3 42 30 4 54 47 1 1 1 55 56 1 56 57 1 7 56 3 54 60 45 46 28 1 3 48 40 7 28 28 48 28 56 1 53 1 1 7 1 54 1 53 52 1 1 53 56 52 43 59 53 30 1 24 47 52 1 576 53 58 57 30 45 1 1 40 7 46 1 60 59 38 59 3 30 1 1 3 1 1 54 50 7 45 60 56 16 1 1 40 7 47 1 3 52 4 56 53 54 1 45 1 4 56 13 1 24 1 3 1 54 52 30 4 1 13 54 1 1 56 38 1 52 51 3 48 1 7 48 47 1 1 1 50 52 30 1 4 53 1 53 52 45 45 43 19 55 56 59 40 16 1 56 1 1 56 1 54 59 43 1 60 24 4 56 24 48 1 4 54 1 55 3 1 60 1 43 45 4 54 7 28 1 4 1 52 X 1 13 1 1 54 13 1 47 59 55 43 1 30 7 55 4 45 4 1 y 51 42 42 57 28 28 1 8 55 1 60 45 1 1 1 1 59 3 7 57 1 1 56 1 52 3 1 Z z1 1 30 4 48 43 1 54 1 45 7 51 48 43 42 50 3 53 1 1 55 38 59 52 28 54 4 52 55 1 30 3 24 59 55 45 4 1 54 16 1 58 52 28 1 24 1 54. 4 परिकल्पना पुस्तक शक्ति 1 56 59 55 52 1 7 4 53 1 1 13 54 1 1 40 42 54 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सिरि भूवलय) A |47 59 1 1 | 16 6 52 1 47 B C 1 1 55 7 54 4 45 1 54 59 1 1 43_59 4 55 3 52 D E F G H I 56 3 7 59 60 30 1 30 56 43 16 47 52 1 1 1 18 4 54 58 54 45 1 28 1 4 4 1 30 56 47 54 28 24_47 3 1 56 53 1 30 50 7 52 51 54 52 54 1 62 7 8 9 ** - 3 Etv TE 3 ho. 3r 5 1 2 4 4 43 484 월 f-9 g-8_h-7 i-6 a-5_b4c-3 d-2 d-3 e-2 f-1 g-9 म् ब् अ र् ए द् इ ह ए ग् उ र 1-7 a-6 6-5 c-4 c-5 d4 e-3 f-2 g-1 h-9_i-8 -7 व् ही र् अ स् एा न् अ स् अ म् म् b-7 c-6 d- 5 e4 f-3-g-2 n-1 9 8 99 -8 C-7 त् अ द् इ म् ग् अ म् अ न् इ स् e- 5 f4g-3_h-2 i-1i-2 a-1 b-9 c-8_d-7 06 f-5 अ र् अ व् अ त् न् आ ल क अ क् h-3_h-4i-3 -2 b-1 -9 d-8 e-7 f6 g-5_g-6 6-5 अ र् अ. स् - अ म य औौ ग् अ व इ a-3 b-2 c-1 d-9 e8 f7f8_g-7_h-6i-5 a4 b-3 अ ल अ भ् अ न् ग् आ न् क् अ र् d-1 e-9 व र आबरेदिहे गुरु वीरसेन सम्मतदिम् । गमनिसे अरवनाल्कक्षर संयोग विमल भंगांकरुवर् । परिकल्पना : पुस्तक शक्ति 491 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्र को नवमांक बंध में पढने का क्रम bo de f g h i j k l m n o q r s t u v w x y z z1 1 1 56 37 59 1 1 54 45 47 45 7 60 3 1 28|24 50 7 1 1 13 42 30 4 159 55 7 60 30 1 30 56 434 1 1 4 43 54 33 52 60 56 4 24 1 1 43 55 | 1 54 4 16 47 52 1 1 1 56 48 52 56 28 1 42 30 40|1 16 56 53 56 13 1 1 4 | 1 45 1 18 4 54 58 54 54 1 1 7 587_44758 1 45 1 24 54 28 45 30 5 | 16 54 59 45 1 28 1 4 28 54 474 20 30 30 50 54 28|40 7 46 53 48 47 1 7 3 47 547 45 1 1 30 52 4 47 28 57 1 28 24 47 3 1 561 1 5 1 7 24 3 1 48| 30 40 7 45 4 55 1 48 4 ७ | 1 4 55 53 1 30 50 7 504 1/52 43 55-58 46 1 28|45 47 1 40 16 55 4 43 1 147 3 52 51 54 52 54 1 54 52 V7 7 46 45 1 47 561 52 4 45 54 43 1 42 1 10/17 56 4 4 56 1 43 54 18/1 57 7 1 1 3 1 1 1 53 54 43 1 1 1 50 4 1114659 54 47 1 3 564463 54 33 43 28 13 55 531 3 1 19 55 30 1 38 59 12| 1 1 7 1 57 5454 1 1 4 7 1 1 56 5460 56 13 55 3 57 28 52 55 13 54 59 18 45 1 53 1 1 6 59 54 18 45 30 56 1 1 1 59 1 30 56 1 7 7 3 1 14 1 30 47 33 4 503 16 144 45 47 7 6 58 35 56 53| 30 24 1 59 60 45 57 53 1 153 53 47 54 52 51 58 50 55730 54 51 7 1 6 56 5653 1 1 1 1 4 1 54 16 | 4 1 1 16 1 47 1 1 4 1 7 1 54 53 1 3 1 52 53 54 52 56 43 1 1 58 52 17| 28 54 54 54 16 38 55 1 543 53 1 4 53 28 307 533 1 1 1 45 59 3 17 18| 1 3 1 47 47 1 54 4 11 28 50 47 4 56 47 28 56 56/30 54 1 1 4 51 59 55 45| 1954 1 1 1 54 54 1 545747 53 3 59 53 54 52 3 521 3 1 56 28 42 1 1 4 | 53 56 54 54 48 30 1 1 1 5 9 52 1 1 9 1 54 43|1 56 38 1 1 56 1 52 53 21 | 1 1 1 7 1 47 47 45 54/7 28 28 48 54 43 3 1 1 3 52 51 54 4 52 3 1 1 22| 58 45 58 53 1 1 47 1 5447 47 7 1 9 52 54 60 5901 3 48 54 7 56 59 55 52 3 4 1 52 52 56 58 1 28/3 54 48 59 1 1 1 7 1 1 4 1 59 1 8 28 54 54 56 1 1 1 59 28 1 1 567 16 1 54 45 54 28 45 5354 1 7 43 52 1 1 1 13 40 30 30 1 1 3 28 1 1154 53 1 16 1 1 1 46 30/45 28 47 60 60 45 48 1 1 45454 1 47 55 13 41 71 28 48 54 50 58 54 4 1 11 1 1 4 1 1 544842 |466 454345 1 5654411 24 1 28 1 5642 48 475052 3028 1 2415454 परिकल्पना : पुस्तक शक्ति 492 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय अनुबंध १ द्वितीय खंड श्रुतावतार वदनरञगस्थलाधिकारवेम्ब ओम्दनेय 'स्' अध्याय 11211 स्*र्ववाणियुद्*अयागम काव्य । धर्म सामान्य विशेष ॥ सर्वस्ववात्मनेन्देनुव श्रुतज्ञान । निर्मल गणित भूवलयअ* उ*सह जिनेन्द्रअइ*ल्लसमान मुखपद्म । दिशेयिन् सर्वान्क* क्रमदे । होसदन्कविदु श्रुतदवतार गणितद । रसेजत्थतत्थाणुपुविघ* ॥२॥ दक्षिण देशअ दिव्* यवनिसार् । शि क्षे या ग म वि दु स कल * ॥ रक्षेयनीडुव गणिताक्षरविह । शिक्षणदानुपूर्वियर* ॥३॥ 11811 णा* शवागुव एल्लवय* त्नदे कोट्टु । ईशरन्तागुव तानु || आशाभू* मिये तनात्म वाणिय ण* वदन्क वागि स् ईगी * वाग्वाणिय । कविय श्रुत् आ व ता र् अव* नु || अवतरिसिर्दु ६। 11911 11611 @ वु ‘णमो अरहन्ताणम्” नववु ‘णमो सिद्धाणम् (दिव ' णमो आइरियाणम्” (त) व 'णमो उवज्झायाणम् तु विवरम् ‘णमोल्ळोएा सव्व’ वण ' साहूणम् इदि को व विरुद्ध 'सिद्धमणन्तम' 11811 118011 ॥११॥ ।।१२।। ‘अणिन्दियमणुवमम’ || १३ || सिव 'प्पत्थ सोक्ख मणवज्जम्' देवरु 'केवलपहोह यलि' ॥१४॥ ||१५|| धे व 'णिज्जिय दुण्णय' रु धव तिमिरम् जिणम् णमह् ॥१६॥ 112911 दास अष्टम जिनरु (म विरुद्ध् केवल ज्ञानर् (च) दन लब्धिय पेऴ्दवरु लवमात्र दोषविल्लदरु (म) विशेष दर्शनधररु (णो वागमद् अरहन्तर् व दरु भूवलयवेळ्दवरु म षध रसव दवरु म्) विवर दध्यात्म स्वरूपर् (ग) वसणिगेय कळेदवरु इवरे सिद्धत्ववाळुवरु (म) विवशवागद निरामयरु 493 । राशियन्कगळ हुट्टिसिदम् * अनन्तत्व तागि । सवियन्क गणनेय पदउ* पवित्ररु परमोदारिकरु १८ ॥ ॥१९॥ ॥ ॥२०॥ ॥ २१ ॥ (त) वनिधियागि बाळ्दवरु ते ओम्बत्न् पदरु वो वदे जनरु पालिपरु चवरिगळरवत्नाधररु ॥२२॥ ||२३|| छावट्टियन्क वेदवरु ॥२४॥ ॥ २८ ॥ ॥२९॥ वे अषटमहाप्रातिहार्यर् ॥ २५ ॥ सवण धर्मव पोरेदवरु ॥२६॥ ॥२७॥ वरनन्तानन्तवरिदर् यवेयष्टरोळगेल्लवरिवर् पावन अरहन्त निरु विनग्रवेर्द भूवलयर् 113011 ॥३१॥ ||३२|| ॥३३॥ ॥३४॥ ||३५|| ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ 118011 ॥४१॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(सिरि भूवलय ॥७४॥ ॥५१॥ ॥७५॥ स्वप्न कलद्द्दबहि रन्गवादा विद्या स्वप्नवळिये अदुल घुते ॥ ग्वप्वन्तु गणितदनन्तान्कवेल्लवु। स्वप्न जाग्रतदोळुनिन्द्* ॥४२॥ स*शरीर अशरीर सादि अनादिया यशदारु द्रव्यन्गळनुम् ॥ यशस्वति देवियमगळ्गेपेळिद दिव्य रससइद्धियन्कद गणित्अ* ॥४३॥ आ दिय कालद अवर याबाधद । साधित दिव्य कालदलि ॥ वाद्अमु*ळियदिह शुत ज्ञानदुत्पत्ति । यादिय शतदवतारल* ॥४४॥ व*दनदि न य व र आया मद अतिय । विदियादि गुणठाणदवर ॥ नु दिसिद श्रुतज्ञानदतिशय कालदे। मदुल म्णालद सविए* ॥४५। डदयोग नाल्कु अनन्त ॥४६॥ ओदरलि आचार्य नमह ॥५८॥ म्द विरहित गति प्राप्त ॥७०॥ मि दुवु अतीन्द्रियवस्तु ॥४७॥ धिय उपाध्याय नमह ।।५९॥ स दयरोदुव स्वसमयवु ॥७ ॥ ण ददन्द उपमेयिल्लदुदु ॥४८॥ योदेयलि साधुगळिरलि ॥६०॥ ण दिदन्ते श्रुत केवलिगळ ॥७२।। मदवळिदात्मोत्थ सुखवु ॥४९॥ मीदवळीदयवर नेनेवे ॥६१॥ णाद वय्भवदि वन्दिसुव ॥७३॥ आदलु निन्देगळळीगुम् ॥५०॥ जी द मूरन्कद भन्ग ॥६२॥ ण दयन्ते हरियुव जीव स दवु केवल प्राभा पुन्ज व दगलु समय पाहुडव ॥६३॥ ट्दयोग रतुनत्रयान्क यदेगेडिसुवुदु दुर्नयवम् ॥५२॥ आदलि अरवत्नाल्कन्क ॥६४॥ ठिदियवे स्वसमयवरिया ॥७६॥ के दगे हूविनषधियु ॥५३॥ च दुरिन द्व मचलवनु ॥६५॥ उदय कर्मद पुद्गलाणु ॥७७॥ वदगिद तिमिर हरान्क ॥५४॥ रिद्धिय अनुपमानन्त ॥६६॥ तदकलु परसमययान्क ॥७८॥ लदरलि जिनरिगे नमह ॥५५॥ त्दिय सम्योगवे सिद्ध ॥६७॥ मदवळिदारु भाषेगळ । ॥७९॥ ईदिन निन्ने नाळेयोळु ॥५६॥ त दियवे स्समय सार । ॥६८॥ हिद मिदु मधुर भूवलय ॥८०॥ भाद्र सख्यवु शिव सिद्ध् ॥५७॥ दधवु पुनह उक्तवल्ल ॥६९॥ स दयनाल्कने कालदन्ग ॥८ ॥ *स का व् य दनु भ वअ गणित ज्ञानद। वशद दिव्यागम्अ अदकु । यशवा बारह अन्गान्गी जा' । यशवळीसुवकर्मआळ* ॥१२१।। णी रववागिप स्आमा न्य प्रस्थार। दारयकेयुळ्ळम् सपुर। सारद 'वियलिय मलमूढ दमसणु'। दारदु त्तलिया' वतत् ॥८२।। य शवदरिम् अय्दनु भववागिसि । विषमत्व सम सम्ख्ये वर*सि ॥ हसद 'विविहपर चरण भूसा पसि । विष ‘यवुसुयदेदया' नत* ॥१२१।। म् नदि साधिसुअ अषी मातीतद । घन विद्यवरितवराद ॥ वनभू* वियेल्लव 'सुइरम्' पोरेदात्म । ननघन समुद्घातविवे दल* ॥८४॥ सनय द्वादश अन्गधररु ॥८६॥ यनगे अवेरडनु कोडलि ॥८८॥ जाणरु विगलित मदरु ॥९०॥ म नह पर्ययावधिधररु ॥८७॥ मन सिम्ह पीठवेर्दवरु ॥८९॥ णनयदि मूढत्ववळिदर् 494 ॥९१॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प नह दरशन शुद्धरनघर् ग् नियत ताळिका वस गवशील हदिनेनटु सहस्र [ल णिमादि विविधर्धिध नवरसुत श्रुत देव मुनदोळिल्लद देवि पोरेये मन सिम्हासन वेरिदवळे का पनि नील हणेगण्णिनवळे | सिरि भूवलय ॥९२॥ ॥९३॥ ॥९५॥ [देणिये जिनवाणि अम्दु सनय दुर्नयगळ पेऴ्दर् ॥९४॥ टणक प्रतिहारायान्गर् ठिणदे त्रयत्न त्रिभन्गर् य नगे त्रय्रत्नं त्रिभन्गर् मनविट्टु शरुतधररप्पर् चण भन्गदलि गुप्ति गुप्तर् ॥ ९९ ॥ तवात् मनभय वित्तवरु ॥९६॥ 118911 118611 ॥१००॥ म् नदाशेयळिदतिशयरु जाणरवरु क्षोणियलेवर् णणिय महाव्रत स पुष्प रससिद्ध रण कहळेय केळदवरु स नियदोळणुव्रत पोरेवर् मनसिजराद त्यागिळु य नगे भूवलय वेळ्दवरु मनविरदरुहु भूवलय् 495 ॥१०१॥ ॥ १०२ ॥ ॥१०३॥ ॥ १०४ ॥ ॥ १०५ ॥ ॥१०६ ॥ ॥ १०७ ॥ ॥ १०८ ॥ ।। १०९ ।। ॥११०॥ ।।१११ ।। ।।११२ ।। ॥११३॥ ।। ११४ ।। ।।११५ ॥ ॥ ११६ ॥ ॥११९॥ ॥१२०॥ ।।१२१ ॥ सु* दणाणवनु आ वर्गीकरणाद | मददे 'सयलगण पउम ' ॥ अदुष* दर्शनद 'रवणो विविहड्ढि । मुद 'विराइया वि' न्तिदेल्ला* ॥११७॥ द* नदन्ते ज्ञान वर्★ धनवागदलिह । विनय विधा 'णिस्सन्ग' ॥ णणियतद 'णीराया वि कुराया गणहर' मुनि 'देवापसीयन्तु विमलाम् * ॥११८॥ णा* शव दागद मातिनव* झुरि । राशिय कलिसुत अमल ॥ ईशनु जिनपु* अनु श्रुतद आवरणव । लेसिनिम् केडिसुवदेनुम् आ * णा शव माडद सर्वाणी* योगद । राशियनेल्लव तन्दु ॥ ईशर सरणिय हन्एडनगद । राशिय श्रुतदवतारद्* व*रदवागिहदि व्य*यशदमहर्षिगळ् । परम रसायन घन* ॥ धरसेनगुणधरयतिव्रुषभादिगळ् । विरचिसदुदनेल्ल बेरेसइ * र*मणीयवाद अन्कस्*यदे 'पणमामि' | सम्पुप्फयन्तम्दुकव * ॥ शम ' यन्तम्दुण्णयन्धु' कहरसुवि' यार' । दम' रविम् भग्ग सविमग्ग' क्रमभ* णीच गोत्रव गेल्दय* शदे 'कन्टयमिसि' । ऊच 'समिइवइन्' वन हे ।। ऊचाति ऊच 'त्रोद्दन्तम् पणमह' । चीन्द्र 'कय भूय' खवग* य* शदन्कदोळुव रस* 'बलिम् भूयबलिम्' । वशवा 'केसवासप' नडु ॥ सश्री 'रि भूयबलिम् विणिहय वम्म' । वश 'हपसरम्वड्ढा' व* म्*ञ्गलदतिशय सुदि*न् ‘वियविमल' । दिगद 'णाण गुम्मड' न।। म* ञ्गल 'पाहुड' पसरम् ति आ मेले । इङ्गिद श्रुतदवतारन्* त्*नु 'ऐत्थ सम्प्प' व्*वर 'इ धवलिय' दिनु 'तिहुवण भवणा प' ॥ जिन* "सिद्ध माहप्पा पाहुड सुत्ताण' । जिन 'मिमा भूवलया' * त्*म 'सणियाटिका' सुय* शनुकुमुदेन्दु । विमलभूवलयदसिरिस उ ।। त्तम रचिसुव करम मार्गद अवतार । विमल श्रुतावतारवे द* ॥ थ* रथरवाद पाहुडगी वाणादि । वरद भूवलयनामदलि । गुरुउ सहाचार्य परिपूरणवागिसे । गुरु वीरसेन सम्मत उ* सु* रनरतिरयञ चहिरिय मानवरेल्ल । सरुवान्कदनुभव *वरु । विरचिसिदवरात्म समवसरणदन्ग । परमात्म महावीर् म्उरुघ्* ॥ १७१ ॥ ॥ १७२॥ ॥ २१५ ॥ २१६ ॥ ॥२१७॥ ॥२१८॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय द*गणितराशियोळ् उदि सिद गणितद । बगेय पाहुड तदि गणा*। मिगवादि द्वादश विधदति य सभे। हगरणवनळिसुतिहु* ॥२१९॥ णा*णावरणीयद वशव्* आगिअ । ताणद पाहुडग्रन्थ ॥ काणा क्षिय दरशनदनुयोगद । ताणव गमनिसिदक क' ॥२४४॥ ण*वमान्कवेन्नुतय* शद ज्ञानाध्वर । दवर हन्एरड्अव रेम्ब ॥ सवि श्रुतदवतार गणीतदागम ग्रन्थ । दवयव सूत्र नालक कु* ॥२४५।। मणदसमयदे ईध्वनि सूत्रगळ् । अरहत्सिद्धाचार्यर*वर ॥ सरुव धर्मगळे अनादि अनन्तद । सिरसिद्ध पद पराप्त पद मु* ॥२४६।। णा*णमार् गणियल्लिव* शवाद शुत ज्ञान । आनन्दकरवाण व । आ नवकारवनादि मङ्गल नाल्कु । ई नम्म भव्य जीव पद* ॥२४७॥ म नविडलारोम्दे नेनि जद् आरोमदु । घन ऐदयद्ओम्बतक सोन्ने ॥ घन ऐळु मूरऐळु सोन्ने नाल्केळु । तनि आर्नाल्नालेन्टोम्ददुद ल* ॥२४८॥ इ*दरोळोदून व वहि सिदन्कगळे। अदनादि अपुनरुक्ताप । रदनु माडुव क्रम आदि सम्ख्य द गुण । वदगिदर्वत्नाल्कु बर् कु* ॥२४९।। न म ग ल लि दो रे यु वदि व्यान्क योगद। क्रमवदरतिशय दय॒ त विमलान्क अरवत्तु नाल्कर ओम्गुण वमल असम्योगद धर रु* ॥२५०॥ दि*स् ए य लि ए र ड रख अशगोन्ड गुणवु। असद्श सक्रमका व्य ॥ वशवागे अपुनरुक्तामर कोशद। वशदलि द्रव्यद रसग ल* ॥२५१।। ऐ ते र वि द र लि स रयोग सम्योग । दा तेरेवेनुवाग अदर ॥ ईतर द्वितीय सम्योग भन्गाक्षर । आ तेरद् प्रतिलोमान् का* ॥२६५।। हि*डि युवागिरुवन्कम् अरवत्नाल्कन्कमम्। बिडिपागादण ववेनलु ॥ गडियरवत् मूरु प्रतिलोम गुणकार कडेगेरळमूर् सोन्ने नाल्कव् ॥२६६।। ग*थ व दु ब रुवाग स्मा*नार्ध अनुलोम । हितदारोमदु सोन्नेरम*ळ् । नुतवन्तु कळेदरे एरडु सम्योगद। हतवागदनकद काव्य* ॥२६७।। हि*रि य वा वु दो अध रनु भवदन्कदा सरणि यागत सत्यध्वनि ये। एरडु साविर हदिनारन्क द्वि सम्योग। विरचित कुमुदेन्दु सर त् ॥२७९।। द रु श न वि न् त रि दष्टम पृथिविय। सिरि सिद्धन्तद वरने। मोरिसिय वम्शद गुरु परम्परेयन्ग। धरसेन गोदम विर ति* ॥२८०।। त्*नि मूवत् एरडरओ दिन जिनभूमि। घन वाणियतिशयवदर ॥ नु*णुपाद चकबन्धद सम्स्थानद । जिनरादि गोमट सर ल* ॥२८१॥ था*ण व न म् ब च चि अध् वरदोळु गेल्द। वीणेय नादद जयवु। अनन्त वागदे मगल मुखदिन्द । काणलु बन्दिह अन्क् प्* ॥२८२॥ दोष रहितवागिह ध्व नियन्कद । राशियाद्यन्तवु सेरि ॥ आशा मनोभीष्ट सर्वान्क सर्वास । राशेय श्रुतदवतार् अ* ॥२८३।। त निरि एरड् अनि मगे अन्तरवेरळ्। चनओम्मूरोमस अमेरडु॥ एन्नुव अवतार श्रुतवेळेळ्नाल्कोम्बत्। चिन्नादोम्बत्तेबत् क् ॥२८४॥ दो लथवा क्यद्अ सिहि*य काव्यागमा पालित श्रुतदादियअ शका*। लालित ‘वदनरञ्गस्थल'चूलिके। श्रीलीलायतन(पालितकाव्य) भूवलय् आ* ॥२८४॥ 496 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि भूवलय सिरिभूवलय के पव प्रकटित मंगल प्राभृत के प्रथम भाग के ८२ पृष्ठ के अनुबंध १ द्वितीय खंड - श्रुतावतार प्रथम “स्" आ अध्याय के शेष अंतराधिकार १२२-१७० ऐरिसिदन् काक्षरवम् यरडने सम्योगदोळागे त्रतर पाहुडगळनु थरद त् रिसम् योगदोळागे णिरय निगोददन्कगळम् छ्रितेयोळ् निर्मिसिदुदनु छरवचरव स्थिरदिरवम् यरडर वर्ग सम्गुणदिम् गरळ हारद विषदम्रुतम् ओरण दिरविनिम् पेळ्दर् सरसद चूलिके वरदिम् मरळिसि होरळीसिदन्क ओरिद्धियतिशय बुद्धि सरि पसियुवुवुहु' वरद वर ‘धरसेणो पर वा वरि 'इगओह दाणावर' तेरे ‘सिहो सिद्धन्तामि’ थर "य सागर तरन्ग' रस ।। १२२ ।। ॥ १२३ ॥ ।। १२४ ।। ।। १२५ ।। ।। १२६ ।। ।। १२७ ।। ।।१२८ ॥ ।।१२९ ।। ।। १३० ।। ।।१३१।। ।। १३२ ।। ।। १३३ ।। ।। १३४ ।। ।।१३५।। ॥१३६॥ ।। १३७ ।। ।।१३८ ।। ।। १३९ ।। सुर ‘सन्घाय धोयमणो' नर सुर मनधौत जल शुद्ध दरुशिसिदवरात्म रोरववळिपत्रर्यरत्न लोरासराम्रुत पदवु एरडुवरे द्वीप तिरेय बरेद भूवलयद मूल न् लोकदष्टु भूवलय धरसिर्ध सिद्धान्कवलय करुणेयन् तिमद निर्देश हारदगर्द शिवलोक ऐरिद जनर निवासम् यरडरेयद मानुषगिरि त्रिसि कोट्टरुवन्क गिरि तेरस गुणवडर्दन्क तेरिनन्दद समवस्रुति रर पुण्यान्कद भूमि विरचित मागध शग्लि 497 ॥ १४० ॥ ।। १४१ ।। ।। १४२ ।। ॥१४३॥ ॥१४४॥ || १४५ ।। ॥१४६॥ सरिसलु मागध देव मरुकळिसिद श्रुत ज्ञान वारुणिसिद द्वादशान्ग दिरितन्द गोचर वत्ति णीरसान्नवे सुसान्न होरिगळुगळिल् लदल्लि ई रीति उणुवरन्नवनु सुरसान्न पाहुडववर्गे दरुशन प्राप्तिये नमगे परिहरिसिरुव शन्केगळ्गे ॥१५०॥ रिरिसिरुवन्क भूवलय चिरजीवि एन्द भूवलय १७३-२१४ ।। १४७ ।। ॥ १४८ ॥ ।। १४९ ।। ।। १५१ ।। ।।१५८ ।। ।। १५९ ।। ॥ १६०॥ ॥१६१॥ ।।१६२॥ ।।१६३॥ ॥१६४ ।। ॥१६५॥ ॥१६६॥ ॥ १६७ ॥ ।। १६८ ।। ।।१६९।। ।।१५२।। || १५३ || दाञागुडि इडे द्वादशान्जाउ || १७३।। णुञण व्रुद्धियक्रमदे ।। १५४ ।। 1189811 ।। १५५ ।। भूञ ' मञगल णिमित्त हेऊ' || १७५ ।। दाञगद 'परिणामम् णाम' ॥१५६॥ ॥१७६॥ 1124911 सञग 'तहय कत्तारम् वा' ।।१७७ ।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय ज्ञग ‘गरिय छप्पिपच्छा' ॥१७८॥ ञगल पाहुडदञम् वञग ‘वक्खाणुउ सत्थ' ॥१७९॥ भोजगणदिञगित मन्त्रम् स्ञग ‘माइरियो, इदिर ॥१८०॥ जगज सम्षार मन्त्रम् सञज्इ ‘णाय, माइरिय,परम्प' ॥१८१॥ वञगुणिताक्षदग' विञगित 'रागयम्' वरद ॥१८२॥ रिञगुव' अजित मिन्त्राञग काञग ‘मणीणावहारि' ॥१८३॥ णञगुवनादि, अनन्त वञगि ‘य,पुवाइरिया' ।।१८४॥ सुञज्ञ, आसुज्ञरुद्धार भोञद ‘याराणुसरणम्' ॥१८५।। लञगण, जीव, धर्मान्ग गञग कुलाधि तिरयण' ॥१८६॥ होञगिद, सर्वत्म, भूत बञगद ‘हेउत् ति पुप्फ' ॥१८७॥ विज्ञगिद, सर्व भाषान्ग जज ‘दन्ताइरियो' सो ॥१८८॥ हजगळिदिह दिव्य मन्त्र धागसु ‘मञगलादीणम्' ।।१८९।। जगिद शुद् धात्म रूप कञग ‘छण्णम् सकारणाणम्' ॥१९०॥ तञगळ हणणिमेयञग हाञगदली ‘परूवण'द ॥१९१। सञगातियोळगिह मन्त्र ऐञग ‘ट्टम् सुत्तमाह' दलि ॥१९२।। सञग मोवाञगशुद् धाञग यञग णमो, अरहनतआणम' ॥१९३।। २२०-२४३ जग णमो, सिद धआणम ॥१९४॥ तगलद अभव सिद्धियरु तेञ ‘णमो, त ईण इस आह ऊणम्॥१९५॥ म्उगिलोळु बरलागदवरु । सञग ‘णमो द ओण इध अम आणम् ।।१९६॥ भव्यर आश्रयरु सिञग’ ‘चत्तारिमञगम्' ॥१९७॥ यगणित वयभव युतवु वादि ‘सञगतभञगम्' ॥१९८॥ त्गल लागिदयदन्कवु 'इदि' को ॥१९९।। तगदेनलागदु जीवर् ॥२००॥ विगतदेहिगळ माडुवुदु ॥२२६॥ ॥२०१।। हगरणावळिवुदेनरिदे । ॥२२७॥ ॥२०२।। त् अगललक परदनक सिद्धि ॥२२८।। ॥२०३।। तगुवुदे अध् यात्म शुद्धि . ॥२२९।। ॥२०४॥ मइगिलाद नोट गोचरवु ॥२३०॥ ॥२०५।। दागुव समय पाहुडवु ॥२३॥ ॥२०६।। ऐगुण वुद्धियादन्त ॥२३२।। ॥२०७।। हगलु रारिगळिदिहुदु ॥२३३।। ॥२०८॥ म्अगळ सवन्दरियन् कमहिमे ॥२३४।। ॥२०९।। अगणीत बगेगळ भकुति ॥२३५।। ॥२१०।। पगेगळगेरुव प्रीति । ॥२३६॥ ॥२११।। पगेगळेल्लर हगेयळिगु ॥२३७।। ॥२१२।। णोगमद्रव्य जीवानक ॥२३८॥ ॥२१३।। सगुण वविध्य जिनाञग ॥२३९॥ ॥२१४॥ विगुर् वणियिन्द निर्मितवु ॥२४०।। हगुरवल्लद सूक्ष्म स्थूल ॥२४१।। ॥२२०॥ वेगवळिदु वेगशालि ॥२४२॥ ॥२२१।। णगधरवाद भूवलय ॥२४३॥ ॥२२२॥ २५२- २६४ । ॥२२३॥ जसद कीर्तिय शुभदन्त्य ॥२५२।। ॥२२४॥ दिशेयग्र सिद् धान्त मन्त्र ॥२५३।। ॥२२५।। दासरेयतिशय भद्र ॥२५४॥ 1498 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय - १. प्राकृत : (पक्ति की लंबाई में प्रथम अक्षर को जोड कर पढे तो आने वाला पद्य) सुदणाणस्स अवरणीयं सुदणाणावरणीयं। तत्थ सुदणाणं णाम इंदि ऐहि गहि दत्थादो तदो ॥ २. गीर्वाण : (नक्षत्र सहित वाले मोटे अक्षरों को जोड कर पढे तो आने वाला पद्य) दिव्य गीहि दिव्या अमानुषी गीर्वाणस्य । सदिव्य गीहि दिव्य ध्वनिहि दिव्यों मानुषो ध्वनिहि ॥ ३. तेलगु : (नक्षत्र सहित नीचे लकीर खिंचे 'अक्षरों को जोड कर पढे तो आने वाला पद्य) सकल भूवलय मुनुकु प्रभूषण प्रबुन्डु ॥ मन सुदणाणावरण क्षयकारणा मनि नेनु नमस्या (रंबू चेसि) ॥ ४. तमिल : (पक्ति के लंबाई में अंतिम नक्षत्र सहित मोटे अक्षरों को जोड कर पढे तो आने वाला पद्य) अघर मुदल एळत्तल्लाम आदिभगवन ॥ उलघुक्कु मुदल कुरुळ काव्यत्तिल ॥ पक्कान।। ५. अपभ्रंश : (वृतों में लिखे अक्षरों को जोड कर पढने पर मिलने वाला पद्य) वंदित्तु सव्वसिद्धे धुव मचलम अणोदमम ग इम्पत्ते।। वोच्छामि समयपाहुडम इ एमो सुय केवली भणीयं ।। 499 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि भूवलय) ६. शूरसेनी : (चोकोर खानों में लिखे अक्षरों को मिलाकर पढे तो आने वाला पद्य) जीवो चरित्त दंसण णाण ट्ठिउ तम्हि समय। जाण पुग्गल कम्मपदेस ट्ठियम च तम्म जाण परसमयम।। ७. अर्धमागधी : (उद्धरण चिन्हों के बीच नीचे लिखित प्रकार से लिखे अक्षरों को जोडकर पढने पर) णमो अरहन्ताणं णमो सिद्दाणं णमो अइरियाणं ॥ णमो उवज्झायाणं णमो कळो ऐ सव्व साहणां ॥ ८. मागधी : (उद्धरण चिन्ह के बीच नीचे लिखित प्रकार से लिखे अक्षरों को जोड कर पढने पर ) सिद्ध मणंत मणिदिय मणुवम मप्पत्ध सोक्ख मणावज्झम॥ केवल पहोह णिज्जिय दण्णय तिमिरं जिणं णमह ॥ ९. पालि : ( उद्धरण चिन्ह के बीच नीचे लिखित प्रकार से लिखे अक्षरों को जोड कर पढने पर) बारह अंगांगीजा वियलिय मल मूढ दंसणुत्तलिय ॥ विविह परचरण भूपा पसियवु सुयदे दया सु इरम।। = 500 500 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ संशोधक पंडित यल्लप्पा शास्त्री ग्रंथ संपादक श्री. कर्लमंगलं श्रीकंठय्या ग्रंथ प्रचारक कुमुदेंन्टु विरचित सिरी भूवलय कनड साहित्य का एक अपूर्व ग्रंथ है। मुनि वीर सेनाचार्य संत-प्राकृत भाषा मिश्रित सिद्धांत ग्रंथ षड्खंडागमधवला टीका सन्816 के आधार पर रचित अनन्य (एकमात्र) ग्रंथ है। अक्षर निष्ट पदपुंजो का प्रयोग किये बिना संख्या लिपि को अर्थात् केवल अंको का प्रयोग कर तैयार किया गया चमत्कारिक ग्रंथ है। पद्पुंजो में पहले साहित्य की रचना कर विशेष प्रक्रिया से अंक श्रेणियों में परिवर्तित किया गया लगता है, गणित शास्र के विविध गतियो का संयोगवाद ही ग्रंथ के प्राण है। यह64 अक्षरोऔर अंककेसहयोगसे निर्मित किया गया साहित्यसाम्रज्य है। सिरी भूवलय में संस्कृत-प्राकृत-कन्नड भाषा साहित्य के लिये उपयुक्त 64 मूल वर्णो के प्रतिरूप के लिये 64 अंको की योजना है। इन अंको को चौको खानों में अर्थात् (27x27x329 वर्ग) श्रेणियों के रूप में भरा गया है। इस तरह 1230 चक्रहम तक संरक्षित होकर आये हैं। इस पुस्तक के पन्नों चौको के अंदर अंको को,श्रेणियों को, पपुंज के रूप में परिवर्तित कर पढा ज य तो रथ का सहज रूप मध्य कन्नड भाषा के साहित्य छंदो के पद्य,अन्य विविध छंद पंक्तियाँ प्रकट होती हैं। इसी तरह निर्दिष्ट स्थान के अक्षरों को क्रमबद्ध रूप से पढा जाय तो प्राकृत, संस्कृतादि भाषा साहित्य का भी आविर्भाव होता है। प्रत्येक अध्याय के लिये एक-एक चक्र योजना के तहत नये-नये साहित्य के उद्भव का अवसर मिलता है। इतना ही नहीं 18 महाभाषाओं के साथ साथ 300 सामान्य भाषाओं में भी सहज गद्य साहित्य है इसे ग्रन्थ कर्ता ही बताते हैं। इस विश्वकोश सम 56 अध्यायों के अंक लिपि वाक्यों मे विविध विषयों का समावेश है।आर्षेय साहित्यरचना, भौतिक रसायनादि, मूल विज्ञान, रसवाद, ज्योतिष्य, इतिहास-संस्कृति, धर्म-दर्शन, लौहखगोल जलविज्ञान,अणुपरमाणु विज्ञान, वैद्य-गणित,शास्त्र-संप्रदाय,लिपि-भाषा,भाषा-बंध, चित्र आदि, इसतरह यहाँ विषय व्याप्ति बहुमुखी है। कर्ता ही स्वयंअपनी कृतिको चक्रबंध के बंधन में बाँधा गया विश्व काव्य कहते है। यह एक ज्ञान विज्ञानकोश है। सिरी भूवलय के अध्ययन का संशोधन व प्रसार 20 वी सदी के पूर्व भाग में प्रारंभ होकर निरंतर रूप से देशव्यापी तौर पर हो रहा है। इस दिशा में पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्लमंगलं श्रीकंठय्या, के अनंत सब्बाराव प्रथम प्रवर्तक है। उनक पांडित्य परिश्रम उल्लेखनीय है। फिर भी ग्रंथ का स्वरूप, विषय व्याप्ति, वस्तु विवरण भाषा वैलक्षण आदिअनेक स्तरो पर अज्ञात और अस्पष्ट ही है।आधुनिक अविष्कार गणक यंत्र की सहायता से वाचनऔर वाक्य संयोजन में सहायता मिलने की संभावना है। इस रीति से इस ग्रंथ के अध्ययनवसंशोधन,भाषा पंडितों के द्वारा विशेष रूपसे गणितज्ञो से, वैज्ञानिकरूपसे आगे बढे तो सही और उचित फल की आशा की जा सकती है। ऐसा फल, तब कत्रड प्रदेश के विद्वानों की बुद्धिमता को,लोकोपकारक ज्ञान के वैभवको, प्रकट करने में समर्थ होगा। _ग्रंथ कर्ता कुमुदेन्दु के बारे में विवरण स्पष्ट नहीं है। कुछ ऐतिहासिक साक्ष्याधारों को विश्लेषित करने की रीति से ग्रंथ लगभग आठवीं सदी में रचित जान पडता है। लेकिन भाषा शैली छंदादिलगभग सन् बाद 1150-1350 की अवधि के बोलचाल की मध्य कन्नडलगती है। कर्ता की हस्ताक्षर प्रति आज तक उपलब्ध नहीं है। अनिर्दिष्ट काल के कागज की प्रति में उपलब्ध अंक लिपि के चौकोर बंधो से अक्षरस्थ साहित्यको बाहर लाया गया है। नीलांबर दोळु होळेयुवा नक्षत्र / मालिन्यवागदवरेगे। शील वुतांग कोळु बान्दु जनरेल्ला / कालन जयीसलेलिसली अर्थात् आकाश में चमकने वाले नक्षत्रों के धुमिल होने तक सभी सद्पुरुषों के सत्कार्यों के द्वारा निरंतर प्रयत्न केजारीरहे। टी.वी. वेंकटाचल शास्त्री ISBN 978-81-903572-4-1. श्री. के. अनंत सुब्बाराव ग्रंथ प्रति संरक्षक श्री. एम.वाय. धर्मपाल पुस्तक 97881903572414 Siri Bhoovalaya Hin. Vol (9)